________________
पीठिका
नमों देव अरहंतको, सहित अनन्त चतुष्ट । दोष रहित जो मोक्ष-मग, भाखि करत सुख पुष्ट ॥ ३ ॥ आचारज उवझाय मुनि, तीनों सुगुरु मनाय । शिवमग साधत जतनजुत, बंदों मनवचकाय |॥ ४ ॥ सीमंधरको आदि जे, तीर्थकर जिन वीस । अब विदेहमें हैं तिन्हैं, नमों समवसृतईश ॥ ५ ॥ वानी खिरत त्रिकाल जसु, सुनहिं सकल चहुँसंग । केई मुनिव्रत अनुव्रत, धारहिं पुलकित अंग ॥ ६ ॥ केई सहज सुभावमें, लीन होय मुनिवृन्द ।। तीनों जोग निरोधिके, पावै सहजानन्द ॥ ७ ॥ वृषभादिक चौवीस जे, वर्तमान तीर्थेश । तिनको बंदत वृंद अब, मेटो कुमति फलेश ॥ ८॥. वृषभसैनको आदि जे, अतिम गौतमस्वामि । चौदहसै त्रेपन सुगुरु, गणधरदेव नमामि ॥९॥ अनेकान्तवानी नमों, वर्जित सकल विरोध । वस्तु जथारथ सिद्धिकर, डारत मन-मल शोध ॥ १० ॥ जोई केवलज्ञान है, स्यादवाद है सोय । भेद प्रत्यक्ष परोक्षको, वरतत है भ्रम खोय ॥ ११ ॥ वस्तु अनंत धरममयी, स्याद्वादके रूप ।
सो इकंत सों सघत नहि, यों भाखी जिनभूप ॥ १२ ॥ . . जेते. धरम तिते पृथक्, गहें अपेक्षा सिद्ध ।
रहित अपेक्षा सपत नहिं, होत विरुद्ध असिद्ध ॥ १३ ॥