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ॐ अहे नमः समीहितदायकाय नवपदमय श्रीसिद्धचक्राय नमः मरिचक्रचक्रवत्ति आचार्य महाराजश्री
विजयनेमिसूरीश्वरेभ्यो नमः
नवपदमय श्रीसिद्धचक्राराधनविधि
विगेरे संग्रह
संयोजक सिद्धान्तवाचस्पति न्यायविशारद श्रीमान् विजयोदयसरि
प्रकाशक ठिवये माणकलालभाइ मनसुखभाइ.
अमदावाद
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KIRGANLI abitanti enyUD - LIRANA na alamennyi - Jalan AmmA . BINTANNAHULE
॥ॐ अहं नमः॥ ॥सर्वसमीहितदायकाय नवपदमयश्रीसिद्धचक्राय नमः ॥ सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-मरिचक्रचक्रवर्ति-शासनसम्राट-तपागच्छा.
धिपति-जगद्गुरु-भट्टारकाचार्य श्रीमद्विजयनेमिसूरिभगवद्भयो नमः
नवपदमय श्रीसिद्धचक्राराधन विधि विगेरे संग्रहः॥
सयोजक
DalWHATIRITHILI
संयोजक : स्वपरसमयपारावारपारीण-सरिचक्रचक्रवर्ति-शासनसम्रादतपागच्छाधिराजआचार्यमहाराज श्रीमान् विजयनेमिसूरीश्वरपट्टालङ्कार सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद -
आचार्य श्रीमान् विजयोदयसूरिः सद्धर्मकर्मधुरीण श्रेष्ठिवर्य मनसुखभाइ भगुभाइना सुपुत्र वीतरागैकधर्मनिष्ठ श्रेष्ठिवर्य माणेकलालभाइए स्वद्रव्यव्ययथी श्रीसिद्धचक्रजीनुं आराधन करनार भाइ-व्हेनोना उपयोगसारु श्री जैन
___ ग्रंथप्रकाशक सभाद्वारा छपावी प्रगट कर्यो.
प्रत ३००० ] अमूल्य [प्रथमावृत्ति SIMATI POD LUCRAREA AD - Thilltowalu PB OLUNANLAD - TRUEHRANI BURUNUHANG
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आ बुक अमदावाद घीकांटा जेशंगभाइनी वाडीमा आवेला जैन एडवोकेट प्रीन्टींग प्रेसमां वाडीलाल बापुलाल शाहे छापी.
क्षमाल्यर्थना.
__ आ 'विधि विगेरे संग्रह'नो ग्रन्थ फक्त एकज मासमा आयंबिलनी ओळी ऊपर तैयार करवानो होवाथी पाछळना केटलाक विषयो, स्तवनो चैत्यवंदनो, सझायो विगैरे भागना ग्रुफो खंभात चतुर्मास बीराजता “परमपूज्य सिद्धान्त वाचस्पति न्यायविशारद आचार्य महाराज श्रीमान् विजयोदय सूरीश्वरजी महाराजश्री'ने मोकलवानो उतावळने ली टाइम न होवाथीं प्रुफो अहींज सुधारेला होवाथी मुद्रण दोषथी या दृष्टि दोषथी जे काइ अशुद्धि रही होय ते सुज्ञ पुरुषो सुधारी वांचशो तेवी नम्र विनन्ति छे.
ली० श्री जैनग्रन्थप्रकाशक सभाना
सेक्रेटरी.
-
छापबा छपाववा विगेरे सर्व हक्क प्रकाशके स्वाधीन राख्या छ
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શેઠ ઉમેદભાઈ ભુરાભાઈ
ઠે. શાહપુર, અમદાવાદ
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आमुख हैं
शास्त्रे भक्तिर्जगद्वन्यै- मुक्तेर्दूती परोदिता ॥ अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्त्यासन्नभावतः ॥ १॥ यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः ॥ उन्मत्तगुणतुल्यत्वा-न्न प्रशंसास्पदं सताम् ॥२॥ पापामयौषधं शास्त्रं, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् ॥ चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधकम् ॥३॥
श्री जगद्वन्द्य तीर्थंकर भगवंतोए शास्त्रमां भक्ति राखवी मुक्तिनी मोटामां मोटी दूती कही छे, माटे मुक्तिप्राप्तिने नजीकपणुं लावनार होवाथी मुक्तिमार्गमां शास्त्रभक्ति ए ज उचित छे. ॥१॥
जेने शास्त्र प्रत्ये अनादर छे, तेना श्रद्धा विगेरे गुणो उन्मत्तगुण तुल्य होवाथी सत्पुरुषोने प्रशंसानुं स्थान नथी. ॥ २ ॥
शास्त्र ए पापरोगनुं औषध छे, शास्त्र ए पुण्यनुं कारण छे. शास्त्र ए सर्वव्यापि नेत्र छे अने शास्त्र ए सर्व अर्थनी सिद्धि करनार छे. ॥३॥
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श्री
॥ आत्म रक्षाकर ॥
॥श्री वज्रपञ्जरस्तोत्र ॥ परमेष्ठिनमस्कारं, सारं नवपदात्मकम् । आत्मरक्षाकरं वज्र,-पञ्जराभं स्मराम्यहम् ॥१॥ ॐ नमो अरिहंताणं,शिरस्कं शिरसि स्थितम् ,, नमो सिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् ॥ २॥ ,, नमो आयरियाणं, अङ्गरक्षातिशायिनी। ,, नमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोदृढम् ॥३॥ ,, नमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोःशुभे
एसो पञ्चनमुक्कारो, शिला वज्रमयी तले ॥४॥ __ श्री नवपद स्वरूप आत्मानी रक्षा करनार अने वज्रना पंजर तुल्य श्रीजिनशासनना सार रूप श्री पंचपरमेष्ठि नमस्कारनुं हुं स्मरण करूं छु-१
'ओं नमो अरिहंताणं' ए पद मस्तकपर रहेला मुकुट सदृश छे. 'ओं नमो सिद्धाणं' ए पद मुख उपर श्रेष्ठ मुखपट समान छे.२ 'ओं नमो आयरियाण' ए पद अतिशयवाळी अंगरक्षा रूप छे.
‘ओं नमो उवज्झायाणं ' ए पद बे हस्तने विषे दृढ शस्त्र समान छे. ३ ____ 'ओं नमो लोए सव्वसाहूणं' ए पदः बन्ने पगनी रक्षा करनार शुभ मोजडीरूप छे.
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'एसो पंच नमुक्कारो' (आ पंचपरमेष्ठि नमस्कार ) ए पद नीचे तलीयामां वज्रमय शिलारूप छे. ४
सव्वपावप्पणासणो; वप्रो वनमयो बहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं, खादिराङ्गारखातिका ॥५॥ खाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मंगलं'। वप्रोपरि वज्रमयं, प्रधानं देहरक्षणम् ॥ ६ ॥ महाप्रभावा रक्षेयं, कुद्रोपद्रवनाशिनी। परमेष्ठिपदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ॥७॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्ठिपदैः सदा (ह)। तस्य न स्याभयं व्याधि-राधिश्चापि कदाचन ॥८॥
'सव्वपावप्पणासणो' ए पद बहार फरता ( चोमेर )वज्रमय किल्लारूप छे.
'मंगलाणं च सव्वेसि ए पद किल्ला फरती खेरना अंगारावाळी खाइ रूप छे. ५ ___ 'पढमं हवइ मंगलं ' ए पद किल्ला उपर रहेलु मुख्य वज्रमय शरीरना रक्षणरूप छे. सर्व पदोमां 'स्वाहा' पद अन्ते जोडी अंग रक्षा करवी. ६ __पंचपरमोष्ठ पदोथी उत्पन्न थयेली, क्षुद्र उपद्रवोनो नाश करनारी, पूर्वाचार्य भगवंतोए बतावेली आ 'आत्मरक्षा' महा प्रभाव वाली छे.
जे माणस हमेशां पंचपरमेष्ठि पदोए (सहित) आ प्रमाणे आत्मरक्षा करे छे तेने कोइ दिवस पण भय, व्याधि ( शारीरिक पीडा) अने आधि (मानसिक पीडा) कांइ पण थतुं नथी. ८
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नवपद अंक
१
८
जाप पद.
C
ओ ही नमो आयरियाणं
ओ ही नमो उवज्झायाणं
५ औँ हाँ नमो लोएस साहूणं
६ औं ही नमो दंसणस्स
९
ओ ही नमो अरिहंताणं
ओ ही नमो सिद्धाणं ||
॥ श्री सिद्धचक्राराधन
खमा- प्रद. स्व
स्तिक संख्या.
१२
३६
२५
२७
६७
५१
७०
काउसग्ग
प्रमाण.
५०
१२
लोगस्स
३६
२५
२७
६७
५१
७०
गुणणु संख्या जाप प्रमाण.
ँ
ओ ही नमो नाणस्स
ओ ही नमो चारित्तस्स
ओ ही नमो तस्स
टंक प्रतिक्रमण, नव चैत्यवंन्दन, त्रिकाळ पूजन, गुरुवन्दन,
५०
२०००
२० नवका०
२०००
२०००
२०००
२०००
२०००
२०००
२०००
२०००
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विधि बीजकयन्त्र ॥
प्रकारान्तरे (१३००० अपे
falafe (kell's
१२००
८००
३६००
२५००
२७००
५००
५००
संख्या.
देववन्दन.
पडिलहण.
वर्ण.
त्रण टंक २ टंक श्वेत
[घोळो]
३ टंक २ टंक रक्त
३ टंक
[पीळो]
३ टंक २ टंक नील
[लीलो]
३ टंक
३ टंक
३ टंक
(धोळो)
३ टंक २ टंक श्वेत
(घोळी)
३ टक
[लाल]
२ टंक पीत
२ टंक श्याम
[काळो] २ टंक श्वेत
(धोळा)
१००० वा
६००
२०० वा ६००
विगेरे विस्तार विधि आगळ बतावाशे.
२ टंक श्वेत
२ टंक श्वेत
[धोळो]
वर्णानुसार आयंविनुं
द्रव्य
चोखा
घ ं
चण्या
मग
अडद
चोखा
चोखा
चोखा
चोखा
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अनुक्रमणिका.
१६-१८ १९
विषय. १ मंगलाचरण. २ नवपदमाहात्म्यविचार. ३ अनुष्ठानमां विधिनुं माहात्म्य. ४ सर्वक्रियाओमां राखq जोइतुं सावधानपणुं. ५ क्रियानो बाह्य शरीरोपयोग. ६ पुस्तक वांचता राखवो जोइतो उपयोग. ७ प्रतिक्रमण विगेरे क्रियामा राखवो जोइतो
उपयोग तथा साचववानो विधि. ८ आराधनाना दिवसोनो विचार-कालरहस्य.. ९ आराधक भव्य जीवोनुं प्रारंभकृत्य. १० आराधक जीवोनुं अधिकारीपणुं. ११ प्रथम दिवसनो कर्त्तव्यविधि. १२ गुणोनुं स्मरण करवा साथे प्रदक्षिणा पूर्वक
खमासमण. १३ खमासमण देवानो विधि. १४ बार गुणगर्भित नमस्कार पदो तथा तेनी अर्थ
विचारणा. १५ काउसग्ग विधि
२०-२४ २५-२६ २७
३५-३९
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१६ नवचैत्यवन्दन विधि.
१७ मुद्राओनो उपयोग.
ያ
१८ गुरुवन्दन, व्याख्यानश्रवण, प्रत्याख्यानग्रहण
विधि.
१९ पच्चख्खाण पारवानो विधि २० शेषकाळनुं कर्त्तव्य.
२१ सिद्धपदाराधन बीजा दिवसनुं कर्त्तव्य. २२ सिद्धभगवंतना गुणोनो विचार तथा सिद्धपदना ८ गुणो.
२३ सिद्धना ८ गुणगर्भित नमस्कारपदो तथा तेना अर्थ.
२८ साधुपदाराधन पंचम दिवसनुं कर्तव्य. २९ साधुपदना २७ गुणगर्भित नमस्कार पदो तथा सेना अर्थ
४३-४६:
४६
३० दर्शन पदाराधन छठ्ठा दिवसनुं कर्त्तव्य. ३१ दर्शनपदना ६७ भेदगर्भित नमस्कार पदो तथा तेना अर्थ
४७-५०
५० -५३
५४
५६
५९-६२
६३
२४ आचार्य पदाराधन त्रीजा दिवसनुं कर्त्तव्य. २५ आचार्यपदना ३६ नमस्कार पदो तथा तेना अथ २६ उपाध्याय पदाराधन चतुर्थ दिवसनुं कर्त्तव्य २७ उपाध्याय पदना २५ गुणगर्भित नमस्कार पदो तथा तेना अर्थ
५७
७५-८३
८४
८६-९२
९३
९५-१०९
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१५२
३२ ज्ञानपदाराधन सप्तम दिवसनो विधि ११० ३३ ज्ञानपदना ५१ भेदगर्भित नमस्कारपदो तथा तेना अर्थ..
११२-११९ ३४ चारित्र पदाराधन अष्टम दिवसनो विधि १२० ३५ चारित्रपदना ७० भेदगर्भित नमस्कार पदो तथा तेना अर्थ
११२-१३५ ३६ तपःपदाराधन नवमदिवसनो विधि ३७ तपःपदना ५० भेदगर्भित नमस्कारपदो तथा तेना अर्थ.
१४०-१५२ ३८ पारणाना दिवसनो विधि. ३९ श्री सिद्धचक्रपदोनो क्रमिकविचार, तेनुं रहस्य, ___ संख्या महिमा विचार ४० गुणोनुं रहस्य अने क्रमविचार
१५७ ४१ संख्याविशिष्टता-महिमा ४२ श्री सिद्धचक्रगुणोनुं स्तोत्र ४३ श्री सिद्धचक्र गुणविचार ४४ कोइक स्थळे १३००० जाप वतावे छे तेनो विचार
१६७ ४५ श्री सिद्धचक्र महाराजना ३४६ गुणभेदविचार,
१०८ गुणि वा धर्मि आश्रयी गुणो, २३८ गुण वा (धर्म) आश्रयी भेदो
१६९-१८३ ४६ सिद्धचक्राराधन माहात्म्य
१५५
.१६.
१६१
१६४
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४७ नवपदोनुं पृथक् माहात्म्य ४८ उपदेशसार
४९ माहात्म्य (फल) निस्यन्द ५० श्री सिद्धचक्र तप उद्यापन विधि
५१ उजमणुं करता राखवी जोहती सावधानता
-५२ तपनां उद्यापन अंगे करवाना कर्त्तव्य
-५३ श्री सिद्धचक्राराधक भव्यजीवनां कर्त्तव्यो
५४ ओळीमां उपयोगी पच्चखखाणो.
५५ स्नात्रनो विधि तथा पं. वीरविजयजी कृत
स्नात्र पूजा.
""
११
99
·
५६ नवपद पूजा विधि
५७ उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज कृत नवपदनीनी पूजा संपूर्ण.
२१९-२५१
५८ श्री सिद्धचक्रजीनी आरतीओ. ५९ नवपदजीनी लावणी.
६० श्री नवपदजी महाराजना चैत्यवंदनो.
६१
-६२
६३
"
19
६४ श्री अजितसेन मुनिए श्री श्रीपाल महाराजाने
आपेल उपदेश
19
"
१८४
१८९
१९०
१९१
१९१
१९३
१९६
१९८
२०३-२१५
२१६
२५२
२५४
२५६–२७४
स्तवनो.
२७५-३२१
स्तुतिओ (थोयो) ३२२-३४०
सज्झायो. ३४१-३५४
३५५-३६२
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________________
६५ श्रीश्रीपाल महाराजे करेली श्री सिद्धचक्र ___ भगवंतनी आराधना
३६३-३६५ ६६ श्रीमुनिचन्द्र सूरिजीए श्रीपाळ महाराजा तथा
मयणा सुंदरीने बतावेल श्री सिद्धचक्राराधननो विधि
३६५-३६७ ६७ श्रीमती मयणासुंदरीए अनुभवथी बतावेलु
श्री नवपदजी आराधननुं फल . ३६८ ६८ श्री अजितसेन मुनिनी श्री श्रीपाळ महाराजे करेली स्तवना
३६९-३७२ ६९ श्रीपाळ महाराजाने श्री सिद्धचक भगवान्ना ___ आराधनथी मळेल साक्षात् फळ ७० श्री सिद्धचक्र तप उद्यापननी ढाल
३७४ ७१ कळश
३७६ ७२ संबोध प्रकरणमां बतावेलीश्री आचार्य गुणोनी ४७ छत्रीशीओ
३७८-३८२ ७३ आचार्य गुणोनी ३६ छत्रीशीओ ७४ उपाध्याय गुणोनी २५ पच्चीशीओ
३८६ ७५ साधु गुणनी २७ सत्तावीशीओ ७६ मन्हजिणाणांनी सझाय, अर्थ सहित ३९१ ७७ संथारा पोरिसी सूत्र, अर्थ सहित
३९५ ७८ देववंदन विधि.
३८५
३८८
३९९
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________________
+05
AND
औं अहँ नमः
-are॥सर्वसमाहितदायकाय नवपदमयश्रीसिद्धचक्रयन्त्राधिराजाय नमः।
-reanear॥ सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-सूरिचक्रचक्रवर्ति-शासनसम्राटतपागच्छाधिपति-जगद्गुरु-भट्टारकाचार्य
श्रीमद्विजयनेमिसरिभगवद्भ्यो नमः ॥ gosegeeaCSCRESCEICCEIGSEIGORIGOSCOEDOEGORIGOOGGESCEGg
OCOMODED650000
नवपदमय श्रीसिद्धचक्राराधन
विधि विगेरे संग्रह.
&0000000000000
So@comcomCo@comce@comconco@comc20000mc0@comcemos
ध्यात्वा श्रीस्तम्भतीर्थेशं, पार्श्व नवपदीं तथा ॥
नेमिसूरि गुरुं नुत्वा, वक्ष्ये विध्यादिसङ्ग्रहम् ॥१॥ अरिहं सिद्धायरिया, उज्झाया साहुणो य सम्मत्तं। नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं परमतत्तं ॥१॥
श्री तीर्थकरदेवप्रणीत वीतरागशासनमां श्री अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्र्दशन, ज्ञान, चारित्र अने तप आ नवपदो परमतत्त्वरूप छे १ (कारण)
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ एएहिं नवपएहिं, रहियं अन्नं न होइ परमत्थं । एएसुच्चिय जिणसा-सणस्स सव्वस्स अवयारो ॥२॥ एएसु नवपएसु, अवअरिअं सासणस्स सव्वस्स । ता एआई पयाई. आराहह परमभत्तीए ॥३॥ जे किर सिद्धा सिझंति,जे अ,जे आवि सिज्झइस्संति। ते सवे विहु नवपय-झाणेणं चेव निभंतं ॥ ४ ॥ एयं च परमतत्तं, परमरहस्सं च परममंतं च। परमत्थं परमपयं, पन्नत्तं परमपुरिसेहिं ॥५॥ .. आ नवपदोथी रहित (शीवायर्नु) बीजु कोइ परमार्थ नथी, कारण आ नवपदोमां ज समस्त श्रीजिनशासननो (अथवा शासनना सर्वस्वनो) समावेश छे. २. (उपदेश) ___ आ नवपदोमां श्रीवीतरागशासनना सर्वस्वनो समावेश थयेलो छे ते माटे (हे भव्य जीवो!) उत्कृष्ट (बहुमानपूर्वक) भक्तिथी आ नवपदोनी आराधना करो. ३. (नवपदाराधन प्रभाव).
पूर्वकाले जेओ सिद्धिपद पाम्या, वर्तमानकाले जेओ सिद्धिपद पामे छे (महाविदेहक्षेत्रादिमां), अने भविष्यकाले जेओ सिद्धिपद पामशे तेओ सर्व पण निश्चयथी आ नवपद(वा नवपद पैकी, एकादिपद) ना ध्याने करीने ज जाणवू ४. (नवपदमाहात्म्य सार).
श्री तीर्थकर सर्वज्ञ गणधर पूर्वधर युगप्रधानादि महापुरुषोए
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(३)
नवपद माहात्म्य विचार || तत्तो तिजयपसिद्धं, अट्टमहासिद्धिदायगं सुद्धं । सिरिसिद्धचकमेयं, आराहह परमभतीए ॥ ६॥
आ श्री सिद्धचक्रयंत्र परमतत्त्वरूप, परमरहस्यरूप, परम मंत्ररूप परमार्थस्वरूप अने परमपद स्वरूप वर्णव्युं छे (दशमा विद्याप्रवादपूर्व मांथी ऊद्धर्यु छे ). ५. ( नवपदाराधनना फलरूप माहात्म्य तथा उपदेशसार ).
ते माटे (विवेक भव्य जीवो ! ) 'त्रण जगत्मां प्रसिद्ध' आठ महासिद्धिओने आपनार विशुद्ध आ श्री सिद्धचक्रयंत्रनुं उत्कृष्ट ( बहुमान युक्त) भक्तिश्री ' आराधना करो !' ६.
अनुष्ठानमां विधिनुं माहात्म्य.
आसन्न सिद्धियाणं, विहिपरिणामो य होइ सयकालं । विहिचाओ अविहिभत्ती, अभव्वजिअदूरभव्वाणं ॥१॥
अर्थ - थोडाकालमा मुक्तिगामि जीवोने विधिनो परिणाम सदाकाल (हमेशा) होय छे, अभव्य अने दीर्घ संसार परिभ्रमणकरनार दूर भव्य जीवोने विधिनो त्याग अने अविधि प्रत्ये भक्ति रहे छे. १. धन्नाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सया धन्ना । विहिबहुमाणी धन्ना, विहिपक्ख अदूसगा धन्ना ॥ २॥
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(४)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ विधिनो योग (आराधननी प्राप्ति) धन्यपुरुषोने होय छे. विधिपक्षy आराधन करनार सदाकाल धन्य पुरुषो छे. विधिनुं बहुमान करनार धन्यपुरुषो छे अने विधिपक्षनुं दूषण नहि देनार पण धन्य छे. २.
विधिसहित उत्तमयोगनी आराधन सामग्री मळवा पूर्वक ते सफळ करवा आराधनामां उद्यमवंत थq ते अपूर्व भाग्योदयथी पुण्यवान् जीवोनेज होय छे, आ आराधना मोक्षप्राप्तिना साधनरूप आलंबनना अवलंबनथीज थाय छे. अविच्छिन्न प्रभावशालि त्रिकालाबाधित श्री वीतरागशासनमां शाश्वत अव्या बाध मुक्ति सुखने आपनार आराधना करवा लायक असंख्य योगो पैकी श्रीसिद्धचक्र महाराज जेवो परम योग एक पण नथी, कयुं छे केआलंबणाणि जइवि हु, बहुप्पयाराणि संति सत्थेसु । तहवि हु नवपयज्झाणं,सुपहाणं बिंति जगगुरुणो॥१॥ ___ अर्थ-जोके शास्त्रोमा घणा प्रकारनां आलंबनो (मोक्ष साधनो) छे. तो पण निश्चयथी जगद्गुरु श्री तीर्थकर
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अनुष्ठानमा विधिनुं माहात्म्य ॥ (५) भगवंतो श्री नवपद् ध्यानने सर्वथी मुख्य ( आलंबन ) फरमावे छे.
श्री सिद्धचक्र भगवान्नी आराधनामां तत्पर थयेल भव्यजीवोने जेम जेम ते आराधननो दिवस नजीक आवतो जाय छे तेम तेम उल्लास परिणाम तीव्र थतो जाय छे, भाग्यवान् जीवना हृदयमां एज विचार उद्भवे छे के चीकणा कर्म खपाववाना परम साधनरूप अनन्त पुण्योदये आ श्री सिद्धचक्र महाराजनी आराधना प्राप्त थई छे. जगत्मां तेवं कोई ध्येय [ध्यान करवा लायक] बाकी नथी के जे आश्री सिद्धचक्रजी भगवान्ना ध्यानमां न आवतुं होय, अथात् सर्वध्ययनो आना ध्यानमा समावेश थयेल छे, कारण आ श्रीसिद्धचक्रभगवंतनी आराधनामां धर्मप्रासादना मुख्य अंगरूप पायो, भींतो, पाटडातुल्य आराध्य त्रणे तत्त्वोनो समावेश थाय छे.
"तन्नास्ति जगति ध्येय-मन्तर्भवति नात्र यत्। सिद्धचक्रे सन्निविष्टं यस्मात्तत्त्वत्रयं परम् ॥१॥"
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(६)
aaya विधि विगेरे संग्रह |
सर्व क्रियाओमां तेनी सफलता माटे राखतुं जोईतुं सावधानपशुं ?
सद्गुरुना उपदेशमां [ आज्ञानुसार ] वर्त्तनार, विधि प्रत्ये बहुमान राखनार, जे क्रिया चालती होय ते क्रियामां चित्तनी एकाग्रता करनार, लघु[हलु] कर्मी भव्य जीवनी समजणपूर्वक नियाणा रहित थती शुभक्रियाओ अवश्य फल आपनार होय छे, अने साचे सार्चु मुक्तिनुं कारण पण तेज छे.
दरेक क्रिया करतां अनुष्ठानोनुं स्वरूप जाणवा लायक छे, तेमांथी हे [त्याज्य] अनुष्ठानो त्याग करवा, अने उपादेय (आदरणीय) अनुष्ठानो आदर करवा खास प्रयत्न करवो.
रोगग्रस्त अने आरोग्यवान् जीवना भेदथी जेम भोजनादि क्रियाना फलमां भेद पडे छे. एकने जे भोजन रोग वृद्धि करनार होय छे ज्यारे बीजाने तेज भोजन बल पोषण करनार होय छे, तेम क्रिया करनारी परिणतिना भेदथी अनुष्ठानो पण विभिन्न फल आपनार थाय छे.
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क्रियाओमां राखवू जोइतुं सावधानपणुं ॥ (७) १ धार्मिक क्रिया(अनुष्ठान)करतांआ भव संबंधी द्रव्य, स्त्री, पुत्र, वैभव, भोग, यश, कीर्ति आदिनी अभिलाषा करवाथी विषानुष्ठान कहेवाय छे, के जे स्थावर जंगम झेरनी जेम शुभ अन्तःकरणने तत्काल मारनार थाय छे. २ आ भवनी अपेक्षा न होय पण परभव संबंधी देव ऋद्धि चक्रवर्ति आदि वैभव विगेरे अभिलाषा करवाथी गरानुष्ठान थाय छे, के जे संयोग ज झेर कालान्तरे झेरविकारना परिणामनी जेम भवान्तरमा पुण्यक्षय करनार थाय छे. ३ कोईपण जातना फलनी अपेक्षा न होय परन्तु
सन्निपातमां मुझायेल अगर संमूछिम जीवनी प्रवृत्तिनी जेम शून्यचित्ते क्रिया करवाथी अननुष्ठान थाय छे. आ अनुष्ठानमां कायक्लेशादि हेतुथी अकामनिर्जरा थायछे पण मुक्तिनुं विशिष्ट साधन सकामनिर्जरा तो उपयोगप्रवृत्तिना अभावे थती नथी. ४ उत्तम अनुष्ठानना रागथी क्रिया करवाथी त तु - अनुष्ठान थाय छे.
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नवपद विधि विगेरे संग्रह। ५श्री वीतरागदेव जिनेश्वर भमर्वते बत्तविल मार्ग प्रत्ये उल्लास पामती तीप्रश्रकाथी असंख्य प्रदेश वीर्य स्फूर्ति साथे उछळता आनन्दथी शुद्धविधि साचववाथी अमृतानुष्ठान थाय छे. __ अमृतानुष्ठान अमृतक्रिया] ना लक्षणो-जे क्रिया करता होय तेमांज शुद्ध एकाग्र उपयोग होय, आडी अवळी दृष्टि न होय, तथा मननी व्यग्रतारूप क्षेप दोष न होय ते 'तद्गतचित्त'. १.जे क्रियानो शास्त्रमा जे काल कह्यो होय ते समयेज करवा योग्य शुभ क्रिया करता होय ते 'समयविधान'२.चित्तनो उल्लास अने परिणामधारानी पुष्टि होय ते 'भाववृद्धि ' ३. जेम नारकी जीव नरकथी त्रास पामतो होय, केदी केदथी भयवाळो होय छे तेम संसारनुं जन्म-जरामरणादि दुःख स्वरूप जाणी संसारथी भयवाळो होय ते 'भवभय' ४. जे क्रिया करतो होय ते क्रिया मुक्तिनुं परम साधन छे पूर्वे कोई वखत मळेली नथी तेम विचारतो आश्चर्यवन्त थोय ते "विस्मय'
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क्रियाओमा राखवू जोइतु सावधानपणुं ॥ (९) ५.आq मुक्तिनुं परम कारण म्हने प्राप्त थयु तैम हर्ष थवाथी रुवे रंवा उंचा थाय ते अथवा आ क्रिया करता संसारथी त्रासेल होवाथीभयथी रुवाटा उंचा थायते "पुलक', ६. अपूर्वमुक्तिदाता क्रिया प्राप्त थयेल होवाधी जन्मान्धपुरुषने पुण्योदये नेत्रप्राप्तिथी अथवा सुभटने रणसंग्राममां शत्रु जीतवाथी जे आनन्द थाय तेनाथी पण अधिक तात्त्विक आस्मसुख उत्पन्न थाय ते 'प्रमोद' ७.आ सर्व अमृत क्रियानां मुख्य लक्षणो छे. आ लक्षणोथी अमृतक्रियानो अनुभव थाय छे. आ अमृतक्रिया आभव अने परभवमा अवश्य फल आपे छे. अमृतनो बिन्दु मळ्यो होय त्यां आरोग्यता माटे बीजा औषधनी जरुर होई शके नहि तेम अमृतक्रिया एकवार पण मळी होय तो बीजा कारणो शिवाय पण मुक्ति पामवामा कोई बाधक आवतुं नथी.
"अमृतनो लेश लह्यो इकवार, बीजुरे औषध करवू महि पडेजी।
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
अमृतक्रिया तिम लहि एकवार, बीजारे साधन विण शिव नवी अडेजी ॥१॥" काणमां सारी रीते शास्त्रार्थं चिन्तवन, क्रियाने विषे मननी एकाग्रता, तथा कालादि साधनोमां अविपरीतपणं ते अमृतानुष्ठाननुं लक्षण छे. अमृतानुष्ठानो आनन्द भव्यजीवनना हृदयमां समातो नथी.
(१०)
क्रियानो अंगीकार, क्रिया करवामां प्रीति, धर्मने विषे व्याघाताभाव, ज्ञानादि संपत्तिनी प्राप्ति, वास्तविक स्वरूपनी जिज्ञासा, वस्तु धर्मना जाणकार गीतार्थोनी उपासना, ए सदनुष्ठानना लक्षणो छे.
आ पांचे अनुष्ठानोमां प्रथमना त्रण अनुष्ठानो त्याज्य छे कारण तेमां क्रिया दूषित थाय छे, अने छेवटना बे अनुष्ठानो आदरणीय छे. वळी क्रियाना दग्ध १ शून्य २ अविधि ३ अतिप्रवृत्ति ४ दोषो पण वर्जवा. क्रिया साथे भावनी खास प्रधानता राखवी, कारण एकली क्रियाथी थएल कर्मक्षय देडकाना चूर्ण तुल्य को छे, अने भावपूर्वक क्रियाथी थएल कर्म
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क्रियाओमा राखवू जोइतुं सावधानपणुं ॥ (११) क्षय देडकानी भस्म तुल्य कह्यो छे, देडकाना चूर्णने पाणीनो संयोग मळता जेटला चूर्णना कणीया छे तेटला नवा देडका उत्पन्न थाय छे, तेम अज्ञानताने योगे निमित्त मळता पाछो क्लिष्ट कर्मबन्ध थाय छे. अने देडकानी राख थइ होय तो ते राखमांथी गमे ते संयोगे पण पुनः देडकानी उत्पत्ति थती नथी, तेम पुनः कर्मबन्ध पडतो नथी.
क्रिया कूवो खोदवा तुल्य अने भाव शिरा (सेर) पाणी तुल्य छ, कूवो खोद्या शिवाय शिरा (सेर) प्रकटती नथी अने सेर शिवाय अखुट पाणी रहेतुं नथी माटे बेउनी खास आवश्यकता छे.
अज्ञानी जीव वर्ष कोटिओमां जेटबुं कर्म खपावे तेटवू कर्म ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां खपावे छे, तेमां पण भावपूर्वक क्रियानी मुख्यता बतावी छे, ___ आ दिवसोमांजेम बने तेम आश्रव-कषायनो त्याग विशेष करवो, आरंभोनो त्याग करवो कराववो, बनी शके तेटली अमारि प्रवद्ववी. देवपूजनना कार्य
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(१२)
cave विधि विगेरे संग्रह ॥
शिवाय वापरवाना कार्यमां सचित्त पाणीनी पण त्याग ज राखवो.
आ दिवसोमां विशेषे करी जुतुं बोलवु महि. कोइने कठोर वचन कहेतुं नहि, भाषा उपर काबु राखवो, हितकारी प्रिय लागे तेवुं सत्य अने प्रमाणोपेत ज बोलकं. पहेला अने पाछळना दिवसो साथै खास शुद्ध ब्रह्मचर्य पाळ, पोताने वापरवाना वस्त्रो अने दागीना विगेरेनुं प्रमाण कर.
आ दिवसी माटे खास अमुक प्रमाण दिशानी नियम करी लेवो.
जता आवता ईर्यासमितिनो खास उपयोग
राखवो.
उपाश्रय देहरासरमां प्रवेश करतां 'नीसीही' त्रण बोलवा, पण ते मात्र बोलवा पुरतुं नहि पण तेनो अर्थ विचारी खास उपयोगमा रहेवुं.
कोइ पण चीज लेता मुकता कटासणं- संथारीयुं पाथरता विगेरेमां खास जयंणा करवी पुंजवा प्रमार्जवानी उपयोग शखवो.
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क्रियाओमां राखg जोइतुं सावधानपणुं ॥ (१३) धुंक--बळखो विगेरे जेम तेम नांखी न देवा. जग्या जोइ परठववा, तेना उपर धूळ या रक्षा नांखवी. मा, स्थंडिल विगेरेमां पण लीलफूल, कीडीना नगरा, वनस्पति विगेरे तमाम जोइने जयणाथी वर्त. ___ आर्त रौद्र ध्यान, अशुभलेश्या, उपाधि संकल्पविकल्पो वर्जवां.
कोइनी साथे कलह, क्रोध विगेरे करवो नही तेमज तेनी उदीरणा पण करवी नहि.
प्रतिक्रमण, पडिलेहण, देववन्दन, प्रभुपूजन, विगेरे क्रिया करतां तथा गुणणुं गणवू, आहार वापरखो, मार्गे जता आवता, स्थंडिल मा करवा जतां विगेरे प्रसंगे बोलवू नहि.
आयंबिल करती वखते नवकार गणी आहार स्वादिष्ट के विरस होय तो पण आहारनी वस्तु उपर के आहार बनावनार विगेरे उपर राग द्वेष करवो नहि, वापरतां 'सुरसुर' 'चबचब' शब्द थाय नहि. तेम बह उतावळ के बहु धीमुं नहि, दांणो छांटो पड़े नहि
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(१४)
नवपद विधि विगेरे संग्रह |
तेवी रीते उपयोग पूर्वक आहार करवो, तेमां द्रव्योनी गणतरी राखवी, बनी शके तो चौद नियमो धारवा उपयोग राखवो.
दरेक सूत्रोनुं उच्चारण करतां तेमां रहेला लघु, गुरु, संयुक्त, असंयुक्त वर्णोनुं लक्ष्य राखतुं पद, संपदा ( अर्थाधिकार युक्त विश्रामस्थानो) नो उपयोग राखवो, अर्थ उपर खास ध्यान राख. न्यूनाधिक अक्षरो न करवा, कानो मात्रा अनुस्वार विगेरेनो बीलकुल फेरफार थाय नहि. वर्ण, अर्थ, अने आलंबन प्रतिमाजी, गुरु, स्थापना विगेरेनुं अवलंबन करी उपयोगमां वर्त्ततुं.
दरेक क्रियामां जे जे आलंबन होय तेनाथी बाकीनी ऊर्ध्वदिशा (ऊंचे) अधोदिशा (नीचे) तिर्यग्दिशा (अडखे पडखे ) ए त्रणे दिशाओ तरफ जोवानो त्याग करवो, एकज सन्मुखभावे क्रिया करवी.
दरेक क्रियामां रुपं अने महोर छापना दृष्टान्ते बहुमान अने भक्तिनी चउभंगीनुं स्वरूप खास समजी आराधक दशाना भांगानों आदर करवो.
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क्रियाओमां राखg जोइतुं सावधानपणुं॥ (१५)
वळी प्रीति, भक्ति वचन अने असंग ए चार अनुष्ठानोना स्वरूप पण अवश्य जाणवा लायक तथा उपादेय ते आदरवालायक छे.
देवपूजा, गुरुभक्ति प्रतिक्रमण, देववन्दन, प्रतिलेखनादि दरेक शुभक्रियाओ करतां खेदादि चित्तअन्तःकरणना दोषोनो अवश्य त्याग करवो.
खेद-क्रिया करता कंटाळो आववो, त्यां विचार के हे चेतन ? बीजाओनी द्रव्यादि लालसाए गुलामगीरी करतां, आरंभादि कामोमां रहने कंटाळो आवतो नथी के जे केवळ संसारवृद्धिन कारण छे. अने आ क्रिया रहने मुक्तिनुं निदान प्राप्त थइ छे माटे आमां कंटाळो लावीश नहि.
उद्वेग-क्रिया उपर अरुचिभाव, हे चेतन ! अहितकारिणी क्रियाओ करी करी भव बगाडयो त्यां अरुचि न आवी आ क्रिया एकान्त हितकारिणी छे आमा अरुचि लावीश नहि. ..... क्षेप-एक पण आरंभेली क्रिया प्रत्ये चित्तनी
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(१६) नवपद विधि विमेरे संग्रह ॥ स्थिरता नथी अन्योन्य क्रियाओ प्रत्येनी चंचळता, हे चेतन ! अशुभ प्रवृत्तिओमा, व्यापारमां, लेवड देवडमां, हीसाबो तपासवासां रहने अस्थिरता नडती नथी तो एकान्त शुभ प्रवृत्तिरूपी क्रियामां तुं अस्थिरता करीश नहि इत्यादि क्रियाना फलने विनाशकारक महान दोषोनो अवश्य त्याग करवो.
क्रियानो बाह्यशरीरोपयोग. १ प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, देववंदन, खमासमपा, का
उसग्ग विगेरे तमाम किया करवाना पवित्र उचित स्थानके चंद्रवा बांधेला होबा जोइये.... २ आयंबिलनी रसोइ,भोजन करवू पाणी ठारबुं विगेरे - स्थले पण चंद्रवा बांधला होवा जोइए. ३ यतना साचववा माटे स्थंडिल मानु परठक्वानी
जग्यानो खास उपयोग राखवो. ४ थाळी, वाडका, पाटला, पवाला, कळशा, पहेरवाना धोतीयां, खेस, कामळ विगेरे तमाम वापरवानी
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क्रिया माटे राखवो जोइतो बाह्य-उपयोग॥ (१७ ) चीजो नाम (अक्षरो) विनाना होवा जोइए तथा धोतीया विगेरे वस्त्रो खेळ विनाना धोयेला राखवा, फाटेला तथा सांधेला राखवा नहि, पाटलाओ डगता होवा न जोइए. ४ पाणी पधिा पछी तुरतज ते प्यालो खास ल्होइ नांखवो, कारण तेमां अनुपयोग थवाथी भीनो रही जाय तो बे घडी पछी संमूर्छिम जीवोनी उत्पत्ति थाय छे तेथी ते माटे खास स्वच्छ लुगडाना कटका अगर रुमाल राखवा. ५ पूजा माटेना उपकरणोनी शुद्धिनो खास उपयोग
राखवो. ६ पूजा भणावतां भावशुद्धि विशेष थवाना साधनो
अवश्य राखवा. ७ पूजा करती वखते पूजाना उपकरणो जेवा के कलश, धूपधाएं, केशर चंदननी वाटकी, नैवेद्य, फलमो थाळ विगेरे नाभिनी उपर अने मुख तथा नासिकानो श्वास नलागे तेवी रीते हाथमा राखवा.
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( १८ ) नवपद विधि विगेर संग्रह |
८ नवकारवाली तथा पुस्तक विगेरे पवित्र उंचे स्थान के मुकवानो उपयोग राखवो, चरवळे भरावी देवानी तथा कटासणा उपर के जेम तेम मुकी देवानी घणीखरी प्रथा देखाय छे पण तेम करवाथी आशातना थाय छे माटे तेम न कर.
९ पुरुषोए चरवळा गोळ दांडीवाळा अने स्त्रीओए चोरस दांडीवाळा राखवा.
१० सामायिक, प्रतिक्रमण करतां पहेलां मात्रु- स्थंडिलनी बाधानो उपयोग करी लेवो, कदाच सामायिकमां प्रतिक्रमणमां बाधा थाय तो ते माटे माथे ओढवानी कामळी तथा पुंजवाना दंडासनो तथा अचित्त पाणीनो खास उपयोग राखवो, घणे ठेकाणे कामळीना अभावे कटासं माथे नांखी जता देखाय छे पण तेम करवाथी विराधना थाय छे माटे ते संबंधी खास उपयोग राखवो पडिलेहणादि वखते काजो उद्धरवा काजा उद्धरणी ( पुंजणी ) सुपडीनो उपयोग राखवो.
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पुस्तक वांचता राखवो जोइतो उपयोग ॥
पुस्तक वांचता राखवो जोइतो उपयोग.
( १९ )
१ अविनय आशातना न थाय माटे बहुमान सहित पवित्र उंचे आसने पुस्तकने राखवं.
२ वांचती वखते तेना वर्णों उपर खास लक्ष्य राख पद क्यां पुरुं थाय छे, संपदा क्यां अटके छे, ह्रस्व, दीर्घ, लघु, गुरु, संयुक्त, असंयुक्त, अनुस्वार, कानो, मात्रा विगेरेमां फेरफार न थइ जाय माटे खास उपयोग राखवो.
३ अर्थविचारणा करवी तथा ते आत्मामां घटाववा काळजी राखवी.
४ नाभिथी उपर पुस्तक रहे तेवी रीते सांपडा या बाजोठ विगेरे उपर राखी हाथनो परसेवो न लागे, डाघ विगेरे न पडे तेनो उपयोग राखवो. हालमां केटलाक अज्ञानताथी या संकोचवृत्तिथी या सगवड - तानी खातर सांपडाओ तदन न्हाना राखे छे माटे ते संबंधी काळजी राखवी.
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(२०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ५ पुस्तकने थुक लगाड नहि, पार्नु फेरवतां केटलाको धुंकवाळी आंगळी करे छे ते मोटामां मोटी भुल छे, पुस्तक पासे छते वाछूट करवी नहि; पग लगाडवो नहि, पुस्तक पासे छते झाडो, पेशाब, करवा नहि, पुस्तक उपर बेसबुं के सुवु नहि, पुस्तक पासे राखी भोजन करवं नहि. अक्षर थंकथी भूसवो नहि, पुस्तकने जेम तेम उंचेथी पटकवू नहि, पुस्तकनो अग्नि के पाणीथी नाश करवो नहि,
पुस्तकने फाडवू के बीजी कोइरीते नाश करवो नहि. ॥आवश्यक (प्रतिक्रमण) विगेरे क्रियामा राखवो जोइतो
उपयोग तथा साचववानो विधिः॥
वांदणानुं नाम द्वादशावर्त्तवन्दन अथवा गुरु महाराजनुं उत्कृष्टवन्दन कहेवाय छे, वांदणा देता २५
१ आ सूत्र बोलतां बार आवों साचववाना होवाथी द्वादशावर्त्तवन्दन सूत्र कहेवाय छे.
२ गुरु महाराजनी वन्दना पूर्वक सुखशाता ( कुशल ) पृच्छा
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आवश्यक ( प्रतिक्रमण) विगेरे क्रियामां राखवो जोइतो उपयोग ॥ (२१) आवश्यक साचववाना छे, शिष्ये हमेशां पोताना श्वासोच्छ्वास, अधोवात विगेरेथी गुरुनी आशातना टाळवा माटे गुरुना अवग्रहथी बहार रहेतुं जोइये. त्यां रह्यो छतो उभा उभा "इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिजाए नीसीहीआए अणुजाणह मे मिउ गहं" आटलुं बोली अवग्रहमां पेसवानी आज्ञा मांगवा मस्तक नमाववुं.
खमासमण विधिमा बतावेल नव संडासा प्रमार्जी 'नसीही' बोलता अवग्रहमां प्रवेश करखो.
उभडक पगे बेसीने खमासमण विधिमा कहेला १० थी १४ सुर्धाना पांच संडासा प्रमार्जी चरवळा उपर मुहपत्ती मुकवी ( गुरु चरण स्थाने स्थापवी ) बेउ हाथ बे ढींचणनी अंदर राखी दस
साथै तमाम प्रकारनी अविनय आशातनाओ वर्जवानो अर्थ होवाथी गुरुवन्दन सूत्र कहेवाय छे, आ सूत्रथी कोनी कोनी वन्दना करवी विगेरे विचार खास समजवा योग्य छे.
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(२२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ आंगळीओ भेगी करी जेम भींत उपर थापो मारता होय तेवी रीते गुरुचरण स्थानापन्न चरवला उपर मुकेली मुहपत्ती (साधु साध्वीए मुहपत्ती ढींचण उपर राखवानी होवाथी ओघानी दशीओ) उपर उंधा हाथे दश आंगळीयोथी हळवे स्पर्श करतां 'अ' अक्षर बोलवो, तेवीज रीते चत्ता हाथे कपालने स्पर्श करता 'हो' अक्षर बोलवो.
पूर्वनी माफक उंधे हाथे मुहपत्तीने स्पर्श करतां 'का' अक्षर बोलवो, कपाले स्पर्शता 'यं' अक्षर बोलवो, वळी मुहपत्तीने स्पर्शता 'का' अक्षर बोलवो अने कपाले स्पर्शता 'य' अक्षर बोलवो, बन्ने हाथो मुहपत्ती उपर चत्ता मुकी तेमां मस्तक अडाडता 'संफासं' पद बोलवू ' खमणिज्जो भे किलामो' ए पदो बोलता बे हाथ अंजलि जोडेला मस्तके लगाडवा पूर्वनी माफक बेउ हाथेमुहपत्तीने स्पर्शता 'ज' अक्षर बोलवो, वच्चे हाथ राखता ‘त्ता' अक्षर बोलवो, ललाटे (कपाले) स्पर्शता 'भे' अक्षर बोलवो. एज प्रमाणे
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आवश्यक (पतिक्रमण) विगेरे क्रियामा राखवो जोइतो उपयोग।(२३)
पूर्वनी माफक 'ज' 'व' 'णि' ए त्रण अक्षरो बोलवा, वळी तेज प्रमाणे 'जं' 'च' 'भे' ए त्रण अक्षरो उच्चारवा, वळी मस्तक अडाडता 'खाममि खमासमणो' ए पदो बोलवा, 'देवसिअं वइक्कम बोली छेल्ला त्रण संडासा प्रमार्जता ' आवसिआए' ए पद बोली अवग्रह बहार नीकळवू,आज प्रमाणे बीजे वांदणे पण करवं. मात्र बीजे वांदणे अवग्रहथी बहार नीकळवार्नु न होवाथी 'आवस्सियाये' पद बोलवं नहि. एटले ते आवश्यक ओछं समजवू, मन, वचन, कायानी एकाग्रता राखवी, 'अहो' विगेरे बबे अक्षरोमां पहेलो अक्षर उदात्त, ( उंचे स्वरे) बोलवो, बीजो अनुदात्त (नीचे स्वरे बोलवो, जत्ताभे' विगेरे त्रणमां पहेलो उदात्त, बीजो स्वरित (मध्यमस्वरे)अने त्रीजो अनुदात्त बोलवो, [ आ विधिनो खास उपयोग राखवो कारण विधिनी अज्ञानताए प्रमादवशे क्रियानुं यथार्थ फल पामी शकातुं नथी] आज प्रमाणे मुहपत्ती पडिलेहवी, काउस्सगं करवा विगेरे विधिओमां पण उपयोग राखवो.
