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________________ प्रवचनसार [ १०९ तैसे कमभाव परिनयौ जीव अमूरत, चिदानंद वीतराग भाव नाहिं पावै है ॥९१ ॥ (२७) गाथा-११९ द्रव्यरूपसे अवस्थितपना होने पर भी पर्यायसे अनवस्थितपना । छप्पय । इमि संसारमझार, दरवके द्वार जु देखा । तौ कोऊ नहिं नसत, न उपजत यही विशेखा ॥ जो परजै उतपाद होत, सोई वय हो है । उतपत वयकी दशा, विविध परजयमें सोहै ॥ धुव दरव स्वांग बहु धारिके, गत गतमें नाचत विगत । परजयअधार निरधार यह, दरव एक निजरस पगत ॥९२ ॥ (२८) गाथा-१२० अनवस्थितताका हेतु । तिस कारन संसारमाहिं, थिर दशा न कोई । अथिररूप परजैसुभाव, चहुंगतिमें होई ॥ दरवनिकी संपरन क्रिया, संसार कहावै । एक दशाको त्यागि, दुतिय जो दशा गहावै ॥ या विधि अनादित जगतमें, तन धरि चेतन भमत है । निज चिदानंद चिद्रूपके, ज्ञान भये दुख दमत है ॥९३ ॥ विशेषवर्णन-मनहरण । ताहीत जगतमाहिं ऐसो कोऊ काय नाहिं, ___जाको अवधारि जीव एक रूप रहैगो । याको तो सुभाव है अथिररूप सदाहीको, ऐसे सरधान धरै मिथ्यामत बहँगो ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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