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________________ प्रवचनसार [७७ एक मोह त्रिविध त्रिकंटक सुभाव धेरै, झूठी वस्तु सांची दरसाव जथा सपना ।। ३५।। (१६) गाथा-८४ तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण मानकर क्षय करनेका कहा जाता है। पट्पद । मोह भावकरि तथा, राग अरु दोष भावकर । जब प्रनयत है जीव, तबहि बंधन लहंत तर ॥ विविधांतिके भेद, तासु बंधनके भाखे । जाके पल संसार, चतुर्गतिमें दुख चाखे । तात मोहादि त्रिभावकों, सत्तासों अब छय करौ । है जोग यही उपदेश सुनि, भविक वृन्द निज उर धरौ ॥ ३६॥ पुनः । दृष्टान्त । जथा मोहकरि अध, वनज गज मत्त होत जब । आलिंगन जुतप्रीति, करिनिको धाय करत तब ॥ तहां और गज देखि, द्वेषकरि सनमुखधावत । तृणादित तब कृपमाहिं, परि संकट पावत || यह मोह गग अरु द्वेष पुनि, बंध दशाको प्रगट फल । गजपर निहारि निजपरपाखि, तनहु त्रिकंटक मोह मल ।। ३७ ॥ दोहा । तांति इस उपदेशको, सुनो मूल सिद्धंत । मोह राग अरु द्वेषको, करौ भली विधि अंत |॥ ३८ ॥ १. जंगली हाथी । २. हस्तिनी ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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