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(२४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ प्रतिक्रमण (श्रावकोने वंदित्तु) सूत्र बोलता केवू 'वीरासन' करवू, देववन्दनमां मुद्राओ केवी करवी, सूत्रो बोलतां केवी विधि साचववी विगेरे विधिना जाणकार पासेथी समजी यथार्थ रीते वर्तवु(आमांनो केटलोक विधि आगळ पण कहेवाशे.
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॥ आराधनाना दिवसोनो विचार - काल रहस्य. ॥
आराधनानी शरुआत - कर्मना क्षय, क्षयोपशम, उपशम विगेरे करवामां द्रव्यक्षेत्रादिनी माफक काल पण एक विशिष्ट कारण छे. आम्रना परिपाकमां तथा खेती विगेरे करवामां जेम अमुक काल आवश्यक छे, तेम धर्मना परिपाक मां, तथा तपः क्रिया ध्यान विगेरे साधनोथी राग, द्वेष, काम, क्रोध, विषयवासना आदि कांटाओ दूर करी आत्मभूमिमां धर्मबीज आरोपण करवामां काली पण खास अगत्यता छे. विद्या- मंत्रादिनी साधना करवामां पण काल तथा जाप विगेरे साधनोनी पण जरुरीयात होय छे. आवा अनेक हेतु ओने लइने प्राचीन महापुरुषोए श्री सिद्धचक्रजी भगवानना आराधन माटे आश्विन अने चैत्र मासना नव नव दिवसो बताव्या छे, आ दिवसोने १ तीर्थ
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(२६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ यात्रा २ रथयात्रा ३ अष्टाह्निकायात्रा एत्रण यात्राओ [महोत्सवो] पैकी अष्टाह्निकायात्राना भेदोमां शाश्वतयात्रा (महोत्सव) तरीके गणाव्या छे, तेमां पण प्रथम शरुआत परम निवृत्तिमय काल होवाथी आश्विन मासमां करवामां आवे छे, अने ते क्रमथी पूर्णाहुति पण आश्विन मासमांज थाय छे. वळी आ शरद् अने वसन्त ऋतुना लगभग मध्य दिवसोमा आयबिलनी तपस्या शारीरिक आरोग्यताने अंगे वैद्यकीय(डाक्टरी) सिद्धान्त प्रमाणे पण केटली लाभप्रद छे ते कालविचारस्वरूपज्ञ पुरुषो पासे समजवा लायक छे. हालनी प्रवृत्तिए शुदि ७ थी १५ सुधीना नव दिवसोनुं आराधन छे. वचमां तिथिनी वृद्धि होय तो आठमथी, अने तिथिनी हानि होय तो छठथी शरुआत थाय छे. सातम बेहोय तो बीजी सातमथी अने आसो बे होय तो बीजा आसोमां शरुआत थाय छे. एज प्रमाणे बे चैत्र होय तो बीजा चैत्रमा आराधना कराय छे.
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आराधक भव्य जीवोनुं प्रारंभ कृत्य ॥ आराधक भव्य जीवोनुं प्रारंभ कृत्य.
(२७)
शरुआतमां दीन अनाथादि जीवोने मनमां संतोष उपजाववाने दान आपवुं, छरी पाळवी, एटले के १ शुद्ध ब्रह्मचर्य धारी. २ भूमि संस्तारी. ३ एकाहारकारी. ४ उभटंक प्रतिक्रमणकारी ५ सचित्त त्यागकारी६ पादचारी ( जोडा विगेरेनो त्याग करी ऊघाडा पगे नियमित भूमिमां चालनार ) थवुं अमारी प्रवृत्ति कराववी, जेटली बनी शके तेटली द्रव्यादि आपीने पण जीवदया प्रवर्त्ताववी, घाणी भट्ठी विगेरे तमाम आरंभो बंध कराववा, चैत्योमां आंगी पूजाओ रचाववी विगेरे पूर्व सेवाकृत्यो करवा.
आराधक जीवोनुं अधिकारिपणं.
आराधक जीव शान्त होवो जोइए. अल्प आहारवान्, अल्प निद्रा करनार, कामना (अभिलाषा) रहित, कषायरहित, धैर्यतावान्, परनिन्दा नहि कर
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(२८) नवपद विधि विगेरे संग्रह। नार, गुरु उपासनामां प्रीतिवान्, कर्मक्षयनो अर्थी, रागद्वेषनी मन्दतावाळो, दयालु विनयनी अपेक्षा राखनार, आलोक परलोकना फलनी स्पृहा नहि करनार, इत्यादि गुणवान् जीव तपनो अधिकारी छे. अल्प गुणवाने यथाशक्ति गुणो मेळववा उद्यम करवो.
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प्रथम दिवसनो कर्तव्य विधि ॥ प्रथम दिवसनो कर्तव्यविधि.
रात्रिनो चार घडी काल शेष रहे त्यारे जागृत थाय, परमेष्ठिमंत्रनुं स्मरण करे, पोताना स्वरूपनो विचार करे–“हुं कोण छ,' 'क्यांथी आव्यो छु, 'क्यां जवानो छु,'. 'मारुं कुल कयुं, 'मारो धर्म कयो' 'मारा देव कोण,' 'मारा गुरु कोण, 'मारा धर्मने मारा कुलने उचित कर्त्तव्य शुं छे, में उत्तम कर्तव्यो शा शा कर्यां अने शा शा बाकी छे' इत्यादि विचारणा करवी, अनन्त पुण्योदये आराधननो काल प्राप्त थयेल होवाथी अपूर्व उत्साह अने वीर्योल्लास साथे स्वस्थ थइ श्री अरिहंत महाराजनाआराधनानो पवित्र दिवस होवाथी श्री तीर्थंकर भगवानना द्रव्यगुण पर्यायोनी चिन्तवना करी तेमनाध्यानमां आपणा आत्माने लीन करी सामायिक अंगीकार करे. कुसुमिण दुसुमिणनो काउस्सग्ग (कर्म परिणामनी विचित्रताथी जीवघात-मैथुनादि संबंधी रौद्रस्वप्न आव्युं होय तो सागरवरगंभीरा सुधी
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(३०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ४ लोगस्स अने सामान्य विचारथी 'चंदेसु निम्मलयरा' सुधी ४ लोगस्स) करी अप्रमत्तपणे वीर्य न छुपावता विधिसहित उपयोग पूर्वक प्रतिक्रमण करवं. __ सूर्योदय लगभगमां तमाम पडिलेहणा संपूर्ण थाय ते प्रमाणे क्रियामां वापरवाना तथा रात्रे संथाराना उपयोगी सर्व उपकरणोनी पडिलेहणा करी संपूर्ण पडिलेहण कया बाद आठ स्तुति अने पांच शकस्तवे देववंदन करे ‘मन्हजिणाणं' (श्रावककर्तव्य सूचक) सज्झाय करे, पवित्र उंचे स्थानके श्री सिद्धचक्र भगवान, यंत्र पूर्व दिवसे प्रतिष्ठावी स्थापन कर्यु होय तो ठीक, नहि तो ते दिवसे स्थापन करावे, बासक्षेपथी पूजन करे त्रण खमासमण देवा.
१ दरेक पूज्य वस्तुओ तथा पूज्यनी पूजामां उपयोगी चीजो उपकरणो विगेरे नाभिप्रदेशथी उंचे स्थानके राखवा.
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गुणोनुं स्मरण करवा साथे प्रदक्षिणापूर्वक खमासण ॥ (३१) ॥ गुणो प्रत्येनुं बहुमान तेज गुणिनुं बहुमान होवाथी गुणोनुं स्मरण करवा साथे प्रदक्षिणापूर्वक समास
मण (पंचांग प्रणिपात) देवां॥ श्री केवलज्ञान उत्पन्न थये श्री तीर्थकर प्रभुनी श्री तीर्थकर नामकर्म उदयथी प्रातिहार्य तथा अनेक अतिशयो गर्भित चार मूलातिशय स्वरूप अतिशयोथी थयेली विशिष्टता ध्यानमां लाववा माटेना बार गुणो
अशोकाख्यं वृक्षं सुरविरचितं पुष्पनिकरं । ध्वनि दिव्यं श्रव्यं रुचिरचमरावासनवरम् ॥ वपुर्भासंभारं सुमधुरवं दुन्दुभिमथ ।
प्रभोः प्रेक्ष्यच्छत्रत्रयमधिमनः कस्य न मुदः॥१॥ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनिश्चामरमासनश्च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहायाणि जिनेश्व
राणाम् ॥२॥ १ प्रायः दरेक क्रियामां इरियावहिनी प्रधानता (प्रथम करवा पणुं) होवाथी कोइस्थळे खमासमण देतां पहेलां इरियाव ही करवानुं पण बतावे छे.
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(३२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
अपायापगमो ज्ञानं, पूजा वचनमेव च । श्रीमत्तीर्थकृतां नित्यं, सर्वेभ्योऽप्यतिशेरते ॥३॥ प्रातिहारज आठ छे, मूल अतिशय चार । बार गुण अरिहंतदेव, नमो नमो बहु वार ॥४॥
अर्हत्पदनमस्कार अर्हत्स्वरूपमां लीनता करनारनु
खरूपसूचक दुहाओ. परम पंच परमेष्ठिमां, परमेश्वर नगवान। चारनिक्षेपे ध्याइये, नमो नमो जिनभाण ॥१॥ अरिहंतपद ध्यातो थको, दव्वह गुण पज्जायरे । भेद छेद करी आतमा, अरिहंत रूपी थायरे ॥१॥ वीर जिनेश्वर उपदिशे, तुमे सांभळजो चित्त लावीरे। आतम ध्याने आतमा, ऋद्धि मळे सवी आवीरे ॥२॥ __आ प्रमाणे दूहा बोली जयणा पूर्वक प्रदक्षिणा दइ १ स्वस्तिक करी यथाशक्ति फल, नैवेद्य, नाएं विगेरे मूकी १७संडासा प्रमार्जवापूर्वक खमासमण देवं.
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खमासमणा पंचांग (पाणिपात) देवानो विधि ॥ (३३) ॥ खमासमणा (पंचांग प्रणिपात)देवानो विधि.॥
'इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए, नीसीहिआए' एटला पदो उभा उभा बोली चरवलाथी जमणा पगनो पाछलनो भाग [केडथी हानी सुधी]प्रमाजवो १ बे पगनो मध्यभाग २ तथा डाबो पग ३. एज प्रमाणे आगळना पंजा सुधीना त्रण भाग ६. ढींचणो स्थापवानी आगळनी जमीन त्रणवार ९ प्रमार्जी ढींचणभर बेसी जमणा हाथमां मुहपत्ती लइ मुहपपत्तीथी कपालनी जमणी बाजुथी आखो डाबो हाथ पाछळ कोणी सुधी १० तेज प्रमाणे डाबा हाथमा मुहपत्ती लइ डाबा कपालथी जमणो आखो हाथ चरवलीनी दांडी मुहपत्तीथी प्रमार्जी ११ ज्यांबे हाथ साथे माथु स्थापq छे ते चरवलानी दशीओना भागनी आगळ मुहपत्तीथी त्रणवार १४ प्रमार्जी 'मस्थएण वंदामि' ए पद बोलतां बे हाथ जोडी माथु नीचे नमावतुं (जमीन उपर लगाडवू) एटले के आ सूत्र बोलतांबे ढींचण बे हाथ अने मस्तक ए पांचे
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(३४) नवपद विधि विगेरे संग्रह। अंगो जमीन उपर लगाडवाना होवाथी पंचांग प्रणिपात दंडक कहेवाय छे.
उपरनी चौद संडासा ( संदंशक ) प्रमार्जनामां ऊठती वखत प्हानीओ स्थापवानी पाछळनी जमीन त्रणवार पुंजवी, आप्रमाणे सत्तर १७ संडासा जाणवा, आ प्रमाणे विधि साचववा साथे दूहा बोली प्रदक्षिणा दइ स्वस्तिक करवा पूर्वक खमासमण देवा. एकेक खमासमण दइ एकेक गुण संभारवा पूर्वक नमस्कार पद बोलq.
॥ बार गुणगर्भित नमस्कार पदो. १ श्री अशोकवृक्षप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥
आप्रमाणे गुणसूचक नमस्कारपद बोलवू. वळी पूर्वनी माफक दूहा बोली प्रदक्षिणा दई स्वस्तिक
करी खमासमण देवं. ए प्रमाणे दरेक गुणे समजवं. २ श्रीपुष्पवृष्टिप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥ ३ श्रीदिव्यध्वनिप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥
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बार गुण गर्भित नमस्कार पदो ॥ (३५) ४ श्रीचामरयुगलप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥ ५श्रीस्वर्णसिंहासनप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः ६ श्रीभामण्डलप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः।। ७ श्रीदुन्दुभिप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः ॥ ८ श्रीछत्रत्रयप्रातिहार्यविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥ ९ श्रीलोकालोक प्रकाशककेवलज्ञानस्वरूपज्ञानातिशय
विभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥ १० श्रीसुरासुरनरगणनायककृतसमवसरणप्रातिहार्यादि
विशिष्टपूजातिशयविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः॥ ११ श्रीसर्वभाषानुगामिसकलसंशयोच्छेदकपंचत्रिंशद्गु
णालंकृतवचनातिशयविभूषिताय श्रीमदर्हते नमः ॥ १२ श्रीस्वपरापायनिवारकापायापगमातिशयविभूषिताय
श्रीमदहते नमः॥ छेवटे एक खमासमण दइ अविधि आशातना मिच्छामि दुक्कडं कहे.
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(३६) नवपद विधि विगेरे संग्रह । ॥आ बार गुणोनी हृदयमां भावना रहेवा माटे
तेनी अर्थविचारणा.॥
श्री तीर्थंकर प्रभुना बाह्य ऐश्वर्य सूचवनार प्रतिहार भक्त (सेवक देवो)ना भक्ति कर्त्तव्य आठ प्रातिहार्यो तथा आन्तर ऐश्वर्य अने अनेक अतिशयना बीजक रूप चार मूलातिशयो ए बार गुणोए श्री अरिहंत प्रभुने ध्यान करवा. १ प्रभु ज्या ज्यां स्थिरता करे त्यां त्यां सर्व शोकादि दूर करनार प्रभुना बार गुणो अशोकवृक्ष देवताओ रचे छे, वायुथी फरकती तथा चमकती अनेक ध्वजाओ अने घूघराओथी सुशोभित अशोक वृक्ष रूप प्रातिहार्य. २ एक योजन प्रमाण क्षेत्रमा अधोमुखवाळा ढींचण
प्रमाण पांचवर्ण पुष्पवृष्टिरूप प्रातिहार्य. ३ मालव कौशिक रागे थती भगवंतनी वाणीने अनुसरता दिव्य ध्वनिरूप प्रातिहार्य,
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गुणोनी हृदयमां भावना रहेवा माटे तेनी अर्थविचारणा ॥ (३७) ४ भगवंतनी बेबाजु वीजाता उत्तम चामररूपप्रातिहार्य, ५ भगवंतने बेसवा माटे उत्तम कान्तिवाळा रत्नजडित सिंहासनरूप प्रातिहार्य. ६ भगवंतनीपीठेरहेलदेदीप्यमानभामंडलरूपप्रातिहार्य. ७ भगवंतना विहारादि अवसरे आकाशमां अदृश्य
दुंदुभिरूप. प्रातिहार्य. ८ अर्जुन सुवर्णनी सळीओवाळा मोतीओना गुच्छा
समेत अनेक सफेद पुष्पमालाओथी वीटायेल श्वेत दिव्य वस्त्रमय छत्रत्रयरूप प्रातिहार्य ए आठ
प्रातिहार्यों तथा, ९लोकालोक प्रकाशकरनार श्रीकेवलज्ञानरूपज्ञानातिशय १० सुर असुर मनुष्यादिए करेली समवसरण प्रातिहाया
दि स्वरूप विशिष्ट पूजातिशय. ११ देव, मनुष्य, तिथंच सर्वनी भाषाने अनुसरती सकल संशयने उच्छेद करनार, पांत्रीश गुणोए शणगारायेल
वाणीरूप वचनातिशय. १२ पोताना घातीकमोरूप कष्टनिवारण थया तथा
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
परना अपायना निवारण करवा स्वरूप अपायापगमातिशय ए चार मलातिशय आ बार गुणोथी विभषित श्री अरिहंत भगवंतने मारो नमस्कार थाओ.
शक्तिवंत धनाढ्य पुरूषोए स्वस्तिक उपर बार हीरा मुकवा, बीजा पण फल नैवेद्य विगेरे मूकवा, सोना-रूपा नाणु विगेरे यथाशक्ति मूकबु.
सिद्धचक्रने दिवसे आठ माणेक मुकवा.
आचार्यपदने दिवसे ३६ गोमेदक रत्न अगर ३६ सुवर्ण फूल मुकवा.
उपाध्यायपदने दिवसे २५ मरकत मणि मुकवा. साधुपदने दिवसे २७ श्याममाण मुकवा.
दर्शनपदने दिवसे ६७ उज्ज्वल मोती स्वच्छ मोटा मुकवा.
ज्ञानपदने दिवसे ५१ उज्ज्वल मोती स्वच्छ मोटा मुकवा.
चारित्रपदने दिवसे ७० उज्ज्वल मोती स्वच्छ मोटा मुकवा.
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काउसग्ग विधि |
( ३९ )
तपपदने दिवसे ५० उज्ज्वल मोती स्वच्छ मोटा
मुकवा.
वळी श्रीफल, द्राक्ष, नारंगी, बीजोरा, दाडम, केळां, बदाम विगेरे फळो. लाऊ, पेंडा विगेरे नैवेद्य छती शक्ति दररोज जुदीजुदी जातनुं मुकतुं, जो दरेक दिवसे करवा शक्ति न होय तो दरेक ओळी दीठ एक एक दिवस करवुं, छेवटे बनी शके तो एक ओळी तो संपूर्ण विधिसमेत आराधवी.
॥ काउसग विधि. ॥
पूर्वोक्त विधिए खमासमण दइ उभा थइ पगना वचगाळाने त्रणवार पुंजतो जिनमुद्राए पग राखी योगमुद्राए हाथ राखी गुरु आदेश पूर्वक प्रथम 'इर्यावहिया प्रतिक्रमी ( पडिक्कमी ) खमा० इच्छा०
१ इरियावहिया ए कांई सामान्य क्रिया नथी शुद्ध उपयोग पूक इरिया ही पडिकमनार कठिन कर्मोनी निर्जरा करे छे. अबविज्ञान अने केवलज्ञान जेवी विशिष्ट स्थितिए पहोंचे छे. आ इरियावहिनो अर्थ विचारवामां आवे तो आमां एकेन्द्रियथी मांडी याव
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(४०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ दुवालसगुणविभूसियसिरिअरिहंतपयाराहणत्थं (द्वादशगुणविभूषितश्रीअर्हत्पदाराधनार्थ) काउस्सग्गं करेमिपंचेन्द्रिय सुधीना जीवोनी विराधनाना मिच्छामिदुक्कडं आवे छे जेनी संख्या १८२४१२० थायछे, 'जे मे जीवा विराहिया एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिया पंचिंदिया' जे मे जीवो विराध्या एकेन्द्रिय थी यावत् पंचेन्द्रिय सुधी,अहीं एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना ५६३ जीवभेद लेवा, [एकेन्द्रिय २२. पृथ्वीकाय (४) सूक्ष्म अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त, बादर अप०,बा०प०. एवं अप्काय (४).तेउकाय(४). वायुकाय (४). साधारण वनस्पतिकाय (४). आगळना तमाम जीवो बादर ज होय छे जेथी प्रत्येकवन० अप० (१) प्रत्यक वन० ५० (२).दीन्द्रिय २.अप० द्वी०.१. प०द्वी २.त्रीन्द्रिय २.चतुरि०२. पंचेन्द्रियतियच २०. जलचर (४) सम्म० अप०, सं०प०, गर्भज अप०, गर्भज पर्याप्ता. चतुष्पद (४). उरःपरिसर्प (४). भुजपरि० ( ४ ). खेचर (४). नारक १४. सात अप०, सात प०. मनुष्य ३०३ पांच भरत, पांच औरवत, पांच महाविदेह, ए १५ कर्मभूमि, पांच हिमवंत, पांच हिरण्यवंत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक, पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु, ए ३० अकर्मभूमि, छप्पन अंतीप, कुल १०१. सम्मू० मनु० अपर्याप्ताज होय माटे ते १०१, अने गर्भज अप०१०१ पर्याप्ता १०१(३०३).देवता १९८,दश भुवनपति, पंदर परमाधामी, ८ व्यंतर, ८ वाणव्यंतर, १० तिर्यग् जुंभक, ५.चरज्योतिष, ५ स्थिर ज्यो०, ३ किल्बिषिक, बार देवलोक, ९
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कासग बिधि ||
( ४१ )
(
जो गुरुनी जोगवाइ होय तो गुरु आदेश आपे करेह ' इच्छं,
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दुवालसगुणविभूसियसिरि
-लोकान्तिक, ९ ग्रैवेयक, ५ अनुत्तर, ( १०, १५, ८, ८, १०, ५, ५,३,१२,९,९,५,कुल ९९ ) अप० ९९, पर्या० ९९ (१९८) सर्व मळी जीवभेद ( २२, २, २, २, २०, १४, ३०३, १९८ ) ५६३ विराधनाना 'अभिहिया' सामा आवता हण्या १, ' बत्तिया '
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ढांकया २, 'लेसिया' जमीन साथे घस्यां ३, 'संघा - इया' शरीरे शरीर एकठा कर्या. ४. ' संघट्टिया ' स्पर्शथी दुहव्या ५, 'परियाविया' परिताप्या ६, 'किलामिया' मृतप्राय कर्या ७, 'उदविया' त्रास पमाडया ८, ठाणाओ ठाणं संकामिया' एकस्थानथी बीजे स्थाने मूक्या ९, जीवियाओ ववरोविया' प्राणथी जुदा कर्या (मार्या) १०, ए दश भेदे गुणतां ५६३०, रागद्वेषथी विराधना थाय छे माटे राग अने द्वेष बेथी गुणतां ११२६०, मन वचन कायाए विराधना कराय छे जेथी ए त्रणे गुणतां ३३७८०, कर कराववुं अने अनुमोदवुं ए ऋण विराधनाना भेदो होवाथी त्रणे गुणतां २०१३४०, वर्त्तमान अतीत अने अनागत एत्रण काले गुणतां ३०४०२०, ते विराधनाने अरिहंत सिद्ध साधु देव गुरु आत्मा ए ६ साक्षिए मिच्छामि दुकडं होवाथी ६ गुणतां १८२४१२० भेद थाय छे. विचारसित्तरीमां उपयोग अने अनुपयोगे विराधना थती होवाथी ते बे भेदे गुणतां ३६४८२४० भेद पण बताव्या छे.
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(४२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ अरिहंतपयाराहणत्थं करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्ति० अन्नत्थ० बार लोगस्स 'चंदेसु निम्मलयरा' सुधी काउसग्ग करवो. यथाशक्ति उभा उभा काउसग्ग करवा उपयोग राखवो अने तेमां 'जिनमुद्राए' उभा रहे, एटले बेउ पगना आगळना पंजाना भागमां [चार आगळy ] अंतर राखq. अने पाछल हानीना भागमा 'किंचिन्न्यून चार आंगळy' अंतर राखवू. डाबा हाथमां चरवळो अने जमणा हाथमां मुहपत्ती राखवी, काउसग्ग माटे तेना आगारो तथा दोषो तरफ खास उपयोग राखवो, काउसग्गमा आगार शिवाय अंग बीलकुल चलावq नहि, केटलाक संख्या ग़णवा माटे आंगलीना वेढा गणवा, होठ फफडाववा विगेरे करे छे, परन्तु तेम करवाथी दोष लागे छे वास्तविक रीतिए अंदर जीभ पण हालवी जोईये नही. दांते दांतनो स्पर्श करवो नही, इत्यादि खास उपयोग राखवानी आवश्यकता छे. काउसग्ग पारी प्रकट लोगस्स कही खमा दइ अविधिआशातना मिच्छा मि दुक्कडं कहे.
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नव चैत्यवंदन विधि ॥
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॥ नव चैत्यवन्दन विधि.॥ ऋद्धिमंत भाग्यवान् जीवे दरेक मन्दिरे तेना उपयोगी पूजोपकरण कलश. धूपधाणुं, पूजानीवाटकी, फूलछाबडी, केसर, सुखड, वाळाकुंची, बरास, वरख विगेरे तमाम यथासंपत्तिए लइ जवा तथा फल फूल नैवेद्यसोनानाj,रूपानाणुं विगेरे यथाशक्ति लइ महोत्सव सहित दीन, अनाथादिने दानादि आपता दहेरासरे जइ विधि साचवता नीसीही त्रिकादि पूर्वक चैत्यवंदन करवू. सर्व मन्दिरे ते प्रमाणे शक्ति न होय तो मुख्य एक मन्दिरे पूजोपकरणादि मुकवा अथवा यथाशक्ति स्वस्तिकादि करवा, देहेरासरमा प्रवेश करतां पांच अभिगम साचववा, एक वस्त्रनुं उत्तरासंग [ छेडा आंतरी वाळो खेस] अवश्य करवू, (हालमां उत्तरासंग खेस] नी प्रवृत्ति बहुज ओछी जोवामां आवे छे पण तेमां विधिनी न्यूनता थाय छे ते खास लक्ष्यमां राखq.) प्रथम नीसीही कहेवी 'निसीही कार्यना निषेधथीथयेल (नेषेधिकी) एटले प्रथम घरव्यापार कुटुंबादि
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( ४४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ संबंधी तमाम चिन्तानो त्याग करी हुं प्रवेश करूं हूं. त्यारबाद दहेरासर संबंधी संभाळवानुं कार्य (आशातना विगेरे दूर कर इत्यादि) संभाळी बीजी नीसीही कही ते संबंधी चिन्तानो हवे आगळ गभारा पांसे आवता त्याग कयों अने चैत्यवन्दन करवा बेसता भावस्तमां आत्माने लीन करवा त्रीजी नीसीही बोलवी. प्रभुमंदिरमां प्रवेश करतां प्रभुदृष्टिमां आवे के तुरत मस्तकं नमाव, अंजलि जोडवी, प्रणाम करवो. त्रण प्रदक्षिणाओ देवी, प्रदक्षिणा देता समवसरणमां प्रभुना जेम चार दिशाए दर्शन थाय छे तेम चार तरफ प्रभुना दर्शन करवा अगर तेनी भावना करवी.
पुरुषे हमेशां प्रभुना जमणा अंग तरफ अवग्रह साचवी उभा रहेवुं अगर बेसवुं, अने स्त्रीओए डाबी बाजुए अवग्रह साचवी रहेतुं त्यां धूपपूजा चामर ढाळवा विगेरे यथोचित कर, प्रभुनी सन्मुख दिशा शिवाय बीजी कोइ दिशा तरफ दृष्टि नांखवी नही, शरीरने खणवूं विगेरे कोइपण आशातनानुं स्थान
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नव चैत्यवंदन विधि ||
(४५)
सेवयुं नहि, 'आशातना' एटले के आय - सम्यग्दर्शनादि निज गुणोनो लाभ, तेनी शातना - खंडना एटले विनाश थवो. आ आशातनानो सामान्य अर्थ पण जोतां तेमां आत्माने हानि थाय छे माटे ते स्थान सेवयुं नही. प्रभुनी सन्मुख गभाराद्वारे उभा रही प्रभुना स्वरूपनुं चिन्तवन करी असाधारण गुणसूचक प्रभुनी स्तुति करवी, पछी स्वस्तिकादि यथाशक्ति करी चैत्यवन्दन करवुं, चैत्यवन्दनमां त्रणमुद्रानो विधि साचववो, योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा, जिनमुद्रा, योगमुद्रा' एटले बेउ हाथनी दशे आंगलीओ मांहेमांहे अन्तरित करी कमळना डोडा आकारे बेउ हाथ पेट उपर कूणीओ रहे तेम राखवा, आ मुद्राथी प्रभु प्रत्ये आपणी नम्रता थाय छे, प्रभु गुणनी अधिकतानो भास थाय छे, अने यथार्थ एकतानवृत्ति थाय छे, 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' एटले मोती उत्पन्न थवानी छीपना जोडाना आकारे बेउ हाथ सरखा गर्भित राखी ललाट (कपाल) ना मध्यभागे लगाडवा. बीजा आचार्य मध्यभाग आगल राखवा
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( ४६ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह | पण लगाडवा नहि तेम कहे छे. स्त्रीओए हाथ उंचा करता स्तनादि अवयवो देखाय तेम थवं न जोईये, जिनमुद्रा एटले बेउ पग आगलनी आंगलीओना भाग (पहोंचा ) नुं अंतर चार आंगल थाय अने पाछलनी हानीओनुं अंतर किंचिन्न्यून थाय तेवी रीते राखी उभा रहेवुं.
मुद्राओनो उपयोग.
स्तुति स्तोत्र, खमासमण, चैत्यवन्दन, शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) स्तवन विगेरे सूत्रो योगमुद्रा साचवी बोलवाना छे.
प्रणिधानसूत्र चैत्योनी वन्दनानुं सूत्र " जावंति चेइआई " मुनिवन्दन सूत्र “ जावंत केवि साहू " अने प्रार्थना सूत्र "जयवीयराय - आभवमखंडा" सुधी ए सूत्रो मुक्ताशुक्तिमुद्रा साचवी बोलवाना छे. वांदणा देवा, अरिहंत चेईयाणं विगेरे कार्योत्सर्गना सूत्रो बोलवा, काउस्सग्ग करवो विगेरेमां जिनमुद्रा साचववानी छे.
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___गुरुवंदन व्याख्यानश्रवण प्रत्याख्यान ग्रहणविधि (४७)
चैत्यवन्दन करता बनता सुधी जे प्रभु सन्मुख चैत्यवन्दन करता होईए तेमनुज चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुति बोलवी.
चैत्यवन्दन करता वर्ण-अर्थ अने आलबंननो अवश्य उपयोग राखवो जेनुं स्वरूप प्रथम कर्तुं छे.
स्वस्तिकादि तथा चैत्यवन्दनादि प्रभुभक्तिमां लीन थता आत्माओने ते समये धर्मना चारे अंग दान, शील, तप अने भावनी समकाले आराधना थाय छे. आश्रव कषायादि कर्मबन्धना साधनोनो त्याग थाय छे, तथा किंचिदंशे भव्यजीवोने बारे व्रतोनी पण आराधना थाय छे. तथा सम्यक्त्वशुद्धि, दृढता तथा वृछिन तो मुख्य साधन छे.
गुरुवन्दन व्याख्यानश्रवण प्रत्याख्यान ग्रहणविधि.
प्रभु दर्शन-पूजन जेटबुं अगत्यनुं छे तेटबुंज गुरुवन्दन पण खास अगयत्यनुं छे माटे गुरुना स्थानमां आवी विधिपूर्वक गुरुवन्दन करवू, स्वस्तिक
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(४८)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
करवा पूर्वक गुरुमुख कमलथी श्रवण विधिपूर्वक श्रीसिद्धचक्र महाराजना माहात्म्यनु, संसारनी असारतार्नु, पोतानी सामाचारीनुं विगेरे मुक्तिमार्गने देखाडनारं व्याख्यान श्रवण करवू, विधिसहित प्रत्याख्यान ग्रहण करवं, प्रत्याख्यान ग्रहण करतां दायक-ग्राहकनी जाणग-अजाणगनी चउभंगी खास ध्यानमा राखी आराधक भांगो लेवो, प्रत्याख्यानमां म्हारे केवी रीते वर्तवू, शो त्याग कयों आवा शा शा आगारो छे विगेरे तमाम समजवा उपयोग राखवो.
प्रभातमा प्रतिक्रमण वखते, दहेरासरे चैत्यवंदन कर्या पछी प्रभुसमद पञ्चक्खाण ग्रहण कयु छे तो पण गुरुसमक्ष लेवानी खास जरुर छे, मनमां दृढनियम कयों होय तो पण शास्त्रोक्त सूत्रोच्चार सहित गुरु समक्ष लेवाथी सील मारवामां आवे छे. ___स्वस्थाने आवी पूजा सामग्री तैयार करी स्नान करवू, स्नान- पाणी कोइ वासणमां झीली ले के विधिए स्नान करे, हम्मेंशा स्नान परनालवाला
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श्री सिद्धचक्रना यंत्रनी पुनः धूपादिथी पूजा करवी. (४९) जमीनथी उंचा बाजोठ उपर स्नान करे, जेथी तेनो रेलो जवाथी, कीडी, कुंथुआ, लीलफुल आदि कोइ जीवनी विराधना न थाय अने ते पाणी निर्जीव शुद्ध स्थंडिल भूमि जोइ छुटुं छुटुं परिठवq के जेथी तुरतमा सुकाइ जवाथी संमूर्छिम जीवोत्पत्ति तथा लीलफूल विगेरे थवानो संभव न रहे, शरीर लोही नाखी निर्जल थये बीजं वस्त्र फेरवी शुद्ध सफेद बीजाए नहि वापरेल पवित्र वस्त्रो पूजा माटे राखवा, पूजामां रेशमी दुकूल-वस्त्रो बीजा उत्तम वर्णना होय तो पण चाले छे. स्त्री अने पुरुषोना वस्त्रोमां बीलकुल फेरफार करवो नहि, फाटेला सांधेला मेला वापरवा नहि वस्त्र शुद्धि राखवी.
अंग वसन मन भूमिका, पूजोपकरण सार। न्यायद्रव्य विधिशुद्धिता, शुद्धि सात प्रकार ॥१॥ __ए सात शुद्धिनो बनतो उपयोग राखवो, अंग, अग्र, भाव विगेरे अनेक पूजा भेदोनुं स्वरूप समजी जेम विशिष्ट पूजन थाय तेम वर्तवू, जेजे पदाराधननो दिवस होय ते ते दिवसे ते ते पदनी विशिष्ट पूजा करवी विगेरे,संपूर्णविधि साचववासाथेपूजाअष्टप्रकारी आदि विस्तारथी करवीश्री अरिहंतपदनी विशेष पूजा करवी.
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(५०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ॥श्री सिद्धचक्र यंत्रनी पुनः धूपादिथी पूजा करवी.॥
मध्याह्नकाले पुनः देववंदन आठ थोइए करवं. देववंदनमा श्री तीर्थकर देवना चारे निक्षेपानीआराधना तथा ज्ञानादि गुणोनी, तीर्थादिनी आराधनाओ थाय छे. देववंदनना बार अधिकारोनो घणो विचार समजवा लायक छे. ___ ही नमो अरिहंताणं” ए मंत्र जाप पदनो बे हजार [ वीश नवकारवाळी ] जाप करवो, पच्चक्खाणनो टाइम थये पच्चक्खाण पारवं.
॥ पच्चक्खाण पारखानो विधि.॥
खमा० इरियावही पडिकमी खमा० इलाकारण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन करूं ? इलं, जगचिन्तामणिथी यावत् जयवीयराय सुधी चैत्यवन्दन करवू, खमा० इडा० सझाय करं, इचं नवकार गणी "मह्नजिणाणं आणं” ए पांच गाथानी सज्झाय (आ सज्झायमां श्रावकनी उत्तम करणीनुं स्वरूप बतावेईं
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पच्चख्खाण पारवानो विधि ॥
(५१)
छे ते खास विचारवा लायक छे तेमांनी आपणी शक्ति अनुसार केटली करणी करी अने हवे केटली बाकी छे ते खास स्मरणमां राखी यथोचित अवसर मळ्ये ते ते करणीओ करवा प्रयत्न करवो ) करवी.
खमा० इच्छा० मुहपत्ती पडिलेहुं, इच्छं, कही मुहपत्ती पडिले हवी, खमा० इच्छा० पच्चक्खाण पा 'यथाशक्ति' खमा० इच्छा० पच्चक्खाण पायुं, 'तहत्ति' कही, मुट्ठि सहित जमणो हाथ चरवळा उपर स्थापी एक नवकार गणी “ उग्गए सूरे नमुक्कारसहियं पोरिसी साढपोरिसी सुरे उग्गए पुरिम मुट्ठिसहियं पच्चक्खाण कर्यं चोवीहार आयंबिल एकासफुं पच्चक्खाण कर्यु तिविहार पच्चकखाण फासियं पालियं सोहियं
१ ' फासियं ' लीधेलुं पच्चक्खाण तेना काल सुधी सारी ते स्प ( आराध्युं . )
२ 'पालियं' पच्चक्खाणनो काळ पूरो न थाय त्यांसुधी वारंवार संभारी साचव्युं.
३ ' सोहियं ' गुर्वादिने निमंत्रण करी व्होरावी वापरवाथी शोभायुं.
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(५२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
तीरियं रकिहियं आराहियं जं च न आराहियं तस्स "मिच्छामि दुक्कडं " आप्रमाणे पाठ बोली पच्चक्खाण पारवं. एक नवकार गणवो. . आयंबिलना पच्चक्खाणनी साथे काल संबंधी पोरिसी, साम्पोरिसी, पुरिम, अव विगेरे पोतानी शक्ति प्रमाणे-पच्चक्खाण छे, एकवार भोजननुं एकासण पच्चक्खाण छे; प्रासुक पाणीनुं पाणस्सनुं पच्चक्खाण छे, ते साथे मुट्ठिसहियं, पोते धारेलु गंठसहियादि पच्चक्खाण छे.
१ 'तीरियं' काल पूर्ण थया पछी तेनी शुद्धि माटे थोडा अधिक काल सुधी सबुर राखीने पारवाथी पार उतायु.
२ "किटियं' वापरती वखते आज म्हारुं अमुक पच्चख्खाण हतुं ते में संपूर्ण आराध्यु, हवे हुं वापरू छु तेम पच्चक्खाणनी स्तवना (स्मरण) करवायी वखाण्यु.
३ 'आराहियं ' आ म्हारं पच्चक्खाण उपर प्रकारनी सर्व शुद्धि सहित श्री जिनाज्ञा पाळवा पूर्वक फलाशंसा रहितपणे केवळ कर्मक्षयनी अभिलाषाथी कर्यु छे.
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पच्चक्खाण पारवानो विधि ॥
(५३)
पछी आहार ( आयंबिल ) करवाना स्थानके आवी श्रीसिद्धचक्र भगवान्नुं ध्यान धरतो छतो बनता सुधी 'उत्कृष्ट आयंबिलना प्रकारवाळु तथा श्री अरिहंतप्रभुनुं ध्यान तथा सात्त्विक वृत्ति रहेवा माटे उज्ज्वलवर्णे चोखानुं आयंबिल करे, आयंबिल करतां आहार करता जे विधि प्रथम बताव्यो छे ते उपर खास लक्ष्य राखj.
आयंबिल कर्या बाद स्वच्छ म्हों (मुखशुद्धि ) करी ठाम चउविहार बनी शके तो ते, नहि तो तिविहारनुं पच्चक्खाण करे, साथे उपयोगनी तीव्रता माटे मुट्ठिसहियादि पच्चक्खाण कर, त्यारबाद पाणी पीव्रं होय तो चैत्यवन्दन करी, जो मुट्ठिसहियादि पच्चखाण होय तो ते नवकार गणी पारी पाणी पीव्रं, पुनः मुट्ठिसहियादि पच्चक्खाण करी लेवुं, आ
१ आयंबिलना प्रकारो गीतार्थ गुरुमहाराज पासे समजी यथाशक्ति उत्कृष्ट थाय तेवो उपयोग राखवो, उत्कृष्ट न थइ शके चो पण यथाशक्ति आराधना अवश्य करवी.
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( ५४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
प्रमाणे करवाथी उपयोगनी तीव्रता साथे विशेष लाभनुं कारण विरतिपणुं आत्माने रहे छे. ॥ शेषकानुं कर्त्तव्य. ॥
आ दिवसोमां जेम बने तेम प्रमाद सेववो नहि, विकथा करवी नहि. कषायने अवकाश आपवो नहि अने श्री सिद्धचक्र भगवान्नुं अपूर्व माहात्म्य हृदयमां स्फुरायमान थाय, तेमना ध्यानमां आत्मानी विशेष लीनता थाय ते माटे तेमनुं आराधन करनार श्रीपाल महाराजना चरित्रगर्भित श्री श्रीपाल महाराजनो रास वांचवो अगर सांभळवो, तेनी अर्थविचारणा करवी. सांजनुं पडिलेहण कर, देववन्दन कर.
देववन्दन कर्या बाद पाणी पीवातुं नथी, सन्ध्या कालनी आरती, धूप, दीप विगेरे पूजा करवी, श्री सिद्धचक्र यंत्रनी पण संध्याकाले धूपादि यथोचित पूजा करवी, सांझे दैवसिक प्रतिक्रमण कर, प्रतिक्रमण कया बाद गुरुमहाराजश्रीनी जोगवाई होय
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पच्चक्खाण पारवानो विधि ॥
(५५)
तो गुरुशुश्रूषा करवी, श्री अरिहंत प्रभुनुं ध्यानादि स्वरूप विगेरे धर्मकथा करवी,
प्रहर रात्रि लगभग थये संथारा पोरिसी सांभळवी संथाराविधि उपर लक्ष्य राखी ते प्रमाणे वर्त्ततुं, पोताना आराधन करेला दिवसनी सफलता मानतो, श्री पंचपरमेष्ठि मंत्रनो जाप करतो संथारो पाथरवानी जग्या चरवलाथी प्रमार्जी संथारीयुं, उत्तरपट्टो पाथरी श्री अरिहंत प्रभुनुं शुक्लवर्णे ध्यान करतो तेमना गुणोने हृदयमां भावतो अल्प निद्रा करे,
॥ इति प्रथम दिवस कर्तव्य विधि ॥
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॥श्री सिद्ध पदाराधन बीजा दिवसनुं कर्तव्य.।।
उपर प्रमाणेज जागृत थयाथी तमाम कृत्य समजवू, मात्र आज लिक परमात्मानुं ध्यान करवानुं छे, अविनाशि स्वभावनो बोध आपवारूप भव्यजीवो उपर असाधारण उपकार करनार सिद्ध परमात्मा सकल कर्मरहित थइ केवी शुद्ध अवगाहनामां त्यां बीराजमान छे, तेमना आत्मानी साथे पोताना आत्मानो भेदाभेद चिन्तववो, तेमना ज्योति स्वरूप रूपातीत अवस्थाना शुद्ध ध्यानमा आत्माने तन्मय बनाववो,
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श्री सिद्ध भगवंतना गुणोनो विचार ||
॥ श्री सिद्ध भगवंतना गुणोनो विचार.
(५७)
जो के कर्मक्षयना योगे सिद्ध परमात्माना अनन्त गुणो प्रकाशित थयेला छे, तो पण महापुरुषोए ध्यान करवाने माटे एकत्रीश गुणोनो अथवा पंदर भेदे सिद्धता होवाथी पंदर भेदोना जाप विगेरे विधि अन्य तप विगेरेमां आवे छे, तो पण काहीं आठ कर्ममलथी लेपायेल आत्मा ते कर्मना क्षयथी कया कया गुणने प्राप्त करे छे तथा आत्मानुं निर्लिप्त दशानुं स्वरूप केतुं होय ते विगेरे ध्यान करवा तथा आत्माने ते ध्यानमां लीन करवा आठ कर्मक्षयथी ऊपजेल आठ गुणोनुं ग्रहण कराय छे.
॥ सिद्धपदना ८ गुणो ॥
एक एक कर्मना क्षय थकी, नीपन्यो गुण एक एक । आठ गुणे इम प्रणमीये, सिद्ध प्रभु सुविवेक ॥ १॥
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(५८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ अनन्तं केवलज्ञानं, ज्ञानावरणसंक्षयात् । अनन्तं दर्शनं चापि, दर्शनावरणक्षयात ॥१॥ क्षायिके शुद्धसम्यक्त्व-चारित्रे मोहनिग्रहात् । अनन्ते सुखवीयें च, वेद्यविनक्षयात्क्रमात् ॥२॥ आयुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः। नामगोत्रक्षयादेवाऽ-मूर्तानन्तावगाहना ॥३॥ ___ आ प्राचीन श्लोकोथी सिद्ध परमात्माना आठ गुणो बताव्या छे, जो के उपरोक्त श्लोकोमा मोहनीय क्षयथी सम्यक्त्व १ अने क्षायिकचारित्र २ ए बे गुणो बताव्या छे, अने नाम तथा गोत्र ए बेउ कर्मनाक्षयथी 'अमूर्त अनन्त अवगाहना' नामनो एक गुण बताव्यो छे. संख्यामा गुण ८ छे, परन्तु बीजा अनेक स्थलोए मोहक्षयथी उत्पन्न थयेल बेउगुणने एकजलीधा छे,अने नाम कर्मक्षयथी अरूपी गुण अने गोत्रक्षयथी अगुरुलघुस्वभाव गुण एम जुदा जुदा बे गणाव्या छे, अने तेज प्रमाणे अहीं पण खमासमण देवामां ते मुजब गुणो गणाव्या छे.
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सिद्धना ८ गुण गर्भित नमस्कार पदो॥ (५९) ॥ सिद्धपद नमस्कारपूर्वक सिद्ध स्वरूपमा आत्मलीनता स्वरूप सूचक, खमासमणना दूहाओ॥
गुण अनन्त निर्मल थया, सहज स्वरूप ऊजास । अष्ट कर्म मल क्षय करी, भये सिद्ध नमो तास॥१॥ रूपातीत स्वभाव जे, केवल दसण नाणीरे । ते ध्याता निज आत्मा, होय सिद्ध गुण खाणीरे॥२॥
वीर जिनेश्वर उपदिशे०
॥ सिद्धना ८ गुणगर्भित नमस्कार पदो. १॥ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोद्भूतानन्तज्ञानगुणविभूषिते
भ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः॥ २ ॥दर्शनावरणीयकर्मक्षयोद्भूतानन्तदर्शनगुणविभूषि
तेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः॥ ३॥वेदनीयकर्मक्षयोद्भूताव्याबाधसुखगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः॥
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( ६० ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
४॥मोहनीय कर्मक्षयोद्भृतानन्तसम्यक्त्वचारित्रगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेज्यो नमः॥
५ ॥ आयुष्कर्मक्षयोद्भूतादयस्थितिगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः ॥
६ ॥ नामकर्मक्षयोद्भूता रूपित्वादिगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः ॥
७ ॥ गोत्रकर्मक्षयोद्भूतागुरुलघुगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः ॥
८ ॥अन्तरायकर्मक्षयोद्भूतानन्ताकरणवीर्यगुणविभूषितेभ्यः श्रीसिद्धेभ्यो नमः ॥
काउस्सग्ग वखते ' अडगुणविभूसियसिरिसिद्धपयाराहणत्थं काउस्सग्गं करेमि ' ( अष्टगुणविभूषितश्रीसिद्धपदाराधनार्थं ) आ प्रमाणे बोलवु जापमां ओ ही नमो सिद्धाणं ' जपतुं, सिद्धपदनुं विशेष पूजन कर,
6
बाकी तमाम विधि पूर्वी माफक जाणवो,
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सिद्धगुणोनी भावना रहेवा माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ ( ६१ ) मात्र श्री सिद्ध परमात्मानुं रक्तवर्णे ध्यान करवानुं होवाथी आयंबिलमां पण रक्तवर्ण घउनुं द्रव्य ले..
श्री सिद्धगुणोनी हृदयमां भावना रहेवा माटे नमस्कार पदोना अर्थ.
-:०:
१ ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल, अनन्त ज्ञान (केवलज्ञान ) गुण.
२ दर्शनावरणीय कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अनन्त केवल दर्शन गुण,
३ वेदनीय कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अव्याबाध सुख गुण.
४ मोहनीय कर्मना क्षयथी . प्रकट थयेल क्षायिक सम्यक्त्व अने अनन्त चारित्रगुण,
५ आयुष्य कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अक्षय स्थिति (फरी पालुं आववुं न होवाथी ) गुण.
६ नाम कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अनन्त अवगाह - ना सहित अमूर्त्तगुण,
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(६२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ७ गोत्र कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अनन्त अवगा
हना सहित अगुरुलघु गुण. ८ अन्तराय कर्मना क्षयथी प्रकट थयेल अनन्त अकरण [आत्मिक] वीर्य प्रभृति गुण.
आ आठ गुणोथी विभूषित श्री सिद्धभगवानने नमस्कार थाओ.
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ॐ
आचार्यपदाराधन त्रोजा दिवसनुं र्कत्तव्य.
श्री आचार्यपद माहात्म्य तथा तेमना गुणोनो विचार .
पांच आचारना शुद्ध स्वरूपने आराधन करी बताववा रूप उपकारथी ध्यान करवा योग्य श्री आचार्य भगवंतना अनेक गुणो पैकी छत्रीश छत्रीशीओ मुख्य छे, संबोधप्रकरणमां श्री हरिभद्रसूरि भगवंते तेथी पण वधारे छत्रीशीओ गणावी श्री आचार्यभगवंतना गुणो गाया छे. तेमनुं ध्यान करवा मुख्य छत्रीशी (३६ गुणो ) ए जाप करवामां आवे छे.
||श्री आचार्य पदना ३६ गुणो ॥
पडिरुवाइ चउदस, खंतिमाइय दसविहो धम्मो । बारस य भावणाओ, सूरिगुणा हुंति छत्तीसं ॥१॥ पडिरूवादिक चौदगुण, क्षान्त्यादिक दश धर्म । भावना बार छत्रीश ए, सूरिगुणनुं मर्म, ॥ १ ॥
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( ६४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
श्री आचार्यपद नमस्कार पूर्वक तन्मयतासूचक खमासमणना दूहा ॥
छत्रीश छत्रीशी गुणे, युग प्रधान मुणींद । निजमत परमत जाणता, नमो तेह सूरींद ॥१॥ ध्यातां आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानीरे । पंचप्रस्थाने आतमा, आचारज होय प्राणीरे ॥ १ ॥ ॥ वीर० ॥२॥
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प्रदक्षिणा दइ स्वस्तिक करी खमा० देइ बोलवाना आचार्य पदना ३६ गुणगर्भित नमस्कार पदो.
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१ श्रप्रतिरूपगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः २ श्रतेिजस्वितागुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः ३ श्रीयुग प्रधानागमगुणविभूषिताय श्रीआचार्यायनमः ४ श्री मधुरवाक्यगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः ५ श्री गाम्भीर्य गुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः ६ श्रधैर्य सुबुद्धिगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः
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आचार्य पदना गुण गर्भित नमस्कार पदो॥ (६५) ७ श्री उपदेशतत्परतागुणविभूषिताय श्रीआचायाय
नमः
८ श्रीअपरिश्राविगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः ९ श्रीसौम्यप्रकृतिगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १० श्रीसंग्रहशीलतागुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः ११ श्रीअभिग्रहगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १२ श्रीअविकत्थकगुणविभूषिताय श्रीआचायाय नमः १३ श्रीअचपलतागुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १४ श्रीप्रशान्तहृदयगुणविभूषिताय श्रीआचार्यायनमः १५ श्रीक्षमाधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १६ श्रीमार्दवधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १७ श्रीआर्जवधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १८ श्रीमुक्तिधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः १ए श्रीतपोधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः २० श्रीसंयमधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचायाय नमः २१ श्रीसत्यधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः २२ श्रीशौचधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचार्याय नमः
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(६६) - नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ -- २३श्रीआकिंचन्यधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचायायनमः २४ श्रीब्रह्मचर्यधर्मगुणविभूषिताय श्रीआचायाय नमः २५ श्रीअनित्यभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्री* आचायाय नमः २६ श्रीअशरणभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ
. चार्याय नमः २७ श्रीसंसारभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ
चार्याय नमः २८ श्रीएकत्वभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ
चार्याय नमः २९ श्रीअन्यत्वभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्री- आचार्याय नमः ३० श्रीअशुचित्वभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्री. आचायाय नमः ३१ श्रीआश्रवभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ.. चायाय नमः ३२ श्रीसंवरभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ: चार्याय नमः
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आचार्य पदना गुणगर्भित नमस्कार पदो॥ (६७) ३३ श्रीनिर्जराभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्रीआ
चार्याय नमः ३४ श्रीलोकस्वभावभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय श्री - आचार्याय नमः ३५ श्रीबोधिदुर्लभत्वभावनाभावितत्वगुणविभूषिताय ___ श्रीआचायाय नमः ३६ श्रीधर्मकथकार्हन्त एव इति भावनाभाषितत्वगुण
विभूषिताय श्रीआचार्याय नमः
श्रीआचार्य भगवंतना ३६ गुणोनी हृदयमा भावना
रहेवा नमस्कारपदोनो अर्थ. १ जेमना देखतां पूर्वमहापुरुषो श्री गौतमस्वामी
आदि स्मृतिमां आवे तेवा स्वरूपवन्त होय ते प्रतिरूप गुण. २ सुर्य समान तेजस्वी प्रतापवंत ते तेजस्विता गुण. ३ युगप्रधान भगवंत समान ज्ञानवंत० ते युगप्रधानागम गुण.
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(६८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ४ अमृतसरखा मधुरवचनवान् ते मधुर वाक्य गुण. ५ समुद्र सरखा गंभीरता गुणवान्० ते गाम्भीर्य गुण, ६ उत्तमबुद्धिनिधान धैर्यतावान्० ते धैर्य सुबुद्धि गुण. ७ उपदेश देवामां हमेशां परायण० ते उपदेश तत्परता
गुण,
८ जेमने निवेदन करेली गुह्य वात होठ बहार जाय
नहि ते अपरिश्रावि गुण. ९ चन्द्र समान सौम्य शीतल स्वभाववंत० ते सौम्य
प्रकृति गुण. १० गच्छ हितने माटे जोइतो संग्रह करवाने स्वभाव
वंत० ते संग्रहशीलता गुण. ११ द्रव्य क्षेत्र काल भावथी विविध अभिग्रहधारी
होय ते अभिग्रह गुण. १२ आत्मश्लाघा नहि करनार ते अविकत्थक गुण. १३ पर्वत सरखा चलायमान थाय नहि ते अचल स्थि
रता गुण.
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आचार्य पदना गुणमर्भित नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (६९) १४ वैराग्यरंजित हृदयवंत होय ते प्रशांत गुण. १५ क्षमाधर्मथी विभूषित ते क्षमा गुण, १६ कोमळता धर्मथी विभूषित० ते मार्दव गुण. . १७ सरळता धर्मथी विभूषित० ते आर्जव गुण. १८ बाह्यान्यन्तर परिग्रहथी मुक्त मुक्तिधर्मथी विभूषित.
ते मुक्ति गुण. १९ बाह्याभ्यंतर बारभेदे तपधर्मथी विभूषित० ते - तपो गुण. २० सत्तरप्रकारे संयमधर्मथी विभूषित० ते संयम गुण. २१ सत्यता धर्मथी विभूषित० ते सत्य गुण. २२ शुचिगुणपवित्रता संयममां निरतिचारपणारूप ___ धर्मथी विभूषित० ते शौचगुण. २३ शरीर धमोंपकरणादि विषे पण निर्ममत्व धर्मथी
विभूषित० ते आकिंचन्य गुण. २४ नववाड सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य धर्मथी विभूषित.
ते ब्रह्मचर्य गुण.
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(७०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ २५ शरीरादि सर्व अनित्य जे ते अनित्यत्व भाव___नाभावितत्व गुण. २६ मात पिता विगेरे कोइनुं पण शरण नथी ते अश___ रणत्वभावनाभावितत्व गुण. २७ चतुर्गति संसार केवल दुःखनी खाण छे विगेरे ___ संसारभावनाभावितत्व गुण. २८ जीव एकलो आव्यो छे एकलो जाय छे एकलो
कर्म बांधे छे, भोगवे छे विगेरे एकत्वभावना० गुण. २९ शरीरादि बाह्य वस्तुथी आत्मा भिन्न छे तेवी
अन्यत्व भावना० गुण. . . ३० मलमूत्रनी खाण शरीर अशुचिनो भंडार ले तेवी
अशुचित्व भावना० गुण. ३१ मिथ्यात्व अविरति कषाय अने योग विगेरे कर्म
आववाना मार्ग छे ते आश्रव भावना० गुण, ३२ समिति गुप्ति आदि कर्म अटकाववाना मार्ग ले
ते संवर भावना० गुण.
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आचार्य पदोनी भावना माटे नमस्कारपदोनो अर्थ ॥ ( ७१ )
३३ बाह्य अभ्यन्तर तप कर्म खपाववाना मार्ग छे ते निर्जरा भावना० गुण.
३४ चौदराज लोकनुं षद्रव्यादिनुं स्वरूप चिन्तववा रूप लोकस्वभाव भावना० गुण.
३५ सर्व वस्तु सुलभ वे पण केवली प्रणीत धर्मनी श्रद्धारूप बोधि दुर्लभ वे ते बोधि भावना० गुण० ३६ धर्मना कहेनार श्री तीर्थंकर प्रभुज बे ते धर्मकथक दुर्लभत्वभावना० गुण.
आ ३६ गुणे विभूषित श्री आचार्य भगवंतने म्हारो नमस्कार थाओ श्री आचार्य पदाराधननो काउस्सग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र " छत्तीसगुणविभूसिय सिरिआयरियपयाराहणत्थं काउस्सग्गं करेमि " (षट्त्रिंशद्गुणविभूषितश्रीआचार्य पदाराधनार्थ) आ प्रमाणे बोलवु ३६ लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो जापपद ओ ही नमो यरियाणं" जप आ दिवसे श्री आचार्य पदमां जेम विशेष लीनता थाय तेम आचार्य गुणोनुं ध्यान स्मरण विशेष कर.
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(७२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
शेष तमाम विधि पूर्वनी माफक [ प्रथम दिवसनी जेम ] जाणवो, मात्र शासनस्तंभ गच्छधोरी आचार्य भगवंतनुं ध्यान पीतवणे करवान होवाथी चणानी दाळना द्रव्यनुं आयंबिल करवु उचित छे.
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श्री उपाध्यायपदाराधन
चतुर्थ दिवसनं कर्त्तव्य.
श्री उपाध्याय माहात्म्य तथा तेमना गुणोनो विचार.
शास्त्रप्रतिपादित यथार्थ विधिसहित सकल शास्त्राध्ययन पूर्वक शुद्ध चारित्राराधनमां लीन रही केवल उपकारक दृष्टिथी साधुसमुदायने अनेक प्रकारे संयम सेवनामां, मुक्तिमार्गमां साहाय्यता आपी पत्थर समान जडबुद्धि शिष्योने पण शास्त्रप्रवीण बनावे, उत्तम आचारमां सुविनीत नीपजावे, तेवा आचार्य पदनी योग्यतावान् सकल श्री संघना साहाय्यक श्री उपाध्याय भगवंतना अनेक गुणो पैकी अगीयार अंग
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(७४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ तथा चौद पूर्वना पाठकता रूप तेमना असाधारण पचीश गुणोनुं ध्यान तथा जाप विगेरे करी आत्माने तन्मय बनाववा आ दिवसनी आराधना छे.जो के श्री उपाध्यायजी भगवान्ना पचीश गुणोनी अनेक पचीशीओ शास्त्रमा वर्णवेली छे तो पण मुख्य उपरोक्त पचीशीनुं अथवा अन्यत्र आराधनामां ११ अगीयार अंग १२ बार उपांग, १ चरणसित्तरी, १ करणसित्तरी [अथवा १ द्वादशांगी सूत्रपाठकता अने १ द्वादशांग्यर्थपाठकता,) रूप पचीशीनी आराधना कराय छे.
श्री उपाध्याय पदना २५ गुणो..
इक्कारस अंगाई, चउदस पुवाइं जो अहिज्जेइ । अज्झावेइ परेसिं, पणवीसगुणो उवज्झाओ ॥१॥ अंग अग्यार भणे तथा, चउद पूर्व वळी जेह । परने भणावे प्रेमथी, उपाध्याय गुण एह ॥१॥
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श्री उपाध्यायपदना नमस्कारपूर्वक खमासमणना दुहा ॥ ( ७५)
श्री उपाध्यायपद नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक खमासणना दूहा.
बोध सूक्ष्म विणु जीवने, न होय तत्त्व प्रतीत । भणे भणावे सूत्रने, जयजय पाठक गीत ॥१॥ तप सज्झाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्यातारे । उपाध्याय ते आतमा जगबंधव जगभ्राता रे ॥१॥ वीर०
॥ श्री उपाध्याय भगवंतना २५ गुण गर्भित नमस्कार पदो.
१ श्री आचारांग सूत्रपठनपाठन तत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
२ श्रीसूत्रकृतांग सूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषिते - भ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
३ श्रीस्थानांग सूत्रपठनपाठन तत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेन्यो नमः ॥
४ श्रीसमवायांगसूत्र पठनपाठन तत्परतागुणविभूषिते - भ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः
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( ७६ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
५ श्रीभगवत्यंगसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः
६ श्रीज्ञाताधर्मकथांगसूत्रपठनपाठन तत्परतागुणविभूतेज्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
७ श्रीउपासकदशांगसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेज्यो नमः ॥
८ श्री अन्तकृदशांग सूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
९ श्री अनुत्तरौपपातिकदशांगसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेन्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः
१० श्रीप्रश्नव्याकरणांगसूत्रपठनपाठनतत्परंतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः
११ श्रीविपाकांगसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषिते - भ्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः
१२ श्रीउत्पादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषिते - भ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः
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श्री उपाध्यायपदना नमस्कारपदो ॥ (७७) १३ श्रीअग्रायणीयपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभू
षितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः १४ श्रीवीर्यप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभू
षितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः १५ श्रीअस्तिनास्तिप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परता
गुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः १६ श्रीज्ञानप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभू
तेच्याश्री उपाध्यायेभ्यो नमः॥ १७ श्रीसत्यप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभू
षितेभ्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः ॥ १८ श्रीआत्मप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभू
षितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः॥ १९ श्रीकर्मप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषि
तेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः॥ २० श्रीप्रत्याख्यानप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
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( ७८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
२१ श्रीविद्याप्रवादपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥
२२ श्रीकल्याणप्रवादपूर्वसूत्र पठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः ॥ २३ श्री प्राणावाय पूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः ॥ २४ श्रीक्रियाविशालपूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः उपाध्यायेभ्यो नमः ॥
२५ श्रीलोकबिन्दुसार पूर्वसूत्रपठनपाठनतत्परतागुणविभूषितेभ्यः श्री उपाध्यायेभ्यो नमः ॥
॥ श्री उपाध्याय भगवंतना २५ गुणोनी हृदयमां भावना रहेवा नमस्कार पदोना अर्थ ॥
१ श्रीआचाराग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. २ श्री सुयगडांग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. ३ श्रीठाणांग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर
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उपाध्यायपदना नमस्कार पदोना अर्थ॥ (७९) ४ श्री समवायांग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. ५ श्री भगवतीअंग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. ६ श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर, ७ श्री उपाशकदशांग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. ८ श्री अंतगडदशांग सूत्रभणवा भणाववामां तत्पर. ९ श्री अणुत्तरोववाइय सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. १० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. ११ श्री विपाकअंग सूत्र भणवा भणाववामां तत्पर. १२ एक क्रोड पदप्रमाण द्रव्यना उत्पाद, व्यय
अने ध्रौव्यपणानुं स्वरूप बतावनार पहेलू उत्पाद
पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर, १३ ९६ लाख पदप्रमाण, सर्व प्रकारना बीजनी कुल
संख्या बतावनार बीजुं अग्रायणीय पूर्व भणवाभ
णाववामां तत्पर, १४ ७० लाख पदप्रमाण, वीर्य जे बळ-प्रयत्न तेनो
अर्थ वीर्यचन्तनुं स्वरूप कहेनार त्रीजुं वीर्यप्रवाद . भणवा भणाववामां तत्पर.
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(८०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ १५ ६० लाख पदप्रमाण कुल अस्तिनास्तिस्वभाव- रूप सप्तभंगीने स्याद्वादनुं स्वरूप बतावनार चोथु
अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. १६ एक उणा क्रोड पद प्रमाण मति विगेरे पांचे ज्ञान
स्वरूप बतावनार पांचमुं ज्ञान प्रवाद पूर्व भणवा
भणाववामां तत्पर, १७ एक क्रोडने छ पद प्रमाण सत्यादि भाषानुं स्वरूप
अने भाष्यभाषक तेमज वाच्यवाचकनुं स्वरूप कहेनार छटुं सत्यप्रवाद पूर्व भणवा भणाववामां
तत्पर. १८ छवीशकोड पदप्रमाण आत्मव्यनुं कर्तृत्व,भोक्तृत्व व्यापकत्व नित्य,अनित्यादि स्वरूप कहेनार सातमुं
आत्मप्रवाद पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. १९ एक क्रोडने एंशीलाख पद प्रमाण आठे कोना बंध, उदय, उदारणा विगेरेनुं स्वरूप कहेनार आ
ठमुं कर्मप्रवाद पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. २० ८४ लाख पद प्रमाण सर्व प्रकारना पञ्चरकाणर्नु
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श्री उपाध्यायनपदोनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ।। (८१) स्वरूप अव्य, भाव, निश्चय, व्यवहारथी उपादेय प्रमुख सर्व शैली बतावनार नवमुं पच्चरकाणप्र
वाद पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. २१ एक क्रोडने दश लाख पद प्रमाण गुरु लघु अंगुष्ट
सेना प्रश्नादि सातसें विद्याआनुं तेमज रोहिणी प्रमुख ५०० महाविद्याओनुं स्वरूप बतावनार
दशमुं विद्याप्रवाद पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. २२ छवीश क्रोड पदप्रमाण, सर्व ज्योतिष शास्त्रनुं स्वरूप, शठ शलाका पुरुषोनुंस्वरूप,चार प्रकारना देवोनुं स्वरूप अने पुण्यना फलनुं स्वरूप बतावनार अग्यारमा कल्याणप्रवाद पूर्व भणवा भणा
ववामां तत्पर, २३ तेर क्रोड पदप्रमाण आयुर्वेदादि आठ प्रकारनी
चिकित्सा, प्राण, अपान उदानादि वायुनु स्वरूप
तथा पंच महाभूतनुं स्वरूप अने प्राणायामादि यो- गर्नु स्वरूप बतावनार बारमा प्राणावायपूर्व भ
णवा भणाववामा तत्पर.
इ
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(८२) नक्पद विकि पियरे संग्रह ।। २४. नव क्रोड पदप्रमाण छंदःशास्त्र, शब्दशास्त्र, व्या.' करण, सर्वशिल्प, सर्वजातनी कला, सर्व गुण
ज तात्त्विक उपाधिरूप छे तेनुं स्वरूप बतावनार
तेरमुं क्रियाविशाल पूर्व भणवा भणाववामां तत्पर. २५ बार कोडने पचास लाख पदप्रमाण, अथवा कर्म
ग्रंथ अभिप्राये साडाबार लाख पदप्रमाण, [तत्व केवलिगम्य] छ आरा विगेरे काळजें स्वरूप व्यवहार विधि, सर्व वस्तुना परिकर्म अने निःशेष श्रुतसंपदाथी भरपूर चौदसुं 'लोकबिन्दुसार' पूर्व
भणवा भणाक्वामां तत्पर. . आ अमीयार अंग तथा चौद पूर्व भणवा भणाववामां तत्परता रूप २५ गुणोथी विभूषित श्री उपाध्याय भगवंतने म्हारो नमस्कार थाओ.
श्री उपाध्याय पदाराधननो काउस्सग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र “पणवीसइगुणविभूसियसिरि उवज्झायपयाराहणत्थं काउस्सग्गं करेमि"(पञ्चविंशतिगुणविभूषित श्री उपाध्यायपदाराधनार्थ) आप्रमाणे बोल.
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उपाध्यायन पदोनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ ( ८३ ) -२५ लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, जापपद ओ ही नमो उवज्झायाणं " जप आ दिवसे श्री उपाध्याय पदमां जेम विशेष लीनता थाय तेम श्री उपाध्यायना गुणोनुं ध्यान स्मरण विशेष करवुं.
शेष तमाम विधि पूर्वनी माफक जाणवो. मात्र भव्य जीवोना महान उपकारक श्री उपाध्यायजी भगवाननुं नीलवर्णे ध्यान करवानुं होवाथी मंगनी दाना द्रव्यनुं आयंबिल कर उचित छे,
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श्री साधुपदाराधन पंचम दिवसनुं कर्त्तव्य श्री साधुपद माहात्म्य तथा तेमना गुणोनो विचार ॥
आत्माने तत्त्वज्ञानथी वासित करी, सांसारिक सुखोनी असारता जाणी,जन्म मरणनाअनन्त दुःखोना बन्धनथी त्रास पामी, संसारभ्रमण टाळवा तथा शाश्वत सुखोमा उत्तरोत्तर स्थिर थवा आत्मशक्ति प्रकाश करनार, सांसारिक बन्धनो तोडी अनन्तभवे दुर्लभ, शाश्वत आनन्दमय मुक्तिपदप्रापक, उज्वल रत्नत्रयांनुं आराधन करवा तेना पालक सद्गुरु चरणर्नु अवलंबन लइ अप्रमत्तपणे केवल आत्मामां ज लक्ष्य राखी आवता कर्मने रोकनार, शुद्ध संयमन प्रतिपालन करनार अने आत्मार्थी जनोने जिनशासन रूप प्रासादमा प्रवेश करवाने द्वारसमान, प्रवेश करेलाओने यथाशक्ति सत्य मार्ग बतावी साहाय्य आपनार, भव्य
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पच्चक्खाण पारवानो विधि ॥
(८५)
जीवोना महान् उपकार करनार, रमणीय गुणोना भंडार साधु भगवंतोना अनेक गुणो पैकी २७ गुगोनुं ध्यान तथा जापादि करी आत्माने तद्रूप बनाचवा आ दिवसनी आराधना छे. जो के साधु भगवंतोना गुणोनी सत्तावीशीओ अनेक प्रकारे शास्त्रोमां वर्णवी छे छतां मुख्यताए आ आगळ बतावेल २७ गुणोए ध्यान तथा जाप कराय छे. ॥ श्री साधुपदना २७ गुणो ॥
छव्वय ६ छकायरक्खा १२, पंचिंदिय १७ लोहनिगो १८ खंती १९ ॥ भावावसुद्धी २० पडिले - हणाइकरणे विसुद्धी २१य ॥ १ ॥ संजमजोगे जुत्तो २२, अकुसलमणवयणकाय संरोहो २५ सीयाइ पीडसह २६, मरणंतुवसग्गसहणं २७ च ॥२॥ सत्तावीस गुणेहिं, अन्नेहिं जो विभूसिओ साहू | जिणपासायपवेसे, दुयारसमो रम्मगुणनिवहो ॥ ३ ॥ व्रत छ काय रक्षण तथा, इन्द्रिय लोभनिरोध । क्षमाभाव शुद्धि वळी, पडिलेहणादि विशोध ॥२॥
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
संयमयोगे युक्तता, अशुभ मन वच काया शान्त । शीतादि परीषह तथा, मरणोपसर्ग सहंत ॥२॥ इम सगवीस गुणावलि, मौक्तिकमाल धरंत । मुक्तिमार्गसाधक मुनि, रमणीय गुण सोहंत ॥ ३ ॥
श्रीसाधुपदना नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक
॥ खमासमणना दुहाओ॥
स्याद्वाद गुण परिणम्यो, रमता समतासंग ॥ साधे शुद्धानन्दता, नमो साधु शुभरंग ॥ १॥ अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवी हरखे नवि शोचेरे। साधुसुधा ते आतमा, शुं मुंडे झुं लोचेरे॥वीर०॥
॥ श्रीसाधुपदना २७ गुणगर्भित नमस्कार पदो. ॥ १ सर्वतः प्राणातिपातविरमणबतगुणविभूषितेन्यः
श्रीसाधुन्यो नमः २ सर्वतोमृषावादविरमणव्रतगुणविभूषितेभ्यः श्रीसा
धुभ्यो नमः
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साधुपदना नमस्कार पदो॥ (८७)) ३ सर्वतोऽदत्तादानविरमणव्रतगुणविभूषितेभ्यः श्री___ साधुभ्यो नमः ४ सर्वतो मैथुनविरमणव्रतगुणविभूषितेच्यः श्री
साधुभ्यो नमः ५ सर्वतः परिग्रहविरमणवतगुणविभूषितेभ्यः श्री
साधुभ्यो नमः ६ सर्वतोरात्रिभोजनविरमणव्रतगुणविभूषितेभ्यः श्री.
साधुभ्यो नमः ७ सर्वतः पृथ्वीकायरक्षणगुणविभूषितेभ्यः श्रीसाधु
ज्यो नमः ८ सर्वतोऽप्कायरक्षणगुणविभूषितेभ्यः श्रीसाधुभ्यो
नमः ९ सर्वतः तेजस्कायरदणगुणविभूषितेच्यः श्रीसाधु
भ्यो नमः १० सर्वतो वायुकायरक्षणगुणविभूषितेभ्यः श्रीसाधु
भ्यो नमः २१ सर्वतो वनस्पतिकायरक्षणगुणविभूषितेभ्यः श्री.
साधुभ्यो नमः
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(८८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ १२ सर्वतो द्वीन्द्रियादित्रसकायरक्षणगुणविभूषितेभ्यः __ श्रीसाधुभ्यो नमः १३ सर्वतः स्पर्शनेन्द्रियविषयनिग्रहगुणविभूषितेभ्य श्री ___ साधुभ्यो नमः १४ सर्वतो रसनेन्द्रियविषयनिग्रहगुणविभूषितेभ्यः श्री ___ साधुन्यो नमः १५ सर्वतो घाणेन्द्रियविषयनिग्रहगुणविभूषितेभ्यः श्री __साधुन्यो नमः १६ सर्वतश्चक्षुरिन्द्रियविषयनिग्रहगुणविभूषितेभ्यः श्री
साधुभ्यो नमः॥ १७ सर्वतः श्रोत्रेन्द्रियविषयनिग्रहगुणविभूषितेभ्यः श्री
साधुभ्यो नमः॥ १८ सर्वतो लोभनिग्रहगुणविभूषितेभ्यः श्री साधुभ्यो
नमः॥ १९ सर्वतः क्षमागुणविभूषितेभ्यः श्री साधुभ्यो नमः॥ २० सर्वतोभावविशुद्धिगुणविभूषितेभ्यःसाधुभ्यो नमः॥ २१ सर्वतः प्रतिलेखनादिक्रियाविशुद्धिगुणविभूषितेभ्यः
श्री साधुभ्यो नमः॥
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साधुपदना नमस्कार पदो ॥ (८९) २२ सर्वतः संयमयोगयुक्ततागुणविभूषितेभ्यः श्री साधु
भ्यो नमः ॥ २३ सर्वतोऽकुशलमनोयोगनिरोधगुणविभूषितेन्यः श्री
साधुभ्यो नमः॥ २४ सर्वतोऽकुशलवचनयोगनिरोधगुणविभूषितेभ्यः श्री
साधुभ्यो नमः॥ २५ सर्वतोऽकुशलकाययोगनिरोधगुणविभूषितेभ्यः श्री
साधुभ्यो नमः॥ २६ सर्वतःशीतादिपरिषहसहनशीलतागुणविभूषितेभ्यः
श्री साधुभ्यो नमः॥ २७ सर्वतो मारणान्तिकोपसर्गसहिष्णुतागुणविभूषिते
भ्यः श्रीसाधुभ्यो नमः॥ साधुना सत्तावीस गुणोनी हृदयमां भावना रहेवा
माटे नमस्कार पदोना अर्थ॥ १ सर्वथा जीवहिंसाथी विरमवा रूप पहेळु महाव्रत. २ सर्वथा असत्य वचनथी विरमवारूप बीजुं महाव्रत
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(९०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ३ सर्वथा नहीं दीधेचु लेवाथी विरमवारूप त्रीजुं महावत ४ सर्वथा मैथुन सेववाथी विरमवारूप चो) महाव्रत. ५ सर्वथा परिग्रहमूर्छाथी विरमवारूप पांचमुं महाव्रत. ६ सर्वथा रात्रिभोजनथी विरमवारूप छटुं महावत. ७ सर्वथा पृथ्वीकायजीवोना रक्षणरूप साधुधर्म८ सर्वथा अप्काय जीवोना रक्षणरूप साधुधर्म, ९ सर्वथा तेउकाय जीवोना रक्षणरूप साधुधर्म. १० सर्वथा वायुकाय जीवोना रक्षणरूप साधुधर्म. ११ सर्वथा वनस्पतिकाय जीवोना रक्षणरूप साधुधर्म. १२सर्वथा बेइंद्रियादित्रसकायजीवोना रक्षणरूप साधुधर्म. १३ सर्वथा स्पर्शेन्द्रियनो विषयनिग्रह करवारूप साधुधर्म. १४ सर्वथा रसनेन्द्रियनो विषयनिग्रह करवारूप साधुधर्म, १५ सर्वथाघ्राणेंन्द्रियनो विषय निग्रह करवारूप साधुधर्म. १६ सर्वथा चक्षुरिन्द्रियनो विषयनिग्रह करवारूप साधुधर्म १७ सर्वथाश्रोत्रेन्द्रियनो विषयनिग्रह करवारूप साधुधर्म. १८ सर्वथा लोभकषायने निग्रह करवारूप साधुधर्म १९ सर्वथा क्रोधने उपशम करवारूपक्षमा धर्मरूप साधुधर्म
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साधुपदोनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (९१) २० सर्वथा भावविशुद्धिरूप साधुधर्म २१ सर्वथा पडिलेहणादिक क्रियामां शुद्धि राखवा स्व
रूप साधुधर्म. २२ सर्वथा संयम व्यापारमा उपयोग राखवा स्वरूप
साधुधर्म. २३ सर्वथा अशुभमनोयोगने रूंधवा स्वरूप साधुधर्म. २४ सर्वथा अशुभ वचनयोगने रूंधवा स्वरूप साधुधर्म. २५ सर्वथा अशुभ काययोगने रूंधवा स्वरूप साधुधर्म. २६ सर्वथा शीतादिपरिषहोने सहनशीलता स्वरूप
साधुधर्म २७ सर्वथा मारणान्तिक उपसर्गोने पण सहन करवा
स्वरूप साधुधर्म. आ २७ गुणोथी विभूषित श्री साधु भगवंतोने म्हारो नमस्कार थाओ.श्रीसाधु पदाराधननो काउस्सग्ग पूर्वनी माफक जाणवो.मात्र“सगवीसइगुणविभूसियसिरिसाहपयाराहणथं काउस्सग्गंकरोमि” (सप्तविंशतिगुणविभूषित श्रीसाधुपदाराधनाथ) आ प्रमाणे बोलवू२७लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, जाप पद "ओ ही नमो लोए
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( ९२ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ सबसाहूणं जप, आ दिवसे श्रीसाधुपद स्वरूपमां आत्मानी विशेष लीनता थाय तेम साधु भगवंतना गुणोनुं ध्यान स्मरण करवुं.
शेष तमाम विधि पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र मुक्तिमार्गना साधनभूत श्री साधुभगवंतोनुं श्यामवर्णे ध्यान करवानुं होवाथी अडदनी दाळना द्रव्यनुं आयंबिल कर उचित छे.
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श्री सम्यग्दर्शनपदाराधन छठा दिवसतुं कर्त्तव्य.
श्री सम्यग्दर्शन माहात्म्य तथा गुणविचार.
श्री सर्वज्ञ भगवंते प्रतिपादन करेला जीव, अजीव, पुण्य पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष ए नवे तत्त्वो, षद्रव्यो, चार निक्षेपा, सप्तनय प्रमाण सप्तभंगी,द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि तमाम पदार्थोनी श्रद्धामय अनन्तानुबन्धी ४ तथा मिथ्यात्वमोहनीयादि दय क्षयोपशम उपशमीज प्रगट थयेल निर्मल आत्मपरिणाम स्वरूप, ज्ञान चारित्रादि सकल आस्मगुणोनो पायोश्रीसम्यग्दर्शन रूप आत्मधर्म अनेक स्वरूपो पैकी ६७ स्वरूपोए जीवोना सात्त्विक आनन्द रूप उपकार गुणे ध्यान-जाप करवा योग्य छे. एक. बाजु लौकिक लोकोत्तर सर्वधों एकत्रित करो अने एक बाजु एकलुं सम्यग्दर्शन मुको पण सम्यग्दर्शन
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(९४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ नी तुलनामां कोइ आवी शके तेम नथी, आवा अनेक परमगुणमय सम्यग्दर्शनना प्रतापेज देवनुं देवत्व अने गुरुनुं गुरुत्व, पूजा, वन्दन, भक्ति, बहुमानादिने योग्य छे ते ध्यान करवा योग्य सम्यक्त्वनुं ६७ भेद स्वरूप आ छे. श्रीतीर्थकर प्रतिपादित आ. राधित श्री सम्यग्दर्शनादि चारे गुणोनुं उज्वल श्वेतवणे ध्यान करवानुं होवाथी उज्वल चोखाना द्रव्यर्नु आयंबिल कर, उचित छे.
श्री सम्यग्दर्शनना ६७ भेद स्वरूप चउसदहण ४ तिलिंग ७, दसविणय १९ तिसुद्धि २० पंचगयदोसं । २५ अट्ठपभावण ३३ भूसण ३८ लक्खण ४३ पंचविहसंजुत्तं ॥१॥ छविहजयणा ४९गार५५ छब्भावणभावियं ६१ च छट्ठाणं ६७॥ इयसत्तसहि लक्खण भेयविसुझं च सम्मत्तं ॥२॥ चउसद्दहणा ४ तिलिंग ७ छे, दशविध विनय १७
विचारोरे ॥
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पश्ञ्चक्खाण पारवानो विधि ॥
(९५)
शुद्धि २० पण दूषण २५ आठ प्रभावक धारोरे
३३ ॥ १ ॥ प्रभावक अडपंच भूषण ३८ पंचलक्षण ४३ जाणीये, षट् जयणा ४९ षट् आगार ५५ भावना छविहा ३१ मन आणीये ॥
षट्ठाण समकित तणा, सडसठ, भेद एह उदार ए, । एहनो तत्व विचार करतां लहीजे भवपार ए ॥२॥
श्रीसम्यग्दर्शनना नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक खमासमणना दूहाओ.
लोकालोकना भाव जे, केवलिभाषित जेह ।
सत्य करी अवधारतो, नमो नमो दर्शन तेह ॥१॥
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शम संवेगादिक गुणा, क्षय उपशमे जे आवेरे । दर्शन तेहीज आतमा, शुं होय नाम धरावेरे ॥१॥ वीर जिने ०
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(९६) नवषद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ दर्शनपद ६७ भेदगर्मित नमस्कार पदो॥
१ परमार्थ संस्तवश्रद्धानस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २ परमार्थज्ञातृ सेवनस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३ व्यापन्नदर्शनवर्जनस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४ कुदर्शनवर्जनस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ५ शुश्रूषालिङ्गस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ६ धर्मरागलिंगस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ७ वैयावृत्त्यलिंगस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ८ अर्हद्विनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ९ सिद्धविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः . १० चैत्यविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ११ श्रुतविनय स्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १२ दमादिधर्मविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १३ साधुवर्गविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १४ आचार्यविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १५ उपाध्यायविनयस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः
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दर्शनपदना ६७ गुणोगर्भित नमस्कार पद ॥ (९७) १६ प्रवचनरूपसंघविनयस्व० श्री सम्यग्दर्शनाय नमः १७ दर्शनविनयस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १८ मनः शुद्धि स्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः १९ वचनश्रुद्धिस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २० कायश्रुद्धिस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २१ शंकादूषणत्यागस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २२ कांक्षादूषणत्यागस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २३ विचिकित्सादूषणत्यागस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २४ मिथ्यादृष्टिप्रशंसादूषणत्यागस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय
नमः .
२५ मिथ्यादृष्टिसंसर्गदूषणत्यागस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय
नमः
२६ प्रवचनप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २७ धर्मकथिकप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २८ वादिप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः २९ नैमित्तिकप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३० तपखिप्रभावकख० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ।
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(९८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ३१ विद्याभृत्प्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३२ सिद्धप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३३ कविप्रभावकस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३४ जिनशासनक्रियाकौशलभूषणस्व० श्रीसम्यग्दर्श
नाय नमः ३५ प्रभावनाभूषणस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३६ तीर्थसेवाभूषणस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३७ स्थैर्यभूषणस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३८जिनशासनभक्तिभूषणस्वरूप श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ३९ उपशमलक्षणस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४० संवेगलक्षणस्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४१ निर्वेदलक्षणस्व० श्रीसम्यगदर्शनाय नमः ४२ अनुकम्पालक्षणस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४३ आस्तिक्यलक्षणस्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४४ परतीर्थिकदेवपरतीर्थिकगृहीतजिनप्रतिमावन्दनत्यागरूपयतनास्वरूपश्रीसम्यग्दर्शनाय नमः
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दर्शनपदना ६७ गुणोगर्भित नमस्कार पद ॥ (९९) ४५ परतीर्थिकदेवपरतीर्थकगृहीतजिनप्रतिमानमन___ त्याग० यतनास्व० श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ४६ मिथ्यादृष्टिसहालापवर्जन यतनास्व०श्रीसम्यग्द
र्शनाय नमः ४७ मिथ्यादृष्टि सहसंलापवर्जन०यतनास्वश्रीसम्यग्___ दर्शनाय नमः ४८ मिथ्यादृष्टिअन्नपानदानवर्जन यतनास्व० श्रीस
म्यग्दर्शनाय नमः ४९ मिथ्यादृष्टिवारंवारान्नपानदानवर्जन०यतनास्व० ___श्रीसम्यग्दर्शनाय नमः ५० राजाभियोगाकारयुक्ततास्व० श्रीसम्यगदर्शनाय० ५१ गणाभियोगाकार , .. श्रीसम्यग्दर्शनाय० ५२ बलाभियोगाकार ,, ,, श्रीसम्यग्दर्शनाय० ५३ देवाभियोगाकार ,, ,, श्रीसम्यग्दर्शनाय० ५४ गुरुनिग्रहाकारयुक्तस्व० श्री , ,, ५५ श्रीवृत्तिकान्ताराकारयुक्ततास्वरूप श्रीसम्य० ५६ श्रीधर्मवृक्षमूलमिति भावनास्व० श्रीसम्य०
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(१००) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ५७ श्रीधर्मपुरद्वारमिति भावनास्व० श्रीसम्य० ,, ५८श्रीधर्मप्रासादप्रतिष्ठानमिति भावनास्वरूपश्रीसम्यक ५९ श्रीधर्माधार इति भावनास्व० श्रीसम्यग् , ६० श्रीधर्मभाजनमिति भावनास्व० श्रीसम्यग० ,, ६१ श्रीधर्मनिधानमिति भावनास्व० श्रीसम्यग् ,, ६२ श्रीअस्ति जीव इति श्रद्धास्थानस्वरूपश्रीसम्यग् ६३ श्रीनित्यानित्यो जीव इति श्रद्धास्थानस्वरूप श्री ,, ३४ श्रीकर्मणः कर्ता जीव इति श्रद्धास्थानस्व० श्री ,, ६५ श्रीकर्मणो भोक्ता जीव इति श्रद्धास्थानस्व० श्री ,, ६६ श्रीजीवस्य मोक्षोऽस्तीति श्रद्धास्थानस्व० श्रीसम्यग् ६७ श्रीमोक्षोपायोऽस्तीति श्रद्धास्थानस्व० श्रीसम्यग्०
सम्यग्दर्शनना ६७ भेदोनी हृदयमां भावना राखवा
माटे नमस्कार पदोनो अर्थविचार.
LA
१ प्रवचनप्रतिपादित जीवादिक नवतत्त्वोनी अर्थ-- विचारणा करी श्रद्धा राखवी ते परमार्थसंस्तव.
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दर्शनपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ || ( १०१ ) २ परमार्थना जाणनार मुनियोनी आराधना करवी ते परमार्थज्ञातृसेवन.
२ समतिथी भ्रष्ट थयेला निन्हवो, पासत्था, कुशीलीया, वेषविडंवको तेओथी अलग रहेवा रूप व्यापन्नदर्शनवर्जन.
४ मिथ्यात्ववासित जीवोना संसर्गने त्याग करवो ते कुदर्शनवर्जन.
५धर्मश्रवण करवानी तीव्र अभिलाषा ते शुश्रूषा. ६ धर्मउपर गाढरुचि ते धर्मराग.
७ देवगुर्वादिकनुं अप्रमत्तपणे वैयावच्च कर ते वै
यावृत्य.
८ अरिहंत परमात्मानी भक्ति आदि जे विनय ते अर्हद्विनय.
९ कर्मरहित सिद्धभगवंतोनी भक्ति आदि विनय ते सिद्धविनय.
१० जिनेश्वर देवनी प्रतिमानो तथा चैत्योनी भक्ति आदि विनय ते चैत्यविनय.
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(१०२). नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ११ आचारांग विगेरे अंग उपांग विगेरे सिद्धान्तोनो ___ भक्ति आदि विनय ते श्रुतविनय. १२ क्षमा आदिक दशधर्म प्रत्ये बहुमानादिक भक्ति __ आदि विनय ते क्षमादिधर्मविनय. १३ क्षमादि धर्मना पालणहार साधु भगवंतोनो वि
नय ते साधुविनय. १४ पांच आचारना पालक आचार्य भगवंतोनो भक्ति __ आदि विनय ते आचार्यविनय. १५ सूत्र सिद्धान्तना भणावनार उपाध्याय भगवंतो
नो भक्ति आदि विनय ते उपाध्यायविनय, १६ तीर्थकर देवोए स्थापन करलां चतुर्विध संघनो __ भक्ति आदि विनय ते प्रवचनविनय, १७ क्षायिकादि सम्यक्त्वना भेदोनो भक्ति आदि
विनय ते दर्शनविनय, १८ श्री जिनेश्वर तथा जिनेश्वरप्रतिपादित तत्त्वो ते
शिवाय तमाम जुलु छे एवी जे दृढ अंतःकरणनी विचारणा ते मनःश्रुद्धि,
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दर्शनपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१०३) १९ जिनेश्वरनी भक्तिथी जे सिद्ध न थाय ते बीजा
थी होइ शकेज नही एवी जे दृढता ते वचनश्रुद्धि, २० छेदन भेदनादि अनेक प्रकारे सहन करता पण
जिनेश्वर शिवाय बीजा देवने नमे नही ते का
यशुद्धि, २१ जिनेश्वरदेवना वचनमां सर्वथी के देशथी शंकान ___ करवी ते शंकादूषणत्याग, २२ अन्यमतनी सर्वथी के देशथी अभिलाषा न
करवी ते कांक्षादूषणत्याग, २३ धर्मना फळना संदेहादि न करवां तथा साधुना ___ मळादिकनी जुगुप्सा न करवी ते विचिकित्सा
दूषणत्याग, २४ मिथ्यादृष्टिना मिथ्यात्ववृद्धिकारक गुणोनी स्त___ वना न करवी ते मिथ्यादृष्टिप्रशंसादूषणत्याग. २५ मिथ्यादृष्टि जीवोनी संगति न करवी ते मिथ्या
दृष्टिसंसर्गदूषणत्याग, २६ वर्तमानश्रुतना सूत्र अर्थना पारगामी ते प्राव
चनिकप्रभावक,
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( १०४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
२७ उपदेशादिकथी अनेक जीवोने रंजित करी प्रतिair करे ते धर्मथिक प्रभावक,
२८ निपुणतर्कशास्त्राना जाणकार राजमंदिरमां पण जीतने मेळवनार ते वादिप्रभावक,
२९ परमतने जीतवा माटे अविरुद्धपणे निमित्तादिकने कनारा ते नैमित्तिक प्रभावक,
३० निर्निदानपणे शुद्धज्ञानपूर्वक तीत्र तपस्याने करनारा तपस्वी प्रभावक,
३१ विद्यामन्त्रादिके करीने वज्रस्वामि भगवाननी पेठे शासनोन्नति करनार ते विद्याभृत्प्रभावक, ३२ अंजनचूर्णादिकना योगयी कालिकाचार्य भगवंतनी माफक शासन उन्नति करनारा ते सिद्धप्रभावक,
३३ मधुर अर्थथी भरपूर अलंकारयुक्त धर्महेतुथी उत्तम काव्यो बनावी सिद्धसेनदिवाकरजीनी पेठे राजाने प्रतिबोध करनारने कविप्रभावक, ३४ प्रवचनप्रतिपादित क्रिया अनुष्ठानने विषे दक्षपणुं ते जिनशासनक्रियाकौशलभूषण,
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दर्शनपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ।। ( १०५)
३५ जेम जिनशासननी घणा जीवो अनुमोदना करे तेवा उत्तम प्रभावनाना कृत्यों करवां ते प्रभावना भूषण,
३६ संसार समुद्री तारनार स्थावर अने जंगम तीनी आराधना करवी ते तीर्थसेवाभूषण.
३७ सम्यक्त्वधर्मथी कोइनाथी पण चलायमान थाय नही ते स्थैर्यभूषण,
३८ देवगुर्वादिकनी भक्ति करवी ते जिनशासनभक्तिभूषण.
- ३९ अपराधी जीवो उपर पण कोइजातनुं प्रतिकूल चिंतवकुं नही ते उपशमलक्षण,
४० देव मनुष्यना सुखोने पण दुःखरूपे मानी केवल मुक्ति सुखनी अभिलाषा करवी ते संवेगलक्षण, -४१ केदीने केदमांथी, नारकीने नरकमांथी जेम नीकळवानी इच्छा, तेम संसारथी नीकळवानी इबा, ते निर्वेदलक्षण,
४२ दुःखी जीवो प्रत्ये द्रव्यथी अने धर्महीन प्रत्ये
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( १०६ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह |
भावथी जे अनुकम्पा करवी ते अनुकम्पालक्षण, ४३ जे जिनेश्वर देवे फरमाव्युं ते अन्यथा होइ शके नही, एवी जे दृढता ते आस्तिक्यलक्षण, ४४ परतीर्थी देवो तथा परतीर्थीओओ ग्रहण करेली अत्प्रतिमाओ ते प्रत्ये हाथ जोडवा विगेरेनो त्याग करवो ते वन्दनत्यागयतना कहेवाय. ४५ तेमना प्रत्ये मस्तक नमाववानो त्याग करवारूप
बीजी नमनत्यागयतना,
४६ मिथ्यादृष्टिओए नहि बोलाये छते पहेलवहेतुं एक वखत बोलावतुं ते आलाप, तेनो त्याग करवो ते.
आलापत्यागयतना,
४७ वारंवार बोलाववानो त्याग ते संलापत्यागयतना, ४८ मिथ्यादृष्टिओने गौरवभक्तिसहित इच्छित अन्नादिआपवानो त्याग ते दानत्यागयतना, ४९ वारंवार ते प्रमाणे त्याग ते अनुप्रदानत्यागयतना, ५० नगरस्वामी राजा विगेरेनी आज्ञाथी जे करवुं पडे ते राजाभियोग आगार, १,
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दर्शनपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ | ( १०७ ))
५१ लोकसमुदायने आधीन थइ करवुं पडे ते गणा-
२
भियोग आगार, ५२ चौरादिकना जोरथी जे करवुं पडे ते बलाभियोग,
आगार, ३
५३ क्षेत्रपाल विगेरे देवोना आधीनपणाथी करवुं पडे ते देवाभियोग आगार, ४
५४ पिता माता विगेरे वडीलोना हुकमथी करवुं पडे ते गुरुनिग्रह आगार, ५
५५ ज्यां आजीविकानी दुर्लभता होय तथा महामारी आदिना उपद्रवथी जे कांई कर पडे ते वृत्तिका - न्तार आगार, ६
५६ धर्मरूप कल्पवृक्षनुं मूल सम्यग्दर्शन छे तेवी चिन्तवना करवी ते धर्ममूलभावना,
५७ धर्मरूप नगरमा प्रवेशकरवानो दरवाजो सम्यग्दर्शन छे तेवी जे भावना ते धर्मद्वार भावना ५८ धर्म प्रासादना मजबूत पायारूप सम्यग्दर्शन छे तेवी जे भावना भाववी ते धर्मप्रतिष्ठानभावना,
.
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(१०८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ५९ शम दम विगेरे धर्मना गुणोनो आधार सम्यग्द
र्शन छे तेवू जे भावq ते धर्माधारभावना. ६० शान्ति संवरादि स्वरूप अमृतरसने जीलवाने भा
जन सरखं सम्यग्दर्शन छे तेवू जे मानवू ते धर्म
भाजनभावना. ६१ श्रुतज्ञान, शील विगेरे रत्नोनो भंडार सम्यग्दर्शन ___ छे एवं जे चिन्तवq ते धर्मनिधानभावना. ६२ चैतन्यलक्षणथी जीवनामनो पदार्थ छे एवी जे __श्रद्धा ते पहेलं स्थान. ६३ पयाये करीने जीव अनित्य छतां स्वस्वरूपे नित्य
छे तेवी जे नित्यानित्यत्वविचारणा ते ब्रीजुस्थानक. ६४ कर्मनो कर्त्ता चेतन छे तेवं भावq ते त्रीजुंस्थानक. ६५ कर्मना फलनो भोक्ता पण पोतेजछे तेवू जेभावर्बु
ते चोडुं स्थानक, ६६ सकल कर्मनो क्षय थवाथी जीवनो मोक्ष थाय छे
ते, जे भाव, ते पांचमुं स्थानक. ६७ सम्यग्ज्ञानक्रियास्वरूप मुक्ति पामवाना उपायो छे
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दर्शनपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१०९) तेवू जे चिन्तवq ते उट्ठे स्थानक,
उपर कहेली ४ सद्दहणा ३ लिंग, १० विनय,३ शुद्धि, ५ दूषणत्याग, ८ प्रभावक, ५ भूषण, ५ लक्षण, ६ यतना ६ आगार, ६ भावना, ६ स्थान ए प्रमाणेना ६७ भेदे विभूषित श्रीसम्यग्दर्शनपदने मारो नमस्कार थालो. सम्यग्दर्शनपदाराधननो काउसग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र सगसठिगुणविभूसियसिरिदसणपयाराहणत्थं काउसग्गं करेमि (सप्तषष्टिगुणविभषितश्रीदर्शनपदाराधनार्थ) आप्रमाणे बोलवू. ६७लोगस्सनो काउसग्ग करवो, जाप पद उ ह्रीं नमो दंसण स्स जप, आ दिवसे श्रीसम्यग्दर्शन स्वरूपमा जेम विशेष लीनता थाय तेम सम्यग्दर्शनना स्वरूप, ध्यान स्मरण विशेष कर. ___ बाकीनो तमाम विधि पूर्वनी माफक, मात्र सम्यगदर्शन पदनुं शुक्लवणे ध्यान करवानुं होवाथी चोखाना द्रव्यनुं आयंबिल करवु उचित छे.
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श्री ज्ञानपदाराधन सप्तम दिवसनो विधि.
श्रीज्ञानपदमाहात्म्य तथा तेना भेद विचार
जीवनुं शुद्ध चैतन्य स्वरूप, जड चेतननो विभाग, गुणदोष, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, हिताहित, कर्त्तव्याकर्त्तव्य. हेयोपादेय प्रमुख विवेकने जणावनार निबिड कमोंनी निर्जरानु परम साधन, मोह हाथीना मदने उतारवामां केसरी सिंह समान, श्रीसम्यग्दर्शननी निर्मलता तथा वृद्धि- कारण, इन्द्रियादि आ श्रवस्थानोने काबुमा राखी कर्मबन्धने अटकावनार, राग द्वेषनी मन्दता करी शान्तिपदनुं परमस्थान देनार, जड वस्तुथी आत्मानो भेद समजवानुं मुख्य लिङ्ग, आत्माना मुख्य गुणरूप ज्ञानपदनुं आराधन करवा जो के अन्यत्र मुख्यभेदनी अपेक्षाये पाच
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( १११ )
श्री ज्ञानपदना ५१ भेदस्वरूप || भेदोथी आराधन करवानुं जणावाय छे, तोपण आ स्थळे तेना ५१ भेदोथी ध्यान, नमस्कार विगेरे कराय छे.
श्री ज्ञानपदना ५१ भेद स्वरूप
अष्टाविंशति भेदाढ्या, मतिः पूर्वमितं श्रुतम् ॥१॥ षोढा चाप्यवधिद्वेधा, मनःपर्यवमीरितम् ॥ १ ॥ एकं केवलमाख्यात - मेकपञ्चाशदित्यमी । ज्ञानभेदा जिनैरुक्ता भव्याम्भोजविकासकाः ॥ २॥ मति अठावीस भेद छे, श्रुतना चौद प्रकार । षड्विध ओही वर्णव्यो, मनःपर्यव दुगधार ॥ १ केवल एक वखाणीये, इम एकावन मान । ज्ञानभेद जिनवर कह्या, वंदु धरी बहुमान ॥ २ श्री ज्ञानपद नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक खमासमणना दूहाओ.
अध्यातम ज्ञाने करी, विघटे भवभ्रम भीति । सत्यधर्म ते ज्ञान छे, नमो नमो ज्ञाननी रीति ॥१॥
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( ११२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ज्ञानावरणीय जे कर्म छे, क्षय उपशम तस थायरे । तो हुए एहीज आतमा, ज्ञान अबोधता जायरे ॥
वीर०॥
श्री ज्ञानपदना ५१ भेद गर्भित नमस्कार पदो. १ स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहस्वरूप श्रीमतिज्ञानाय नमः २ रसनेद्रियव्यञ्जनावग्रहस्व श्रीमतिज्ञानाय नमः ३ प्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहस्व श्रीमतिज्ञानाय नमः ४ श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहस्व०श्रीमतिज्ञानाय नमः ५ स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहस्व०श्रीमतिज्ञानाय नमः ६ रसनेन्द्रियार्थावग्रहस्वरूपश्रीमतिज्ञानाय नमः ७ घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहस्व० ,, मतिज्ञानाय नमः ८ चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रह० ,, मतिज्ञानाय नमः ९ श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहस्व० ,, मतिज्ञानाय नमः १० मनोऽर्थावग्रहस्ख० , मतिज्ञानाय नमः ११ स्पर्शनेन्द्रियेहास्व० ,, मतिज्ञानाय नमः १२ रसनेन्द्रियेहास्व० ,, मतिज्ञानाय नमः
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श्री ज्ञानपदना ५१ मेदगर्भित नमस्कार पदो || ( ११३ )
श्रीमतिज्ञानाय नमः मतिज्ञानाय नमः मतिज्ञानाय नमः
१३ घ्राणेन्द्रियेहास्वरूप १४ चक्षुरिन्द्रियेहा स्व० १५ श्रोत्रेन्द्रियेहास्व० १६ मनईहास्व०
श्री मतिज्ञानाय नमः
१७ स्पर्शनेन्द्रियापायस्व० श्रीमतिज्ञानाय नमः १८ रसनेन्द्रियापायस्वरूप०, मतिज्ञानाय नमः १९ प्राणेन्द्रियापायस्व० २० चक्षुरिन्द्रियापायस्व० २१ श्रोत्रेन्द्रियापायस्व०
मतिज्ञानाय नमः
मतिज्ञानाय नमः
मतिज्ञानाय नमः
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२२ मनोऽपायस्व०
मतिज्ञानाय नमः
२३ स्पर्शनेन्द्रियधारणास्व०, मतिज्ञानाय नमः
२४ रसनेन्द्रिय धारणास्व०
मतिज्ञानाय नमः
२५ घ्राणेन्द्रियधारणास्व०
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मतिज्ञानाय नमः
२६ चक्षुरिन्द्रियधारणास्व०, मतिज्ञानाय नमः
मतिज्ञानाय नमः
२७ श्रोत्रेन्द्रियधारणास्व० २८ मनोधारणास्व०
मतिज्ञानाय नमः
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२९ अक्षरस्व० श्री श्रुतज्ञानाय नमः
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( ११४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
३० अनक्षरस्वरूप श्री श्रुतज्ञानाय नमः
३१ संशिश्रुतज्ञानाय नमः ३२ असंज्ञि श्रुतज्ञानाय नमः
३३ सम्यक् श्रुतज्ञानाय नमः ३४ मिथ्या श्रुतज्ञानाय नमः ३५ सादिश्रुतज्ञानाय नमः ३६ अनादिश्रुतज्ञानाय नमः ३७ सपर्यवसितश्रुतज्ञानाय नमः ३८ अपर्यवसितश्रुतज्ञानाय नमः
३९ गमिकश्रुतज्ञानाय नमः ४० अगमिकश्रुतज्ञानाय नमः
४१ अंगप्रविष्टश्रुतज्ञानाय नमः ४२ अनंगप्रविष्टश्रुतज्ञानाय नमः ४३ आनुगामिकाऽवधिज्ञानाय नमः ४४ अनानुगामिकाऽवधिज्ञानाय नमः ४५ वर्धमानावधिज्ञानाय नमः
४६ हीयमानावधिज्ञानाय नमः
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श्री ज्ञानपदना ५१ भेदगर्भित नमस्कार पदो ॥ ( ११५ )
४७ प्रतिपात्यवधिज्ञानाय नमः ४८ अप्रतिपात्यवधिज्ञानाय नमः ४० ऋजुमतिमनः पर्यवज्ञानाय नमः ५० विपुलमतिमनः पर्यवज्ञानाय नमः ५१ लोकालोकप्रकाशन श्रीकेवलज्ञानाय नमः
ज्ञानपदना ५१ भेदोनी हृदयमां भावना राखवा नमस्कार दोनो अर्थविचार
२८ मतिज्ञानना भेदो
४ चतु अने मन ए बे वस्तुनी साथै संबंध पाम्या शिवाय ज्ञान करनार बाकीनी चार स्पर्शेनन्द्रिय, रसना (जीभ ) घ्राण (नाक) श्रोत्र (कान) ए चार इन्द्रियोथी थता चार व्यंजनावग्रह ( अव्यक्तज्ञान) ६ पांच इन्द्रिय अने मनथी थता छ अर्थावग्रह (कांइक छे तेवुं ज्ञान, )
६ पांच इन्द्रिय अने मनथी थती छ ईहा ( घणुं करी आम होतुं जोइए, )
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(११६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ६ पांच इन्द्रिय अने मनथी थता छ अपाय [अमुक.
ज छे तेवो निश्चय] ६ पांच इन्द्रिय अने मनथी थती उ धारणा [घणा काळ सुधी ते ज्ञानने धारण करी राखg ]
ए अठावीश मति ज्ञान.
१४ श्रुत ज्ञानना भेदो.
१ संज्ञा (लीपी) व्यंजन (उच्चार) स्वरूप अक्षरथी
यतुं अने लब्धि (उपयोग) अक्षर स्वरूप जे श्रुतज्ञान ते "अक्षरश्रुत” । २ खोखारा, छींक, ऊधरस विगेरे अव्यक्त ध्वनिथीं ___ थतुं श्रुत ते अनक्षरश्रुत.
३ दीर्घकालिकी संज्ञावाला मनसहित जीवने थतुं __ श्रुत ते संज्ञिश्रुत, ५ मनरहित असंज्ञिजीवोने थतुं श्रुत ते असंज्ञिश्रुत. ५ सम्यगदृष्टि जीवोनुं ज्ञान ते 'सम्यक्श्रुत'
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श्री ज्ञानपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ।। ( ११७ )
६ मिथ्यात्विओनुं ज्ञान ते 'मिथ्याश्रुत ' ७ भरत औरवतनी अपेक्षाये तीर्थप्रवृत्तिनी शरुआतथी प्रवत्युं ते ' सादिश्रुत '
८ महाविदेहनी अपेक्षाये अनादिकालथी चाल्युं आवतुं ते ' अनादिश्रुत '
९ भरत अवतनी अपेक्षाये तीर्थव्यवच्छेद थता ते' सपर्यवसितश्रुत
"
१० महाविदेहनी अपेक्षाये तीर्थनो व्यवच्छेद न होवाथी ते ' अपर्यवसितश्रुत
"
( आ सादि अनादि विगेरे चारे पदोनो द्रव्यादि अपेक्षाये पण विचार समजवो. )
११ सरखा पाठ आलवावालुं सूत्र होय ते दृष्टिवाद विगेरे ' गमिकश्रुत '
१२ सरखा पाठ आलावा रहित सूत्र होय ते आचारांगादि ' अगमिक श्रुत
"
१३ बार अंगस्वरूप सूत्र होय ते ' अंगप्रविष्टश्रुत १४ अंगथी बहारनुं आवश्यक उपांगादि स्वरूप ते अनंगप्रविष्ट '
"
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
( ११८ )
६ अवधिज्ञान. -
१ चक्कुनी जेम अवधिज्ञानीनी साथे जनार ते आनुगामिक अवधि
"
२ सांकळे बांधेल फाणसनी जेम साथे न आवनार अर्थात् जे क्षेत्रे उत्पन्न थयुं तेथी बीजा क्षेत्रमां न आवे ते ' अनानुगामिक अवधि '
३ क्रमे क्रमे वतुं वतुं केवलज्ञानदशाए आत्माने लइ जाय ते 'वर्धमान अवधि '
४ क्रमेक्रमे घटतुं घटतुं नाश पामी जाय ते ' हीयमान अवधि
"
५ एकदम पडी जाय अगाशीथी भूसकानी जेम, ते ' प्रतिपाति अवधि '
६ आव्युं पालुं जाय नहि ते ' अप्रतिपाति अवधि ' २ मनः पर्यवज्ञान :
१ अढीद्वीपना संज्ञिजीवना मनोगत भावने सामान्यस्वरूपे जाणनारने 'ऋजुमति मनः पर्यव'
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श्री ज्ञानपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (११९) २ विशेषे करी स्वच्छ अने विस्तीण पर्यायो जणावनार
ने 'विपुलमति मनःपर्यव' १ केवलज्ञान
१ लोकालोकना त्रिकालवर्ति रूपि अरूपि आदि समगद्रव्य,क्षेत्र,काल,भावने प्रकाश करनार 'केवलज्ञान.'
५१ भेदोए विभूषित श्री ज्ञानपदने म्हारो नमस्कार थाओ, श्री ज्ञानपदाराधननो काउसग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र एगावन्नभेयविभूसियसिरिनाणपयाराहणत्थं काउसग्गं करोमि (एकपञ्चाशद्भेदविभूषितश्रीज्ञानपदाराधनार्थ) आ प्रमाणे ५१ लोगस्सनो काउसग्ग करवो, जापपद औ ह्री “नमो नाणस्स” जप, आ दिवसे ज्ञानस्वरूपमा जेम विशेष लीनता थाय तेम ज्ञान स्वरूपनुं ध्यानस्मरण विशेष करवू शेष तमाम विधि पूर्वनी माफक, मात्र ज्ञानपदनुं ध्यान शुक्लवणे करवानु होवाथी चोखाना द्रव्यनुं आंबिल करवं.
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श्री चारित्रपदाराधन अष्टमदिवसनो विधि.॥
श्री चारित्रमाहात्म्य तथा तेना गुण विचार
प्रवाहथी चाल्या आवता आठे कमोना निबीड बन्धनथी आत्माने छूटो पाडी शुद्ध स्फटिकरत्न तुल्य निर्मल कषायरहित शुद्ध आत्मस्वरूपने पमाडनार, परमानन्दमय आत्मसाम्राज्यनुं परम साधन, इन्द्रादि देवो पण जे स्वरूप माटे मनुष्य भवनी जंखणा करे छे, जेना सुखने चक्रवर्ति पण पहोंचवा समर्थ नथी जेना प्रभावी ज मनुष्यगतिनी दुर्लभता-उत्तमता वर्णवी छे, जेमां बार कषायोनो अभाव छे, आरंभ परिग्रहनो त्याग छे, अशुन क्रियाओथी निवृत्ति अने शुभ क्रियाओमा प्रवृत्ति होय छे. आवता
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चारित्रपदना ७० भेद ॥ (१२१) कर्मोंने अटकाववा ( नवो कर्मबंध न थवा देवो) ते तेनुं वास्तविक फल छे, छेवटे सर्व संवरचारित्र (शैलेशीकरण ) ना प्रताप ज जीव मुक्तिपद पामे छे, आवा अनेक स्वरूपथी ध्यान करवा योग्य चारित्रपदना मूल गुणरूप तथा सदा आराध्य चरणसित्तरी भेदोए ध्यान कराय छे.
श्री चारित्रपदना ७० भेद। वय ५ समणधम्म १५ संजम ३२-वेयावच्चं ४२ च बंभ
गुत्तीओ ५१ ॥ नाणाइतियं ५४ तव ६६ कोह-निग्गहाइ ७० चरण
मेयं ॥१॥ व्रत पांच ने दश श्रमणधर्म ज, संयम सत्तर जाणीये दश भेद वेयावच्च नवविध, बंभ गुत्ती वखाणीये ॥२॥ ज्ञानादि त्रण तप बार भेदे, कषाय चार निरोधीये आराधीने इम चरणसित्तरी, निजचरण संशोधीये ॥१॥
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(१२२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ श्री चारित्रपद नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक
खमासमणना दूहाओ.
रत्नत्रयी विणु साधना, निष्फल करी सदीव । भावरयणनुं निधान छे, नमो नमो संयम जीव ॥
॥वीर० ॥१॥ जाण चारित्र ते आतमा, निज स्वभावमा रमतोरे। लेश्या शुद्ध अलंकयों, मोहवने नवि भमतो रे ॥
वीर० ॥२॥
॥ चारित्रपदना ७० भेदगर्भित नमस्कार पदो॥
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१ सर्वतःमाणातिपातविरमणव्रतस्वरूप श्रीचारित्राय नमः २ सर्वतः मृषावादविरमणव्रतस्व० चारित्राय नमः ३ सर्वतोऽअदत्तादानविरमणव्रतस्व० ,,चारित्राय नमः ४ सर्वतो मैथुनविरमणव्रतस्व० ,चारित्राय नमः ५ सर्वतः परिग्रहविरमणव्रतस्व० चारित्राय नमः
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श्रीचारित्राय नमः
चारित्रपदना ७० भेदगर्भित नमस्कार पदो॥ (१२३) ६ सम्यक्क्षमाधर्मस्वरूप
,, मार्दवधर्मस्व० चारित्राय नमः ८ आर्जवधर्मस्व० ,,चारित्राय नमः ९ ,, मुक्तिधर्मस्व० ,चारित्राय नमः १० ,, तपोधर्मस्व०
चारित्राय नमः ११ , संयमधर्मस्व० चारित्राय नमः १२ ,, सत्यधर्मस्व० ,,चारित्राय नमः १३ ., शौचधर्मस्व० ,,चारित्राय नमः १४ ,आकिचन्यधर्मस्व० श्रीचारित्राय नमः १५ ., ब्रह्मचर्यधर्मस्व० ,चारित्राय नमः १६ पृथ्वीकायजीवरक्षासंयमस्व० श्रीचारित्राय नमः १७ अप्कायजीवरक्षासंयमस्व० ,चारित्राय नमः १८ तेजस्कायजीवरक्षासंयमस्व० ,,, १९ वायुकायजीवरक्षासंयमस्व० श्रीचारित्राय २० वनस्पतिजीवरक्षासंयमस्व० २१ छीन्द्रियजीवरक्षासंयमस्व० २२ त्रीन्द्रियजीवरक्षासंयमस्व०
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(१२४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ २३ चतुरिन्द्रियजीवरक्षासंयमस्वरूप , , २४ पञ्चेन्द्रियजीवरक्षासंयमस्व० २५ अजीवसंयमस्व० श्रीचारित्राय नमः २६ प्रेक्षासंयमस्व०
श्रीचारित्राय नमः २७ उपेक्षासंयमस्व०
,,चारित्राय नमः २८ प्रमार्जन संयमस्वरूप ,,चारित्राय नमः २९ परिष्ठापन संयमस्व० ,चारित्राय नमः ३० मनः संयमस्व०
,चारित्राय नमः ३१ वचनसंयमस्व०
चारित्राय नमः ३२ कायसंयमस्व०
,,चारित्राय नमः ३३ आचार्यवैयावृत्त्यस्व० चारित्राय नमः ३४ उपाध्यायवैयावृत्त्यस्व० श्रीचारित्राय नमः ३५ तपस्विवैयावृत्त्यस्व० चारित्राय नमः ३६ लघुशिष्यवैयावृत्त्यस्व० श्रीचारित्राय नमः ३७ ग्लानसाधुवैयावृत्त्यस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ३८ स्थविरवैयावृत्त्यस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ३९ समनोज्ञसामाचारीकारकवैयावृत्त्यस्वरूपश्रीचारि
त्राय नमः
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चारित्रपदना ७० भेदगर्भित नमस्कार पदो ॥ (१२५) ४० श्रमणसंघवैयावृत्त्यस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ४१ चन्द्रादिकुलवैयावृत्त्यस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ४२ कौटिकादिगणवैयावृत्त्यस्वरूप श्रीचारित्राय नमः ४३ स्त्रीपशुपंडकरहितवसतिवासशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूपश्री
चारित्राय नमः ४४ स्त्रीसहसरागवार्तालापवर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूपश्री ___चारित्राय नमः ४५ स्त्रीआसनवर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूपश्रीचारित्राय
नमः ४६ स्त्रीसरागांगोपांगनिरीक्षणवर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूप ___ श्रीचारित्राय नमः ४७ कुडयान्तरितस्त्रीपुरुषक्रीडास्थानवर्जनशुझब्रह्मगु
प्तिस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ४८ पूर्वभुक्तस्त्रीसंगक्रीडाविलासस्मरणवर्जनशुद्धब्रह्म.. गुप्तिस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ४९ सरसाहारवर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूपश्रीचारित्राय
नमः
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नमः
नमः
(१२६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ५० अतिमात्राहारवर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूपश्रीचारि
त्राय नमः ५१ विभूषादिशरीरशोभावर्जनशुद्धब्रह्मगुप्तिस्वरूप
श्रीचारित्राय नमः ५२ श्रीसम्यग्ज्ञानस्वरूप
नमः ५३ श्रीसम्यग्दर्शनस्व०
नमः ५४ श्रीसम्यक्चारित्रस्व० ५५ श्रीअनशनतपःस्व० ५६ औनोदर्यतपःस्वरूप
, नमः ५७ वृत्तिसंक्षेपतपःस्व० ५८ रसत्यागतपः , ५९ लोचादिकायक्लेशसहनतपःस्वरूप श्रीचारित्राय
नमः ६० संलीनतातपःस्वरूपश्रीचारित्राय नमः ६१ प्रायश्चित्तग्रहणरूपाभ्यन्तरतपःस्वरूपश्रीचारित्रा
य नमः ६२ विनयकरणाभ्यन्तरतपःस्वरूपश्रीचारित्राय नमः
नमः
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चारित्रपदनी भावना माटे ७० भेदगर्भित नमस्कार पदो। (१२७) ६३ वैयावृत्त्यकरणरूपाभ्यन्तरतपःस्वरूपश्रीचारित्राय
नमः नमः
नमः
६४ स्वाध्यायकरणरूपाभ्यन्तरतपःस्व० , ६५ शुभध्यानकरणरूपाभ्यन्तरतपःस्व०,, ६६ उत्सर्गकरणाभ्यन्तरतपः स्व० नमः ६७ क्रोधनिग्रहस्वरूप
नमः ६८ माननिग्रंहस्वरूप
नमः ६९ मायानिग्रहस्वरूप
नमः ७० लोभनिग्रहस्वरूप
नमः ॥चारित्रपदना ७० भेदोनी (गुणोनी) हृदयमां भावना
रहेवा माटे नमस्कार पदोना अर्थ॥ १ सर्वथा प्राणातिपात (जीवहिंसा) विरमण (त्याग)
रूप महाव्रतस्वरूप चारित्र. २ सर्वथा मृषावाद (जुटुंबोलवाना) विरमण (त्याग)
रूप महाव्रतस्वरूप चारित्र. ३ सर्वथा अदत्तादान [ नही दीधेल वस्तुग्रहण ]
विरमण (त्यागरूप) महाव्रतस्वरूप चारित्र,
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(१२८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।। ४ सर्वथा मैथुन (कामविकार) विरमण (त्याग) रूप
महावतस्वरूप चारित्र. ५ सर्वथा परिग्रह [धन धान्यादि संबंध तथा मूर्छा
विरमण [त्यागरूप] महावतस्वरूप चारित्र, ६ सम्यकप्रकारे क्षमा (क्रोध न करवारूप ) धर्म
स्वरूप चारित्र, ७ सम्यकप्रकारे मृदुता [ कोमलता माननाअभाव
रूप] धर्मस्वरूप चारित्र, ८ सम्यक्प्रकारे ऋजुता (सरलता मायाना अभाव
रूप) धर्मस्वरूप चारित्र. ९ सम्यकप्रकारे मुक्ति (लोभना अभावरूप) धर्मस्व
रूप चारित्र, १० सम्यकप्रकारे बाह्य अभ्यन्तर बार भेदे तप धर्म
स्वरूप चारित्र, ११ सम्यकप्रकारे सत्तरप्रकारना संयम धर्मस्वरूप चारित्र १२ सम्यक्प्रकारे सत्य बोलवारूप धर्मस्वरूप चारित्र,
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चारित्रपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१२९) १३ सम्यकप्रकारे शौच (संयमप्रत्ये निरतिचारपणे व
तवारूप) धर्मस्वरूप चरित्र १४ सम्यकप्रकारे आकिंचन्य [निर्ममत्वभाव]धर्मस्वरूप
चारित्र, १५ सम्यकप्रकारे ब्रह्मचर्य धर्मस्वरूप चारित्र, १६ सम्यकप्रकारे पृथ्वीकायजीवोना रक्षणरूप संयम
स्वरूप चारित्र, १७ सम्यकप्रकारे अपकायजीवोना रक्षणरूप संयम
स्वरूप चारित्र. १८ सम्यकप्रकारे तेडकायजीवोना रक्षणरूप संयम
स्वरूप चारित्र, १९ सम्यकप्रकारे वायुकायजीवोना रक्षणरूप संयम
स्वरूप चारित्र. २० सम्यकप्रकारे वनस्पतिकायजीवोना रक्षणरूप
संयम स्वरूप चारित्र. २१ सम्यकप्रकारे बेइन्द्रियजीवोना रक्षणरूप संयम __ स्वरूपचारित्र.
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( १३०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ २२ सम्यकप्रकारे तेइन्द्रियजीवोना रक्षणरूप संबम
स्वरूप चारित्र. २३ सम्यकप्रकारे चउरिन्द्रियजीवोना रक्षणरूप संयम
स्वरूप चारित्र. २४ सम्यकप्रकारे पंचेन्द्रियजीवोना रक्षणरूप संयम __ स्वरूप चारित्र, २५ सम्यकप्रकारे अजीवपदार्थों [ पुस्तकादि] यतना
पूर्वक धारण करवारूप संयम स्वरूप चारित्र २६ सम्यकप्रकारे पडिलेहण करीसम्यग् बेसवा उठवा विगेरे क्रिया स्वरूप अथवा संयममासीदता साधु
ओने संयममा जोडवारूप संयम स्वरूप चारित्र २७ सम्यकप्रकारे चक्षुए सम्यग् जोवारूप संयम स्वरूप
चारित्र २८ सम्यकप्रकारे पापव्यापार करता गृहस्थादि प्रत्ये
अथवा पासत्था विगेरे प्रत्ये उदासीनभावे
सम्यग्वर्त्तवारूप संयमस्वरूप चारित्र २९ सम्यक्प्रकारे जोया छतां पण रजोहरणादिके
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चारित्रपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१३१) पुंजवा विगेरे यतना क्रियामां वर्त्तवारूप संयम
स्वरूप चारित्र, ३० सम्यकप्रकारे परठववा विगेरेमां वर्त्तवारूप संयम
स्वरूप चारित्र, ३१ सम्यकप्रकारे अशुभ संकल्प वर्जवा, संयम ___स्वरूप चारित्र ३२ सम्यकप्रकारे अशुभवचन वर्जवा शुभ वचन प्रव
विवा रूप वचनव्यापार संयम स्वरूपचारित्र ३३ ,, प्रकारे आचार्यवैयावच्चस्वरूप चारित्र ३४ , प्रकारे उपाध्यायवैयावच्च स्वरूप चारित्र ३५ ,, प्रकारे तपस्विवैयावच्चस्वरूप चारित्र ३६ ,, लघुशिष्य [ नवदीक्षित ] वैयावच्चस्वरूप
चारित्र ३७ , ग्लानसाधुवेयावच्चस्वरूप चारित्र ३८ , प्रकारे स्थविरमुनि वैयावच्चस्वरूप चारित्र ३९ , प्रकारे उतम सामाचारीवाळा मुनिवैया
वच्चस्वरूपचारित्र
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( १३२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ४० , प्रकारे चतुर्विध संघवैयावच्च स्वरूप चारित्र ४१ सम्यक्प्रकारे चान्द्रादिकुल ( अनेकगच्छोनो समूह
ते कूल ) वैयावच्चस्व० चारित्र ५२ , कौटिकादिगण (अनेक कूलोनो समूह ते
, गण) वैयावच्चस्व० ४३ ,, स्त्रीपशु नपुंसकरहित वसतिमा रहेवाथी शुद्ध . ब्रह्मचर्यनी गुप्ति [वाड] स्व० चारित्र ४४ , स्त्रीओनी साथे रागवाली कथा [ आलाप
संलाप] वर्जवाथी शुद्धब्रह्मचर्यनी गुप्ति स्व०
चारित्र ४५ , स्त्रीओना आसन उपर नहि बेसवाथी [पुरु
षना आसन उपर स्त्रीए, पुरूष उठी गया पछी पण त्रण पहोर सुधी बेसवु नहि,अने स्त्रीना आसन उपर, स्त्री उठी गया पछी पण बे घडी सुधी बेसवू नहीं] शुद्धब्रह्मचर्य
नीगुप्ति स्व० चारित्र, ४६ ,, रागसहित स्त्रीओना अंगोपांग नहि जोवा
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चारित्रपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ ( १३३ ) थी शुद्धब्रह्मचर्यनी गुप्तिस्वरूप चारित्र भीतने आंतरे रहेला स्त्री पुरूषोनी क्रीडाना शब्द सांभळवा विगेरे त्याग करवाथी शुद्ध ब्रह्मचर्यनी गुप्ति स्व० चारित्र. पूर्वे भोगवेला स्त्रीसंबंध क्रीडा विगेरे नहि संभारवाथी शुद्ध ब्रह्मचर्यनी गुप्ति स्व० चारित्र ४९ सम्यकप्रकारे सरस मिष्टान्न आहारनो त्याग करवाथी शुद्ध ब्रह्मचर्यनी गुप्ति स्वरूप चारित्र, ५० सम्यकप्रकारे कंठपूर घणा प्रमाणथी आहारादि
नहि खावाथी शुद्ध ब्रह्मचर्यनी गुप्ति स्व० चारित्र, ५९ सम्यकप्रकारे शणगार सजवो विगेरे शरीर शोजा
त्याग करवाथी शुद्ध ब्रह्मचर्यनी गुप्तिस्व० चारित्र. ५२ सम्यकप्रकारे सम्यग् ज्ञानपरिणति स्व० चारित्र. ५३ सम्यकप्रकारे सम्यग्दर्शनपरिणति स्व० चारित्र. ५४ सम्यकप्रकारे सम्यक् चारित्र परिणति स्व० चारित्र ५५ सम्यकप्रकारे अनशन (चारे आहारना त्याग रूप) बाह्यतप स्व० चारित्र,
४७
૪૮
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( १३४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ५६ सम्यकप्रकारे उणोदरी ( उणुं रहेवारूप ) बाह्यतप
स्वरूप चारित्र ५७ , द्रव्यादिवृत्तिना संकोचरूप बाह्यतप
स्वरूप चारित्र. , दूध दही घी विगेरे रसत्यागरूप बा
ह्यतपस्वरूप चारित्र. ५९ ,, लोच, आतापना विगेरे कायक्लेशरूप
बाह्यतपस्वरूप चारित्र, ६० , इन्द्रिय कषाययोगने काबुमा राखवा
रूप बाह्यतपस्वरूप चारित्र. ६१ सम्यकप्रकारे प्रायश्चित्त लेवा (रूप) अभ्यन्तर तप . स्वरूप श्री चारित्र, ६२ , विनय करवा रूप अभ्यन्तरतपस्वरूप चारित्र. ६३ , प्रकारे वेयावच्च करवा रूप अभ्यन्तरतप
स्वरूप चारित्र ६४ , सज्झाय करवा रूप अभ्यन्तर तप स्वरूप
चारित्र
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६५
६६
चारित्रपदनी भावना माटे नमस्कार पदोना अर्थ ॥ ( १३५)
प्रकारे शुभध्यान आदरवा रूप अभ्यन्तर तप स्वरूप चारित्र
शरीर कषाय विगेरे त्यागकरवा रूप अभ्यन्तर
६७
६८
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तप स्वरूप चारित्र
क्रोधने काबुमा राखवा स्वरूप चारित्र प्रकारे मानने काबुमा राखवा स्वरूप चारित्र
६९
प्रकारे मायाने काबुमा राखवा स्वरूप चारित्र
७० लोभने काबुमां राखवा स्वरूप चारित्र
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आसीत्तेर गुण करी विभूषित श्री चारित्रपदने मारो नमस्कार थाओ, श्री चारित्रपदाराधननो काउसग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र सत्तरीगुणविभूसियसिरिचारित्रपयाराहणत्थं काउस्सग्गं करेमि ( सप्ततिगुणविभूषितश्री चारित्रपदाराधनार्थ ) आ प्रमाणे बोलवं, सीत्तेर लोगस्सनो काउसग्ग करवो, जाप पद " ओ ही नमो वारित्तस्स” जप आदि
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( १३६ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
वसे श्री चारित्रपदमां जेम विशेष लीनता थाय तेम चारित्र गुणोनुं ध्यान, स्मरण विशेष कर, शेष तमाम विधि पूर्वनी माफक, मात्र चारित्रपदनुं ध्यान उज्वल वर्णे करवानुं होवाथी चोखाना द्रव्यनुं आंबील करवुं.
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श्री तपः पदाराधन नवम दिवसनो विधि. श्री तपसाहात्म्य तथा तेना भेदगुणोनो विचार
समता सहित करवामां आवतुं तप यावत् निकाचित कर्मो पण क्षय करवामां समर्थ छे, चारज्ञान युक्त श्री तीर्थंकर देवो के जेमना चरणनी उपासनामां इन्द्रो पण तल्लीन रहे छे. पोतानी तेज भवमां मुक्ति छे तेम जाणी रह्या छे छतां पण तेओ कर्मनिर्जराना साधनभूत तपनी आराधनामां उद्युक्त रहे छे, तपथी देवताओ पण वश थाय छे, तपथी अनेक व्याधिओ पण मटे छे, ग्रह पीडा विगेरे पण निवृत्ति पामे छे, उपसर्ग अने विघ्नोनो नाश थाय छे. सर्वमंगल भेदोमां महान् मंगल छे. इन्द्रियोनुं दमन थाय छे. अने इष्ट कार्यों सिद्ध थाय छे, आयंबिल तपना प्रभावें
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( १३८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ज द्वैपायन ऋषिथी तो द्वारिकानो दाह अटक्यो हतो. नागकेतु महाराज विगेरे महापुरुषोना तपना प्रभावथीज देवकृत उपद्रवो पण नाश पाम्या हता. विगेरे अनेक गुणोधी तपनुं आराधन महान् लाभदायक छे. जोके आ तपना मुख्यताए बार भेदोथी अन्यत्र आराधन थाय छे तोपण अहीं तेना अवान्तरभेदो गणी ५० भेदोथी ध्यान नमस्कार विगेरे कराय छे.
श्री तपः पदना ५० भेदस्वरूप.
द्विविधं स्यादनशन, २- मौनोदर्य तथा द्विधा ४ । चतुधा वृत्तिसंक्षेपः, ८ कायक्लेश (रसत्याग) स्तथैकधा ९ ॥१॥
एकधा रससंत्यागः (कायसंक्लेशः) १० संलीनत्वं तथा द्विधा १२ । एवं बाह्यतपोभेदा द्वादश श्रीजिनोदिताः ||२|| दशधा प्रायश्चित्तं १० स्यात्सप्तधा विनयस्तथा । १७ वैयावृत्त्यं दशविधं २७ स्वाध्यायः पंचधा ३२ मतः ॥३॥
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तपः पदना ५० भेद स्वरुप ॥
(१३९)
चतुर्विधं तथा ध्यान ३६ - मुत्सर्गों द्विविध ३८ स्तथा । अष्टात्रिंशदिमे भेदा, स्तपसोऽभ्यन्तरस्य वै ॥४॥ अन्यथाप्यथवा भेदा-स्तपसः परिकीर्तिताः । पञ्चाशत्संख्यया ध्येयाः, निर्जरार्थिमनीषिभिः ॥ अनशनना बे भेद छे, ऊणोदरी बे भेद |
वृत्तिसंक्षेपना चार भेद, कायक्लेश [ रसत्याग]छे एक ॥ रसत्याग (कायक्लेश) छे एकविध, संलीनता दुगविध, बाह्य तपना ए का, बारस भेद प्रसिद्ध ॥२॥ प्रायश्चित्त दश भाखीया, सगविह विनय उदार दशविध वेयावच्च छे, सज्झाय पंच प्रकार ॥३॥ ध्यान चतुर्विध जाणीये, उत्सर्गना दोय भेद | अडत्रीश अभ्यन्तर मळी, तप पचास सुभेद ॥४॥
श्री तपः पदना नमस्कारपूर्वक तन्मयतासूचक स्वमासमणना दुहा.
कर्म तपावे चीकणा, भावमगंल तप जाण । पचास लब्धि उपजे, जय जय तप गुण खाण ॥
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(१४०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
इच्छारोधे संवरी, परिणति समता योगेरे। तप ते एहीज आतमा, वनें निजगुण भोगेरे।।वीर०॥
प्रदक्षिणा दइ स्वस्तिक करवा पूर्वक खमा०. दइ
श्री तपपदना ५० भेदगर्भित नमस्कार पदो.
१ श्री यावत्कथिकानशनस्वरूपतपसे नमः २,, ईत्वरिकानशनस्वरूपतपसे नमः ३, बाह्यौनौदर्यस्वरूपतपसे नमः ४ ,, आभ्यंतरौनौदर्यस्वरूपतपसे नमः ५ ,, द्रव्यतो वृत्तिसंक्षेपस्वरूपतपसे नमः ६ ,, क्षेत्रतो वृत्तिसंक्षेपस्वरूपतपसे नमः ७ ,, कालतो वृतिसंक्षेपस्वरूपतपसे नमः ८,, भावतो वृत्तिसंक्षेपस्वरूपतपसे नमः ९ ,, लोचादि कायक्लेश(रसत्याग)स्वरूपतपसे नमः १० ,, रसत्यागस्वरूपतपसे नमः ११ ,, इंद्रियकषाययोगसंलीनतास्वरूपतपसे नमः
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तपः पदना ५० भेद गर्भित नमस्कार पदो. (१४१), १२ ., स्त्रीपशुपंडकादिवर्जितवसत्यवस्थानस्वरूपत
पसे नमः १३ आलोचनाप्रायश्चित्त स्वरूपश्रीतपसे नमः १४ प्रतिक्रमणप्रायश्चित्त , श्रीतपसे नमः १५ मिश्रप्रायश्चित्त , श्रीतपसे नमः १६ विवेकप्रायश्चित्त ,, श्रीतपसे नमः १७ उत्सर्गप्रायश्चित्त श्रीतपसे नमः १८ तपःप्रायश्चित्त
श्रीतपसे नमः १९ छेदप्रायश्चित्त श्रीतपसे नमः २० मूलप्रायश्चित्त श्रीतपसे नमः २१ अनवस्थाप्यप्रायश्चित्त , श्रीतपसे नमः २२ पारांचिकप्रायश्चित्त
, श्रीतपसे नमः २३ ज्ञानविनय स्वरूपश्रीतपसे नमः २४ दर्शनविनय ,, श्रीतपसे नमः २५ चारित्रविनय ,, ,, तपसे नमः २६ शुभमनः प्रवृत्तिविनय ,, तपसे २७ शुभवचनप्रवृत्तिविनय ,, ,, तपसे नमः
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( १४२ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
२८ शुभकायप्रवृत्तिविनय स्वरूप श्रीतपसे नमः २९ औपचारिक विनय
३० आचार्यवैयावृत्य
३१ उपाध्यायवैयावृत्य
३२ स्थविरसाधुवैयावृत्य ३३ तपस्विसाधुवैयावृत्य ३४ लघुशिष्यादिवैयावृत्य
३५ ग्लानसाधुवैयावृत्य ३६ समनोज्ञसामाचारीकारकवैयावृत्य,,
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३७ श्रमण संघवैयावृत्य स्वरूप श्रीतपसे नमः
३८ चान्द्रादिकुलवैयावृत्य ३९ कौटिकादिगण वैयावृत्य
४० वाचनास्वाध्याय
४१ पृच्छनास्वाध्याय ४२ परावर्त्तनास्वाध्याय
४३ अनुप्रेक्षास्वाध्याय ४४ धर्मकथास्वाध्याय
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तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
तपसे नमः
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तपः पदना ५० भेद गर्भित नमस्कार पदो. (१४३) ४५ आर्तध्याननिवृत्तिध्यानस्वरूपश्रीतपसे नमः ४६ रौद्रध्याननिवृत्तिध्यान , , तपसे नमः ४७ धर्मध्यानप्रवृत्तिध्यान ,, ,, तपसे नमः ४८ शुक्लध्यानप्रवृत्तिध्यान ,, ,, तपसे नमः ४९ बायोत्सर्ग ५० आन्यन्तरोत्सर्ग , तपसे नमः
,,, तपसे नमः
तपपदना पचास भेदानी हदयमां भावना राखवा
नमस्कार पदोना अर्थ.
१ जावज्जीवनुं अनशन ( चार आहारना त्याग)
स्वरूप बाह्यतप. २ अमुक मुदतनुं ( नवकारशीथी मांडी उत्कृष्ट ऋषभदेवप्रभुना कालमा वर्षप्रमाणनुं, बावीश तीर्थकर प्रभुना कालमा आठमहिना सुधीनु, अने महावीर प्रभुना शासनमा उत्कृष्ट छ महिना सुधीनुं अनशन ( घारे आहारना त्याग ) स्वरूप बाह्यतप.
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(१४४) नवपद विधि विमेरे संग्रह ॥ ३ बाह्य ऊनोदरी ( एक दाणाथी मांडी बनी शके
त्यांसुधीनुं ) बाह्यतप. ४ आभ्यन्तर ऊनोदरी ( लोलुपता मटाडवा स्वरूप
ऊणोदरी ) बाह्यतप. ५ द्रव्यथी वृत्तिसंक्षेप ( वस्त्र विगेरे निर्वाहना द्रव्योनो
संकोच ) रूप बाह्यतप. ६ क्षेत्रथी वृत्तिसंक्षेप ( चेष्टा फरवा हरवाना क्षेत्रनो
संकोच ) रूप बाह्यतप. ७ कालथी वृत्तिसंक्षेप (अमुककालने माटेनो संकोच)
रूप बाह्यतप. ८ भावथी वृत्तिसंक्षेप ( महावीर प्रभुना अभिग्रहनी
जेम भावथी संकोच) रूप बाह्यतप. ९ लोच विगेरे कायकष्ट रूप बाह्यतप. १० रसत्याग ( दुध दही, घी, गोळ विगेरे विकृतिनो
- त्याग करवो ) रूप बाह्यतप. ११ पांचइन्द्रिय, चारकषाय, त्रणयोगनी संलीनता (इद्रियकषाययोगनी अशुभप्रवृत्तिनो संकोच ) रूप बाह्यतप.
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तपपदना पचास भेदोना नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१४५) १२ स्त्री पशु नपुंसकादिरहित वसतिमा रहेवा रूप सं
लीनता स्वरूप बाह्यतप. १३ आलोयणप्रायश्चित्त (गुर्वादि समक्ष करेला पा
पर्नु आलोवQ ) स्वरूप अन्यन्तर तप, १४ प्रतिक्रमणप्रायश्चित्त (ईर्यावहि पडिक्कमवी मिच्छामि दुक्कडं देवाथी पाप, प्रतिक्रमण ) स्वरूप
अभ्यन्तर तप, १५ उभयप्रायश्चित्त ( आलोयण तथा प्रतिक्रमण
बे करवा.) स्वरूप अभ्यन्तर तप, १६ विवेकप्रायश्चित (अकल्प्य अन्नपानादि परठववा
ते) स्वरूप अभ्यन्तर तप, १७ कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त ( काउस्सगमा रही अमुक
लोगस्स विगेरे गणवा) स्वरूप अभ्यन्तर तप, १८ तप करवारूप प्रायश्चित्त ( नीवी पुरिमढ आदि - तप करवो) स्वरूप अभ्यन्तर तप, १९ छेद करवारूप प्रायश्चित्त (अमुक दीक्षापर्याय
घटाडवो) स्वरूप अभ्यन्तरतप,
१०
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(१४६) नवपद विधि विगेरे संग्रह। २० मूलनामनाप्रायिश्चित्त ( फरीथी व्रतारोपण करवा
स्वरूप अभ्यन्तरतप, २१ अनवस्थाप्यप्रायश्चित्त ( अमुक तप विगेरे दंड
कराव्या शिवाय पुनःवतारोपण)स्वरूपअभ्यन्तरतप, २२ पारांचिक प्रायश्चित (महान् शासनप्रभावना कर्या शिवाय महाव्रत उच्चरावी गबमां लेवाय नहि) स्व
रूप अभ्यन्तर तप. २३ ज्ञानविनय (ज्ञान- बहुमान भक्ति कालविनयादि ___ आचार साचववो ) स्वरूप अभ्यन्तर तप, २४ दर्शनविनय (सम्यक्त्वना लक्षणो तथा आचारो
साचववा) स्व० अभ्यन्तर तप, . २५ चारित्रविनय (चारित्रनी श्रद्धाआराधना आचारो __साचववा) स्व० अभ्यन्तर तप. २६ मनोविनय ( रत्नत्रयवान जीवो उपर बहुमानादि
शुभमन राखवू,) स्व० अभ्यन्तर तप, २७ वचनविनय (रत्नत्रयवान् जीवोनी वचनथी स्तुति
आदि करवा ) स्व० अन्यन्तर तप,
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तपपदना पचास भेदोना नमस्कार पदोना अर्थ ॥ ( १४७ ) २८ कायविनय ( रत्नत्रयवान् जीवोनी प्रत्ये शुभका
यिकभक्ति आदि करवा) स्व० अभ्यन्तर तप, २९ उपचारविनय ( रत्नत्रयवान् जीवोनी भक्ति बहुमानादि करवा ) स्व० अभ्यन्तर तप, ३० आचार्यवैयावच्च ( आचार्य भगवंतनी भक्ति बहुमान, गुणस्तुति, आशातनापरिहार, अवर्णवादगोपनरूप अभ्यन्तर तथा वस्त्र, अन्न, पान, औधादि बाह्यभक्ति आदि करवा) स्वरूप अभ्यन्तर तप,
३१ उपाध्यायवैयावच्च ( उपाध्याय भगवंतनी भक्ति बहुमान० ) स्व० अभ्यन्तर तप.
३२ स्थविरसाधुवैयावच्च ( २० वर्षनी दीक्षापयायवाळा व्रतस्थविर १, समवायांगादि श्रुतना जाणकार श्रुतस्थविर २, ६० वा ७० वर्षनी उमरवाळा वयस्थविर, ३, ते सर्वनी भक्ति बहुमान० ) स्व० अ
भ्यन्तर तप
३३ तपस्विवैयावच्च ( उग्रतपस्यावाळा महापुरुषोनी
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(१४८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
बाह्य भक्ति आदि करवां ) स्व० अभ्यन्तरतप. ३४ लघुशिष्यादिवैयावच्च ( नवदीक्षित साधु आचार
मां स्थिर थाय ते माटे भक्ति बहुमान० स्व० अ
ज्यन्तर तप. ३५ ग्लानमुनिवैयावच्च ( रोगादिथी शिथील शरीर
वाळानी भक्ति बहुमान० ) स्व० अन्यन्तर तप. ३६ समनोझसामाचारीवाळानुं वैयावच्च (उत्तम सा
माचारी पाळनार महापुरुषोनी भक्ति बहुमान०)
स्व० अभ्यन्तर तप, ३७ श्रमणसंघवैयावच्च ( साधु, साध्वी, श्रावक, श्रा
विकारूप चतुर्विधसंघनी भक्ति बहुमान० ) स्व०
अभ्यन्तर तप, ३८ चान्द्रादिकुलनी वैयावच्च (एकाचार्य समुदाय
कुल कहेवाय, तेनी भक्ति बहुमान०) स्व० अ
भ्यन्तर तप, ३९ कोटिकादिगणनी वैयावच्च (त्रण आचार्यना कुलनो समुदाय गण तेनी भक्ति बहुमान०) स्व० अभ्यन्तर तप,
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• तपपदना पचास भेदोना नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१४९) ४० वाचनास्वाध्याय ( योग्य जीवने सूत्र अर्थनो पाठ
भणाववो तथा पोते भणवो) स्व० अभ्यन्तर तप, ४१ पृच्छनास्वाध्याय (प्रश्नो पुछी संदेहादि टाळवा)
स्व० अभ्यन्तर तप, ४२ परिवर्तनास्वाध्याय (प्रथमर्नु भणेलु संभार ) __ स्व० अभ्यन्तर तप, ४३ अनुप्रेक्षास्वाध्याय ( भणेला सूत्रार्थनो विचार ___ करवो ) स्व० अभ्यन्तर तप, ४४ धर्मकथास्वाध्याय (धर्मदेशना उपदेशादि आ
पवा ) स्व० अभ्यन्तर तप, ४५ आर्तध्याननिवृत्ति, (इष्ट वस्तुना वियोगथी थती
चिन्ता, शोक, विलाप विगेरे थाय ते इष्टवियोगार्तध्यान १, अनिष्ट संयोगथी थता चिन्ता विगेरे अनिष्टसंयोगार्त्त २, रोगादि थवाथी थता चिन्ता विगेरे रोगचिन्तार्त्त ३, भविष्य सुखनी चिन्तादि अग्रशौच्यात ४ ए चारेनो त्याग ) स्वरूप अभ्यन्तर तप.
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(१५०) . नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ४६ रौद्रध्याननिवृत्ति. (द्वेषथी प्राणीने बांधवा मारवा विगेरे चिन्ता ते हिंसानुबंधिरौद्रध्यान १,छल प्रपंच करवाना विचार असत्यने सत्य स्थापवानी चिन्ता ते मृषानुबन्धि २, क्रोधादि कषायथी परर्नु द्रव्य हरवानी चिन्ता ते स्तेयानुबंधि ३, विषय साधन धनादि रक्षण करवानी चिन्ता ते संरक्षणानुबंधि ४, ए चारे रौद्रध्याननो त्याग करवा ख० अभ्य
न्तर तप, ४७ धर्मध्यानप्रवृत्ति. श्री ( जिनेश्वरवचन सत्य छ
ते विचारवं ते आज्ञाविचय १, रागद्वेषादि दुःखरूप विचारवं ते अपायविचय २, सुखदुःख पूर्वकृत कर्म नुं फल छे ते चिन्तववं, ते विपाकविचय ३, लोकाकृति द्रव्यादिनुं चिन्तव, ते संस्थानविचय४,आचारे धर्मध्यानमा प्रवृत्ति राखवी स्व० अन्यन्तर तप. ४८शुकलध्यानप्रवृत्ति. (पथक्त्ववितर्कसविचार १, एकस्ववितर्कअविचार २, सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाति ३, व्युपरतक्रिया अनिवृत्ति ४, ए चारे केवलज्ञान तथा
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तपपदना पचास भेदोना नमस्कार पदोना अर्थ ॥ (१५१) मुक्तिना साधनध्यानमा प्रवृत्ति राखवा स्व०अभ्य
न्तर तप, ४९ बाह्य उत्सर्ग (द्रव्य शरीर वस्त्रादिना त्याग) __ स्वरूप अभ्यन्तर तप. ५० अम्यन्तर उत्सर्ग (मिथ्यात्व, कषाय,विगेरे कर्मबन्ध हेतुओना त्याग ) स्वरूप अभ्यन्तर तप.
आ प्रमाणे बाह्य तपना बार, तथा अभ्यन्तर तपना अडत्रीश कुल पचास भेदथी विभूषित तपपदने म्हारो नमस्कार थाओ.
श्री तपः पदाराधननो काउस्सग्ग पूर्वनी माफक जाणवो, मात्र पचासगुणविभूसियसिरितवपया. राहणत्थं काउस्सग्गं करेमि [पञ्चाशद्गुणविभूषितश्रीतपःपदाराधनाथ ] आ प्रमाणे बोलवू, पचास लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, जापपद “ओ ही नमो तवस्स जपवु” आ दिवसे श्री तपपदमा जेम विशेष लीनता थाय तेम तपपदना गुणोनुं ध्यान स्मरण विशेष करवू. शेष तमाम विधि पूर्वमाफक जाणवी, मात्र
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(१५२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ तपपदनुं ध्यान उज्वल वर्णे करवानुं होवाथी चोखाना द्रव्यनुं आयंबिल कर.
आ अन्तिम [छेल्लो] दिवस होवाथी तमाम विधि अप्रमत्तपणे करवी, विशेष पूजा करवी, यथाशक्ति आयंबिलमां पण द्रव्यादि अभिग्रहो राखवा, आज विशेष महोत्सव सहित सत्तर भेदी पूजा भणाववी. विशेष आंगी पूजा, रात्रिजागरण, भावना, प्रभावना विगेरे करवी. "डेल्ले आंबिल मोटो तप कीजे, सत्तरभेदी जिनपूजा
रचीजे, मानवभव लाहो लीजे"
___ पारणाना दिवसनो विधि.
दरेक विधिओमा, विद्यासाधनामा पूर्वसेवा उत्तरसेवाओ होय छे, तेम आ दिवसे परंपराथी श्री सिद्धचक्र महाराजनुं समुदित आराधन कराय छे.. ___ पडिलेहण, देववंदन सुधीनो विधि संपूर्ण पू. वनी माफक करी.
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सिद्धचक्र नमस्कार तथा खमासमणना दुहाओ ॥ (१५३) श्री सिद्धचक्र माहात्म्यगर्भित तेनो नमस्कार तथा
तन्मयतासूचक खमासमणना दूहाओ. दशमा पूर्वथी उद्धर्यो, सिद्धचक्र शुभयंत्र । एहनी तुलनामा नहि, मंत्र तंत्र कोइ यंत्र ॥१॥ परमतत्त्व जिनधर्ममां, शासननुं सर्वस्व ।। मुक्तिपददायक भविक, नमो नमो चित्त एकत्व ॥२॥ योग असंख्य छे जिन कह्या, नवपद मुख्य ते जाणोरे । एह तणे अवलंबने, आत्मध्यान प्रमाणो ॥३॥ रे वीर०॥
आप्रमाणे दूहाओबोली प्रदक्षिणा दइ स्वस्तिक करी द्रव्यफल नैवेद्यादि मूकी एक एक खमासमण देवं.
॥ नमस्कार पद ॥ . "श्रीविमलेश्वर चक्रेश्वरीपूजिताय जिनशासनपरमतत्त्वाय श्री सिद्धचक्राय नमो नमः,” एज प्रमाणे नव खमासमण देवां, पद तेनुं तेज बोलवू. ___ ईर्यावही करी काउसग्ग श्री विमलेश्वरचक्रेश्वरी पूजितश्रीसिद्धचक्राराधनार्थ काउसग्गं करेमि, इच्छं, श्री वि० करोमि काउ० अन्नत्थ० नवलोगस्स० प्रकट लोगस्स खमा० अविधि आशातना मिच्छामि दु०.
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aava विधि विगेरे संग्रह ॥
( १५४ )
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" औ ही श्री विमलेश्वरचक्रेश्वरीपूजिताय श्री सिद्धचक्राय नमो नमः" ए पदनी वीश नवकारवाली गणवी, गुरुवदन करी ओछामां ओलं बेसणानुं पच्चखाण कर, नवी ओळीनी आराधना प्राप्त थाय त्यां सुधीने माटे यथाशक्ति अभिग्रहादि लेवा, प्रभुदेवनी श्री सिद्धचक्रमहाराजनी विस्तारथी पूजा करी पछी पच्चक्खाण पावुं.
अष्टान्हिकामहोत्सव पूर्ण थयेल होवाथी मुख्यविधिए “ यात्रोत्सवो हि संपूर्णो भवति रथयात्रया ए शास्त्रवचनथी रथयात्रामहोत्सव बनती शक्तिए अवश्य करवो जोइए. ते रथयात्रामहोत्सवमां श्री आर्यसुहस्ति भगवानना समये अवन्ती [ उज्जयिनी ] ना श्रावकोनी, श्रीहेमचंद्रसूरि महाराजना समये परमात महाराज कुमारपालनी रथयात्रानो विधि अवश्य विचारवो, आ रथयात्रामहोत्सव पण श्रावकना वार्षिक कृत्यो पैकीनुं एक छे तेमज आज महान् उत्सव दिवस होवाथी साधर्मिक वात्सल्य कर.
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श्री सिद्धचक्रपदोनो क्रमिकविचार ॥ श्री सिद्धचक्रपदोनो क्रमिकविचार, तेनुं रहस्य,
संख्यामहिमाविचार. आ श्रीसिद्धचक्रना नवपदोमां पांच धर्मी (गुणी) छे अने चार धर्म (गुण) छे “गुणाणमासओ दवं " गुणोनो आश्रय द्रव्य छे एटले के निराधार गुणो होइ शकता नथी, जो के गुणोने लइनेज गुणीनी पूज्यता छे, छतां पण ते गुणोनो आविर्भाव, गुणोनी विशिष्टता गुणि आत्माज करी शके छे. तेमज पूर्वोक्त वचनथी जणाय छे के निराधार गुणो न रही शकवा विगेरे अनेक कारणोथी पहेला पंचपरमेष्ठिरूप गुणीनुं ग्रहण कर्यु छे, आ ज पंचपरमेष्ठि (अरिहंत. सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) ना नमस्कारमयज सकल श्रुतस्कन्धना नवनीततुल्य अभ्यन्तर वर्तनार पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध छे, श्रीभगवतीजी- आदिमंगल पण तेज छे, प्रणवाक्षर 'ओ' पदे करी योगिओमहात्माओ तेमनुज ध्यान करे छे, ए पांचेना प्रथम
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( १५६ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ प्रथम अक्षरो लइ 'असिआउसा' ए पदे महापुरुषो ते मनोज जाप करे छे, इत्यादि अनेक स्वरूपमय आ पंचपरमेष्ठिमां जो के सिद्धभगवान् सकल कमथी मुक्त थयेला अने सर्वकृतार्थ छे, तथा वर्त्तमानमां अर्हस्वरूपने पण जणावनार श्री आचार्य भगवंत विगेरे महान् उपकारक होवा छतां पण सर्व प्रथम मुक्तिमार्गने देखाडनार, सिद्ध आदिना स्वरूपने पण ओळखावनार, चतुर्विधसंघ तथा प्रवचनस्वरूप तीर्थना प्रवर्त्तावनार निरपेक्षपणे धर्म बतावनार जेमणे उपदेशेल अर्थ स्वरूप त्रिपदीने पामी श्रीगणधर भगवंतो गुंथेला सूत्र तथा तेना आलंबनथी महापुरुषोए रवेला ग्रन्थोनी अपेक्षा राखी श्री आचार्यादि बीजाओने उपदेश विगेरे आपे छे विगेरे अनेक कारणोथी प्रथम श्री अरिहंत पद ग्रहण कर्तुं छे, पछी सर्वकृतार्थ होवाथी श्रीसिद्धभगवंतने बीजे स्थाने ग्रहण कर्या छे, श्री अरिहंत प्रभु आदिना अभावमां मुक्तिमार्ग आदिना देखाडनार श्री आचार्य भगवंतज छे, इत्यादि हेतुथी शासनना स्तंभ आचार्य भगवंत त्रीजे स्थाने
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गुणोनु रहस्य अने क्रमविचार ॥ (१५७ ) ग्रहण कर्या छे, आचार्यपदना अधिकारी, शिष्योने सूत्रादि भणावी महान् उपकार करनार विगेरे अनेक. हेतुओथी गच्छचिन्तक श्री उपाध्यायभगवंत चोथे स्थाने ग्रहण कर्या, मोक्षमार्गमा सहायदाता मोक्षमार्गना साधनार साधुभगवंतो पांचमे स्थानके लीधा, आ प्रमाणे पंचपरमेष्ठिरूप गुणीनो क्रमविचार बतावी हवे चार गुणो संबंधी विचारीये.
॥ गुणोनुं रहस्य अने क्रमविचार ॥ पवित्र आत्माना प्रकट थयेला अनन्त गुणो प्रशस्त होवा छतां आचार गुणोनीज मोक्ष प्रत्ये कारणता तथा आ चार मार्गना अवलम्बनीज जीवोने सद्गति प्राप्त थाय छे, इत्यादि कारणोथी श्रीसिद्धचक्र यंत्रमा आ चारने ग्रहण काँ छे. कयुं छे के
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा॥ एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसीहिं ॥१॥ ज्ञान दर्शन, चारित्र अने तप ए चारज श्रेष्ट
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(१५८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ दर्शि केवलिभगवंतोए आ (ज्ञानादि ४) मार्ग (मोक्षनो रस्तो) प्ररूप्यो छे ॥१॥
नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा ॥ एय मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सुग्गइं ॥२॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप ए चार स्वरूप मुक्तिमार्गने अनुसरेला जीवो सद्गति (मोक्ष गति) ने पामे छे. (आ चार हेतुथी मुक्तिमार्ग प्रत्ये थती अनुकूलता).
नाणेण जाणई भावे, सणेण य सदहे ॥
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥१॥ ज्ञानथी पदार्थोने जाणे छे, दर्शने करी पदाथोंनी श्रझा करे छे. चारित्रेकरी आश्रवस्थानो [कर्मबन्धनकारणो] ने रुंधे छे, तपे करी प्राचीन कर्ममलनी (निर्जरा थवाथी) सर्वथा शुद्ध थाय छे ॥ १ ॥ __इत्यादि अनेक वचनोथी तथा युक्तिविचारोथी चारेमा मुक्तिसाधनता सिद्ध थाय छे. तेमां सम्यग्दर्शन विना व्हाय तेटर्बु (नवपूर्व सुधीनु) ज्ञान पण अज्ञान रूप छे. अखंडधाराये पळातुं चारित्र पण अ
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गुणोनुं रहस्य अने क्रमविचार ॥ (१५९) भव्यादिनी जेम मुक्तिनुं कारण नथी तेम तप पण अज्ञान कष्टस्वरूप होवाथी सम्यग्दर्शन पद चारे पदोमा पहेढुं ग्रहण कयुं छे. सम्यग्दर्शनथी शुद्ध थयेला ज्ञानथी हेयोपादेय पदार्थों जाण्या शिवाय वैराग्यपरिणति थती नथी, अने ते विनानुं चारित्र 'मार्जारविरतिकल्प' छे. तप पण शुद्ध थतुं नथी तेथी ज्ञानपद बीजं कह्यु , गढनाळाथी आवतो कचरो रोकाया शिवाय तळावनी अंदरनो कचरो साफ करी शकातो नथी तेम आश्रवस्थानो रूप कमे आववाना साधनोथी आवतो कर्म कचरो रोकाया शिवाय आस्मशुद्धि (कर्म रहितपणुं) थइ शकती नथी,जेथी आवता कर्म कचराने रुंधवा समान चारित्र पद त्रीजुं ग्रहण कयु, त्यार बाद बंधायेला कमों यावत् निकाचित अवस्था सुधीना होय तेने पण दय करवानुं परम साधन, सर्व मंगलभेदोमां प्रथम मंगल स्वरूप अवधिज्ञानथी तेज भवमा मुक्ति पामवानुं जाणता पण श्रीमत्तीर्थंकरदेवोए आचरेद्धं तपपद मुक्तिनुं महत् साधन होवाथी तप पद चोथु ग्रहण कर्यु छे.
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(१६०)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ संख्याविशिष्टता-महिमा ॥ पांच धर्मि (गुणि) पदो अने चार धर्म (गुण) पदो मळी नवना आंकमां ए विशिष्टता छे के-बधी आंक संख्याने गुणाकार करता ते आंकनो भंग थाय छे. पण नवना आंकने व्हाय तेटला गुणा करो तो पण नवनो अंक अभंगज रहे छे,नवने बमणा करवाथी १८ थाय, तेमां एक अने आठ बेउ मळी ९ थाय छे. त्रमणा करवाथी २७ थाय, तेमां पण बे अने सात ९. एज प्रमाणे आगळ आगळ जेटली संख्या गुणा करो तेमां नवनो आंक आवी उभोज रहे छे. श्री जिनेश्वर देवप्रतिपादित अबाधिततत्त्वो पण नवं छे, शाश्वत निधिओ पण नव छे. इत्यादि अनेक विचारोथी नवपदमय श्रीसिद्धभगवंतनी विशिष्टता समजवा लायकछे.
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॥ श्री सिद्धचक्रगुणोनुं स्तोत्र.॥
१२ अर्हद्गुणाःअशोकाख्यं वृक्षं सुरविरचितं पुष्पनिकरं, '
ध्वनिं दिव्यं श्रव्यं रुचिरचमरावासनवरम्।। वपुर्भासंभारं मधुररवं दुन्दुभिमथ,
प्रभोः प्रेक्ष्यच्छत्रत्रयमधिमनः कस्य न मुदः॥१॥ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि
दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं,
सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥२॥ अपायापगमो ज्ञानं, पूजा वचनमेव च ।
श्रीमतीर्थकृतां नित्यं, सर्वेभ्योऽप्यतिशेरते ॥३॥ ८सिद्धगुणाः
अनन्तं केवलज्ञानं, ज्ञानावरणसंक्षयात् ।
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(१६२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
अनन्तं दर्शनं चापि, दर्शनावरणक्षयात् ॥४॥ दायिक शुद्धसम्यक्त्व-चारित्रे मोहनिग्रहात् ।
अनन्ते सुखवीर्ये च, वेद्यविनक्षयात् क्रमात् ॥५॥ आयुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः। ... नामगोत्रक्षयादेवाऽ-मूर्त्तानन्तावगाहना ॥६॥ ३६ आचार्यगुणाःप्रतिरूपाद्याश्चतुर्दश, क्षान्त्यादिर्दशविधः श्रमणधर्मः । द्वादश भावना इति, सूरिगुणा भवन्ति षट्त्रिंशत्॥७ २५ उपाध्यायगुणाःअङ्गान्येकादश वै, पूर्वाणि चतुर्दशापि योऽधीते । अध्यापयति परेभ्यः, पञ्चविंशतिगुण उपाध्यायः॥॥ २७ साधुगुणाःव्रतषट्कं कायरक्षाः, पञ्चेन्द्रियलोभनिग्रहः शान्तिः। भावविशुद्धिः प्रतिले-खनादिकरणे विशुद्धिश्च ॥९॥ संयमयोगसुयोगोऽ, कुशलमनोवचःकायसंरोधाः। शीताद्याधिविषहनं, मरणायुपसर्गसहनं च ॥१०॥ सप्ताविंशतिसुगुणै-रेभिरन्यैश्च यो विभूषितः साधुः।
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श्री सिद्धचक्रगुणोनुं स्तोत्र ॥ (१६३) जिनशासनप्रवेशे, द्वारसमो रम्यगुणनिवहः ॥११॥ ६७ सम्यग्दर्शनभेदाःश्रद्धा ४ लिङ्गं ३ विनयाः १०,
शुद्धि ३ दोषाः ५ प्रभावना ८ भणिताः। भूषण ५ लक्षण ५ यतना ६,
आकारा ६ भावना ६ ध्येयाः॥ १२ ॥ स्थाना ६न्येतै दै-रलङ्कृतं दर्शनमतिविशुद्धम् । ज्ञानक्रिययोर्मूलं, शिवसाधनमात्मसौख्यमिदम् ॥१३॥ ५१ ज्ञानभेदाःअष्टाविंशतिभेदाढ्या, मतिः पूर्वमितं श्रुतम् । षोढा चाप्यवधिद्वैधा, मनःपर्यवमीरितम् ॥१४॥ एकं केवलमाख्यात-मेकपञ्चाशदित्यमी। ज्ञानभेदा जिनरुक्ता, भव्याम्भोजविकासकाः ॥१५॥ ७० चारित्रभेदाःव्रत ५ धर्म १० संयमा १७ स्त्विह,
वैयावृत्यानि १० गुप्तयो नव ९ वै। ज्ञानादित्रिक ३ मिह तपः १२,
क्रोधादिनिरोधनं ४ च चारित्रम् ॥१६॥
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(१६४) नवपद विधि विगेरे संग्रह। ५० तपोभेदाःद्विविधं स्यादनशन-मौनोदर्य तथा द्विधा। चतुर्धावृत्तिसंक्षेपः,कायक्लेश (रसत्याग) स्तथैकधा॥१७ एकधारससंत्यागः (कायसंक्वेशः),संलीनत्वं तथा द्विधा। एवं बाह्यतपोभेदाः, छादश श्रीजिनोदिताः ॥१०॥ दशधा प्रायश्चित्तं स्यात्, सप्तधा विनयस्तथा । वैयावृत्त्यं दशविधं, स्वाध्यायः पञ्चधा मतः ॥ १९ ॥ चतुर्विधं तथा ध्यान-मुत्सगों द्विविधस्तथा। अष्टात्रिंशदिमे भेदा-स्तपसोऽभ्यन्तरस्य वै ॥ २० ॥ पञ्चाशत्संख्यया ध्येयाः, निर्जरार्थिमनीषिभिः । अन्यथाऽप्यथवा भेदाः, पदानां परिकीर्तिताः ॥१॥
॥ इति श्रीसिद्धचक्रगुणाः ॥ .
॥ श्रीसिद्धचक्र गुणविचार ॥ (१२ अरिहंत गुण) प्रातिहारज आठ छे, मूल अतिशय चार । बार गुण अरिहंतदेव, नमो नमो बहुवार ॥१॥
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श्रीसिद्धचक्र गुणविचार ॥ (१६५) (८ सिद्धगुण) एक एक कर्मना क्षय थकी, नीपन्यो गुण एक एक । . आठ गुणे इम ध्याइए, सिद्धप्रभु सुविवेक ॥२॥ ( ३६ आचार्यगुण) पडिरूवादिक चौद गुण, क्षान्यादिक दशधर्म । भावना बार छत्रीश ए, सूरिगुण, मर्म ॥३॥ ( २५ उपाध्यायगुण) अंग अग्यार भणे तथा, चउद पूर्व वली जेह । परने भणावे नेहथी, उपाध्यायगुण एह ॥ ४॥ (२७ साधुगुण) व्रत छकायरक्षण तथा, इन्द्रिय लोभनिरोध । क्षमा भावशुद्धि वळी, पडिलेहणादि विशोध ॥ ५॥ संयमयोगे युक्तता, मनवचकाया शान्त । शीतादि परिषह तथा, मरणोपसर्ग सहंत ॥६॥ इम सगवीस गुणावलि, मौक्तिकमाल धरंत । मुक्तिमार्ग साधक मुनि, रमणीय गुण सोहंत ॥७॥ ( ६७ दर्शनभेद) चउसइहण तिलिंग छे, दशविध विनय विचारोरे।
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( १६६ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
त्रणशुद्धि पण दूषण, आठप्रभावक धारोरे ॥ ८ ॥ प्रभावक अड पंचभूषण, पंच लक्षण जाणीए, षट् जयणा षट् आगार भावना, छव्विहा मन आणीये । षट्ठाण समकिततणा, सडसठ भेद एह उदार ए, एहन तत्त्व विचार करतां, लहीजे भवपार ए ॥९॥ ( ५१ ज्ञानभेद )
मति अट्ठावीश भेद छे, श्रुतना चौद प्रकारं । षड्विध ओही वर्णव्यो, मनः पर्यव दुगधार ॥ १० ॥ केवल एक वखाणीये, इम एकावन मान । ज्ञानभेद जिनवर कह्या, वंदु धरी बहुमान ॥ ११ ॥ [ ७० चारित्रभेद ]
व्रत पांचने दश श्रमणधर्म ज, संयम सत्तर जाणीये, दशभेद वैयावच्च नवविध, ब्रह्मगुप्त वखाणीये । ज्ञानादित्रण तप बार भेदे, कषाय चार निरोधीये, आराधीने इम चरणसित्तरी, निजचरणने संशोधीये १२ [ ५० तपोभेद ] अनशनना बे भेद छे, ऊणोदरी बे भेद,
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श्रीसिद्धचक्र गुणविचार ॥ (१६७ : वृत्तिसंक्षेपना चार भेद, कायक्वेश (रसत्याग) छे एक १३ रसत्याग (कायक्वेश) छे एकविध, संलीनता दुगविध । बाह्यतपना ए कह्या, बारभेद प्रसिद्ध ॥ १४ ॥ प्रायश्चित्त दश जाणीये, सगविह विनय उदार। .. दशविध वैयावच्च छे, सज्झाय पंचप्रकार ॥ १५ ॥ ध्यान चतुर्विध जाणीये, उत्सर्गना दोय भेद । अडत्रीश अभ्यन्तर मळी, तप पचाश सुभेद ॥१६ ॥ ॥ कोइक स्थळे १३०००जाप बतावे छे तेनो विचार ॥ १०८ पंचपरमेष्टिना गुणो.
१२ श्री अरिहंतप्रभुना,
८ श्री सिद्धप्रभुना, ३६ श्री आचार्य भगवंतना, २५ श्री उपाध्याय भगवंतना,
२७ श्री साधुभगवंतना, ५ दर्शनना भेदो. ५ ज्ञानना भेदो.
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(१६८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ १० श्रमणधर्मचारित्रना भेदो, २ तपना भेदो.
___ कुल १३० भेद थया, ते प्रत्येकना सो सो जाप एटले (एक एक नवकारवाली) गणवाथी १३० ने सोए गुणतां १३००० संख्या थाय छे. अथात्१५०० श्री अरिहंतपदनो जाप, ८०० श्री सिद्धपदनो जाप, ३६०० श्री आचार्यपदनो जाप, २५०० श्री उपाध्यायपदनो जाप, २७०० श्री साधुपदनो जाप, ५०० श्री दर्शनपदनो जाप, ५०० श्री ज्ञानपदनो जाप, १००० श्री चारित्रपदनो जाप,
१ बीजे स्थळे चारित्रना तथा तपना ६.-६-भेद बताव्या छे.
२ चारित्रना ६ भेदनी अपेक्षाये जाप संख्या ६०० तेज प्रमाणे तपना पण ६ भेदनी अपेक्षाये जाप संख्या ६०० जाणवी. बेउ मली १२०० जाप थाय.
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१३००० जाप विचार ।
२०० श्री तपःपदनो जाप,
१३००० कुल जाप ॥ श्री सिद्धचक्र महाराजना ७३४६ गुग भेदविचार ॥ ... १०८ गुणि वा धर्मि आश्रयी गुणो २३८ गुण
वा (धर्म) आश्रयो भेदो
॥ अरिहन्तना १५ गुण ॥ (८) प्रातिहार्य१ अशोकवृक्ष, २देवकुसुमवृष्टि,३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामंडल, ७ देवदुन्दुभि, ८ छत्रत्रय. (४ मूलातिशय) १ अपायापगम, २ ज्ञान, ३ पूजा, ४वचनातिशय.
*कोइक स्थळे पंचपरमेष्ठिना १०८, दर्शन पदना ६७, ज्ञानपदना ५१, चारित्रपदना ५, तपपदना १२, सर्व मळी २४३ गुणभेदो पण देखाडया छे. तेमां चारित्रपदना सामायिक १, छेदोपस्थापनीय २, परिहारविशुद्धि ३, सूक्ष्मसंपराय ४, यथाख्यात ५, ए पांच भेद तथा तपपदनां ६ बाह्य अने ६ अभ्यन्तर मळी १२ भेद जाणवा.
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( १७० ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
२४ तीर्थंकरभेदे २४ खमा० काउ० विगेरे पण अन्यत्र आराधनामां आवे छे,
॥ सिद्धना ८ गुण ॥
१ अनन्तज्ञान, २ अनन्तदर्शन, ३ अव्याबाधसुख, ४ अनन्तसम्यक्त्वचारित्र, ५ अक्षयस्थिति, ६ अमूर्त्त अनन्तावगाहना, ७ अगुरुलघु, ८ अनन्तवीर्य. सिद्ध भगवंतना १५ भेद होवाथी १५ खमा० काउ० विगेरे पण अन्यत्र आराधवामां आवे
"
१ जिनसिद्ध, २ अजिनसिद्ध, ३ तीर्थसि०, ४ अतीर्थसि०, ५ गृहिलिंग सि०, ६ अन्यलिं०, ७ स्वलि०, ८ स्त्रीसिद्ध, ९ पुरुषसिद्ध, १० नपुंसक सि०, ११ प्रत्येकबुद्धसिद्ध, १२ स्वयं बुद्ध०, १३ बुद्धबोधित०, १४ एक सिद्ध, १५ अनेक सिद्ध
प्रकारान्तरे ३१ गुणोनी अपेक्षाए लीधा छे.. ५ ज्ञानावरणीयाभाव, ९ दर्शनावरणीयाभाव, २ वेदनीयाभाव, २ मोहनीयाभाव, ४ आयुष्कमाभाव,
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आचार्यना ३६ गुण ॥
( १७१ )
२ नामकर्माभाव, २ गोत्रकर्माभाव, ५ अन्तरायकमाभाव, तेमज वर्णाभावादिनी अपेक्षाये पण ३१ भेदो थाय छे.
॥ आचार्यना ३६ गुण ॥
१४ प्रतिरूपादि
१ प्रतिरूप, २ तेजस्विता, ३ युगप्रधानागम, ४ मधुरवाक्य, ५ गांभीर्य, ६ धैर्य, ७ उपदेशतत्परता, ८ अपरिश्रावि, ९ सौम्यप्रकृति, १० संग्रहशीलता, ११ अभिग्रह, १२ अविकत्थकता, (अनात्मशंसिता), १३ अचपलता, १४ प्रशान्तहृदय.
१० क्षमादिधर्म
१ क्षमा, २ मृदुता, ३ आर्जव, ४ मुक्ति, ५ तप, ६ संयम, ७ सत्य, ८ शैचा, ९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य ..
१२ भावना
१ अनित्यत्व, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचित्व, ७ आश्रव, ८ संवर, ९ निर्जरा, १० लोकस्वभाव, ११ बोधिदुर्लभता, १२ धर्म - कथकार्हदुर्लभता.
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(१७२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
बीजी पण अनेक रीतोथी छत्रीशीओ थायछे जे आगळ देखाडवामां आवशे.
..॥ उपाध्यायना २५ गुण. ॥
११ अंगपठनपाठनतत्परता,१ आचारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग, ४ समवायांग, ५ भगवत्यंग, ७ ज्ञाताधर्मकथांग, ७ उपासक दशांग, ८ अंतकृद्दशांग, ९ अनुत्तरोपपातिकदशांग, १० प्रश्नव्याकरणांग, ११ विपाकांग. १४ पूर्वपठनपाठनतत्परता
१ उत्पाद, २ अग्रायणीय, ३ वीर्यप्रवाद, ४ अस्तिनास्ति प्र०, ५ ज्ञानप्र०, ६ सत्यप्र०, ७ आत्मप्र०, ८कर्मप्रवाद,९प्रत्याख्यानप्र०,१०विद्याप्र०,११कल्याणप्रवाद,१२प्राणावाय,१३ क्रियाविशाल,१४ लोकबिन्दुसार,
बीजी पण अनेक रीतियोए पचीशीओ थाय छे जे आगळ बताववामां आवशे,वळी मुख्यताए अन्यत्र
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साधुना २७ गुण ॥
( १७३)
११ अंग १२ उपांग पठनपाठन तत्परता, १ चरणसित्तरी, १ करणसित्तरी ए प्रमाणे २५ गुणो पण लीधा छे,
॥ साधुना २७ गुण. ॥
छव्रतो
१ प्राणातिपातविरमण २ मृषावादविर०३ अदत्तादानविर०४ मैथुनविरम०५ परिग्रहविरम०६ रात्रिभोजनविर० ६ कायरक्षा
तैजस
१ पृथ्वीकायरक्षण, २ अप्कायरक्षण. ३ कायरक्षण, ४ वायुकायरक्षण, ५ वनस्पतिकायरक्षण, ६ त्रसकायरक्षा. ५ इंद्रियनिग्रह —
१ स्पर्शेन्द्रियनिग्रह, २ रसनेन्द्रियनिग्रह, ३ घाणेन्द्रिय निग्रह, ४ चक्षुरिन्द्रियनिग्रह, ५ श्रोत्रेन्द्रियनि०
१ लोभ निग्रह, १ क्षान्ति, १ भावविशुद्धि, १ प्रतिलेखनादिक्रियाशुद्धि, १ संयमयोगयुक्तता, ३ अकुशल योगनिरोध, [१ अकुशलमनोयोग, २ अकु
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( १७४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
शल वचन योग, ३ अकुशल काययोग ] १ शीतादि परिसह सहनता, १ मारणान्ति कोपसर्गसहनता. बीजी पण अनेक रीतिए २७ गुणोनी सत्तावीशीओ थाय छे, जे आगळ बतावाशे.
॥ सम्यग्दर्शनना ६७ भेदो. ॥
४ सद्दहणा
१ परमार्थ संस्तव, २ परमार्थज्ञातृसेवना, ३ व्यापन्नदर्शनवर्जन, ४ कुदर्शनवर्जन.
३ लिङ्ग
१ शुश्रुषा, २ धर्मराग, ३ वैयावृत्त्य.
१० विनय
१ अर्हद्विनय, २ सिद्धवि०, ३ चैत्यवि०, ४ श्रुतविनय, ५ धर्मवि०, ६ साधुवि०, ७ आचार्यवि०, ८ उपाध्यायविनय, ९ प्रवचनसंघवि० १०, दर्शनविनय. ३ शुद्धि
१ मनः शुद्धि, २ वचन शुद्धि, ३ कायशुद्धि.
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सम्यग्दर्शनना ६७ भेदो ॥ (१७५) ५ दूषणत्याग--
१ शंका, २ आकांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४ मिथ्यादृष्टिप्रशंसा, ५ मिथ्यादृष्टिसंसर्ग. . ८प्रभावक
१ प्रावचनी,२ धर्मकाथ, ३ वादि, ४ नैमित्तिक, ५ तपस्त्री, ६ विद्याभृत्, ७ सिद्ध, ८ कवि, ५ भूषण
१ जिनशासनक्रियाकुशलता, २ प्रभावना, ३ तीर्थसेवा, ४ स्थैर्य, ५ जिनशासनभक्ति. ५ लक्षण
१ उपशम,२ संवेग,३ निवेंद,४ अनुकंपा,५आस्तिक्य. ६ यतना (त्याग)
१ परतीर्थिवंदन, २ परतीर्थिनमन, ३ परतीर्थिसहालाप, ४ परतीथिसहसंलाप, ५ परतीर्थिअन्नपानदान, ६ परतीर्थिवारंवारदान. ६ आगार... १ राजाभियोग,५ गणाभियोग, ३ बलाभियोग,
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(१७६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ४ देवाभियोग, ५ गुरुनिग्रह, ७ वृत्तिकान्तार, ६ भावना
१ धर्मवृक्षमूल,२ धर्मपुरद्वार, ३ धर्मप्रासादपीठ, ४ धर्माधार, ५ धर्मभाजन, ६ धर्मनिधान, ६ स्थान
१ अस्ति जीवः, २ नित्यानित्यो जीवः, ३ कर्मणः कर्ता,४ कर्मणोभोक्ता,५ जीवस्य मोक्षोऽस्ति, ७ मोदो पायोऽस्ति.
॥ज्ञानना ५१ भेद,॥
२८ मतिज्ञान,
४ व्यंजनावग्रह१ स्पर्शन, २ रसन, ३ घाण, ४ श्रोत्र,
६ अर्थावग्रह, १ स्पर्शन, २ रसन,३ घाण, ४ चक्षु, ५ श्रोत्र, ६मनः ६ ईहा, ६ अपाय, ६ धारणा,
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ज्ञानना ५१ भेद ॥
(१७७)
१४ श्रुतज्ञान
१ अक्षरश्रुत, २ अनदरश्रु०, ३ संज्ञिश्रु०, ४ असंज्ञिश्रु०,५ सम्यक्श्रु०, ६ मिथ्याश्रु०,७ सादिश्रु०, ८ अनादिश्रु०,९ सान्तश्रु, १० अनन्तश्रु०, ११ गमिक श्रुत,१२ अगमिकश्रुत, १३ अंगप्रविष्ट, १४ अनंगप्रविष्ट. ६ अवधिज्ञान .. १ आनुगामिक, २ अनानुगामिक, ३ वर्धमान, ४ हीयमान, ५ प्रतिपाति, ६ अप्रतिपाति. २ मनःपर्यवज्ञान
१ ऋजुमति,२ विपुलमति. १ लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान.
॥ चारित्रना ७० भेदो.॥ ५ व्रतो.
१ प्राणातिपातविरमण, २ मृषावादविर०, ३ अदत्ता० वि०, ४ मैथुन वि०, ५ परिग्रहविरमण, १० श्रमणधर्म,
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( १७८ )
aaya विधि विगेरे संग्रह |
१ क्षमा, २ मार्दव, ३ आर्जव, ४ मुक्ति, ५ तप. ६ संयम, ७ सत्य, ८ शौच, ९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य. १७ संयम,
१ पृथ्वीकायरक्षा, २ अप० २०, ३ तेज० रक्षा, ४ वायु० रक्षा, ५ वन०रक्षा, ६ द्वीन्द्रियर० ७ त्रीन्द्रियरक्षा, ८ चतुरि० रक्षा, ए पंचे० रक्षा, १० अजीवसंयम ११ प्रेक्षासंयम, १२ उपेक्षासं०, १३ प्रमार्जनासं०,१४ परिष्ठापनसं०, १५ मनः सं०, १६ वचः सं०, १७ काय संयम. १० वैयावृत्य -
१ आचार्यवैयावृत्य, २ उपाध्याय वै०,४ तपस्वि वै० ४ लघुशिष्य वै०, ५ ग्लानसाधु वै०, ६ स्थविर वै०, ७ समनोज्ञसमाचारीकारक वै०, ८ श्रमण संघ वै०, ९ चान्द्रादिकुलवै०, १० कोटिकादिगुण वैयावृत्त्य, ९ ब्रह्मगुप्त -
१ वसति, २ कथा, ३ निषद्या, (स्त्रीआसन), ४ इन्द्रिय०, ६ कुड्यन्तर०, पूर्वक्रीडित, ७ प्रणीताहार, ८ अतिमात्राहार, ९ शरीरविभूषा.
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चारित्रना ७० भेद |
३ ज्ञानादि, -
१ ज्ञान, दर्शन, ३ चारित्र, १२ तपोभेद, -
( १७९)
६ बाह्यतप,
१ अनशन, २ ऊणोदरी, ३ वृत्तिसंक्षेप, ४ रसत्याग,
५ कायक्लेश, ६ संलीनता,
do
६ अभ्यन्तर तप, -
१ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैयावृत्त्य ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान, ६ उत्सर्ग,
४ कषायनिग्रह,
१ क्रोधनिग्रह, २ माननिग्रह, ३ मायानिग्रह, ४ लोभ निग्रह, आचरणसित्तरी कवाय छे तेवीज करणसितरी पण क्रिया अनुष्ठान संबंधी छे,
॥ तपना ५० भेद, ॥
१२ वाह्यतप,
२ अनशन (१ यावत्कथिक, २ ईत्वरिक) २ ऊनोदर
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(१८०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ (१ बाह्य, २ अभ्यन्तर) ४ वृत्तिसंक्षेप [१ द्रव्यथी२ क्षेतथी, ३ कालथी ४ भावथी,]
१ कायक्लेश, १ रसत्याग, २ संलीनता १ (इन्द्रिय कषायादि सं०,२वसतिसं०) ३८ अन्यन्तर तप
१० प्रायश्चित्त (१ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३ मिश्र, ४ विवेक, ५ उत्सर्ग, ६ तप, ७ छेद, ८ मूल, ९ अनवस्थाप्य, १० पारांचिक.).
७ विनय (१ ज्ञानविनय, २ दर्शन वि०, ३चारित्रवि०, ४ शुभमनोवि०, ५ शुभवचनवि०, ६ शुभकायविनय, ७ औपचारिकवि०) .
१० वैयावृत्य [१ आचार्यवै०, २ उपाध्याय०, ३ स्थविर, ४ तपस्वि०, ५ लघुशिष्यादि०, ६ ग्लानसाधु०, ७ समनोज्ञसामाचारीकारक०, ८ संघ०, ए कुल०, १० गणव०]
५ स्वाध्याय (१ वाचना, २ पृतना, ३ परिवर्तन,
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तपना ५० भेद ॥ ४ अनुप्रेदा, ५धर्मकथा.)
४ ध्यान ( १ आर्त, २ रौद्र,३ धर्म्य, ४ शुक्लध्यान) २ उत्सर्ग (१ बाह्य अभ्यन्तर)
अन्यत्र तपथी प्रकट थती लब्धिभेदोए पण तपना ५० भेद वर्णव्या ,
बीजी.रीते पण तपना ५० भेद थाय छे. ९ बाह्यतप.-- (४) अनशन
१ इत्वरिकानशन. २ इंगितमरणयावत्कथिकानशन. ३ पादपोपगमनयावत्कथिकानशन.
४ भक्तपरिज्ञायावत्कथिकानशन. (१) ऊनोदरिका (१) वृत्तिसंक्षेप (१) रसत्याग
(१) कायक्वेश (१) संलीनता. ४१ अभ्यन्तरतप.(१०) प्रायश्चित.
१ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३ आलोचनाप्रतिक्रमणोभय,४ विवेक,५व्युत्सर्ग,६ तप,७ छेद
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(१८२)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
८ मूळ, ९ अनवस्थाप्य, १० पारांचित. [७] विनय.
१ ज्ञानविनय, २ दर्शनवि०, ३ चारित्रवि०, ४ मनोवि०,५वचनवि०,६कायवि०,७ औपचारिकवि०,
(१) वैयावृत्त्य. (५) स्वाध्याय. १ वाचना, २ पृच्छना, ३ परावर्तना, ४ अनुप्रे
क्षा, ५ धर्मकथा. (१६) ध्यान४ आर्तध्यान. १ इष्टवियोगार्त०, २ अनिष्टसंयोगात०,
३ रोगचिन्तार्त०, ४ अग्रशोचाल. ४ रौद्रध्यान. १ हिंसानुबंधिरौद्र,रमृषानुबंधि ३चौर्यानुबंधि,
४ परिग्रहानुबन्धिरौद्र. ४ धर्यध्यान.
१ आज्ञाविचयधर्म०, २ अपायवि०, ३ विपाकवि०, ४ संस्थानवि०,
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तपना ५० भेद ॥ (१८३) ४ शुक्लध्यान.
१ पृथक् वितर्कसविचार, २ एकत्ववितर्कअविचार, ३ सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति,४ समुच्छि
नक्रियाऽनिवर्ति. (२) उत्सर्ग, १ बाह्य-उत्सर्ग २ अभ्यन्तर-उत्सर्ग.
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॥ श्री सिद्धचकाराधनमाहात्म्य ॥
श्री सिद्धचक्र महाराजना नत्रपदोनी समुदित आराधना करनार महाराज श्री श्रीपालकुमार आभवम अनेकभोग ऋद्धि वैभव पामी शासनप्रभावना करी माता तथा नव राणीओ सहित नवमे देवलोके उत्पन्न थया, यावत् नवमे भवे मुक्तिपद पामशे,
|| नवपदोनुं पृथक् माहात्म्य ॥
गणधर भगवंत श्री गौतमस्वामिजी महाराज श्रेणिक महाराजाए पूछेला प्रश्नना जवाबमां नीचे प्रमाणे फरमावे छे.
|| श्री अरिहंतपद माहात्म्य. ॥
तो भणइ गणी नरवर पत्तं अरिहंतपयप्पसाएणं । देवपालेण रजं, सक्कत्तं कत्तिणावि ॥१॥
त्यापछी गणधर भगवान् श्री गौतमस्वामीजी
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सिद्धचक्राराधन भाहात्मय ॥
( १८५ ) कहे छे हे राजन् ? (श्रेणिक) श्री अरिहंत पदना आराधनना प्रसादथी देवपाल नामना शेठना नोकरे राज्य मेळव्युं, अने कार्तिकशेठे शकइन्द्रपणं प्राप्त कर्यु.
|| श्री सिद्धपद माहात्म्य. ॥
-::--
सिद्धपयं झायंता, के के सिवसंपयं न संपत्ता | सिरिपुंडरीय पंडव - पउममुनिंदाइणो लोए ॥२॥
श्री सिद्धभगवंतनुं ध्यान करता मुनिओमां अग्रेसर श्री पुंडरीक गणधर भगवान् पांचे पांडवो तथा पद्म मुनि विगेरे कोण कोण मुक्तिसंपत्ति पाम्या नथी ? अर्थात् अनेक जीवो सिद्धिपद पाम्या छे. २
॥ श्री आचार्यपद माहात्म्य. ॥
नाहियवाय समजिय--पावभरो वि हु पएसिनरनाहो । जं पावइ सुररिद्धिं, आयरियप्पयप्पसाओ सो ॥३॥ ( प्रथम ) नास्तिक मतथी घगोज एकठो कर्यो
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( १८६)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
छे पाप समूह जेणे एवो छतां पण प्रदेशिराजा जे देव ऋद्धिने पामे छे ते केवल आचार्य भगवंतना चरणनोज प्रसाद जाणवो, ३
॥ श्री उपाध्यायपद माहात्म्य ॥
लहुयं पि गुरुवइडं, आराहंतेहिं वयरमज्झायं । पत्तो सुसाहुवाओ, सीसेहिं सीह गिरीगुरुणो ||४||
गुरु महाराजा फरमावेल 'वयथी' न्हाना पण वज्रस्वामिजी उपाध्याय ' वाचनाचार्य ' ने आराधन करनार आचार्य श्री सिंहगिरिजी महाराजना शिष्योए उत्तम साधुवाद ( आ उत्तम विनीत शिष्यो छे तेवी ' स्तुति) प्राप्त कयों. ४
॥ श्री साधुपद माहात्म्य ॥
साहुपयविराहणया, आराहण्या य दुकसुख्खाई । रुप्पिणी रोहिणीजीवेहिं, किं नहु पत्ताई गुरुयाई ||५|| श्री साधुपदनी विराधना तथा आराधनाथी
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( १८७ )
दर्शनपद माहात्म्य ॥ अनुक्रमे रूपिणी तथा रोहिणीना जीवोए भारे दुःख अने सुखो शुं प्राप्त कर्या नथी ? अर्थात् रूपिणीना जीवे साधु पदनी विराधनाथी भारे दुःख मेळव्युं, अने रोहिणीना जीवे साधुपदनी आराधनाथी अतिशय सुख मेळव्युं छे. ५.
॥ श्री दर्शनपद माहात्म्य ॥
दंसणपर्यं विसुद्धं, परिपालंतीइ निच्चलमणाए । नारीइ वि सुलसाए, जिणराओ कुणइ सुपसंसं ॥६॥ विशुद्ध श्रीसम्यग्दर्शन पदनी सर्व रीते आराधना करनार निश्चळ मनवाळी नागसारथीनी स्त्री सुलसा श्राविका अबळा जातिनी पण तीर्थंकर देव भगवान् श्रीमहावीर स्वामी सारी रीते प्रशंसा करे छे, (श्रावक अंबड परिव्राजकद्वारा कुशल समाचार तथा धर्मलाभ कहेवराव्यो. ) ६
॥ श्री ज्ञानपद माहात्म्य ॥
नाणपयस्स विराहण-- फलंमि नाओ हवेइ मासतुसो । आराहणाफलंमी, आहरणं होइ सीलमई ॥७॥
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( १८८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
श्री ज्ञानपदनी विराधनाना फल संबंधमां दृष्टान्त तरीके श्रीमाषतुष मुनि छे अने आराधनाना फल संबंधमां उदाहरण तरीके श्री शीलमती छे, ७
0:0:
॥ श्री चारित्रपद माहात्म्य ॥
चारितयं तहभावओ वि आराहियं सिवभवंमि । जेणं जंबुकुमारो, जाओ कयजणचमुक्कारो ॥८॥
श्री शिवकुमारना भवमां तेवा प्रकारे भावथी श्री चारित्रपदनी आराधना करी के जेना प्रतापे कर्यो छे -लोकोमां चमत्कार जेमणे एवा श्रीजंबूस्वामी चरम केवलि उत्पन्न थया ८
॥ श्री तपः पद माहात्म्य ॥ वीरमईए तह कहवि, तवपयमाराहियं सुरतरुव । जह दमयंती भवे, फलियं तं तारिफलेहिं ॥ ९ ॥ कल्पवृक्ष समान श्रीतपःपदनी राजपत्नी वीरमती तेवा कोइ पण 'उत्तम' स्वरूपे आराधना करीके जेम
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डपदेशसार ॥ (१८९) नलराजानी पटराणी श्री दमयंतीना भवमा तेवा 'उत्कृष्ट' फलोए ते तपः फलीभूत थेयुं ॥
॥ छेवटे श्री गौतमस्वामी भगवान् साक्षात्
दृष्टान्त देखाडे छे ॥
किं बहुणा मगहेसर ? एयाण पयाण भत्तिभावेणं। तं आगमेसि होहिसि. तित्थयरो नत्थि संदेहो ॥१०॥
हेमगधदेशनायक श्रेणिक? घणुं शुंकहीये, आ पदो प्रत्येना भक्ति परिणामे करी भविष्यकालमां तुं तीर्थकर [पद्मनाभ नामे आवती चोवीशीमां प्हेला] थइश, आ बाबतमां संदेह नथी. १०
उपदेशसार.
तम्हा एयाई पयाई, चेव, जिणसासणस्स सबस्सं। नाऊणं भो भविया ! आराहह सुद्धभावेणं ॥ ११ ॥
हे श्रेणिक ? ते माटे आ [नव] पदोज श्री जि
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( १९०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ नशासन, सर्वस्व छे (आलुं जिनशासन आ नवपदोमां समाये छे) तेम जाणीने हे भव्यप्राणीओ ? शुद्धभावथी श्री सिद्धचक्र भगवान्नी आराधना करो ? ? ११,
माहात्म्य (फल) निस्यन्द, एयाइं च पयाई, आराहंताण भवसत्ताणं । हुंतु सया वि हु मंगल-कल्लाणसमिद्धिविधीओ ॥१२॥
निश्चयथी आ पदोनी आराधना करनार जव्य प्राणीओने मंगल [ विपत्ति विनोनी शान्ति], कल्याण (संपत्तिनी उत्कृष्टता) समृद्धि (सर्व प्रकारे वैभवनी पूर्णता) अने वृद्धि (च्हडती-अभ्युदय-आबादी) पण सदाने माटे थाओ १२.
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॥ श्री सिद्धचक्र तप उद्यापन विधि॥
भक्तिमान् भव्य श्रावके पोतानी शक्तिवैभवने अनुसारे उजमणुं करवाथी तपनी सफलता, लक्ष्मीनो सद्व्यय, शुभ ध्याननी वृद्धि, सुलभबोधि भव्यजीवोने सम्यक्त्वनी प्राप्ति, श्री तीर्थंकरदेवनी अपूर्व भक्ति, श्री जिनशासननी प्रभावना-शोभाउन्नति अने तेनाथी सम्यक्त्वनी उत्तरोत्तर वृद्धि -दृढता, क्षायिक सम्यक्त्व, तीर्थंकर नाम कर्मबन्ध विगेरे अनेक महान् लाभो थाय छे, तप पूर्ण थये उजमणुं करवं ते जिनेश्वर चैत्यनी उपर कलश च्हडाववा तुल्य छे,
॥ उजमगुं करतां राखत्री जोती सावधानता ॥
तपर्नु उजमणुं करतां अपूर्व आत्मवीर्यनो उल्लास राखवो, वीर्यउहास विनानी दरेक क्रियाओ यथार्थ फलदायक थती नथी, वीर्यउल्लास साथे
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( १९२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ कराती शुभ क्रियाओज मुक्तिनुं कारण थाय छे, जेम औषधि अनुपान साथे तथा पथ्यसेवनथी विशेष लाभ आपे छे तेम उजमणुं करवाथी तप पण विशेष फलदायक थाय छे,
___ असार अने चपल लक्ष्मी अनेक भवमां अरे एक भवमां पण अनेक वखत आवी अने गइ, मोहित प्राणिओने दुर्गतिओमां खेंची गइ अने खेंची जशे,
आ लक्ष्मीनो ल्हावो लेवानो तेनाथी सद्गति उपाजवानो अपूर्व अवसर आव्यो मळ्यो जाणी पूर्ण उदारभावथी यथार्थ विधिसहित उजमणुं करवू, श्रीमद् उपाध्यायजी वर्णवे छे के- . “धन म्होटे छोटुं करे,धर्म उजमणुं तेह, मेरे लाल ॥ फल पूलं पामे नहि,मम करजो तिहां संदेह, मेरेलाल॥ मननो मोटो मोजमां ॥ १॥"
उजमणुं करतां विस्तीर्ण मंडपमांश्री सिद्धचक्रमंडल (यंत्रनी) त्रण पीठिका विगेरे करवा पूर्वक स्थापना करी महोत्सव करवो, श्रीसिद्धचक्र यंत्रनी गोठवण
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तपना उद्यापन अंग करवाना कर्त्तव्य ॥ ( १९३ ) वलयादिनी रचना विगेरे स्वरूप गीतार्थ गुरु महाराज पासे समजनुं,
॥ तपनां उद्यापन अंगे करवाना कर्तव्य ॥
जेटला तप दिवसो होय तेटली संख्या दरेकनी उत्कृष्टताथी लेवी, न बनी शके तो वर्तमान आचरणाए ओळीनी अगर पदोनी संख्या लेवाय बे,
नवीन चैत्यो बंधाववा, जीर्णोद्धार कराववा, जिन बिम्बो भराववा ( परिकर समेत तथा परिकरविनाना श्री सिद्धचक्र भराववा, श्री सिद्धचक्र यंत्रो कराववा, श्री सिद्धचक्र यंत्रो चीतराववा, गणधर भगवंत आदिनी गुरु मूर्तिओ, पौषधालय, धर्मशाला, उपाश्रय
बधाववा.
प्रभुजीना तमाम आभूषणो--मुकुट, कुंडल, तिलक, हंस, बाजु, कल्ली, कडा आंगी, भामंडल, पाखरो, श्रीवत्स, बीबीओ, चांल्ला विगेरे, त्रिगडा बाजोटो, सिंहासन, चंदुवा, पुंठीया, रुमाल, पाठा, तोरण, स्थापना
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(१९४) नवपद विधि विगैरे संग्रह। चार्य, नवकारवाळीओ, अष्टमांगलिक, कटोरी, सोना रूपाना वरख अगरबत्ती, दशांगधूप, अगर, केशरना पडीका, बरासना पडीका, चंदनना पुंठीया, ओरशीया, धूपधाणा. कळश, थाळ. बाबडीओ. चंगेरीओ. र. काबी, वाटकीओ, आचमनी, वाटका, मोरपीबीओ, वाळाकुंचीओ, देगडा, टबुडीओ, प्याला, दंडासग, पुंजणी, सुपडी, फाणप्त, कोडीया, दीवीओ, हांडी,झम्मर, सरपोल, आरती, मंगळदीवा, घंट, घंटडीओ, त्रांबाकुंडी, हांडा, तांबडी, बाजोठ, पाटला, बाजोठीओ, नवग्रह-दिकपाल-अष्टमंगलना पाटला, चामर उजत्रय, अंगलुहणा, पाटलुहणा, कामलीओ, धोतीया, उत्तरासंग, ध्वजा, वाटवा, झोळीओ, दाबडीओ विगेरे, ठवणीओ, सांपडा, दाबडा, चाबखी, काली, खडीया, कलम, पेनसीलो, चाकु, कातर, आनुपूर्वानी चोपडीओ, मोरपीबीओ, कांबी, रुमाल, पाटी, पाठा दरेक आगमनी तथा ग्रन्थोनी नवनव प्रतो लखाववी जेटलं मली शके तेटलं पुस्तक संग्रह, ओधाना पाटा दशीओ, ओघारीया, नीशीथीआ, मुहपत्तीओ, ख
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तपना उद्यापन अंगे करवाना कर्त्तव्य ॥ ( १९५ )
भानी कामळो, कामलीओ, चोलपट्टा कपडाना ताका, संथारीया, दांडा ओघानी दांडीओ, पातरा, तरपणी, पाणी लाववाना लोट, झोळी, पल्लां, पुंजणीओ, दंगासण ऊनना तथा पींडाना, सुपडी, पुंजणी, कंदोरा ओघाना दोरानी दोरीओ, तरपणीना दोरा, चरवळा, कटालणा, मुहपत्तीओ, संथारीया, दंडासण, कांत्रलओ, घडीओ विगेरे ज्ञानदर्शन चारित्रना उपकरणो एक्याशी एक्याशी अथवा नवनव संख्याए मूकवा, ( अरिहंतपद ) ८ कर्केतनरत्न ३४ हीरा सिद्ध ८ माणेक
३१ परवाला
५ पीलामणि ३६ गोमेदक
आचार्य, उपाध्याय, २५ नीलमणि
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साधु २७ श्याममणि ५ राज्यपटमणि दर्शनादिचार २३८ मोटा उत्तम मोती
आ उपरांत श्री सिद्ध चक्रयंत्र पूजनमां जोइता तमाम साधन विगेरे श्री गीतार्थ गुरुमहाराज पासेथी
समजवा,
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( १९६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥श्री सिद्धचक्राराधक भव्यजीवनां कर्तव्यो !!!॥ १ श्री अरिहंतपदाराधन-प्रतिमाजीभराववा,जीर्णोद्धारो
कराववां, अंजनशलाका,प्रतिष्ठाओ कराववी, आंगी,
पूजा, महोत्सव करवा विगेरे श्री अरिहंत भक्ति. २ श्री सिद्धपदाराधन--सिद्ध प्रतिमाओ भराववी, तेमनी
अंजनशलाका, प्रतिष्ठा, आंगी, पूजा, महोत्सव करवा विगेरे श्री सिद्धभक्ति. ३ श्री आचार्यपदाराधन-श्री आचार्य भगवंतनी भक्ति विनय, वेयावच्च करवू, द्वादशावर्त वन्दन करवू, अशन पान खादिम स्वादिम वस्त्र पात्र वसति आदि पडिलाभवा, आचार्यपदप्रतिष्ठा कराववी.
आचार्यना सामैया विगेरे सन्मान करवो. विगेरे. ४ श्री उपाध्यायपदाराधन-श्री उपाध्यायजी भगवंतनी
भक्ति विनय वेयावच्च करवा भणवा भणाववाने तमाम अनुकूलता करी आपबी, उपाध्यायपद प्रतिष्ठा, सामैयु आदि सन्मान करवू विगेरे. ५ श्रीसाधुपदाराधन-श्रीपंचमहाव्रतधारी मोक्षमार्ग सा
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श्री सिद्धचक्राराधक भव्यजीवनां कर्तव्यो ॥ (१९७) धक साधु भगवंतोने वन्दन, नमन, आदर सन्मानादि करवा.वसति, अन्न, पान. औषध,भैषज्यादि आपवा. दीक्षा महोत्सवादि करवा, साधुनुं सामैयुं विगेरे करवा. ६ श्री दर्शनपदाराधन--श्री तीर्थ भक्ति करवी, श्री तीर्थरक्षणकार्यमा उत्साहपूर्वक बनती साहाय्य आपत्री, यात्रा संघो काढवा, साधर्मिक वात्सल्यो करवा, रथयात्रादि महोत्सवो करवा,शासनोन्नतिना कार्यमां
प्रयत्न करवो विगेरे. ७ श्री ज्ञानपदाराधन-सिद्धान्तो लखाववा, भणनारने सहाय आपवी, पुस्तक संरक्षणना साधनो योजवा, पुस्तक विगेरे ज्ञानसाधनोनी प्रभावना करवी, ज्ञान
दान कर विगेरे. ८ श्री चारित्रपदाराधन-व्रत नियमादि पाळता विरति
वंत जीवोनी भक्ति करवी, चारित्रना उपकरणो विगेरे साधनोथी साहाय्य करवी विगेरे. ९ श्री तपःपदाराधन--तपस्विओनी भक्ति वैयावच्चादि
करवा तपस्विओने प्रभावनाओ करवी तप करतां उत्साह वधे तेवी अनुकूलता जोडी आपवी विगेरे.
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(१९८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ ओलीमां उपयोगी पच्चक्खाणो॥
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आयंबिलनु पच्चक्खाण.
उग्गए सूरे नमुक्कारसहियं पोरिसी साढपोरिसी सूरे उग्गए पुरिम अवमुट्ठिसहियं पच्चक्खाइ उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं आयंबिलं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसटेणं उविखत्तविवेगेणं पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं एगासणं पच्चक्खाइ 'तिविहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्थाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं आउंटणपसारेणं गुरुअब्भुट्टाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिया:
१ ठाम चौविहार करवो होय तो " एकल्लठाणं पच्चख्खाइ चारविहपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं" ए प्रमाणे बोलवू.
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पच्चक्खाण...: (१९९) गारेणं पाणस्सलेवेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरइ ॥ आयंबिल करी मुखशुद्धि कर्या पछी उठता
तिविहारनु पञ्चक्खाण. दिवसचरिमं पच्चवखाइ तिविहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥
मुट्ठिसहियंनु पच्चक्खाण. मुट्ठिसहियं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरश् ॥
१ साथे देसावगासिय पच्चक्खाण लेवू होय तो “ देसावगासियं उवभोगपरिभोगं पञ्चक्खाइ, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ " ए पच्चख्खाण पण साथे बोलवू. __ २ गंठसी, वेढसी आदि पच्चख्खाण करवू होय तो ते पाठ बोलवो.
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(२००)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
पाणहारनु पच्चक्खाण. पाणहार दिवसचरिमं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं सहसागरेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ॥ पारणाना दिवसतुं एकासणां बेसणानुं पच्चक्खाण.
उग्गए सूरे नमुक्कारसहियं पोरिसि साढपोरिसी मुट्ठिसहियं पच्चख्खाइ उग्गए सूरे चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं विगइओ पच्चक्खाइ अन्नधणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसटेणं उक्खितविवेगेणं पमुच्चमक्खियेणं पारिठ्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं 'एगासणं बियासणं पच्चक्खाइ . १ जो बेस[न करवू होय तो 'एगासणं' बोलवू नहि अने एकासणुं कर, होय तो 'बियासणं' बोलवू नहि.
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पच्चक्खाण.
अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागाारेणं आउंटणपसारेणं गुरु अब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा बहुलेवेण वा ससित्थेणवा असित्थेण वा वोसिरइ,
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॥ अथ श्री स्नात्र पूजानो विधि ॥
प्रथम त्रण गढने बदले त्रण बाजोठ मूकीने उपला बाजोठने मध्यभागे केशर (कुंकुम)नो साथीओ करवो, अने तेनाआगळ केशर (कुंकुम)ना सा आ चार करीने उपर अक्षत नांखवा तथा फळ मूकवां,वचला साथीआ उपर रुपानाणुं मूक, अने चारे साथीआ उपर कलश स्थापवा, तेमां पंचामृत करी जल भरवू. तथा वचला साथीआ उपर थाळ मूकी केशरनो साथीओ करी अक्षत नांखी फळ मूकी नवकार त्रण गणी प्रभुने पधराववा. पछी बे सनाथीआओने ऊभा राखीने त्रण नवकार गणाववा, पछी प्रभुना जमणा पगना अंगुठे कळशमांथी जल रेडवू, अने अंगलूहणां त्रण करवां पछी केशरथी पूजा करी हाथ धूपीने सनाथ आना जमणा हाथमां केशरनो चांल्लो करवो. पछी कुसुमांजलि (फूल) होय ते हाथमां आपवी, पछी नीचे प्रमाणे, कहे, दीपक एक-प्रभुनी जमणी बाजुए करवो
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स्नात्र पूजानो विधि ॥ (२०३) ॥ पंडितश्रीविरविजयजी कृत स्नात्रपूजा ॥
॥ काव्यं ॥ ॥ द्रुतविलंबितवृत्तम् ॥ सरसशान्तिसुधारससागरं, शुचितरं गुणरत्नमहाकरम् ॥ भविकपंकजबोधदिवाकर प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरम् ॥ १॥
॥दोहा॥ कुसुमाभरण उतारीने, पडिमा धरिय विवेक ॥ मज्जन पीठे थापीने, करीये जल अभिषेक ॥२॥
॥गाथा ॥ आर्या गीति ॥ जिणजम्मसमय मेरु-सिहरांमि रयणकणयकलसेहिं ॥ देवासुरेहिं एहविउ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठोसि ॥३॥
॥ कुसुमांजलि ॥ ढाळ ॥ निर्मलजल कलशे न्हवरावे, वस्त्र अमूलक अंग धरावे ॥ कुसुमांजलि म्हलो आदि जिणंदा ॥ सिद्धस्वरूपी अंग पखाली, आतम निर्मळ हुइ सुकुमाळी ॥ कु०॥४॥
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( २०४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
|| गाथा || आर्यागीति ॥
मचकुंदचंपमालइ - कमलाई पुष्पंचवण्णाई ॥ जगनाहन्हवणसमये, देवा कुसुमांजली दिंति ॥ ५ ॥ ॥ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुज्यः ॥ ॥ कुसुमांजलि || ढाळ | रयण सिंहासन जिन थापीजे, कुसुमांजलि प्रभु चरणे दीजे ॥ कुसुमांजलि मेलो शान्ति जिणंदा ॥६॥ ॥ दोहा ॥ जिण तिहुं कालय सिद्धनी, पडिमा गुण भंडार ॥ तसु चरणे कुसुमांजलि, भविक दुरित हरनार ॥७॥ ॥ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥
|| कुसुमांजलि || ढाळ ||
कृष्णागरु वर धूप धरीजे, सुगंध कर कुसुमांजलि दीजे ॥ कुसुमांजलि म्हेलो नेमि जिणंदा ॥ ८ ॥
॥ गाथा || आर्या गीति ॥
जसु परिमलबल दहदिसि, महुकर झंकारसद संगीया ॥ जिचलणोवरि मुक्का, सुरनरकुसुमांजलि सिद्धा ॥९॥
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स्नात्र पूजानो विधिः॥
___ (२०५) ॥ नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः॥
॥कुसुमांजलि ॥ ढाळ ॥ पास जिणेसर जग जयकारी,जल थल फुल उदक करधारी कुसुमांजलि म्हेलो पार्श्वजिणंदा ॥ १०॥
॥दोहा॥ मूके कुसुमांजलि सुरा, वीरचरण सुकुमाल ॥ ते कुसुमांजलि भविकनां, पाप हरे त्रण काळ ॥११॥ ॥ नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः॥
॥ कुसुमांजाल । ढाळ ॥ विविध कुसुम वर जाति गहेवी, जिनचरणे पणमंत ठवेवी ॥ कुसुमांजलि म्हेलो वीर जिणंदा ॥१२॥
॥ वस्तु छंद ।। न्हवणकाले न्हवणकाले, देवदाणवसुमुच्चिय ॥ कुसुमांजलि तहिं संठविय, पसरंत दिसि परिमल सुगंधिय ॥ जिणपयकमले निवडेइं, विग्घहर जस नाम मंतो ॥ अनंत चउवीस जिन, वासव मलिय असेस। सा कुसुमांजलि सुहकरो, चउविह संघ विसेस ॥ कुसुमांजलि मेलो चउवीस जिणंदा ॥१३॥
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(२०६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ॥ नमोऽर्हसिद्धाचार्योध्यायसर्वसाधुन्यः ॥
॥ कुसुमांजलि ॥ ढाळ ॥ अनंत चउवीसी जिनजी जुहारु, वर्तमानचउवीसी संभारु ॥ कुसुमांजलि मेलो चोवीशजिणंदा ॥ १४॥
॥दोहा॥ महाविदेहे संप्रति, विहरमान जिन वीश ॥ भक्तिभरे ते पूजिया, करो संघ सुजगीश ॥ १५ ॥ ॥नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः॥
कुसुमांजलि ॥ढाल॥ अपछरमंडलि गीत उच्चारा, श्री शुभवीरविजय जयकारा ॥ कुसुमांजलि मेलो सर्व जिणंदा ॥१६॥
॥ इति श्री कुसुमांजलयः॥ पछी स्नात्रीया त्रण खमासमण देइ जगचिंतामणि चैत्यवंदन करी “नमुथ्थुणं" कही जयवीयराय पर्यंत कहे. पछी हाथकलश धूपी मुखकोश बांधी कलश लेइ उभो रहीने कलश कहे, ते ढाळ ॥
अथ कलश ॥दोहा॥ सयल जिणेसर पाय नमि, कल्याणकविधि तास ॥
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स्नात्र पूजानो विधि ||
( २०७ )
वर्णवतां सुणतां थकां संघनी पूगे आश ॥ १ ॥ ॥ ढाळ | एक दिन अचिरा हुलरावती. - ए देशी ॥ समकित गुणठाणे परिणम्या, वळी व्रतधर संयमसुख रम्या ॥ वशिस्थानकविधिये तप करी, इसी भावदया दिलमां घरी ॥१॥ जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूं शासन रसी ॥ शुचिरस ढलते [त) तिहा बांधतां, तीर्थंकर नाम निकाचता ॥ २ ॥ सरागथी सैंयम आचरी, वचमा एक देवनो भव करी ॥ च्यवी पन्नरक्षेत्रे अवतरे, मध्यखंडे पण राजवी कुले ॥३॥ पटराणी कुखे गुणनीलो, जेम मानसरोवर हंसलो ॥ सुखशय्याये रजनी शेषे, उतरतां चउद सुपन देखे ॥४॥ ॥ ढाळ वमनी ॥
पहेले गजवर १ दीठो, बीजे वृषभ २ पट्टो | त्री केशरी सिंह ३, चोथे लक्ष्मी ४ अवीह ॥ १ ॥ पांचमे फूलनी माळा, ५ छट्ठे चंद्र रवि रातो ७ ध्वज मोहोटो ८, नहीं छोटो ॥२॥ दशमे पद्म सरोवर १०, अगियार में
६ विशाळा ॥
पूरण कळश ९
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(२०८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ रत्नाकर ११ ।। भवन विमान १२ रत्नगंजी, १३ अग्निशिखा धूमवर्जी १४ ॥३॥ स्वप्न लही जइ रायने भाषे, राजा अर्थ प्रकाशे ॥ पुत्र तीर्थंकर त्रिभुवन नमशे, सकल मनोरथ फळशे ॥४॥
॥ वस्तु छंद ॥ अवधि नाणे अवधि नाणे, उपना जिनराज ॥ जगत जस परमाणुआ, विस्तर्या विश्वजंतु सुखकार ॥ मिथ्यात्व तारा निर्बला,धर्मउदय परभात सुंदर ॥ माता पण आणंदियां, जागती धर्म विधान ॥ जाणंती जगतिलक समो, होशे पुत्र प्रधान ॥१॥
॥दोहा॥ शुभलग्ने जिन जनमिया, नारकीमां सुख ज्योत ॥ सुख पाम्या त्रिभुवन जना, हुओ जगत उद्योत ॥१॥
__॥ढाळ॥ कडखानी देशी ॥ __ सांभळो कळश जन्म, महोत्सवनो इहां ॥छप्पन कुमरी दिशि, विदिशि आवे तिहां ।। माय सुत नमिय आणंद अधिको धरे ॥ अष्ट संवर्त्त, वायुथी कचरो हरे ॥१॥ वृष्टि गंधोदके, अष्ट कुमरी करे ॥ अष्ट कलशा
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स्नात्र पूजानो विधि |
( २०९ ) भरे, अष्ट दर्पण धरे ॥ अष्ट चामर घरे, अष्ट पंखा लही ॥ चार रक्षा करी, चार दीपक ग्रही ॥२॥ घर करी केळां, 'माय सुत लावती ॥ करण शुचिकर्म, जळ, कलशे न्हवरावती ॥ कुसुम पूजी अलंकार पहेरावती ॥ राखडी बांधी जइ, शयन पधरावती ॥३॥ नमिय कहे माय तुज, बाल लीलावती ॥ मेरु रवि चंद्र लगे, जी - वजो जगपति ॥ स्वामिगुण गावती; निज घर जावती ॥ तिण समे इंद्र, सिंहासन कंपती || ४ ||
|| ढाळ || एकवीशानी देशी ॥
जिन जन्म्याजी जिण वेला जननी घरे ॥ तिण वेलाजी इंद्रसिंहासन थरहरे ॥ दाहिणोत्तरजी, जेता जिन जनमे यदा ॥ दिशिनायकजी, सोहम ईशान बेहु तदा ॥१॥
॥ त्रुटक ॥
तदा चिंते इंद्र मनमां, कोण अवसर ए बन्यो ॥ जिनजन्म अवधिनाणे जाणी, हर्ष आनंद ऊपन्यो ॥१॥ सुघोष आदे घंटनादे, घोषणा सुरमें करे ॥ सवि देवि देवा जन्ममहोत्सवे, आवजो सुरगिरिवरे ॥३॥
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(२१०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।।
॥ढाळ॥ पूर्वली ॥ एम सांभलीजी, सुरवर कोडि आवी मले ॥ जन्ममहोत्सवजी, करवा मेरु उपर चले ॥ सोहमपतिजी, बहुपरिवारे आवीया ॥ माय जिननेजी, वांदी प्रभुने वधावीया ॥३॥
॥त्रुटक॥ वधावी बोले हे रत्नकुक्षि-धारिणि ? तुज सुततणो॥ हुं शक्र सोहम नाम करशुं, जन्म उत्सव अति घणो ॥ एम कही जिन प्रतिबिंब थापी, पंच रूपे प्रभु ग्रही॥ देव देवी नाचे हर्ष साथे, सुरगिरि आव्या वही ॥४॥
ढाळ॥ पूर्वली ॥ मेरु ऊपरजी, पांडुकवनमें चिहुं दिशे॥शिला उपरजी सिंहासन मन उससे॥ तिहा बेसीजी, शके जिन खोळे धर्या ॥ हार त्रेशठजी, बीजा तिहां आवी मळ्या ॥५॥
॥टक ॥ मळ्या चोसठ सुरपति तिहां,करे कलश अड जातिनामागधादि जल तीर्थऔषधि,धूप वली बहुभातिना।। अच्युतपतिए हुकम कीनो, सांभलो देवा सवे॥खीरजलधि गंगानीर लावो, झटिति जनममहोत्सवे।। ६॥
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स्नात्र पूजानो विवि ॥ (२११)
॥ढाळ ॥ विवाहलानी ॥ सुर सांभलीने संचरीया, मागध वरदामे चलीया ॥ पद्मद्रह गंगा आवे, निर्मल जल कलश भरावे ॥१॥ तीरथ फल औषधि लेता, वली खीरसमुद्रे जाता ॥ जल कलशा बहुल भरावे, फूल चंगेरी थाल लावे ॥२॥ सिंहासन चामर धारी,धूपधाणा रकेबी सारी ॥ सिद्धांत भाख्यां जेह,उपकरण मिलावे तेह॥शाते देवा सुरगिरि आवे, प्रभु देखी आनंद पावे ॥ कलशादिक सहु तिहां ठावे, भक्ते प्रभुना गुण गावे ॥४॥
॥ढाळ ॥ राग धन्याश्री ॥ आतम भक्ति मळ्या केइ देवा, केता मित्तनुजाइ ॥ नारी प्रेर्या वळी निज कुलवट; धर्मी धर्म सखाइ ॥ जोइस व्यंतर भुवनपतिना, वैमानिक सुर आवे ॥ अच्युतपति हुकमे धरी कळशा, अरिहाने न्हवरावे ॥ आ० ॥१॥ अडजाति कळशा प्रत्येके, आठ आठ सहस प्रमाणो॥ चउस? सहस हुआ अभिषेके, अढीसें गुणा करी जाणो॥साठ लाख उपर एक कोडि, कळशानो अधिकार ॥ बासठ इंद्रतणा तिहा बासठ,
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(२१२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।। लोकपालना चार ॥ आ०॥२॥ चंद्रनी पंक्ति छासठ छासठ, रवि श्रेणि नरलोको ॥ गुरुस्थानक सुर केरो एकज, सामानिकनो एको ॥ सोहमपति ईशानपतिनी इंशाणीना सोल ॥ असुरनी दश इंद्राणी नागनी, बार करे कल्लोल ॥ आ० ॥ ३॥ज्योतिष व्यंतर इंद्रनी चउ चउ, पर्षदा त्रणनो एको ॥ कटकपति अंगरक्षक केरो, एक एक सुविवेको ॥ परचूरण सुरनो एक छेल्लो, ए अर्नासें आभिषेको ॥ ईशानइंद्र कहे मुझ आपो, प्रभुने क्षण अतिरेको ॥ आ०॥४॥ तब तस खोळे ठवी अरिहाने, सोहमपति मनरंगे ॥ वृषभरूप करी शृंग जळे भरी, न्हवण करे प्रभु अंगे ॥ पुष्पादिक पूजीने छांटे, करी केसर रंगरोले ॥ मंगब्दीवो आरति करतां, सुरवर जय जय बोले ॥ आ० ॥५॥ भेरी मूंगळ ताल बजावत, वळिया जिन कर धारी ॥ जननीघर माताने सोंपी, एणिपरे वचन उच्चारी॥ पुत्र तुमारो स्वामि हमारो, अम सेवक आधार ॥ पंच धाव्य रंभादिक थापी, प्रभु खेलावण
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स्नात्र पूजानो विधि ॥ (२१३) हार ॥ आ०॥ ६ ॥ बत्रीश कोडि कनक मणि माणिक, वस्त्रनी वृष्टि करावे ॥ पूरण हर्ष करेवा कारण, छीप नंदीसर जावे ॥ करीय अट्ठा उत्सव देवा, निज निज कल्प सधावे ॥ दीक्षा केवलने अभिलाषे; नित नित जिन गुण गावे ॥ आ० ॥७॥ तपगढ ईसर सिंह सूरीसर, केरा शिष्य वडेरा ॥ सत्यविजय पन्यासतणे पद, कपूरविजय गंभीरा ॥ खिमाविजय तस सुजसविजयना, श्री शुभविजय सवाया ॥ पंडित वीरविजय शिष्ये जिन, जन्म महोत्सव गाया॥आ०॥८॥ उत्कृष्टा एकशोने सित्तेर, संप्रति विचरे वीश॥ अतीत अनागत काळे अनंता, तीर्थकर जगदीश ॥ साधारण ए कळश जे गावे, श्री शुभवीरसवाइ ॥ मंगळलीला सुखभर पावे, घर घर हर्ष वधाइ ॥ आतम० ॥ ९॥ ॥ इति पंडितश्रीविरविजयजी कृत स्नात्र पूजा समाप्त ॥
अहीं कळशाभिषेक करीये. पछी दुध, दहि, घृत, जळ अने शर्करा ए पंचामृतनो पखाल करीने पछी पूजा करीये ने फूल चढाचीये. पछी लूण उतारी आरती उतारवी. पछी प्रतिमाजीने आडो पडदो राखी स्नात्रीआओए पोताना नव अंगे कंकु (केशर)ना चांल्ला करवा. पछी पडदो काढी नांखी मंगळदीवो उतारवो.
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(२१४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ अथ लूण उतारणं ॥ खूण उतारो जिनवर अंगे, निर्मळ जळधारा मन रंगे ॥ लुण०॥१॥ जिम जिम तडतड लूणज फूटे, तिम तिम अशुभ कर्मबंध त्रूटे ॥ लूण०॥ २॥ नयण सलूणां श्री जिनजीनां,अनुपम रूप दयारस भीनां ॥ खूण० ॥३॥ रूप सलूएं जिन - दीसे, लाज्युं लूण ते जळमां पेसे ॥ लूण० ॥ ४ ॥त्रण प्रदक्षिणा देइ जलधारा, जलण खेपवीये लूण उदार ॥ लूण० ॥५॥ जे जिन उपर दुमणो प्राणी, ते एम थाजो लूण ज्यु पाणी ॥ लूण०॥ ६ ॥ अगर कृष्णागरु कुंदरु सुगंधे, धूप करीजे विविध प्रबंधे ॥ लूण० ॥७॥ इति ।।
॥ अथ आरति ॥ विविध रत्नमणि जडित रचावो, थाल विशाल अनोपम लावो ॥ आरति ऊतारो प्रभुजीनी आगे, भावना भावी शिवसुख मागे ॥ आ० ॥१॥ सात चौद ने एकवीश भेवा, त्रण त्रणवार प्रदक्षिणा देवा आ०॥ २॥ जिमजिम जलधारा देइ जपे, तिम तिम
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(२१५)
स्नात्र पूजानो विधि ॥ दोहग थरहर कंपे || आ० ॥ ३ ॥ बहु भव संचित पाप पणासे, द्रव्यपूजाथी भाव उल्लासे ॥ ० ॥ ४ ॥ चौद भुवनमां जिनजीने तोले, कोइ नहीं आरति इम बोले ॥ आरति० ॥ ५ ॥ इति ॥
॥ अथ मंगळदीवो ||
दीवो रे दीवो मंगळिक दीवो, भुवन प्रकाशक जिन चिरंजीवो || दी० ॥ १ ॥ चंद्र सूरज प्रभु तुम मुख केरा, लूंछण करता दे नित्य फेरा ॥ दी० ॥ २॥ जिन तुज आगल सुरनी अमरी, मंगलदीप करी दिये नमरी ॥ दी० ॥ ३ ॥ जिम जिम धूपघटी प्रगटावे, तिम तिम भवनां दुरित दझावे ॥ दी० ॥ ४ ॥ नीर अक्षत कुसुमांजलि चंदन, धूप दीप फल नैवेद्य वंदन ॥ दी० ॥ ५ ॥ एणीपरे अष्टप्रकारी कीजे, पूजा स्नात्र महोत्सव पभाणजे ॥ दीवो रे० ॥ ६ ॥
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Emani
॥ अथ श्री नवपद पूजा विधि ॥
आ पूजामा जे जे चीजो अवश्य जोइये, तेमांनी केटलीएक चीजोनां नाम लखीए छीए:
दुध, दधि, घृत, शर्करा, शुद्धजळ, ए पंचामृत तथा केशर, सुगंधी, चंदन, कपूर, कस्तुरी, अमर, रोली, मौली, छुटां फुल, फूलोनी माळा, फुलोना चंद्रुवा, धूप, तंदुल प्रमुख नव जातिनां धान्य, नव प्रकारनां नैवेद्य, नव प्रकारनां फळ, नव प्रकारनी पक्व वस्तु, मिश्री, पतासां, ओला प्रमुख, तथा अंगलूहणांने वास्ते सफेद वस्त्र, अने पहेराववाने वास्ते उत्तम रेशमी वस्त्र, वासक्षेप, गुलाबजळ, अत्तर, इत्यादिक बीजा पण नव नव नालीना कळश, नव रकेबी, परात (त्रास), तसला, आरती, मंगलदीपक, भगवाननी
आंगी, समवसरण, इत्यादिक सर्व वस्तु प्रथमथी ठीक करीने राखवी. ए थकी पूजामां विघ्न न होय. ए संक्षेप विधि कह्यो. विशेष विधि गुरुथकी जाणवो.
कलश विधि ॥ चैत्र तथा आश्विन मासमां ए पूजाओ भणावे, तेवारे नव स्नात्रिया करिये, महोटा कळश प्रमुखमां पंचामृत भरिये, स्थापनामां श्रीफळ तथा रोकड नाणुं धरिये, केशरथी तिलक करे,
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श्री नवपद पूजा विधि ॥ (२१७) कंकणदोरो हाथे बांधे, डावा हाथमा स्वस्तिक करीने विधिसंयुक्त स्नात्र भणावे.
प्रथम श्री अरिहंतपद श्वेतवर्णे छे माटे तांदुल, (चोखा ), धूप, दीप, नैवेद्य प्रमुख अष्ट द्रव्य, वासक्षेप, नागरवेल प्रमुखनां पान, रकेबीमां धरीने ते रकेबी हाथमा राखे. नव कळ• शने मौलीसूत्र बांधी, कुंकुमना स्वस्तिक करी, पंचामृतथी भरीने ते कळशो हाथमा लेइ, प्रथम श्री अरिहंतपदनी पूजा भणे ते संपूर्ण भणी रह्या पछी महोटी परातमा ( थालमां ) प्रतिमाजीने पधरावे. पछी “ओ ही नमो अरिहंताणं” ए प्रमाणे कहेतो थको, श्री अरिहंतपदनी पूजा करे. अष्टद्रव्य अनुक्रमे चढावे. इति प्रथमपद पूजा विधि.
२ बीजुं सिद्धपद रक्तवर्णे छे, माटे घउ रकेबीमां धरी श्रीफळ तथा अष्ट द्रव्य लइने नव कळश पंचामृतथी भरीने बीजी पूजा भणे ते संपूर्ण थवाथी "ओ ही नमो सिद्धस्स” एम कही कळश ढोळे, अष्टद्रव्य चढावे. इति द्वितीयपदपूजा विधि.
३ त्रीजुं आचार्यपद् पीळे वर्णे छे, माटे चणानी दाळ, अष्ट द्रव्य श्रीफळ प्रमुख लइ, नव कळश पंचामृतथी भरीने त्रीजी पूजानो पाठ भणे. ते संपूर्ण थयाथी "ओ ही नमो आयरियाणं" एम कही कळश ढोळे, अष्ट द्रव्य चढावे. इति तृतीयपदपूजा विधि,
४ चोथु उपाध्यायपद नील वर्णे छे, माटे मग प्रमुख तथा अष्ट द्रव्य लइने पूर्वोक्त विधिये पूजा भणी संपूर्ण थवाथी
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(२१८)
नवपद विधि विगेरे संग्रह।
श्री साघुपद पूजा भणे त
चमपद
"ओ ही नमो उवज्झायाणं" एम कही कळश ढोळे, अष्ट द्रव्य चढावे इति चतुर्थपदपूजा विधि.
५ पांचभु श्री साधुपद श्यामवर्णे छे, माटे अडद प्रमुख लेइ बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करी पूजा भणे ते संपूर्ण थयाथी "ओ ही नमो लोए सव्वसाहूणं" कहे इति पंचमपद पूजा विधि.
६ तेमज छळु दर्शनपद श्वेतवर्णे छे, माटे तंदुल प्रमुख लेइ "ओ हो नमो देसणस्स" कहेवं, बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति षष्ठपदपूजा विधि. ___७ सातमुं ज्ञानपद श्वेतवर्ण छे, माटे चावल प्रमुख लेइ
ओ ही नमो नाणस्स" कहे. वीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति सप्तमपदपूजा विधि,
८ आठमुं चारित्रपद पण श्वेतवर्णे छे, माटे चोखा प्रमुख "ओ ह्रीं नमो चारित्तस्स" कहेवू. बीजो सर्व पूर्वोक्त विधि करवो. इति अष्टमपदपूजा विधि. ___ ९ नवमुं तपपद् श्वेतवर्णे छे, माटे चोखा प्रमुख लई पूर्वोक्त विधि करीने " ओ ही नमो तवस्स" कही कळश ढाळे अष्टद्रव्य चडावे. पछी अष्टप्रकारी पूजा करे, आरति करे, इतिश्री नवमपदपूजा विधि.
॥ इति नवपदपूजा विधि समाप्त ॥
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श्रीतार्किकचक्रचक्रवति-न्यायविशारद-न्यायाचार्य
महामहोपाध्याय॥ श्रीयशोविजयजीगणिजीविरचित्त
श्रीनवपदजीनी पूजा ॥ ॥ प्रथम श्री अरिहंतपदपूजा प्रारंभः ॥ काव्यं-उप्पन्नसन्नाणमहोमयाणं,
सप्पाडिहेरासणसंठियाणं ॥ सदेसणाणंदियसज्जणाणं, नमो नमो होउ सया जिणाणं ॥१॥ श्रीज्ञानविमलसूरिकृत स्तवना ॥
॥ भुजंगप्रयातवृत्तम् ॥ नमोऽनंतसंतप्रमोदप्रदान-प्रधानाय भव्यात्मने भास्वताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यभाजा, सदा सिद्धचक्राय श्रीपालराजा ॥२॥ करयां कर्म दुर्मर्म
बीजी प्रतनो वधारो१ परम मंत्र प्रणमी करी तास धरी उर ध्यान । अरिहंत पद पूजा करो निज निज शक्ति प्रमाण ॥
(बाकी सरखं)
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( २२० ) नवपद विधि विगेर संग्रह ॥
चकचूर जेणे, भला भव्य नवपद ध्यानेन तेणे ॥ करी पूजना भव्य भावे त्रिकाळे, सदा वासियो आतमा तेणे काळे ॥ ३ ॥ जिके तीर्थकर कर्म उदये करीने, दिये देशना भव्यने हित धरीने ॥ सदा आठ महापाडिहारे समेता, सुरेशे नरेशे स्तव्या ब्रह्मपुत्ता ॥ ४॥ कर्यां घातियां कर्म चारे अलग्गां भवोपग्रही चार जे छे विलग्गा ॥ जगत् पंच कल्याणके सौख्य पामे, नमो तेह तीर्थकरा मोक्षकामे ॥५॥
श्रीदेवचन्द्रजीकृत स्तवना ॥ || ढाळ || उलालानी देशी ॥ तीर्थपति अरिहा नमुं, धर्म धुरंधर धीरोजी ॥ देशना अमृत वरसता, निजवीरज वडवीरोजी ॥ १ ॥ (उलालो) वर अखय, निर्मल ज्ञानभासन, सर्वभाव प्रकाशता || निज शुद्ध श्रद्धा आत्मभावे, चरणथिरता वासता ॥ जिन नामकर्म प्रभाव अतिशय प्रातिहारज शोभता ॥ जगजंतु करुणावंत भगवंत, भविकजनने क्षोभता ॥ २ ॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ||
( २२१ )
॥ पूजा || ढाळ || श्रीपाळना रासनी ॥ चीजे भव वरस्थानक तप करी, जेणे बांध्युं जिन नाम ॥ चोसठ इंद्रे पूजित जे जिन, कीजे तास प्रणाम रे || भविका ॥ सिद्धचक्रपद वंदो, जेम चिरकाळे नंदो रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पण अजवालुं ॥ सकळ अधिक गुण अतिशय धारी, ते जिन नमी अघ टाळु रे || भविका ॥ सि० ॥ २॥ जे तिहुं नाण समग्ग उप्पन्ना, भोगकरमक्षीण जाणी ॥ लइ दीक्षा शिक्षा दिये जनने, ते नमिये जिननाणीरे ॥ जविका ॥ सि० ॥ ३ ॥ महागोप महामाहण कहिये, नियामक सथवाह ॥ उपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमिये उत्साह || भविका ॥ सि० ॥ ४ ॥ आठ प्रातिहारज जस छाजे, पांत्रीस गुणयुत वाणी ॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, ते जिन नमिये प्राणी रे ॥ भविका ॥ सिदूचक्र० ॥ ५ ॥
॥ ढाळ || श्रीपालना रासनी ॥ अरिहंतपद ध्यातो थको, दव्वह गुण पज्जाय रे ।
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( २२२ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ भेद छेद करी आतमा, अरिहंतरूपी थाय रे ॥ १॥ वीर जिनेश्वर उपदिशे, सांभळजो चित्त लाइ रे ॥ आतम ध्याने आतमा, ऋद्धि मळे सवि आई रे ॥ वी० ॥२॥
विमलकेवलभासनभास्करं, जगति जन्तुमहोदयकारणम् ॥ जिनवरं बहुमानजलौघत; शुचिमनाः स्नपयामि जिनेश्वरम् ॥१॥
स्नात्र करतां जगद्गुरु शरीरे सकलदेवे विमलकलशनीरे | आपणा कर्ममल दूर कीधां, तिणे ते विबुध ग्रन्थप्रसिद्धा ॥ १ ॥ हर्ष धरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशीष भावे ॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबूद्दीवो, अम तणा नाथ देवाधिदेवो ( अम तणा नाथ जीवानुजीवो) ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री परमपुरुषाय, परमात्मने परमेश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, श्रीमते सिद्धचक्राय श्रीअर्हत्पदाय जलं चन्दनं पुष्पं धूपं दीपं अक्षतं नैवेद्यं फलं यजामहे स्वाहा ॥ ओ ही नमो अरिहंताणं ।
ु
ओ
कही अनुक्रमे श्री अरिहंत पदनी अष्ट प्रकारी
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (२२३) पूजा करे (आ प्रमाणे दरेक पूजा दीठ जाणवू, मात्र पदनुं नाम फेरववं.
