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________________ प्रवचनसार [ २२५ दोहा । तातै गहि भवि वृन्द अब, अनेकान्तको सनं । ताहीके अनुसार करि, शुभपयोग आचन ॥ ३९ ॥ ताको फल साच्छात लहि, पुन्यरूप सुखवृन्द । परम्परासों मोखपद, पैहै आनन्दकन्द ॥ ४० ॥ (१३) गाथा-२५७ मिथ्यादृष्टिको सर्वज्ञ कथित पदार्थों में कारणविपरीतता और फल विपरीतता । मनहरण । शुद्ध परमातम पदारथको जानै नाहिं, ऐसे जे अज्ञानी जीव जगमें वखाने हैं । नाके उर विषय कपाय भूरि भरि रह्यो, ऐसे जगजंतको जे गुरुकरि माने हैं ॥ तिन्हें भक्ति भावसेती सेवें अति प्रीति धारि, आहारादि दान दे हरप हिय आने हैं । ताको फल भोग सो कुदेव कुमनुप होय, सै जग जालमें सो मूरख अयाने हैं ॥४१॥ आतमीक ज्ञान वीतराग भाव जाके नाहिं, तथा याकी कथा हू न रुचै रंच भरी है । मिथ्यामत माते नित विषय कपाय राते, ऐसेको जो गुरू मानि सेवै प्रीति धरी है ॥ आहारादि दान है प्रधान पद माने निज, जाने मूढ़ सही मोहि यही निसतरी है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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