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________________ २०० ] फविवर वृन्दावन विरचित निज शुद्धातमतत्त्वकी, निहि विधि जाने सिद्ध । सोई चरिया आचरे, अनेकांतके वृद्ध ॥१४६॥ अरु जे कोमल आचरन, आचरहीं अनगार । पुनि निज शकति लखि, करहिं कठिन आचार ॥१४७।। मभंग न होय जिमि, रहें मूलगुन -संग । रातममें थिति बढ़े, सोइ मग चलहि अभंग ।१४८ । उन क्रिया उतसर्गमग, कोमलमग अपवाद । " मग पग धारही, सुमुनि सहित मरजाद ॥१४९।। जैसी तनकी दशा, देखहिं मुनि निरग्रंथ । तैसी चरिया चरै, सहित मूलगुन पंथ ॥१५०॥ दोनों मगके विपैं, होय विरोध प्रकास । मुनिमारग नहिं चलें, समुझो वुद्धिविलाप्त ॥१५॥ । दोनों पगसों चलत, मारग कटत अमान । दोनों मग पग धरत, मिलत वृन्द शिवथान ॥१५२ । ..., गाथा-२३१ उत्सर्ग अपवादके विरोध (अमैत्री)से आचरणकी दुःस्थिरता होती है। मनहरण । नानाभांति देशको सुभाव पहिचानि पुनि, शीतग्रीषमादिरितु ताइको परखिकै । तथा कालजनित सु खेदहूको वेदि औ, उपासकी शकति वन्द ताहूको निरखिके ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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