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प्रवचनसार
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ज्यों संजमरच्छा बनत, त्यों ही करहिं मुनीश । देशकालवपु देखिक, साहिं शुद्ध सुईश ॥१७३॥ पूरव जे मुनिवर भये, ते निजदशा निहार । दोनों मगकी भूमिमें, गमन किये सुविचार ॥१७॥ पीछे परमुतकिष्ट पद, ताहि ध्याय मुनिराय । क्रियाकांड तैं रहित है, शुद्धातम लव लाय ॥१७५|| निज चैतन्यस्वरूप जो, है सामान्य विशेष । ताहीमें थिर होयके, भये शुद्ध सिद्धेश ॥१७६।। जो या विधिसों और मुनि, है सुरूपमें गुप्त । सो निजज्ञानानंद लहि, करै करमको लुप्त ॥१७७॥ यह आचारसुविधि परम, पूरन भयौ अमंद । मुनिमगको सो जयति जय, वंदत वृन्द जिनिंद ॥१७८॥
अधिकारान्तमंगल । मंगलदायक परमगुरु, श्रीसरवज्ञ जिनिंद । वृन्दावन वंदन करत, करो सदा आनंद ॥१७९।।
इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी वृन्दावन अग्रवाल काशीवासीकृत भाषावि आचारविधिचारित्राधिकार नामा सातवा अधिकार सम्पूरन भया ।
मिति पौष शुक्ल अष्टमी ८ मंगलवार सं. १९०५ पांच काशीमध्ये निजहस्ते लिखितं वृन्दावनेन स्वपरोपकाराय । इहां ताई सर्वगाथा २३२ अर भाषाके सर्व छंद ९०६ नबसे छह सो जयवंत होहु । श्रीरस्तु मंगलमस्तु ।।
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