SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ ] कविवर वृन्दावन विरचित जद्यपि संज्ञा संख्यादित, भेद प्रयोजनक्श कहा । तद्यपि प्रदेशते मेद नहिं, एक पिंड चेतन महा ॥१५०॥ मनहरण । जैसे घसिहारो घास काट लोह दांतलेसों, तहां करतार क्रिश साधन नियाग़ है । तैसे आतमावि न मेद है त्रिभेदरूप, यहाँ तो प्रदेशतें अमेद निराधारा है ॥ संज्ञा संख्या लच्छन प्रयोजन वस्तुको, अनन्तधर्मरूप सिद्ध साधन उचारा है । गुणी गुणमाहिं जो सरवथा विमेद माने, तहां तो प्रतच्छ दोष लागत अपारा है ॥ १५१ ॥ मत्तगयन्द। १ आतमको गुन ज्ञानते मिन्न, वखानत हैं केई मृट्ट अभागे । है दो विधि बात कहो तिनसों, वह ज्ञान विराजत है किहि जागे । हैं जो जड़ों गुन ज्ञान बसै, तब तो जड़ चेतनता-पढ़ पागे । जीवहिमें जो बसै गुन ज्ञान, तो क्यों तुम गाल बजावन लागे ॥१५२॥ । मनहरण । जैसे आग दाहक-क्रियाको करतार ताको, उप्णगुन दाहक-क्रियाको सिद्ध करे है । तैसे आतमाकी क्रिया ज्ञायकसुभाव तासु, ज्ञानगुन साधन प्रधानता आचरै है ॥ विवहार दिष्टते विशिष्ट है विभेदं वृन्द, निहचै सुदिष्टसों अमेद मुधा झरै है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy