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प्रवचनसार
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तैसे कमभाव परिनयौ जीव अमूरत,
चिदानंद वीतराग भाव नाहिं पावै है ॥९१ ॥ (२७) गाथा-११९ द्रव्यरूपसे अवस्थितपना होने पर
भी पर्यायसे अनवस्थितपना ।
छप्पय । इमि संसारमझार, दरवके द्वार जु देखा । तौ कोऊ नहिं नसत, न उपजत यही विशेखा ॥ जो परजै उतपाद होत, सोई वय हो है ।
उतपत वयकी दशा, विविध परजयमें सोहै ॥ धुव दरव स्वांग बहु धारिके, गत गतमें नाचत विगत । परजयअधार निरधार यह, दरव एक निजरस पगत ॥९२ ॥
(२८) गाथा-१२० अनवस्थितताका हेतु । तिस कारन संसारमाहिं, थिर दशा न कोई । अथिररूप परजैसुभाव, चहुंगतिमें होई ॥ दरवनिकी संपरन क्रिया, संसार कहावै । एक दशाको त्यागि, दुतिय जो दशा गहावै ॥ या विधि अनादित जगतमें, तन धरि चेतन भमत है । निज चिदानंद चिद्रूपके, ज्ञान भये दुख दमत है ॥९३ ॥
विशेषवर्णन-मनहरण । ताहीत जगतमाहिं ऐसो कोऊ काय नाहिं, ___जाको अवधारि जीव एक रूप रहैगो । याको तो सुभाव है अथिररूप सदाहीको,
ऐसे सरधान धरै मिथ्यामत बहँगो ॥