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________________ प्रवचनसार [२५ nrmmmmmomaasaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa लक्ष्मीधरा। आप ही आपतें आपको साधता, औरकी नाहि, आधार आराधता । नाम निश्चै यही सत्य है सासता, स्यादवादी विना कौनको भासता ॥ ६१ ॥ षट्पद । ज्यों माटी करतार, सहज सत्ता प्रमानमय । अपने घट परिनाम, करमको आप करत हय ॥ आपहि अपने कुम्भकरनको, साधन हो है । आप होय घट कर्म, आपको देत सु सोहै । आप ही अवस्था पूर्वकी, त्यागि होत घटरूप चट । अपने अधार करि आप ही, होत प्रगट घटरूप ठट ॥ ६२ ॥ सहज सकति स्वाधीन, सहिंत करतार जीव ध्रुव । करत शुद्ध सरवंग, आपको यही करम हुव ।। निज परनतिकरि करत, आपको शुद्ध करन तित । सो गुन आपहि आप, देत यह संप्रदान हित । तजि समल विमल आपहि वनत, अपादान तब उर धरन । करि निजाधार निजगुन अमल, तहां आप सो अधिकरन ॥६३ ॥ - चौबोला। जब संसार दशा तज चेतन, शुद्धपयोग स्वभाव गहै तब आपहि पट्कारकमय है, केवलपद परकाश लहै ।। तहां स्वयंम् आप कहावत, सकल शक्ति निज व्यक्त अहै । चिद्विलास आनन्दकन्द पद, वंदि वृन्द दुखद्वंद दहै ॥ ६४ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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