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________________ ७४ ] कविवर वृन्दावन विरचित ऐसे द्रव्य गुन परजाय अरहंतजूको, . प्रथम अपाने. मनमाहिं अवधारै है । पीछे निज आतमको ताही भांति जानिकै, ___ अभेदरूप अनुभव दशा विसतारै है ॥ त्रिकालके जेते परजाय गुन आतमाके, तेते एके कालमाहिं ध्यावत उदौर है । ऐसे जब ध्याता होय ध्यावै निज आतमाको, वृन्दावन सोई मोह कर्मको विदारै है ॥२५ ।। जैसे कोऊ मोतिनिको हार उर धोरै ताको, ___ भेद छांडि शोभाको अभेद सुख लेत है । तैसे अरहंतके समान जान आपरूप, __ अभेद सरूप अनुभवत सचेत है ॥ चेतना परजके प्रवाहतें अभेद ध्यावे, तथा चित्प्रकाशगुनहको गोपि देत है ॥ केवल अभेद आतमीक सुख वेदै तहां, करता करम क्रिया भेद न धरेत है ॥२६॥ जैसें चोखे रत्नको अकप निर्मल प्रकाश, तैसे चित्प्रकाश तहाँ निश्चल लहत है। जब ऐसी होत है अवस्था तब भेद छेद, चेतनता मात्र ही सुभावको गहत है ॥ मोह अंधकार तहां रहै कौनके अधार, ___ भानुको उजास तथा तिमिर दहत है । यही है उपाय मोह बाहिनीके जीतिबेको, वृन्दावन ताको शरनागत चहत है ॥२७॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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