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________________ २१० ] - कविवर वृन्दावन विरचित तत्त्वनिमें रुचि परतीति जो न आई तो धौं, कहा सिद्ध होत कीन्हें आगम पठापठी । तथा परतीति प्रीति तत्त्वहूमें आई पै न, त्यागे राग दोष तौ तो होत है गठागठी ॥ तबै मोखसुख वृन्द पाय है कदापि नाहिं, तातें तीनों शुद्ध गहु छांडिके हठाहठी । जो तू इन तीन विन मोखसुख चाहै तौ तो, सूत न कपास करै कोरीसों लठालठी ॥३७॥ (७) गाथा-२३८ तीनोंका युगपतपना होनेपर भी आत्मज्ञान (निर्विकल्प ज्ञान) मोक्षमार्गका साधक है। आपने सुरूपको न ज्ञान सरधान जाके, ऐसो जो अज्ञानी ताकी दशा दरसावै है । जितने करमको सो विवहार धर्मकरि, शत वा सहस्र कोटि जन्ममें खिपावै है ॥ तिते कर्मको सु आपरूपमें सुलीन होय, ज्ञानी एक स्वासमात्र कालमें जलाव है । ऐसो परधान शुद्ध आतमीकज्ञान जानि, वृन्दावन ताके हेत उद्यमी रहाँव है ॥३८॥ जाके शुद्ध सहज सुरूपको न ज्ञान भयौ, और वह आगमको अच्छर रटतु है । ताके अनुसार सो पदारथको जाने, सरधान औ ममत्त लिये क्रियाको अटतु है ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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