॥ इति प्रथम श्रीअरिहंतपदपूजा समाप्ता॥
॥ अथ द्वितीय श्री सिद्धपदपूजा प्रारंभ ॥
काव्यं ॥ सिद्धाणमाणंदरमालयाणं ॥
नमो नमोऽणंतचउकयाणं॥ करीआठकर्म क्षये पार पाम्या, जराजन्ममरणादि भय जेणे वाम्या।।निरावरण जे आत्मरूपे प्रसिद्धा,थया १ बीजी प्रतनो वधारो१ सिद्धा० समग्गकम्मक्खयकारगाणं, जम्मं जरादुक्खनिवारगाणं। २ बीजी पूजा सिद्धनी कीजे दील खुशीयाल अशुभ कर्म दूरे टळे, फले मनोरथमाळ ॥१॥
(बाकी सर) १ सकल कर्मना क्लेशथी, मूकाणा महाभाग । चिदानन्दमय शाश्वता, लागे कोइ न डाग ॥१॥ लोक अग्रक्षेत्र रह्या, लही अनन्ती ऋद्धि । भस्म कीया बाळी कर्म, परम आतमा सिद्ध ॥२॥
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(२२४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ पार पामी सदा सिद्धबुद्धा ॥६॥ त्रिभागोनदेहावगाहात्मदेशा, रह्या ज्ञानमय जातवर्णादि लेशा ॥ सदानंद
करवू स्मरण ध्यान तसु, प्रतिमा वन्दन तास । नाम जाप पूजन न्हवण करीये धरी उल्लास ॥३॥ अवर्णवाद आशातना, वरजी नर सुविवेक । सदा भक्ति करवी भली, धरी मनमांही टेक ॥ ४ ॥ अरिहंत पण जेहने नमे, आठ कर्म कृतनाश । पनर भेद छे सिद्धना, कुण समरे नहि तास ॥५॥ मुकाये भवसहस (भ्रम्रण) थी, सिद्ध भणी नमस्कार । भावे जेह करे भविक, बोधि लाभ विस्तार ॥ ६॥ सुरतरु असुरादिक तणा, सुख सघळा ए मेला । तेह थकी शिव सुख तणी, अनन्ती गुणी छे केली ॥७॥ जिणे अमृत रस चाखीयो, बीजे रस न मुहाय । तिम शिवमुख जाण्यो जिणे, बीजां ना वेदाय ॥८॥ जीहां एक सिद्धातमा तिहां अनंता होय । पण अमूर्तपणा थकी, बाधा न लहे कोय ॥९॥ सिद्ध तणी अवगाहना, त्रिणसया तेतीस । धनुष त्रिभागे अधिक, कही उत्कृष्टी इश ॥१०॥ उणा हाथ त्रिभागथी, च्यार हाथ गणी लेय । सिद्ध तणी अवगाहना, मध्यम भाखी एह ॥११॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥
( २२५)
सौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध अपुनर्भवादिस्व
रूपा ॥७॥
|| ढाळ || उलालानी देशी ॥
सकल करममल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपोजी || अव्याबाध प्रभुतामयी, आतम संपत्तिभूपोजी ॥३॥ [उलालो ] जेह भूप आतम सहजसंपत्ति, शक्ति व्यवितपणे करी ॥ स्वद्रव्य क्षेत्र स्वकाल भावे, गुण अनंता आदरी ॥ स्वस्वभाव गुणपर्याय परिणति, सिसाधन परभणी ॥ मुनिराज मानसहंस समवड, नमो सिद्ध महागुणी ॥४॥
॥ पूजा ढाळ || समयपएसंतर अणफरसी, चरम तिभाग विशेष ॥ अवगाहन लही जे शिव पहोता, सिद्ध नमो ते जघन्य सिद्ध अवगाहना, अष्टांगुल एक हाथ | कूर्मा पुत्रादिक तणा, इम करी श्री जगनाथ ॥ १२॥ सिद्ध ध्यानथी जीवना, जाये दुष्कृत कोटि । जीम अमृतना बिन्दुधी, जाय तीव्र विषचोटि ॥१३॥ प्रतिबिंबित निज आत्मस्युं, सिद्ध निहाळे जेह । त्रिजग पूज्यपद संपदा, ततखिण पामे तेह ॥
૧૫
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(२२६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ अशेष रे ॥ भविका॥ सि०॥६॥ पूर्व प्रयोगने गति परिणामे, बंधन छेद असंग ॥ समय एक ऊर्ध्वगति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो रंग रे ॥भविका॥ सि०॥७॥ निमल सिद्धाशलानी उपरे, जोयण एक लोगंत ॥ सादि अनंत तिहां स्थिति जेहनी, ते सिक प्रणमो संतरे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ८॥ जाणे पण न शके कही परगुण, प्राकृत तेम गुण जास ॥ उपमा विण नाणी भवमाहे, ते सिद्ध दीयो उल्लास रे ॥ भविका। सि० ॥ ९॥ ज्योतिशुं ज्योति मळी जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ आतमराम रमापति समरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे॥भविका। सिद्धचक्र० ॥१०॥
॥ ढाळ ॥ रूपातीत स्वभाव जे, केवल दंसणनाणी रे ॥ ते ध्याता निज आतमा,होये सिद्ध गुणखाणी रे॥वीर०॥३॥ जिनेश्वर० काव्यं ॥ विमल० ॥ ओ द्वी०॥
॥ इति द्वितीय सिद्धपदपूजा समाप्त ॥ २॥
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श्री नवपदीनी पूजा ॥ (२२७) ॥ अथ तृतीय श्री आचार्यपदपूजा प्रारंभ ॥
॥ काव्यं ॥ ॥ सूरीण दुरीकयकुग्गहाणं॥
नमो नमो सूरसमप्पहाणं ॥२॥ नमुं सूरिराजा सदा तत्त्वताजा, जिनेंद्रागमे प्रौढसाम्राज्यभाजा ॥ षट्वर्ग वर्गित गुणे शोभमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥ ८॥ भविप्राणीने देशना देश काळे, सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र आले ॥ जिके शासनाधार दिग्दंति कल्पा, जगे ते चिरं जीवजो शुद्ध जल्पा ॥९॥ २ बीजी प्रतनो वधारो.
१ सूरी० सद्देसणादिसुसमायराणं, अखंडछत्तीसगुणायराणं १ २ हवे आचारजपद तणी, पूजा करो सविशेष । मोह तिमिर दूरे हरे, सूझे भाव अशेष ॥२॥
(बाकी सरखं) निरवद्य विद्याए पवित्र, मंत्र सिद्धनो बीज । गुरुनी भक्ति विवेकीये, करवी नति एहीज ॥१॥ जिनवरनी भक्ते करी, पूर्व खपावे कर्म । नमस्करे आचार्यजी, सिद्ध मंत्रादिक धर्म ॥
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(२२८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ ढाळ ॥ उलालानी देशी॥ आचारज मुनिपति गणि, गुणछत्रीशी धामोजी । चिदानंद रस स्वादता, परभावे नि:कामोजी ॥५॥ [उलालो] निःकाम निर्मळ शुचिद्घन, साध्यनिज निरधारथी ॥ निज ज्ञान दर्शन चरण वीरज, साधना व्यापारथी ॥ भविजीव बोधक तत्त्वशोधक, सयलगुण संपत्तिधरा ॥ संवरसमाधि गतउपाधि, दुविध तपगुण आगरा ॥६॥
॥पूजा ढाळ ॥ पंच आचार जे शुद्धा पाळे, मारग भाखे साचो॥ ते आचारज नमिये नेहशु,प्रेम करीने जाचोरे॥भविका ॥ सि० ॥ ११ ॥ वर छत्रीश गुणे करी सोहे, युगप्रधान जन मोहे ॥ जग बोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमुं ते जोहे रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ १२ ॥ नित्य अप्रमत्त धर्म उवएसे, नहीं विकथा न कषाय ॥ जेहने ते आचारज नमिये. अकलष अमल अमायरे ॥ भविका॥ सि० ॥ १३ ॥ जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयण वळी जनने ॥ पट्टधारी गच्छ थंभ आचारज,
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (२२९) ते मान्या मुनिमनने रे ॥ भविका ॥ सि० ॥१४॥ अत्यमिये जिन सूरज केवल, चंदे जे जगदीवो ॥भुवन पदारथ प्रकटन पटु ते, आचारज चिरंजीवो रे॥ भविका ॥ सिद्धचक्र० ॥ १५॥
॥ ढाळ ॥ ध्याता आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानीरे॥ पंच प्रस्थाने आतमा, आचारज होय प्राणी रे ॥वीर०॥४॥ ॥ इति तृतीय आचार्य पद पूजा समाप्त ॥३॥ ॥ अथ चतुर्थ श्रीउपाध्यायपद पूजा प्रारंभः ॥
॥ काव्यं ॥ !। सुतत्थवित्थारणतप्पराणं॥
नमो नमो वायगकुंजराणं ॥ बीजी प्रतनो वधारो१ मुत्त० गणस्स संधारणसायराणं, सव्वप्पणावज्जियमच्छराणं ॥१॥
गुण अनेक जग जेहना, सुंदर शोभित गात्र । उपाध्याय पद अरचीये, अनुभव रसना पात्र ॥
(पाकी सरखं)
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( २३० )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
नहीं सुरि पण सूरिगणने सहाया, नमुं वाचका त्यक्त मदमोहमाया ॥ वलि द्वादशांगादि सूत्रार्थदाने, जिके सावधानानिरुद्धाभिमाने ॥१०॥ धरे पंचने वर्ग वर्गित गुणौधा, प्रवादि द्विपोछेदने तुल्यसिंघा ॥ गणी
विधिशुं वात्सल्य कीजीए, तिहां श्रुतना बे भेद |
"
बद्धाबद्ध वखाणीया, चित्त धरो तजी खेद ॥१॥ श्रुत दुबालस अंग जे, बद्ध कहीजे तेह महानिशीथ निशीथ वळी, भेद अबद्ध लहेह ॥ २ ॥ ते श्रुत गुरु पांसे भला, विधुश्युं योग वह । उद्देश समुद्देशानुज्ञा, पूर्वक विनय क ॥ ३ ॥ कालिक उत्कालिक वळी, बहु सूत्रार्थक भेद | अंग अनंग प्रविष्ट मुख, कह्या अनेक सुभेद ॥४॥ ते सूत्रार्थ अधीत जे, बहुश्रुत ते सुविवेक । द्वादशांग दश पूर्वधर, आदिक भेद अनेक ||५|| तेहनी भक्ति करो भली, वस्त्र पात्र अन्नपान, यथा उचित दाने करी पोषे देइ मान ॥ ६ ॥ नमो उवज्झायाणं तथा, नमो चउदसपुवीणं । ए पदनो गुणणो करे, दोय सहस प्रवीण ॥ ७॥ विधि वन्दन विश्रामणा आपे बहु सन्मान | नाम कर्मोदय तीर्थकर, थाये उदय प्रधान ॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ||
( २३१ )
गुणी गच्छसंधारणे स्थंभभूता, उपाध्याय ते वंदिये चित्प्रभुता ॥११॥
॥ ढाळ || उलालानी देशी ॥ खंतिजुआ मुत्तिजुआ, अज्जव मद्दव जुत्ताजी ॥ सच्चं सोय अकिंचणा, तव संजम गुणरत्ताजी ॥ ७ ॥ (उलालो ) जे रम्या ब्रह्मसुगुत्ति गुत्ता, समिति समिता श्रुतधरा ॥ स्याद्वादवादे तत्त्वत्वादक, आत्मपरविभजनकरा ॥ भवभीरु साधन धीरशासन, वहन धोरी मुनिवरा ॥ सिद्धांत वायण दान समरथ, नमो पाठक पदधरा ॥ ८ ॥
॥ पूजा ढाळ ॥
द्वादश अंग
अंग सज्झाय करे जे, पारग धारग तास ॥ सूत्र अर्थ विस्तार रसिक ते, नमो उवज्झाय उल्लासरे ॥ भविका ॥ सि० ॥ १६ ॥ अर्थ सूत्रने दान विजागे, आचारज उवज्झाय ॥ भव त्रीजे जे लहे शिवसंपद्, नमिये ते सुपसाय रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ १७ ॥ मूरख शिष्य निपाई जे प्रभु, पाहाणने पल्लव आणे ॥ ते उवज्झाय सकल जन पूजित, सूत्र अर्थ सवि जाणे रे
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(२३२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ भषिका ॥ सि० ॥१८॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, आचारज पद योग ॥ जे उवज्झाय सदा तेनमतां, नावे भवभय सोग रे ॥ भविका ॥ सि० ॥१९॥ बावना चंदन रस सम वयणे, अहितताप सवि टाळे ते उवज्झाय नर्माजे जे वळी, जिनशासन अजुवाळे रे॥ भविका॥ सिद्धचक्र पद वंदो ॥२०॥
॥ ढाळ ॥ तपसज्झाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे उपाध्याय ते आतमा,जगबंधव जगभ्राता रे॥५॥वीर०॥ ॥ इति चतुर्थ उपाध्यायपदपूजा समाप्ता ॥ ४॥
॥ अथ पंचम श्री साधुपदपूजा प्रारंभ ॥
॥ काव्यं ॥ साहूण संसाहिअसंजमाणं ॥
नमो नमोसुद्धदयादमाणं ॥३॥ अन्य प्रतनो क्यारो१ साहूण तिगुत्तिमुत्ताय समाहिषाणं, मुणिमानंदपयडिवाणं ॥१॥
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श्री नवपदजीनी पूजा॥ (२२३) करे सेवना सूरिवायग गणिनी, करुं वर्णना तेहनी शी मुणिनी ॥ समेता सदा पंचसमिति त्रिगुप्ता, २ मोक्षमारग साधन भणी, सावधान थया जेह. ते मुनिवर पद वंदता, निर्मल थाये देह ॥ १॥
(बाकी सरखें) शान्तदान्त अन्तर्बहि, निर्विकार परिणाम. क्रियावंत संयम गुणे, चरण करण अभिराम ॥१॥ दयावंत षट् कायना, मैत्री पवित्रित काय; अप्रतिबंध वायु परे, करे विहार अमाय ॥२॥ ध्यान करे त्रिकरणपणे, ते देखी मुनिरायः. परम प्रमोद प्रणमीये, पूज्य तणा त्यां पाय ॥ ३ ॥ जननी पुत्र शुभ करे, तिम ए पवयण माय, चारित्र गुणगणवर्धिनी, निर्मल शिव सुखदाय ॥ ४॥ भाव अयोगी करण रुचि, मुनिवर गुप्ति वरंत; जो गुप्ते न रही शके, तो समिति विचरंत ॥५॥ गुप्ति एक संवरमयी, औत्सर्गिक परिणाम; संवर निर्मर समितिथी, अपवादे गुणधाम ॥ ६॥ द्रव्ये द्रव्य चरणता, भावे भाषचरित्र; भावदृष्टि द्रव्यक्रिया, करता शिवसंपत्त ॥ ७॥ आत्मगुण रागभावथी, जे साधक परिणाम; समिति एप्ति ते जिन कहे, आत्मसिद्धि शिवठाम ॥८॥
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(२३४) नवपद विधि विगेरे संग्रह। त्रिगुप्ते नहीं कामभोगेषु लिप्ता ॥ १२ ॥ वळी बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि टाळी, होये मुक्तिने योग्य चारित्र पाळी॥ शुभाष्टांग योगे रमे चित्त वाळी, नमुं साधुने तेह निज पाप टाळी ॥१३॥
॥ ढाळ ॥ उलालानी देशी॥ सकल विषय विष वारीने, नि:कामी निःसंगीजी ॥ भवदवताप शमावता, आतमसाधन रंगीजी ॥९॥ [उलालो] जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह निमम निर्मदा ॥ काउस्सग्ग मुद्रा धीर आसन, ध्यान अन्न्यासी सदा ॥ तप तेज दीपे कर्म जीपे, नैव छीपे परभणी ॥ मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमुं हित भणी ॥१०॥
निश्चय चरण रुचि थइ, समिति गुप्तिधर साधु; परम अहिंसक भावथी, आराधे निरुपाधि ॥९॥ परम महोदय साधवा, जेह थया उजमाळ ॥ श्रमण भिक्षु माहणय, गाउ तरु गुणमाळ ॥१०॥ जे चारित्रे निर्मला, ते पंचायण सिंह विषय कषाय ते गंजीया, त वंदु निशदीन ॥ ११ ॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (२३५)
॥ पूजा ढाळ ॥ जेम तरुफूले भमरो बेसे, पीडा तस न उपावे। लेइ रस आतम संतोषे, तेम मुनि गोचरी जावे रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २१॥ पंच इंद्रियने जे नित्य जीपे षट्कायक प्रतिपाल ॥ संयम सत्तर प्रकारे आराधे, वंदु तेह दयाल रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २२ ॥ अढार सहस्स शीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र ॥ मुनिमहंत जयणायुत वंदी, कीजे जन्म पवित्र रे॥ भविका ॥ सि० ॥ २३ ॥ नवविध ब्रह्मगुप्ति जे पाळे, बारसविह तप शूरा ॥ एहवा मुनि नमीये जो प्रगटे, पूरवपुण्य अंकूरा रे ॥ भविका ॥ सि० ॥२४॥ सोनातणी परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढते वाने ॥ संजमखप करता मुनि नमिये, देश काल अनुमाने रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २५॥ अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचेरे ॥ साधु सुधा ते आतमा,शुं मूंडे शुं लोचे रे॥६॥ वीर०॥
॥ इति पंचम साधुपदपूजा समाप्ता ॥ ५॥
॥ढाळ॥
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ अथ षष्ठ श्री सम्यग्दर्शनपदपूजा प्रारंभः ॥
( २३६ )
॥ काव्यं ॥
जिंणुत्ततत्ते रुइलख्खणस ॥ नमो नमो निम्मलदंसणस्स ॥
विपर्यास हठवासनारूप मिथ्या, टळे जे अनादि अच्छे जेम पथ्या ॥ जिनोक्ते होये सहजथी
१ बीजी प्रतनो वधारो
१ जिणुत्त० " मिच्छत्तनासाइसमुग्गमस्स । मूलस्स सद्धम्ममहादुमस्स ॥ १ ॥
२ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्त्वतणी परतीत । ते सम्यग्दर्शन सदा, आदरीये शुभ रीत ॥ २ ॥ . ( बाकी सरखं )
जेना जेहवा गुण हुवे, जाणे तास स्वरूप, देव धर्मगुरुने विषे, सम्यक् श्रद्धारूप ॥ १ ॥ अरिहंत देव सुसाधुगुरु, केवलिभाषित धर्म, तीन तत्त्व ए सदहे, ते सम्यक्त्व अकर्म ॥ २ ॥ ते सम्यक्त्व अनेकधा, होय परिणाम वशेण, इगदुतिविहा चउविहा, पंचविह दशविधश्रेणि ॥ ३ ॥
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( २३७ )
श्री नवपदजीनी पूजा || श्रद्दधानं, कहिये दर्शनं तेह परमं निधानं ॥१४॥ विना जेहथी ज्ञान अज्ञान रूपं, चरित्रं विचित्रं भवारण्यकूपं ॥ प्रकृति सातने उपशमे क्षय ते होवे, तिहां आपरूपे सदा आप जावे ॥१५॥
|| ढाळ || उलालानी देशी ||
सम्यग्दर्शन गुण नमो, तत्त्व प्रतीत स्वरूपोजी ॥ जसु निरधार स्वभाव छे, चेतनगुण जे अरूपोजी ॥ ११ ॥ (उलालो ) जे अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल परईहा टळे || निजशुद्धसत्ता प्रगट अनुभव, करणरुचिता उच्छले ॥ बहु मान परिणति वस्तुतत्त्वे, अहव तसु कारणपणे ॥ निज साध्यदृष्टे सर्वकरणी, तत्त्वता संपत्ति गणे ॥ १२ ॥
॥ पूजा ढाळ ॥
शुद्धदेव गुरुधर्म परीक्षा, सदहणा परिणाम ॥
धर्मतत्त्व रूचि एक विधि, दुविह निसर्ग उपदेश, क्षायिक क्षायोपशमिक क्ळी, औपशमिक तृतीय विशेष ॥ ४ ॥ कीजे सास्वादन सहित, थाये चार ते वार;
वेदक समकित युक्तश्युं, थाय पंच प्रकार ॥ ५ ॥
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( २३८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ जेह पामीजे तेह नमीजे, सम्यग्दर्शन नाम रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २६ ॥ मलउपशम क्षय उपशमक्षयथी, जे होय त्रिविध अभंग ॥ सम्यग्दर्शन तेह नमीजे जिनधर्मे दृढरंग रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २७ ॥ पंच वार उपशमिय लहीजे, क्षयउपशमिय असंख ॥ एकवार क्षायिक ते समकित दर्शन नमिये असंख रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ २८ ॥ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्र तरु नवि फळियो । सुख निवाण न जे विण लहीये, समकितदर्शन बलियो रे | भविका ॥ सि० ॥ २९ ॥ सडसह बोले जे अलंकरियुं, ज्ञानचारित्रनुं मूल ॥ समकितदर्शन ते नित्य प्रणमुं, शिवपंथनुं अनुकूल रे || भविका ॥ सिद्धचक्र० ॥ ३० ॥
"
|| ढाळ ||
शम संवेगादिक गुणा, क्षयउपशम जे आवे रे।। दर्शन तेहिज आतमा, शुं होय नाम धरावेरे ॥ ७ ॥ वीर० ॥
॥ इति षष्ठ सम्यग्दर्शनपदपूजा समाप्त ॥ ६ ॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥
॥ अथ सप्तम श्री सम्यग्ज्ञानपदपूजा प्रारंभ ॥
॥ काव्यं ॥ अन्नाणसंमोहत मोहरस्स ॥ नमो नमो नाणदिवायरस्स॥ हो जेथी ज्ञान शुद्ध प्रबोधे, यथावर्ण नासे विचित्रावबोधे | तेणे जाणिये वस्तु षड् द्रव्यभावा, न हुये वितत्था निजेच्छा स्वभावा ॥ १६ ॥ होय पंच मत्यादि सुज्ञानभेदे, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदे || वळी ज्ञेय हेय उपादेय रूपे, लहे चित्तमां जेम प्रदीपे ॥ १७ ॥
( २३९ )
२ बीजी प्रतनो वधारो -
१ अन्नाण० पंचप्पयारस्सुवगारस्स, सत्ताण सव्वत्थपगासगस्स ॥ २ सप्तम पदश्रीज्ञान छे, सिद्धचक्र तपमांय
आराधी जे शुभ मने, दिन दिन अधिक उच्छाह ॥ २ ॥ ( बाकी सरखु )
सदनुष्ठान संपूर्ण फल, तास प्रदायक एह तेह निरन्तर भावशु, ज्ञान उपयोग करेह ॥ १ ॥ वर्ष कोटि बहु नारकी, कर्म खपावे जेह ज्ञानी श्वासोश्वासमां, तिन गुप्ति शुं तेह ॥ २ ॥
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२४०)
नवपद विधि विगेरे संग्रह।
॥ ढाळ ॥ उलालानी देशी ॥ भव्य नमो गुणज्ञानने, स्वपरप्रकाशक भावेजी
छ? अट्ठम दश दोयलसे, करे अज्ञानी शोधि; बहु गुणे जोय एहथी, ज्ञाने युक्ति विशोधि ॥ ३ ॥ अंतर तत्त्व विचारणा, सम्यग ज्ञान संयोग; दुर्जय कर्म तणो सही, तत्क्षण होय वियोग ॥ ४ ॥ जिनवर उक्तक्रिया विषे, ज्ञान तणो उपयोग महानिर्जरा कारणे, कहे विशुद्ध वियोग ॥५॥ अंग अनंग भेदे करी, श्रुतना दोय प्रकार; अंग आचारांगादि तिहां, अनंग वळी अवधार ॥ ६॥ आवश्यक उत्तराध्ययन, कल्पाध्ययनादीनु; उपांग कहे सहु ग्रहे, सूत्रार्थ तल्लीन ॥७॥ ज्ञान अपूर्व ग्रह्या थकां, कर्मनिजरा होय; तत्त्वातत्त्व प्रबोधथी, समकित निर्मल जोय ॥८॥ ज्ञानबंध कारण विना, ज्ञान महातमसूर; भव समुद्र तारण भणी, ज्ञाननाव भरपूर ॥९॥ सूक्ष्म बादर लोकमां, जाणे सघळा भाव, ज्ञान शिखवो त भणी, जे होवे चतुरा जीव ॥ १० ॥ ज्ञान परम गुण जीवनो, ज्ञान भवण प्रद्योत; मिथ्यामति तम भेदवा, ज्ञान महा उद्योत ॥ ११॥
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श्री नवपदजीनी पूजा॥ (२४१) पर्यय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावेजी ॥ १३ ॥ उलालो ॥ जे मुख्यपरिणति सकलज्ञायक, बोध भावविलच्छना ॥ मति आदि पंच प्रकार निर्मळ, सिद्ध साधन लच्छना ॥ स्याद्वादसंगी तत्त्वरंगी, प्रथम भेदाभेदता ॥ सविकल्प ने अविकल्प वस्तु, सकल संशय छेदता ॥ १४ ॥
..!। पूजा ढाळ ॥ भक्ष्याभक्ष्य न जे विण लहिये,पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहिये, ज्ञान ते सकल आधार रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ३१ ॥ प्रथम ज्ञान ने पछी अहिंसा,श्री सिद्धांते भाख्युं॥ ज्ञानने वंदो ज्ञान म निंदो, ज्ञानीये शिवसुख चाख्युं रे ॥ भविका॥सि० ॥३२॥ सकल क्रियानुं मूळ जे श्रद्धा; तेहनुमूळ जे कहिये ॥ तेह ज्ञान नित नित वंदीजे, ते विण कहो केम रहिये रे ॥ भविका ॥ सि० ॥३३॥ पंच ज्ञानमाहि जेह सदागम, स्वपर प्रकाशक जेह ॥ दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वळी जेम रवि शशि मेह रे॥
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(२४२) नवपद विधि बिगेरे संग्रह । भविका ॥ सि० ॥३४॥ लोक ऊर्ध्व अधो तिर्यग्ज्योतिष्, वैमानिक ने सिद्ध ॥ लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, तेह ज्ञान मुज शुद्ध रे ॥ भविका ॥ सिद्ध
चक्र०॥३५॥
॥ ढाळ ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छे, क्षयउपशम तस थाय रे ॥ तो हुए एहिज आतमा,ज्ञान अबोधता जायरे ॥८॥वीर०॥
॥ इति सप्तम सम्यग्ज्ञानपदपूजा समाप्ता ॥७॥
॥अथ अष्टम श्री चारित्रपदपूजा प्रारंभ ॥
॥ काव्यं ॥ आराहिअखंडिअसक्किअस्स॥
नमो नमो संजमवीरिअस्स ॥ बीजी प्रतनो वधारो१ आरा० सम्भावणासंगविवडियस्स निव्वाणदाणाइसमु
ज्जयस्स। (बाकी सरखं)
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श्री नवमदजीनी पूजा॥ (२४३) वळी झानफल चरण धरीये सुरंगे, निराशंसता द्वाररोध प्रसंगे ॥ भवांभोधिसंतारणे यानतुल्यं, धरूं तेह चारित्र अप्राप्तमूल्यं ॥ १८ ॥ होये जास महिमाथकी रंक राजा, वळी द्वादशांगी भणी होय ताजा ॥ वळी पापरूपोऽपि निःपाप थाय, थइ सिद्ध ते कर्मने पार जाय.॥१९॥
॥ ढाळ ॥ उलालानी देशी॥ चारित्रगुण वळी वळी नमो,तत्त्वरमण जसु मूलोजी २ अष्टमपद चारित्रने पूजो धरी उमेद ।
पूजत अनुभव रस मिले, पातक होय उच्छेद । एहवा विण बहुपापने, उद्धरवा देहत्य । प्रव्रज्या जिनराजनी, छे एक शुद्धि अवत्थ ॥१॥ ते दुःखवल्ली वनदहन, ते शिवतरु सुखकंद; ते कुलधर गुणगणतणुं, ते टाळे भवफंद ॥२॥ ते आकर्षण सिद्धिनु, भवनिष्कर्षण तेहा ते कषायगिरि भेदपवि, तो कषाय उच्छेद ॥ ३ ॥ दशविध मुनिवर धर्म जे, ते कहीये चारित्र, द्रव्य भावथी आचर्या, तेहना जन्म पवित्र ॥ ४॥
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( २४४
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ पररमणीयपणुं टळे, सकलसिद्ध अनुकूलोजी ॥१५॥ (उलालो) प्रतिकूळ आश्रव त्याग संयम, तत्त्वस्थिरता दममयी ॥ शुचि परम खंति मुत्ति दश पद, पंच संवर उपचयी || सामायिकादिक भेद धर्मे, यथाख्याते पूर्णता || अकषाय अकलुष अमल उज्ज्वल, कामकश्मल चूर्ण ना ॥ २ ॥
॥ पूजा ढाळ ||
देश वितिने सर्वविरति जे, गृहि यतिने अभिराम ॥ ते चारित्र जगत जयवंतु, कीजे तास प्रनामरे || भविका ॥ सि० ॥ ३६ ॥ तृणपरे जे षट्खंड सुख छंडी, चक्रवर्ती पण वरियो ॥ ते चारित्र अक्षयसुख कारण, ते में मनमांहे धरियो रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ३७ ॥ हुआ रांक पण जे आदरी, पूजित इंद नरिंदे ॥ अशरण शरण चरण ते वंदू, पूर्वं ज्ञान आनंदे रे || भविका ॥ सि० ॥ ३८ ॥ बार मास पयाये जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये ॥ शुक्ल शुक्ल अभिजात्य ते उपरे, ते चारित्रने नमिये रे ॥ भविका ॥ .
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( २४५)
श्री नवपदजीनी पूजा || सि० ॥ ३९ ॥ चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह ॥ चारित्र नाम निरुत्ते भांख्युं, ते बंदु गुणगेह रे ॥ भविका ॥ सिद्धचक्र० ॥ ४० ॥
॥ ढाळ ||
जाण चारित्र ते आतमा, निज स्वभावमां रमतो ॥ लेश्या शुद्ध अलंकर्यो, मोहवने नवि भमतो ॥ ९ ॥ वीर जिनेश्वरः ॥
॥ इति अष्टम चारित्रपदपूजा समाप्ता ॥ ८ ॥
॥ अथ नवम श्री तपः पदपूजा प्रारंभः ॥
॥ काव्यं ॥
कैम्मदुमोम्मूलणकुंजरस्स ॥ नमो नमो तिव्वतवोभरस्स ॥५॥
बीजी प्रतनो वधारो -
१ कम्म० अणेगल द्वीणनिबंधणस्स दुस्सज्झ अत्याण य साहणस्स
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ मालिनीवृत्तम् ॥ इयनवपयसिद्धं, लद्धिविज्जासमिद्धं ॥ पयडियसरवग्गं, हीँतिरेहासमग्गं ॥ दिसिवाइ सुरसारं, खोणिपीढावयारं ॥ तिजय विजयचकं, सिद्धचक्कं नमामि ॥६॥
(२४६ )
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त्रिकालिकपणे कर्म कषाय टाळे, निकाचितपणे बांधियां तेह बाळे ॥ कां तेह तप बाह्य अंतर दुभेदे, क्षमायुक्त निर्हेतु दुर्ध्यान छेदे ॥२०॥ होये जास महिमाथकी लब्धि सिद्धि, अवांछकपणे कर्म आवरणशुद्धि ॥ तपो तेह तप जे महानंद हेते, होय सिद्धि सीमंतिनी जिम संकेते ॥ २१ ॥ इम नवपद ध्यानने जेह ध्यावे,
२ कर्मकाष्ठ प्रतिजालवा परतक्ष अग्नि समान । तप पद पूजो सदा, निर्मल धरीये ध्यान ॥
( बाकी सरखं )
निलोभी इच्छातणो; रोध होय अविकार; कर्मतपावन तप कह्यो; तेहना धार प्रकार ॥ १ ॥ जेह कषायने शोषवे प्रतिसमय टाळे पाप ते तप करीये निर्मळो बीजो ननु संताप ॥ २ ॥
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (१४७) सदानंद चिद्रूपता तेह पावे ॥ वळी ज्ञानविमलादि गुणरत्नधामा, नमुं ते सदा सिद्धचक्र प्रधाना ॥२२॥
॥मालिनीवृत्तम् ॥ इम नवपद ध्यावे, परम आनंद पावे ॥ नवमे जव शिव जावे, देव नरभव पावे ॥ ज्ञानविमल गुण गावे, सिमचक्र प्रभावे ॥ सवि दुरित शमावे, विश्व जयकार पावे ॥२३॥ ॥ इति श्रीज्ञानविमलसूरिकृत श्रीसिद्धचक्रस्तवना समाप्ता॥
॥ ढाळ ॥ उलालानी देशी ॥ इच्छारोधन तप नमो, बाह्य अभ्यंतर भेदेजी ॥ आतम सत्ता एकता, परपरिणति उच्छेदेजी ॥ १७ ॥ (उलालो) उच्छेद कर्म अनादि संतति, जेह सिद्धपणुं वरे ॥ योग संगे आहार टाळी, भाव अक्रियता करे ॥ अंतर मुहुरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी ॥ निज आत्मसत्ता प्रगट भावे, करो तप गुण आदरी ॥१८॥
॥ ढाळ ॥ इम नवपद गुण मंडलं, चउ निक्षेप प्रमाणे जी
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(२४८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।। सात नये जे आदरे, सम्यग्ज्ञान ते जाणेजी ॥१९॥ [उलालो] निद्धारसेती गुणी गुणनो, करे जे बहुमान ए॥ तसु करण ईहा तत्व रमणे, थाय निर्मळ ध्यान ए॥ एम शुद्धसत्ता भळ्यो चेतन, सकल सिद्धि अनुसरे॥ अक्षय अनंत महंत चिद्घन, परम आनदता वरे॥२०॥
॥ अथ कळश ॥ इय सयल सुखकर गुणपुरंदर, सिद्धचक्र पदावलि॥ संवि लद्धि विद्या सिनिंदर भविक पूजो मनरुली ॥ उवझायवर श्री राजसागर, ज्ञानधन सुराजता ॥ गुरु दीपचंद सुचरण सेवक, देवचंद सुशोभता ॥ २१॥ . ॥ इतिश्री देवचन्द्रजीकृत स्तवना समाप्ता ॥
॥ पूजा ढाळ ॥ जाणता तिहुं ज्ञाने संयुत, ते भव मुक्ति जिणंद ॥ जेह आदरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरु कंद रे॥भविका ॥ सि०॥४१॥ कर्म निकाचित पण क्षय जाये क्षमा सहित जे करतां॥ ते तप नमिये जेह दीपावे,
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(२४९ )
श्री नवपदजीनी पूजा ॥ जिनशासन उजमंतां रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ४२ ॥ आमोसही पमुहा बहु लद्धि, होवे जास प्रभावे ॥ अष्ट महासिद्धि नवनिधि प्रगटे, नमिये ते तप भावे रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ४३ ॥ फळ शिव सुख महोटुं सुर नरवर, संपत्ति हनुं फूल ॥ ते तप सुरतरु सरिखुं वंदूं, शम मकरंद अमूल रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ४४॥ सर्व मंगलमां पहेलं मंगळ, वरणवीये जे ग्रंथे ॥ ते तपपद त्रिहुं काळ नमीजे, वर सहाय शिवपंथे रे ॥ भविका ॥ सि० ॥ ४५ ॥ एम नवपद थुणतो तिहां लीनो, हुआ तन्मय श्रीपाळ ॥ सुजसविलासे चोथे खंडे, एह अग्यारी ढाळ रे भविका ॥ सिद्धचक्र ॥ ४६ ॥
|| ढाळ ||
इच्छारोधे संवरी परिणति समता योगे रे ॥ तप ते एहिज आतमा, वतें निजगुण भोगेरे ॥ १० ॥ वीर० ॥ आगम नोआगमतणो, भाव ते जाणो साचो रे ॥ आतम भावे थिर होजो. परभावे मत राचो रे ॥ ॥११॥ वीर० ॥ अष्टक सकल समृद्विनी, घटमांहे ऋद्धि
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( २५० )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
दाखी रे || तेम नवपद ऋद्धि जाणजो, आतमराम छे साखी रे ॥ १२ ॥ वीर० ॥ योग असंख्य छे जिन कह्या, नवपद मुख्य ते जाणो रे ॥ एहतणे अवलंबने, आतम ध्यान प्रमाणो रे ॥ १३ ॥ वीर० || ढाळ बारमी एहवी, चोथे खंडे पूरी रे || वाणी वाचकजस१४ ॥ वीर० ॥
तणी, कोइ नये न अधूरी रे ॥
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॥ इति नवम तपः पदपूजा समाप्ता ॥९॥
॥ अथ काव्यं ॥
विमल केवलभासनभास्करं, जगति जंतु महोदयकारणम् ॥ जिनवरं बहुमानजलौघतः, शुचिमनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥ १ ॥
स्नात्र करतां जगद्गुरु शरीरे, सकलदेवे विमल कळश नीरे ॥ आपणां कर्ममल दूर कीधां, तेणे ते विबुध ग्रंथे प्रसिद्धा ॥ २ ॥ हर्ष धरी अप्सरावृंद आवे, स्नात्र करी एम आशिष पावे ॥ जिहां लगे सुरगिरि जंबुदवो, अमतणा नाथ देवाधिदेवो ॥ ३ ॥ अमतणानाथ जीवानुर्जावो ॥३॥ ॐ ह्री श्री परम
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श्री नवपदजीनी पूजा ॥ (२५१) पुरुषाय परमात्मने परमेश्वराय जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमते सिद्धचक्राय श्री तपःपदाय जलं चन्दनं पुष्पं धूपं दीपं अक्षतं नैवेद्यं फलं यजामहे स्वाहा ओ ही नमो तवस्स कही तपःपदनी पूजा करवी. ॥ इतिश्रीमहामहोपाध्यायन्यायविशारदन्यायाचार्य श्रीयशोविजयजीगणिकृतश्रीसिद्धचक्रपूजा समाप्ता॥
॥ इति श्रीमद्यशोविजयजिऽपाध्यायकृत ॥
॥ नवपद पूजा समाप्ता॥
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( २५२)
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नवपयं विधि विगेरे संग्रह ।। श्री सिद्धचक्रजीनी आरती.
सिझचक्र पद सेवतां, ए सहजानंद स्वरूप अमृतमय कल्याणनिधि, प्रगटे चैतन्यभूप भविजन मंगळ आरती करीए, जन्म जन्मकी आरति हरीये | आरती प्रथम जिनेश्वरजीकी, दारुण विघ्न निवारणनीकी दुजे पद श्री सिद्ध मुणिंदा,आरती करतमिटतभवफंदा त्रीजेपद श्री सूरिमहंता, मारग शुद्ध प्रकाश करता चौथे पदपाठक गुणवंता, आरती करत हरत भवचीता पांचमी आरती साधु केरी, कुगति निवारण शुभगति सेरी शिवसुखकारण श्रीजिनवाणी, छठी आरती तास वखाणी, सातमी आरती आनंदकारी, समाकत व्रत गृह प्रतिमा धारी
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आरतिओ ॥
यह विधि मंगळ आरती गावे, शुद्ध क्षमा कल्याण ते पावे
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श्री सिद्धचक्र भगवान्नी आरति
श्री नवपद प्राणी नित्य ध्यावो, पचमगति सासय सुखपावो ॥ श्री० ए यांकणी ॥
धुरथी अरिहंत पद ध्याइजे स्थिरताए
श्रीसिद्ध थुणीजे ॥
आचारज त्रीजे आराधो शुद्ध मने निजकारज साधो
उपाध्याय पंचम अणगारा
प्रणमता पामे भवपारा दंसण नाण चरण भला दीपे
तप तपतां कर्म अरिने जीपे
( २५३ )
ए नवपद प्राणी नित्य थुणतां
गिरुवा नरभव सफल गणता
श्री नवपद० १
श्री नवपद० २
श्री नवपद० ३
श्री नवपद० ४
श्री नवपद ५
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(२५४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ श्री सिद्धचक्रनी कीजे सेवा मन वांछित लहीये नित्य मेवा अजर अमर सुखदायक साचो रुडा मनथी नित्य नित्य राचो
श्री नवपद् ६
श्री नवपद ७
नवपदजीनी लावणी. ॥
जगतमें नवपद जयकारी, पूजंता रोग टले भारी । प्रथम पद तीर्थपति राजे, दोष अष्टादश कुं त्यागे॥ आठ प्रतिहारज छाजे, जगत प्रभु गुण बारे राजे । अष्टकरम दल जीतके, सकल सिद्ध थयासिद्ध अनंत। भजो पदबीजे, एक समय शिव जाय । प्रकट भयो निजस्वरूप भारी ॥ १॥ जगतमां ॥ सूरिपदमां गौतम केशी, उपमाचंद्र सूरज जेसी । ऊगार्यों राजा परदेसी, एक भवम् हे शिवलेशी। चोथेपदे पाठक नमुं, श्रुतधारी उवज्झाय, सव्वसाहु पंचम पदमांही, धन्य धन्नो मुनिराय, वखाण्यो वीर प्रभु भारी ॥ २॥ जगतमां ॥
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आरतिओ ॥ ॥
(२५५)
द्रव्यषट्को श्रद्धा आवे, शम संवेगादिक पावे । विनाए ज्ञान नहि किरिया, जैनदर्शन से सब तरीया ॥ ज्ञान पदारथ पद सातमे, पदमें आतमराय । रमतां राम अध्यातममांहे, निजपद साधे काम, देखता वस्तु जगत सारी ॥ ३ ॥ जगतमां जोगकी महिमा बहु जाणी, चक्रधर छोडी सब राणी, यति दशधर्मे करी सोहे, मुनिश्रावक सब मन मोहे ॥ कर्म निकाचित कापत्रा, तप कुठार करधार, नवसुं पद जो धरे क्षमासुं, कर्म मूल कट जाय भजो नवपद जय सुखकारी ॥ ४ ॥ जगतमां ॥ श्रीसिद्धचक्र भजो भाइ, आचाम्ल तपनो विधि थाइ पाप त्रिहुं जोगे परिहरज्यो, भाव श्रीपालपरे धरज्यो । संवत ओगणीश सत्तरा, समे जे पोशीणा श्रीपास चैत्र धवल पूनमने दिवस, सकल फली मुज आश बाल कहे नवपद छबी थारी, जगतमें नवपद जयकारी ५
इति लावणी संपूर्ण ॥
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(२५६)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥अथ चैत्यवंदनो॥
॥२॥
नवपदनुं चैत्यवंदन. जैनेन्द्रमिन्द्रमहितं गतसर्वदोषं, ज्ञानाद्यनंतगुणरत्नविशालकोशम् । कर्मक्षयं शिवमयं परिनिष्ठितार्थ, सिद्धं च बुद्धमविरुद्धमहं च वंदे. गच्छाधिपं गुणगणं गणिनं सुसौम्यं, वंदामि वाचकवरं श्रुतदानदक्षम् । क्षान्त्यादिधर्मकलितं मुनिमालिकां च, निर्वाणसाधनपरं नरलोकमध्ये सदशनं शिवमयं च जिनोक्तसत्यं, तत्वप्रकाशकुशलं सुखदं सुबोधम् । छिन्नाश्रवं समितिगुप्तिमयं चरित्रं, कर्माष्टकाष्ठदहनं सुतपः श्रयामि पापौघनाशनकरं वरमंगलं च त्रैलोक्यसारमुपकारपरं गुरुं च । भावातिशुद्धिवरकारणमुत्तमानां, श्रीमोक्षसाख्यकरणं हरणं भवानाम्. भव्यान्जबोधनरवि भवसिंधुनावं, चिंतामणेः सुरतरोरधिकं सुभावम् । तत्त्वत्रिपादनवकं नवकाररूप, श्रीसिद्धचक्रसुखदं प्रणमामि नित्यम्
॥४॥
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अथ चैत्यवंदनो॥
(२५७)
॥ अथ अरिहंतपद चैत्यवंदन ॥
जय जय श्री अरिहंत भानु, भावि कमलविकाशी ॥ लोकालोक अरूपी रूपी, समस्त वस्तु प्रकाशी ॥१॥ समुद्घात शुभ केवले, क्षय कृत मल राशि ॥ शुक्ल चमर शुचि पादसे, भयो वर अविनाशी ॥२॥ अंतरंग रिपुगण हणाए, हुय अप्पा अरिहंत ॥ तमु पदपंकजमें रही, हीर धरम नित'संत ॥३॥ इति अरिहंतपदचैत्यवंदनम्
॥ अथ श्री सिद्धपद चैत्यवंदन ॥
श्री शैलेशी पूर्वप्रांत, तनु हीन विभागी.॥ पुव्वपओगपसंगसे, ऊरध गत जागी ॥ १॥ समय एकमें लोकप्रांत गये निगण निरागी ॥ चेतन भूपे आत्मरूप, सुदिशा लही सागी ॥२॥ केवल दसण नाणथी ए, रूपातीत स्वभाव ॥ सिद्ध भये तसुहीर धर्म, वंदे धरी शुभ भाव ॥३॥ इति सिद्धपदचैत्यवंदनम् ॥
॥अथ तृतीय श्रीआचार्यपद चैत्यवंदन ॥
॥ जिनपदकुल मुखरस अनिल, मितरस गुण धारी॥ प्रबल सबल घन मोहकी, जिणते चमुहारी ॥१॥ ऋ
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( २५८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ज्वादिक जिनराज गीत, नयतन विस्तारी ॥ भव कूपे पापे पडत, जगजन निस्तारो॥२॥पंचाचारी जीवके, आचारजपद सार॥ तिनकुं बंदे हीर धर्म, अटोत्तरसो वार ॥ ॥ इति आचार्यपदचैत्यवंदनम् ॥ ३॥
॥ अथ चतुर्थ श्रीउपाध्यायपद चैत्यवंदन ॥
॥धन धन श्री उवझाय राय, शठता घन भंजन ॥ जिनवर दिसत दुवालसंग, कर कृत जनरंजन ॥ १॥ गुणवण भंजण मण गयंद, सुय शणि किय गंजण ॥ कुणालंध लोय लोयणे, जत्थ य सुय मंजण ॥२॥ महा प्राणमें जिन लह्यो ए, आगमसे पद तुर्य ॥ तिनपे अहनिश हीर धर्म, बंदे पाठकवर्य ॥३॥ इति उपाध्यायपदचैत्यवंदनम् ॥४॥
॥अथ पंचम श्रीसाधुपद चैत्यवंदन ॥ ॥ दंसण नाण चरित्त करी,वर शिवपद् गामी ॥धर्म शुक्ल शुचि चक्रसे, आदिम खय कामी ॥१॥ गुण पमत्त अपमत्तते, भये अंतरजामी ॥मानस इंदिय दमनभूत, शम दम अभिरामी ॥२॥ चारु तिघन गुण गण भर्यो ए, पंचम पद मुनिराज ॥ तत्पदपंकज नमत है, हीरधर्मके काज ॥३॥ इति साधुपदचैत्यवंदनम् ॥५॥
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अथ चैत्यवंदनो ॥ (२५९) ॥ अथ षष्ठ श्रीदर्शनपद चैत्यवंदन ॥
॥ हुय पुग्गल परियह, अङ्क परमित संसार ॥ गंठिभेद तब करी लहे, सब गुणनो आधार ॥१॥क्षायक वेदक शशी असंख, उपशम पण वार विना जेण चारित्र नाण, नहीं हुवे शिव दातार ॥२॥ श्री सुदेव गुरु धर्मनी ए, रुचि लच्छन अभिराम ॥ दरशनकुं गणि हीर धर्म, अहनिश करत प्रणाम ॥३॥ इति दर्शनपदचैत्यवंदनम् ॥६॥
॥ अथ सप्तम श्रीज्ञानपद चैत्यवंदन ॥
॥ क्षिप्रादिक रस राम वह्नि, मित आदिम नाण ॥ भाव मिलापसे जिन जनित, सुय बीश प्रमाण ॥१॥ भवगुण पजव ओहि दोय, मण लोचन नाण ॥ लोकालोक सरूप जाण, इक केवल भाण ॥२॥ नाणावरणी नाशथी ए, चेतन नाण प्रकाश ॥ सप्तम पदमें हीर धर्म, नित चाहत अवकाश ॥ ५॥ इति ज्ञानपदचैत्यवंदनम् ॥७॥
॥अथ अष्टम श्री चारित्र पद चैत्यवंदन ॥
॥ जस्स पसाये साहु पाय, जुग जुग समितेंद ॥ नमन करे शुभ भाव लाय, फुण नरपति वृन्द ॥१॥ जपे
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(२६०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ धरी अरिहंत राय, करी कर्म निकंद ॥ सुमति पंच तीन गुप्ति युत, दे सुख अमंद ॥२॥ इषु कृति मान कषायथी ए, रहित लेश शुचिवंत ॥ जीव चरित्तकुंहीर धर्म, नमन करत नित संत ॥३॥ इति चारित्रपदचैत्यवंदनम् ॥४॥
॥ अथ नवम श्री तपपद चैत्यवंदन ॥
॥ श्री ऋषभादिक तीर्थनाथ, तद्भव शिव जाण ।। बिहि अंतैरपि बाह्य मध्य, द्वादश परिमाण ॥१॥ बसु कर मित आमोसही, आदिक लब्धि निदान ॥ भेदे समता युत खिणे, दृग्घन कर्म विमान ॥२॥ नवमो श्री तपपद भलो ए, इच्छारोध सरूप ॥ वंदनसें नित हीर धर्म, दूर 'भवतु भवकूप ॥३॥ इति तपपदचैत्यवंदनम् ॥ ४॥
॥ अथ श्रीसिद्धचक्रचैत्यवन्दनम् ॥
॥ श्री अर्हत्पदकाव्यम् ॥ इंद्रवज्रावृत्तम् ॥ जियंतरंगारिजणे सुनाणे, सप्पाडिहेराइसयप्पहाणे ॥ संदेहसंदोहरयं हरते,झाएह निच्चंपि जिणेऽरिहंते ॥१॥
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अथ चैत्यवंदनो॥ (२६१)
॥ श्री सिद्धपदकाव्यम् ॥ दुटकम्मावरणप्पमुक्के. अनंतनाणाइसिरीचउक्के ॥ समग्गलोगग्गपयप्प(स्थ )सिद्धे, झाएह निच्चंपि
मणमि सिद्धे ॥२॥
. ॥ श्रीउपाध्यायपदकाव्यम् ॥ न तं सुहं देइ पिया न माया, जं दंति जीवाणिह सूरिपाया ॥ तम्हा हु ते चेव सया महेह, जं मुक्खसुक्खाई लहुं लहेह ॥ ३॥
॥ श्रीआचार्यपदकाव्यम् ॥
सुत्तत्थसंवेगमयस्सुएणं, संनीरखीरामयविस्सुएणं ॥ पीणंति जे ते उवज्झायराए, झाएह निच्चंपि
कयप्पसाए ॥४॥ ॥ श्रीसाधुपदकाव्यम् ॥ खते अ दंते असुगुत्तियुत्ते, मुत्ते पसंते गुणजोगजुते । गयप्पमाए हयमोहमाए,झाएहनिच्चं मुणिरायपाए।।५॥
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(२६२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ श्रीसम्यग्दर्शनपदकाव्यम् ॥ जं दव्वछक्काइसुसदहाणं, तं दसणं सव्वगुणप्पहाणं । कुग्गाहवाहीउ वयंतिजेणं,जहा विसुद्धेण रसायणेणं ॥६॥
॥ श्रीसम्यग्ज्ञानपदकाव्यम् ॥ नाणं पहाणं नयचक्कसिद्धं, तत्तावबोहिक्कमयप्पसिद्धं । धेरेह चित्तावसहे फुरंतं, माणिक्कदीवुव्व तमो हरंत॥७॥
॥श्रीचारित्रपदकाव्यम् ॥ सुसंवरं मोहनिरोधसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं ॥ मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं,पालेह निच्चंपिहु संञ्चरित्तं ॥८॥
॥श्री तपःपद काव्यम् ॥ बझं तहभितरभेअमेअं, कयाश्टुब्भेअकुकम्मभेअं। दुक्खवखयत्थे कयपावनासं,तवं तवेहागमिअंनिरासं॥९॥
॥ इति नवपदकाव्यानि संपूर्णानि ॥
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नवपदनुं चैत्यवंदन.
