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________________ १०८ ] कविवर वृन्दावन विरचित NNN रागादि विभाव क्रिया अफल न होय कहूं, याको फल चारों गतिमाहिं भरमन है ॥ जैसे परमानू रूछ चीकन सुभावहीसों, ___बंध खंधमाहिं तैसे जानो जगजन है । जाते वीतराग आतमीक पर्म धर्म सो तो, बंधफलसों रहित तिहुँकाल धन है ॥ ८९ ॥ (२५) गा.-११७ मनुष्यादि पर्यायें जीवको क्रियाके फल नाम कर्म आपनै सुभावसों चिदातमाके, ___ सहज सुभावको आच्छाद करि लेत, है । नर तिरजंच नरकौर देवगतिमाहि, ___ नाना परकार काय सोई निरमेत है ॥ जैसे दीप अगनिसुभावकरि तेलको सु-, __भाव दूर करिके प्रकाशित धरेत है। ज्ञानावरनादिकर्म जीवको सुभाव घाति, मनुण्यादि परजाय तैसे ही करेत है ॥९० ॥ (२६) गाथा-११८ जीवस्वभावका घात कैसे ? नामकर्म निश्चे यह जीवको मनुष्य पशु. नारकी सु देवरूप देहको बनावै है । तहां कर्मरूप उपयोग परिनवै जीव, ___ सहज सुमाव शुद्ध कहूँ न लहावै है ॥ . जैसे जल नीम चंदनादि-माहिं गयौ सो __ प्रदेश और स्वाद निज दोनों न गहावै है । । नरक और । २ निर्माण करता है, बनाना है ३ करता है।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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