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प्रवचनसार
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एक मोह त्रिविध त्रिकंटक सुभाव धेरै,
झूठी वस्तु सांची दरसाव जथा सपना ।। ३५।। (१६) गाथा-८४ तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण मानकर क्षय करनेका
कहा जाता है।
पट्पद ।
मोह भावकरि तथा, राग अरु दोष भावकर । जब प्रनयत है जीव, तबहि बंधन लहंत तर ॥ विविधांतिके भेद, तासु बंधनके भाखे । जाके पल संसार, चतुर्गतिमें दुख चाखे । तात मोहादि त्रिभावकों, सत्तासों अब छय करौ । है जोग यही उपदेश सुनि, भविक वृन्द निज उर धरौ ॥ ३६॥
पुनः । दृष्टान्त । जथा मोहकरि अध, वनज गज मत्त होत जब । आलिंगन जुतप्रीति, करिनिको धाय करत तब ॥ तहां और गज देखि, द्वेषकरि सनमुखधावत । तृणादित तब कृपमाहिं, परि संकट पावत || यह मोह गग अरु द्वेष पुनि, बंध दशाको प्रगट फल । गजपर निहारि निजपरपाखि, तनहु त्रिकंटक मोह मल ।। ३७ ॥
दोहा । तांति इस उपदेशको, सुनो मूल सिद्धंत ।
मोह राग अरु द्वेषको, करौ भली विधि अंत |॥ ३८ ॥ १. जंगली हाथी । २. हस्तिनी ।