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________________ प्रवचनसार [ २३९ अथ कवि व्यवस्था लिख्यते । छप्पय । यगरवाल कुल गोल, गोत वृन्दावन धरमी । घरमचन्द जसु पिता, शिताबो माता परमी ॥ तिन निजमतिमित वाल, ख्याल सम छन्द बनाये । काशी नगर मंझार, सुपर हित हेत सुभाये ॥ प्रिय उदयराज उपगारतें, अब रचना पूरन भई । होनाधिक सोधि सुधारियौ, जे सज्जन समरसमई ॥१०॥ मनहरण । वाराणसी आरा ताके वीच वसै वारा, सुरसरिके किनारा तहां जनम हमारा है । ठार अड़ताल माघ सेत चौदै सोम पुष्य, कन्या लग्न भानुअंश सत्ताइस धारा है ॥ साठेमाहि काशी आये तहां सतमंग पाये, जैनधर्ममर्म लहि भर्म भाव हारा है । सैली सुखदाई भाई काशीनाथ आदि जहाँ, मध्यातमवानीकी अखण्ड बहै धारा है ॥११०॥ छप्पय । प्रथमहिं आढ़तराम, दया मोपै चित लाये । सेठी श्री सुखलालजीयसों, आनि मिलाये ॥ तिनपै श्री जिनधर्ममर्म, हमने पहिचाने । पीछे वकमूलाल मिले, मोहि मित्र सयाने ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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