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________________ प्रवचनसार [२०९ आगमज्ञान सु पुत्र जहँ, होय नहीं सरधान । तहां न संजम संभवै, यह अबाध परमान ॥ ३२ ।। जाके संजम होय नहिं, तब मुनिपद किमि होय । शिवमग दूजो नाम जसु, देखो घटमें 'टोय ॥ ३३ ॥ तातें आगमज्ञान अरु, तत्वारथसरधान । संजम भाव इकत्र जब, तबहिं मोखमग जान ॥ ३४ ॥ माधवी । है जिन आगममें नित सात सुभंगकी, वृन्द अभंग धुजा फहरावै । जिसको लखिके मुनि भेदविज्ञानि, सुसंजमसंजुत मोच्छ सिधावै । तिहिको तजिके जो सुछन्दमती, अति खेद करै हठसों बहु धावै । है वह त्यागिके सीखसुधारसको, नित ओसके बून्दसों प्यास बुझावै ॥३५॥ (६) गाथा-२३७ तीनोंकी एकता नहीं है उसे मोक्षमार्ग नहीं। मनहरण । आगम ही जानै कहो कहा सिद्धि होत जो न, - आपापरमाहिं सरधान शुद्ध आय है । तथा सरधान हूँ पदारथमें आयौ तो, असंजमदशासों कहो कैसे मोख पाय है ॥ याहीतैं जिनागमतें सुपरपदारथको, ___ सत्यारथ जानि सरधान दिढ़ लाय है । फेरि शुद्ध संजमसुभावमें सुथिर होय, ___ सोई चिदानन्द वृन्द मोक्षको सिधाय है ॥३६॥ १. खोजके ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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