सकळ मंगळ परम कमळा, केलि मंजुल मंदिरं; भवकोटिसंचित पापनाशन, नमो नवपद् जयकरं १ अरिहंत सिद्ध सूरीश वाचक, साधुदर्शन सुखकरं; वर ज्ञानपद चारित्र तप ए, नमो नवपद् जयकरं. अपिाळ राजा शरीर साजा, सेवतां नवपद् वरं; जगमांहि गाजा कीर्ति भाजा, नमो नवपद् जयकरं. ३ श्री सिद्धचक्र पसाय संकट, आपदा नासे सवे; वळी विस्तरे सुख मनोवांछित, नमो नवपद जयकरं. ४
आंबिल नव दिन देववंदन, व्रण टंक निरंतरं; बेवार पडिकमणां पलेवण, नमो नवपद जयकरं. त्रण काळ भावे पूजीए, भवतारकं तीर्थंकर; तिम गुणणुं दोय हजार गणीए, नमो नवपद जयकरं. ६ विधि सहित मन वचन काया, वश करी आराधीए; तप वर्ष साडाचार नवपद, शुद्ध साधन साधीए. ७ गद कष्ट चूरे शर्म पूरे, यक्ष विमलेश्वरवरं श्री सिद्धचक्र प्रताप जाणी, विजय विलसे सुखभरं. ८
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(२६४)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
नवपदनुं चैत्यवंदन.
श्री सिद्धचक्र आराधीए, आसो चैतर मास; नवदिन नव आंबिल करी, कीजे ओळी खास. केसर चंदन घसी घणां, कस्तुरी बरास; जुगते जिनवर पूजिया मयणा ने श्रीपाळ. पूजा अष्ट प्रकारनी, देववंदन त्रण काळ; मंत्र जपो त्रण काळ ने, गुणणुं तेर हजारं. कष्ट टळ्युं उंबर तणुं, जपतां नवपद ध्यान; श्री श्रीपाळ नरिंद थया, वाध्यो बमणो वान. सातसो कोढी सुख लह्यो, पाम्या निज आवास; पुण्ये मुक्तिवधु वर्या, पाम्या लीलविलास.
नवपदनुं चैत्यवन्दन, बार गुण अरिहंतना, तेम सिद्धना आठ; छत्रीश गुण आचार्यना, ज्ञानतणा भंडार. पचीश गुण उपाध्यायना, साधु सत्तावीश; श्यामवर्ण तनु शोभता, जिनशासनना ईश.
१ पांच परमेष्टिना १०८ अने ज्ञानना (५), दर्शनना (५), चारित्रना (१०) ने तपना (२) एम कुल १३० भेदनी एकेक नवकारवाळी गगती ( तेना १०० गगाता होवाथी ) १३००० गुणगुं थाय छे.
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अथ चैत्यवंदनो॥
(२६५)
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ज्ञान नमुं एकावने, दर्शनना सडसठ; सीत्तेर गुण चारित्रना, तपना बार ते जि. एम नवपद युक्ते करो, त्रण शत अष्ट (३०८) गुण थाय; पूजे जे भवो भावशु, तेहना पातक जाय. पूज्या मयणासुंदी, तेम नरपति श्रोपाळ पुण्ये मुक्तिनुख लह्या, वरत्या मंगळमाळ.
नवपदनुं चैत्यवन्दन ( ५ .
श्री सिद्धचक्र महा मंत्रराज, पूजा परसिद्ध जास नमनथो संपजे, संपूरण रिद्ध. अरिहंतादिक नवपद, नित्य नवनिधिदाता; ए संसार असार सार, होये पार विख्याता. अमराचल पद संपजे, पूरे मननां कोड; मोहन कहे विधियुत करो, जिम होय भवनो छोड. ३
॥ नवपद चैत्यवंदन ॥ ॥ जो धुरि सिरिअरिहंतमूलढपीढपइटिओ, सिद्ध सूरि उवज्झाय साहु चिहुं साहगरिडिओ॥ दसगनाण चरित्ततवहि पडिसाह सुन्दरु, तत्तक्खरसरवग्गलद्धिगुरुपयदल दुबरु ॥ दिसिवालजक्खजकिखणीपमुह सुर
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(२६६)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
कुसुमेहिं अलंकियओ,सो सिद्धचक्क गुरुकप्पतरु अम्ह मनवंछिय फल दिओ॥१॥
॥ पुनः नव पद चैत्यवंदन॥
श्रीअरिहंत उदार कांति, अतिसुन्दर रूप ॥ सेवो सिद्ध अनन्त शांत, आतमगुण भूप ॥१॥ आचारज उवझाय साधु, समतारस धाम ॥ जिनभाषितसिद्धांतशुद्ध, अनुभव अभिराम ॥ २ ॥ बोधिवाजगुणसंपदाए, नाणचरणतव शुद्ध ॥ ध्यावो परमानन्दपद्, ए नव पद अविरुद्ध ॥३॥ इह परभव आनन्दकंद, जग मांहि प्रसिद्धा ॥चिंतामाण सम जास जाग, बहुपुण्ये लद्धा ॥४॥ तिहुअणसार अपार एह, महिमा मन धारो ॥ परिहर परजंजालजाल, नित एह संभारो ॥५॥ सिद्धचक्रपद सेवतां, सहजानन्द स्वरूप ॥ अमृतमय कल्याणनिधि, प्रगटे चेतन भूप ॥६॥ इति श्रीसिद्धचक्रचैत्यवंदन संपूर्णम् ॥
॥ चैत्यवंदनम् ॥ ॥ श्री सिरि सिद्धचक्क नवपय महल्ल पढमिल्ल पय मय जिणंद असुरिंदै चिय पयपंकय नाह तुझ नमो ॥१॥ सिरि रिसहेसर सासिय फल दाण कप्पतरु कप्प कंदप्पगं
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अथ चैत्यवंदनो॥ (२६७) जण भवभंजण देव तुझ नमो ॥२॥ सिरि नाभि नाम कुलगर कुलकमलुल्लास परमहंस समअसम तमतम तमो भरहरणिकपईव तुझ नमो ॥ ३ ॥ सिरि मरुदेवासामिणि उददरी दरियकेसरिकिसोर घोरभुयदंड खंडियपयंड मोहस्स तुझ नमो ॥४॥ इख्खागुवंसभूसण गयदुसण दुरियमयगलमइंद चंदसम वयणवियसिय नीलुप्पल नयण तुझ नमो ॥५॥ कल्लाणकारणुं सम तत्तकणयकलससरिस संठाण कंठठिय कलकुंतल नीलुप्पलकालेय तुझ नमो ॥ ६॥ आईसर जोईसर लयगयमणलख्ख लक्खिय सरुव भवकूव पडिय जंतुतारण जिणनाह तुझ नमो ॥७॥ सिरि सिद्धसेलमंडण दुहखंडण खयरराय नयपाय. सयलमह सिद्धिदाय जिणनायग होउ तुझ नमो ॥८॥ तुझ नमो तुझ नमो तुझ नमो देव तुझ चेव नमो ॥ पणयसुररयणसेहर रुइरंजिय पाय तुझ नमो ॥९॥इति।।
॥ नवपद चैत्यवंदनम् ॥
. ॥ उप्पन्नसन्नाणमहोमयाणं, सप्पाडिहेरासणसंठियाणं ॥ सदसणाणंदियसजणाणं, नमो नमोहोउसया जिणाणं ॥१॥ सिद्धाणमाणंदमालयाणं, नमो नमोऽणंतचउकयाणं सूरीण दूरीकयकुग्गहाणं, नमो नमो सूरसमप्पहाणं ॥२॥ सुत्तत्थवित्थारणतप्पराणं, नमो नमो वायगकुंजराणं ॥.
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( २६८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
साहूण संसाहि असंजमाणं, नमो नमो सुद्धयादमाणं ॥३॥ जिणुत्ततत्ते ऋइलख्खणस्स, नमो नमो निम्मलदंसणस्स ॥ अन्नाणसंमोहतमोहरस्स, नमो नमो नागदिवायस्स ||४|| आराहिया खंडीयसक्किअस्स, नमो नमो संजयवीर - अस्स ॥ कम्ममोलण कुंजरस्स, नमो नमो तिव्वतवोभरस्स ||२|| इनवपयसिद्धं लद्धिविज्जासमिद्धं ॥ पयडियसुरवरगं, हाँतिरेहासमग्गं ॥ दिसवइसुरसारं, खोणिपीढावयारं ॥ तिजय विजयचक्क, सिद्धचक्कं नमामि ॥ ६ ॥ इति ॥
नवपदनुं चैत्यवंदन.
19
पहले दिन अरिहंतनुं नित्य कीजे ध्यान; बीजे पद वळी सिद्धनुं कीजे गुणगान. आचारज त्रीजे पढ़े जपतां जयजयकार; चोथे पदे उपाध्यायना, गुण गाओ उदारसकल साधु वंदो सही, अढीद्वीपमां जेह; पंचम पद आदर करी, जपजो घरी ससनेह. छठ्ठे पदे दर्शन नमो, दरिसण अजुआलो; नमो नाम पद सातंमे जिम पाप पखालो. आठ पद आदर करी चारित्र सुचंग; पद नवमे बहु तपतणो, फळ लीजे अभंग.
३
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अथ चैत्यवंदनो ॥
( २६९ )
एणीपरे नव पद भावशुंए, जपतां नव नव कोड; पंडित शांतिविजय तणो, शिष्य कहे करजोड.
६.
नवपदनुं चैत्यवंदन.
सुललित नवपद् ध्यानथी परमानंद लहीए; ध्यान अग्निथी कर्मना, इंधन पुण दहीए. इति भीति ने रोग शोक, सार्व दूर पणासे; भोग संजोग सुबुद्धिता, प्राप्त सुविलासे. सिद्धचक्र तप कीजतां ए, उत्तम प्रभुता संग; मोहन नाण प्रसिद्धता, गंगारंग तरंग.
श्री सिद्ध भगवाननुं चैत्यवंदन.
सिद्ध सकळ समरुं सदा, अविचळ अविनाशी: थाशे ने वळी थाय छे, थया अडकर्म विनाशी. लोकालोक प्रकाश भास, कहेवा कोण शूरो; सिद्ध बुद्ध पारंगत, गुणथी नहीं अधूरो. अनंत सिद्ध एणीपरे नमुं ए, वळी अनंत अरिहंत; ज्ञानविमळ गुण संपदा, पाम्या ते भगवंत.
१
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(२७०)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ सिद्धचक्रजी- चैत्यवंदन ॥
॥ श्री सिद्धचक्र आराधतां, सुख संपत्ति लहीए॥ सुरतरु सुररमणी थकी, अधिकज महिमा कहोए ॥१॥ अष्ट कर्म हाणी करी, शिवमंदिर रहीए ॥ विधिशुं नव पध्यानथी, पातिक सवि दमीए ॥२॥ सिद्धचक्र जे सेवशे, एकमना नर नार ॥ मनवांछित फल पामशे, ते सवि त्रिभुवन मोजार ॥ ३॥ अंग देश चंपापुरी, तस केरो भूपाल ॥ मयणा साथे तप तपे, ते कुंवर श्रीपाल ॥ ४ सिद्धचक्रजीना नमन थकी, जस नाठा रोग ॥ तत्क्षण त्यांथी ते लहे, शिवसुख संजोग ॥५॥ सातसें कोढी होता, हुवा निरोगी जेह ॥ सोवन वाने झलहले, जेहनी निरुपम देह ॥ ६॥ तेणे कारण तमे भविजनो, प्रह उठी भक्त ॥ आसो मास चैत्र थकी, आराधो जुगते ॥७॥ सिद्धचक्र त्रण कालना, वंदो वली देव ॥ पडिकमणुंकरी उभय काल जिनवर मुनि सेव ॥८॥ नवपद ध्यान हृदे धरो, प्रतिपालो भवि शाल ॥ नव पद् आंबिल तप तपो, जेम होय लीलम लील ॥९॥ पहेलो पद अरिहंतनो, नित्य कीजे ध्यान ॥ बाँजो पद वली सिद्धनो, करीए गुणग्राम ॥ १० ॥ आचारज त्रीजे पदे, जपतां जयजयकार ॥ चोथो पद उवझायनो, गुण गाउं उदार ॥ ११॥ सरव साधु वंदु सही, अढीद्वीपमा जेह ॥ पंचम पदमां ते सही, धरजो धरी स
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अथ चैत्यवंदनो॥ (२७१) नेह ॥ १२ ॥ छठे पदे दरसण नमुं, दरशन अजवालुं ॥ ज्ञान पद नमुं सातमे, तेम पाप पखालुं ॥१३॥ आठमे पद रुडे ज. चारित्र सुसंग ॥ नवमे पद बहु तप तपो जिम फल लहो अभंग ॥ १४॥ एही नवपद् ध्यानथी, जपतां नाठे कोड ॥ पंडित धीरविमलतणो, नय वंदे कर जोड ॥ १५॥ इति ॥
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॥जिन पूज्यानु चैत्यवंदन.
॥ प्रणमी श्री गुरुराज आज, जिनमंदिर केरो ॥ पुन्य भणी करशुं सफल, जिनवचन भलेरो ॥ देहरे जावा मन करे, चोथ तणुं फल पावे ॥ जिन जुहारवा उठतां, छठ्ठ पोते आवे ।। जइशुं जिनवर भणी ए, मार्ग चालंता ॥ होवे द्वादश तणुं पुन्य, भक्ति मालंता ॥ अध पंथ जिनवर तणो ए, पंदरे उपवास ॥ दीठो स्वामी तणो भुवन, लहीए एक मास ॥ जिनवर पासे आवतां, छमासी फल सिद्ध ॥ आव्या जिनवर बारणे, वर्षी तप फल लीध ॥ सो वर्ष उपवास पुन्य, प्रदक्षिणा देतां ॥ सहस वर्ष उपवास पुन्य, जे नजरे जोतां ॥ फल घणो फूलनी माल, प्रभु कंठे ठवतां ॥ पार न आवे गीत नाद, केरां फल स्थुणतां ।। शिर पूजी पूजा करो ए, सूर धूप तणो धूप ॥ अक्षर सार ते अक्षय, सुख दीप तनुरूप ॥ निर्मल तन मने करीए,
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( २७२ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
स्थूणतां इंद्र जगीश | नाटक भावना भावतां, पामे पदवी जगीश ॥ जिनवरभक्ति वली ए, प्रेमे प्रकाशी ॥ सुणी श्रीगुरु वयण सार, पूर्व ऋषि भाखी ॥ अष्ट कर्मने टालवा, जिनमंदिर जइशुं ॥ भेटी चरण भगवंतना, हवे निर्मल थइशुं ॥ कीर्त्तिविजय उवझायनो, विनय कहे कर जोड | सफल होजो मुज विनति, जिन सेवानुं कोड ॥ इति ॥
॥ चैत्यवंदन ॥
पहले दिन अरिहंतनुं, नित्य कीजे ध्यान । बीजे दिनवली सिद्धनुं, की जे गुणगान ||१|| आचारज श्री जे पदे, जपतां जयजयकार | चौथे पदे उवज्झायना, गुण गावो उदार ||२|| सकल साधु वंदो सही, अढी द्वीपमां जेह | पंचम पद आदर करी, जपजो धरी सनेह ॥ ३ ॥ छड्डे पदे दर्शन नमो, दरिसण अजुआळो । नमो नाणपद सातम, जिम पाप पखाली ||४|| आठमे पद आदर करी, चारित्र सुचंग | नवमे पद बहु तप तणो, फल लीजे अभंग ॥ ५ ॥ एणी परे नवपद भावसुं ए, जगतां नव नव कांड । पंडित 'शांतिविजय' तणो, शिष्य कहे कर जोड ॥६॥
॥ चैत्यवंदन ॥
पहिले पद अरिहंतना, गुण गाउं नित्ये । बजे सिद्ध तणा घणा, समरो एक चित्ते || १ || आचारज श्रीजे पदे,
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अथ चत्यवंदनो॥ (२७३) प्रणमो बिहु करे जोडी । नमिए श्रीउवज्झायने, चोथे पद् मोडी ॥२॥ पंचम पद सर्व साधुन, नमतां न आणो लाज । ए परमेष्ठी पंचने, ध्याने अविचल राज ॥३॥दसण शंकादिक रहित, पद छठे धारो। सर्व नाण पद सातमे, क्षण एक न विसारो ॥ ४ ॥ चारित्र चोऱ्या चित्तथी, पद अष्टम जपिए । सकल भेद विच दानमूल, तप नवमे तापिए ॥५॥ ए सिद्धचक्र आराधतां, पूरे वांछित कोड, सुमतिविजय कविराजनो, 'राम' कहे करजोड॥६॥
सिद्ध भगवान, चैत्यवंदन. जगत भूषण विगत दूषण, प्रणव प्राणनिरूपकं ॥ ध्यान रूप अनुपमोपम, नमो सिद्ध निरंजनं ॥ १॥ गगन मंडल मुक्ति पद्मं, सर्व ऊर्ध्व निवासनं ॥ ज्ञान ज्योति अनंत राजे ॥ नमो० ॥२॥ अज्ञान निद्रा विगत वेदन, दलित मोह निरायुषं ॥ नामगोत्र निरंतराय, ॥ नमो० ॥३॥ विकट क्रोधा मान योधा, माया लोभविसर्जनं ॥राग द्वेष विमर्दित अंकुरे, ॥ नमो० ॥ ४ ॥ विमल केवल ज्ञान लोचन, ध्यान शुक्ल समीरितं ॥ योगिनामिति गम्यरूपं ॥ नमो०॥ ॥५॥ योगमुद्रा सम समुद्रा, करी पल्यंकासनं ॥ योगिनामिति गम्यरूपं, ॥ नमो० ॥६॥ जगत जनके दास दासी, तास आश निरासनं ॥ योगिनामिति गम्यरूपं ॥ नमो० ॥ ॥७॥ समय समकित दृष्टिं जनकी, सोय योगी अयोगि
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(२७४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ कं॥ देखि तामें लीन होवे, ॥ नमो० ॥८॥ तीर्थसिद्ध अतीर्थसिद्धा, भेद पंच दशादिकं ॥ सर्व कर्म विमुक्ति चेतन, ॥ नमो० ॥९॥ चंद्र सूर्य दीप मणिकी, ज्योति तेने ओलंगिकं ॥ तज्यो तिथि कोई अपर ज्योति,॥ नमो ॥ १० ॥ एक माहे अनेक राजे, नेक मांहि एककं ॥ एक नेकी नहि संख्या, ॥ नमो० ॥ ११ ॥ अजर अमर अलख अनंतं, निराकार निरंजनं ॥ ब्रह्म ज्ञान अनंत दर्शन, ॥ नमो० ॥ १२ ॥ अचल सुखकी लहेरमां, प्रभु लीन रहे निरंतरं ॥ धर्म ध्यानथी सिद्ध दर्शन, ॥ नमो० ॥॥१३॥ ध्याने धूप मने पुष्प, पंच इंद्र हुताशनं ॥ क्षमा जाप संतोष पूजा, पूजो देव निरंजनं ॥ १४॥ नमो सिद्ध निरंजनं ॥ इति ॥
॥ चैत्यवंदन ॥ सिद्धचक्र महामंत्र राज, पूजाफल प्रसिद्धि । जास न्हवणथी संपजे, संपूर्ण ऋद्धि ॥ अरिहंतादि नवपदो, नित्य नवनिधि दाता॥ ए संसार असार पंथ,होये पार विख्याता ॥अचलाचलपद संपजे ए, प्होचे मननो कोड । मोह न कहे नवपद भणी, वंदु बेकर जोड ॥२॥
॥चैत्यवंदन॥ आसो चैत्र उद्योतपक्ष, नव दिवस निरंतर । आंबिल तप बेउ टंकना, प्रतिक्रमण सुहंकर॥त्रण काल अतिभा
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स्तवनो॥
(२७५) वसु, चैत्यवंन्दन कीजे । चैत्यप्रवाडी वीतराग, पूजा फल लीजे ॥ स्वामिवत्सल कीजीये ये, नवओली वृत्तांत । ऊजमणुं सिद्धचक्रतुं, मोहन महिमावंत ॥३॥इति॥
अथ स्तवनो.
. ॥श्री अरिहंतपद स्तवनम् ॥ ॥त्रीजे भव विधिसहितथी, वीश स्थानक तप करीने रे॥गोत्र तीर्थकर बांधीयुं, समकित शुद्ध मन धरीने रे॥ ॥१॥ अरिहंतपद नित वंदीए, करम काठन जिम छंडीए रे॥ ए आंकणी ॥ जनम कल्याणकने दिने, नारकी सुखीया थावे रे॥ मति श्रुत अवधि विराजता, जसु ओपम कोइ. नावे रे ॥१०॥ २॥ दीक्षा लीधी शुभ मने, मनःपर्यव आदरीयु रे ॥ तप करी कर्म खपाइने, ततखिण केवल वरीयुं रे॥०॥ ३॥ चउतीश अतिशय शोभता, वाणी गुण पेंतीशो रे ॥ अठदश दोष रहित थइ, पूरे संघ जगीशो रे अ०॥४॥ तन मन वयण लगाइने, अरिहंतपद आराधे रे ॥ ते नर निश्चयथी सही, अरिहंतपदवी साधे रे॥ अरिहंतपद नित वंदीए ॥५॥इति॥
॥श्री सिद्धपद स्तवनम् ॥ ॥ सकल करमनो क्षय करी, सिद्ध अवस्था पाइ रे ॥
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(२७६)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
गुण इगतसि विराजता, ओपम जस नहीं कांइ रे ॥ मन शुद्ध सिद्धपद वंदीए ॥१॥ ए आंकणी ॥ जनम मरण दुःख निर्गम्यां, शुद्धातम चिद्रूपी रे॥ अनंत चतुष्टय धारता, अव्याबाध अरूपी रे॥ मन० ॥२॥ जास ध्यान जोगीसरु, करे अजपा जापे रे ॥ भव भव संच्या जीवडे, कठिण करम ते कापे रे ॥मन०॥३॥ ध्यान धरंतां सिद्धन, पूजतां मनरागे रे ॥ अविचल पदवी पाइए, कयुं जिनवर वड भागे रे ॥ मन० ॥४॥इति॥
॥श्री आचार्यपद स्तवनम् ॥ ॥गुण छत्तीशे दीपता, पाले पंच आचारो रे ॥ जिनमारग साचो कहे. युगप्रधान जयकारो रे ॥ आचारजपद बंदीए ॥१॥ ए आंकणी॥ सारण वारण चोयणा, पडिचोयण चौ शिक्षा रे॥ भव्यर्जाव समझायवा, देवाने ते दक्षा रे ॥ आ०॥२॥ जिनवर सूरज आथम्या, परतिख दीपक' जेहा रे ॥ सकल भाव परगट करे, ज्ञानमयी जसु देहा रे ॥३॥ विधिशुं पूजा साचवे, ध्यावे निज हित जाणी रे पावे लघुतर कालमां, आचारजपद प्राणी रे ॥४॥इति॥
॥श्री उपाध्यायपद स्तवनम्॥ द्वादशांगी वाणी वदे, सूत्र अर्थ विस्तारे रे ॥ पंच वरग गुण जेहना, सुमति गुप्ति नित धारे रे ॥१॥ श्री उव झाया वंदीए ॥ ए आंकणी ॥ दायक आगम वाचना,
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स्तवनो ॥
(२७७ )
भेद भाव युत सारी रे ॥ मूरखकुं पंडित करे, जगतजन्तु हितकारी रे ||२|| श्री० ॥ शीतल चंद किरण समी, वार्णा जेहनी कहीए रे ॥ ते उवझाया पूजतां, अविचल सुखडां लहोए रे ॥३॥
॥ श्री साधुपद स्तवनम् ॥
॥ सकल विषय विष वारीने, आतमध्याने राता रे ॥ उपशम रसमां झीलता, निज गुण ज्ञाने माता रे ॥ १ ॥ हित घरी मुनिपद बंदीए ॥ ए आंकणी ॥ रत्नत्रयी आराधतां षट्रकाया प्रतिपाले रे | पंचिद्री जीपे सदा, जिनमारग अजुवाले रे ॥ हित० ॥ २ ॥ गुण सत्तावीश अलंकर्या, पंच महाव्रत धारी रे || द्वादशविध तप आदरे, चिदानंद सुखकारी रे ॥ हित० ॥ ३ ॥ नवविध ब्रह्मचारज धरे, करम महा भट जीत्या रे || एहवा मुनि ध्यावे सदा, ते नर जगत विदिता रे ॥ हित० ॥ ४ ॥ इतेि ॥
॥ श्री दर्शनपद स्तवनम् ॥
॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनी, सहहणा चित्त घरीए रे ॥ सात प्रकृतिनो क्षय करी, क्षायिक समकित वरीए रे ॥१॥ दरसणपद नित वंदीए ॥ ए आंकणी ॥ इण विण ज्ञान निःफल कयुं, चारित्र निःफल जाये रे ॥ शिवसुख ए विण ना मीले, बहु संसारी थाय रे ॥ ५० ॥ २ ॥ सडसठ्ठी भेदे शोभतुं, अजरामर फल दाता रे || जे नर पूजे भावसुं ते पामे सुख शांता रे || दशणपद० ॥ इति ॥
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(२७८). नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
॥ श्री ज्ञानपद स्तवनम् ॥ भक्ष्य अभक्ष विचारणा, पेय अपेय निर्धारो रे ॥ कृत्य अकृत्यने जाणीए, ज्ञान महा जयकारोरे॥१॥ ज्ञान निरंतर वंदीए ॥ ए आंकणी ॥ ज्ञान विना जयणा नहीं, जयणा विण नहीं धर्मो रे ॥ धर्म विना शिवसुख नहीं, ते विण न मिटे भमों रे ॥ज्ञान॥२॥ पांच प्रकार छे जेहना, भेद इकावन तासो रे ॥ जा. णीने पूजे सदा, ते लहे केवल खासो रे ज्ञान० ॥३॥ इति ॥
श्री चारित्रपद स्तवनम् ॥ सर्व विरति देशविरतिथी, अणगार सागारी रे ॥ जयवंतो थावो सदा, ते चारित्र गुणधारी रे ॥१॥ चारित्रपद नित वंदीए ॥ ए आंकणी ॥ षट् खंड सुख तजी आदरे,संयम शिवसुखदायी रे॥ सत्तर भेदे जिन कह्यो, ते आदरीए भाइ रे ॥ चा० ॥२ ॥ तत्वरमण तसु मूल छे, सकल आश्रवनो त्यागी रे ॥ विधि सेती पूजन करे, भाव धरी वड भागी रे ॥ चा०॥३॥इति।
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(२७९)
स्तवनो ॥
॥ श्री तपपद स्तवनम् ॥ निज इच्छा अवरोधीए, तेहीज तप जिन भाख्युं रे ॥ बाह्य अभ्यंतर भेदथी, द्वादश भेदे दाख्युं रे ॥१॥ अनुपम तपपद वंदीए | ए आंकणी ॥ तद्भव मोक्षगामीपणुं, जाणे पण जिनराया रे ॥ तप कीधा अति आकरां, कुत्सित करम खपायां रे ॥ अ० ॥ २ ॥ करम निकाचित क्षय हुवे, ते तपने परभावे रे ॥ लब्धि अठयावीश उपजे, अष्ट महासिद्धि पावे रे ॥ अ० ॥ ३ ॥ एहवुं तपपद ध्यावतां, पूजंतां चित्त चाहे रे ॥ अक्षय गति निर्मल लहे, सहु योगींद सराहे रे ॥ अ० ४ इति ॥ सिद्धचक्रनुं स्तवन.
तप
नवपद धरजो ध्यान, भविजन नवपद धरजो ध्यान; ए नवपदनुं ध्यान करंतां, पामे जीव विश्राम, भवि जन० ॥ ॥ १ ॥ अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक, साधु सकळ गुणखाण, भवी० ॥ २ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए उत्तम, तो करी बहुमान, भवी० ॥ ३ ॥ आशो चैत्रनी शुदि सातमधी, पूनम लगी प्रमाण, भवी० ॥ ४ ॥ एम एकाशी आंबिल कीजे, वरस साडा चारनुं मान, भवी० ॥ ५ ॥ पडिक्कमणां दोय टंकनां कीजे, पडिलेहण बे वार. भवी०
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(२८०) नवपद विधि विगेरे संग्रह । ।६। देववंदन त्रण टंकनां कीजे, देव पूजो त्रिकाळ.भवी० ॥७॥बार आठ छत्रीश पचवीशनो, सत्तावीश सडसठ सार, भवी० ॥ ८॥ एकावन सीत्तर पचासनो काउस्सग्ग करो सावधान. भवी० ॥९॥ एक एक पदनुं गुणगुं, गणीए दोय हजार, भवी० ॥ १०॥ एणे विधि जे ए तप आराधे, ते पामे भव पार, भवी० ॥ ११ ॥ कर जोडी सेवक गुण गावे, मोहन गुण मणिमाळ, भवी० ॥१२॥ तास शिष्य मुनि हेम कहे छे, जन्म मरण दुःख टाळ. भवी० ॥१३॥
सिद्धचक्रनुं स्तवन. सिद्धचक्रने भजीए रे, के भवियण भाव धरी, मद मानने तजीए रे, के कुमति दूर करी; पहेले पदे राजे रे, के अरिहंत श्वेततनु, बीजे पदे छाजे रे, के सिद्ध प्रगट भj. त्रीजे पदे पीळा रे, के आचार्य कहीए; चोथे पदे पाठक रे, के नील वर्ण लहीए. सिद्ध पांचमे पदे साधु रे, के तप संयम शूरा; श्याम वर्णे सोहे रे, के दशन गुण पूरा. सिद्ध० ३ दर्शनज्ञान चारित्र रे, के तप संयम शुद्ध वरो; भवियण चित्तआणी रे, के हृदयमांध्यान धरो. सिद्ध०४ सिद्धचक्रने ध्याने रे, के संकट वर्ण टळे; कहे गौतम वाणी रे, के अमृत पद पावे. सिद्ध०५
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स्तवनो ॥
सिद्धचक्रनुं स्तवन.
सिद्धचक्र सेवो रे प्राणी, भवोदधिमांहे तारक जाण; विधिपूर्वक आराधोजे, जिम' भवसंचित पातक छीजेसिद्ध० ॥ १ ॥ प्रथम पदे अरिहंत, बीजे पदे वळी सिद्ध भगवंत; बीजे पदे आचार्य जाणुं, चोथे पद उपाध्याय वखाणुं ॥ सिद्ध० ॥२॥ पांचमे पदे सकल मुनींद्र, छठ्ठे दर्शन शिवसुख कंद; सातमे पदे ज्ञान विबुध, आठमे चारित्र धार विशुद्ध ॥ सिद्ध० || ३ || नवमे पद तप सार, एक एक पद जपो दोय हजार; नव आंबिल ओळी कीजे, त्रण काळ जिनने पूजीजे ॥ सिद्ध० ||४|| देववंदन त्रण वार, पडिकमणुं पडिलेहणं धार; रत्नं कहे एम आराघो श्रीपाळ मयणा जिम सुख साधो. सिद्ध० ॥ ५ ॥
सिद्धचक्रनुं स्तवन.
( २८१ )
( सांभळ रे तुं सजनी मोरी, रजनी क्यां रंमी आवीजी रे ए देशी )
सिद्धचक्र वर सेवा कीजे, नर भव लाहो लीजे जी रे; विधि पूर्वक आराधन करतां, भव भव पातक छीजे ॥१॥ भविजन भजीये जी रे, अवर अनादिनी चाल, नित्य नित्य तजीए जो रे || ए टेक || देवनो देव दयाकर ठाकर, चाकर सुर नर इंदा जी रे; त्रिगडे त्रिभुवन नायक बेठा,
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(२८२)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
प्रणमो श्री जिन चंदा. भवि० ॥ २ ॥ अज अविनाशी अकळ अजरामर, केवल दंसण नाणीजी रे; अव्याबाध अनंतु वीरज, सिद्ध प्रणमो भवी प्राणी. भवि० ॥३॥ विद्या सौभाग्य लक्ष्मी पीठ, मंत्र योगराज पीठजी रे; सुमेरु पीठ पंच प्रस्थाने, नमुं आचारज हीठ. भवि० ॥ ॥४॥ अंग उपांग नंदी अनुयोगा, छ छेद ने मूळ चारजी रे, दस पयन्ना एम पणयालीस, पाठक तेहना धार. भवि० ॥५॥ वेद व्रण ने हास्यादिक षट, मिथ्यात्व चार कषायजी रे; चौद अभ्यंतर नवविध बाह्यनी, ग्रंथि तजे मुनिराय. भवि० ॥६॥ उपशम क्षय उपशम ने क्षायक. दर्शन त्रण प्रकारजी रे; श्रद्धा परिणति आत्मा केरी, नमीए वारंवार. भवि० ॥७॥ अठ्ठावीश चौद ने षट दुग इम, मत्यादिकना जाणोजी रे; एम एकावन भेदे प्रणमो, सातमे पद वर नाण. भवि० ॥ ८॥ निवृत्ति ने प्रवृत्ति भेदे. चारित्र छे व्यवहारजी रे निजगुण स्थिरताचरण ते प्रणमो, निश्चय शुद्ध प्रकार. भवि० ॥९॥ बाह्य अभ्यंतर तप ते संवर, समता निर्जरा हेतु जी रे ते तप नमीए भाव धरीने, भवसायरमां सेतु. भवि० ॥१०॥ ए नवपदमा पण (५) छे धर्मी, धर्म ते वरते चारजी रे; देव गुरु ने धर्म ते एहमां, दोय त्रण चार प्रकार. भवि० ॥११॥ मार्गदेशक अविनाशीपणुं, आचार विनय संकेते जी रे; सहायपणुं धरतां साधु जी, प्रणमो एह ज हेते. भवि० ॥ १२ ॥ विमळेश्वर
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स्तवनो॥
(२८३)
सांनिध्य करे तेहनी, उत्तम जे आराधेजी रे; पद्मविजय कहे ते भवी प्राणी, निज आतमहित साधे. भवि० ॥१३॥
श्री सिद्धनुं स्तवन. सिद्ध जगत शिर शोभता, रमता आतमरामलक्ष्मी लीलानी लहेरमां, सुखीआ छे शिव ठाम. सि० ॥१॥ महानंद अमृत पद नमो, सिद्धि केवळ नाम; अपुनर्भव ब्रह्मपद वळी, अक्षय सुख विशराम. सि० ॥२॥ संश्रय निश्रय अक्षरा, दुःख समस्तनी हाण; निवृत्ति अपवर्गता, मोक्ष मुक्ति निर्वाण. सि० ॥३॥ अचळ महोदय पद लघु, जोतां जगतना ठाठ; निज निज रूपे रे जुजुआ, वीत्या कर्म ते आठ. सि०॥ ४ ॥ अगुरुलघु अवगाहना, नामे विकसे वदन; श्री शुभ वीरने वंदता रहीए सुखमां मगन. सि० ॥५॥
__ श्री सिद्धचक्रनुं स्तवन. ___ ( राग-नींदरी वेरण हुइ रही-ए देशी )
श्री सिद्धचक्र आराधीए, जिम पामो हो भवि कोडि कल्याण के श्री श्रीपाळतणी परे, सुख पामो होलही निर्मळ नाण के. श्री सि० ॥१॥ नवपद् ध्यान धरो सदा, चोखे चित्ते हो आणी बहु भाव के; विधि आराधन साचवो, जिम जगमा हो होय जसनो जमाव के. श्री सि० ॥२॥ केशर चंदन कुसुमशु, पूजीजे हो उखेबी धूप के; कुंद
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(२८४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ .. अगर ने अरगजा, तपदिन तां हो कीजे घृतदीप के. श्री सि० ॥३॥ आशो चैत्र शुक्ल पक्षे, नव दिवसे हो तप कीजे एह के; सहज सोभागी सुसंपदा, सोवनसम हो झबके तस देह के. श्री सि० ॥ ४॥ जावजीव शक्ते करो, जिम पामो हो नित्य नवला भोग के; चार वरस साडा तथा, जिनशासन हो ए मोटो योग के. श्री सि० ॥५॥ विमळदेव सांनिध्य करे, चक्रेश्वरी हो करे तास सहाय के श्री जिनशासन सोहीए, एह करतां हो अविचळ सुख थाय के. श्री सि०॥६॥ मंत्र तंत्र मणि औषधि, वश करवा हो शिवरमणी काज के त्रिभुवन तिलकसमोवडी, होय ते नर हो कहे नय कविराज के, श्री सि० ॥७॥
श्री नवपदनुं स्तवन. नरनारीरे भमतां भव भरदरीए, नवपदनुं ध्यान सदा धरीए, सुखकारीरे, तो शिवसुंदरी वरीए, नवपदनुं ध्यान सदा धरीए. ॥१॥ पहेले पद् श्री अरिहंत रे, करी अष्ट रिपुनो अंत रे, थया शिवरमणीना कंत रे, पद बीजे रे सिद्ध भजी दुःख हरीए रे; नवपदनुं ध्यान सदा धरीए; सुखकारी रे० ॥२॥ आचार्य नमुं पद बीजे रे; चोथे पद पाठक लीजे रे; प्रीतेथी पाय प्रणमीजे रे; पद पांचमे रे मुनि महाराज उच्चरीए रे, नव० ॥३॥ छठे पद दर्शन जाणुं रे, ज्ञान गुण मुख्य वखाणुं रे, आ जगमा जे खरं
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स्तवनो॥
(२८५)
नव० ॥४॥ नाणुं रे, बहु खरचो रे तोए न खुट जरीए रे, चारित्र पद नमुं आठे रे, नवमे तप करो बहु ठाठे रे, दुःख दारिद्रय जेहथी नाठेरे, जिनवरनी रे प्यारथी पूजा करीए रे, नव० ॥५॥ नव दिन शियळ व्रत पाळो रे, पडिक्कमण करी दुःख टाळो रे, जेम चंपापति श्रीपाळो रे, मनमाही रे शंका न राखो जरीए, नव०॥६॥ ओगणीश अठ्ठावन वर्षे रे; पोष मास पुनम तिथि फरसे रे, भावे गावे ते भव नवि फरसे रे, निभर्यथी रे धर्म कहे भव तरीए रे, नव० नव० ॥७॥
श्री सिद्धचक्रनुं स्तवन,
(जगजीवन जग वाल हो. ए राग.) श्री सिद्धचक्र आराधीए, शिवसुख फळ सहकार लाल रे ज्ञानादिक त्रण रत्ननु, तेज चढावणहार लाल रे. श्री सि०॥१॥ गौतमे पूछता कह्यो, वीर जिणंद विचार लाल रे; नवपद मंत्र आराधतां, फळ लहे भविक अपार लाल रे. श्री सि० ॥२॥ धर्म रथना चार चक्र छे, उपशम ने सुविवेक लाल रे संवर त्रीखं जाणीए, चो) सिद्धचक्र छेक लाल रे, श्री सि०॥॥ चक्री चक्र ने रथ बळे, साधे सयल छ खंड लाल रे तिम सिद्धचक्र प्रभावी, तेज प्रताप अखंड लाल रे, श्री सि० ॥४॥ मयणा ने श्रीपाळजी,
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(२८६) नवपद विधि विगेरे संग्रह । जपतां बहु फळलीध लाल रे; गुण जसवंत जिनेंद्रनो, ज्ञान'विनोद प्रसिद्ध लाल रे, श्री सि० ॥५॥
श्री नवपदनुं स्तवन.
नवपद ध्यान सदा जयकारी. ए आंकणी. अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक, साधु देखो गुणरूप उदारी, नव० ॥१॥ दर्शन ज्ञान चारित्र हे उत्तम, तप दोय भेदे हृदय विचारी, नव०॥२॥ मंत्र जडी ओर तंत्र घणेरा, उन सबकुं हम दूर विसारी, नव० ॥३॥ बहोत जीव भवजलसें तारे, गुण गावत हे बहु नरनारी, नवर ॥४॥ श्री जिनभक्त मोहन मुनिवंदन, दिन दिन चढते हर्ष अपारी, नव० ॥५॥
श्री सिद्धचक्रनुं स्तवन. (सांभळ रे तुं सजनी मारी, रजनी कयां रमी
आवी जी रे. ए देशी.) श्री वीर प्रभु भविजनने एम कहे, भावदया दिल आणीजी रे. सुरतरु सम सिद्धचक्र आराधो, वरवा शिववधु राणी, सुभविया सुणजोजी. ॥१॥ शिव कार्यमुख्य कारण नवपद छे, गुणी गुण पण चारजी रे; अरिहंत सिद्ध सूरि उवझाये, साधु वर दर्शनधार, सुभवि० ॥२॥ ज्ञान चारित्र तप ए नव पद्नु, आराधन एणीपरे कीजेजी
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स्तवनो ||
( २८७ )
रे; आसो चैत्र शुदि सातमथी, आंबिल ओळी मांडीजे, सुभवि० ॥ ३ ॥ चैत्यपूजा गुरुभक्ति करीए, पडिकमणां दोय धारोजी, ऋण काळ देववंदन करीए, ब्रह्मचर्य भूमि संथारो, सुभवि० ॥ ४ ॥ नोकारवाळी वीराज गणीए, एकेक पदनी रंगेजी रे; पडह अमारि सदा वजडावी, सुणो आगम गुरु संगे, सुभवि० ॥ ५ ॥ कहे धर्मचंद सिद्धचक्र सेवतां लहीए मंगल मालाजी रे; राज्यऋद्धि रमणी सुख पाम्यो, जेम नरपति श्रीपाळ, सुभवि० ॥ ६॥
G
श्री सिद्धचक्रनुं स्तवन,
( तम पितांबर पहेर्याजी मुखने मरकलडे - ए देशी ) श्री सिद्धचक्रने वंदोजी, मनोहर मनगमतां, अविचळ सुखनो कंदोजी, म० मास आसोए मधुरे सोहावेजी, म० भवि आदरो तमे भले भावेजी, म० ॥ १ ॥ नव आंबिल तप कीजेजी, म० तो अविचळ सुखडां लीजेजी, म०; शुदी सातमधी तमे मांडीजे, म० घरना आरंभ सविछांडी जी, म० ॥ २ ॥ पहेले पदे अरिहंत सेवाजी, म० आपे मुक्तिना मेवाजी, म० बीजे पदे सिद्ध सोहावेजी, म० मन शुद्धे पूजो भले भावेजी, म० ॥ ३ ॥ आचार्य श्रीजे पदे नमो जी म० तमे क्रोध कषायने दमो जी, म० उवझाय ते
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(२८८)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
चोथे वंदोजी, म. साधु पांचमे देखी आणंदोजी म० ॥४॥ छठे दरिसणं जाणोजी, म०, श्री ज्ञानने सातमे वखाणोजी म. चारित्र पद आठमे सोहेजी, म० वळी नवमे तप मन मोहेजी, म०॥५॥ रस त्यागे आंबिल कीजेजी, म० तो मुक्तितणां फळ लीजे जी, म० संवत्सर युग (४) षट (६) मासे जी, म० ते तप कीजे उल्लासे जी, म० ॥६॥ ए तो मयणा ने श्रीपाळजी, म तप कीधो थइ उजमाळ जी, म० तेनो कोढ शरीरनो टाळ्यो जी, म० जगमां जशवाद प्रगटायोजी, म० ॥७॥ पंचम काळे तुमे जाणोजी, म० प्रगट परचो परमाणोजी, म० अनुं गुणणुं बे हजार जी, म० तमे धरो हृदय मोझार जी, म० ॥८॥ नर नारी ए पदने घ्यावे जी, म० ते तो संपद सघळी पावे जी, म° मुनि रत्नसुंदर सुपसायजी, म. सेवक मोहन गुण गायजी, मनोहर मनगमतां ॥९॥
श्री नवपदर्जानुं स्तवन, गोयम नाणी होके, कहे सुणो प्राणी मारा लाल, जिनवर वाणी होके, हइडे आणी मारा लाल; आसो मासे होके, गुरुनी पासे मारा लाल, . नवपद् ध्याशे होके, अंग उल्लासे मारा लाल.
आंबिल कीज होके, जिन पूजीजे मा०, जाप जपीजे होके. देव वांदीजे मा०; भावना भावो होके, सिद्धचक्र ध्यावो मा०,
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॥ स्तवनो ॥
जिन गुण गावो होके, शिवसुख पावो मा० . श्री श्रीपाळ होके, मयणा बाळे मा०, ध्यान रसाळे होके, रोगज टाळे मा०: सिद्धचक्र ध्यायो होके, रोग गमायो मा०, मंत्र आराध्यो होके, नवपद पायो मा० . भामिनी भांळी होके, पहेरी पटोळी मा०, सहियर टोळी होके, कुंकुंम घोळी मा०; थाळ कचोळी होके, जिनघर खोली मा०, पूजी प्रणमी होके, कीजे ओळी मा०. चैत्रे आसो होके. मनने उल्लासे मा०, नवपद ध्याशे होके, शिवसुख पाशे मा०; उत्तमसागर होके, पंडित राया मा०, सेवक कांते हो; बहु सुख पाया मा० . श्री नवपद्जीनुं स्तवन.
( २८९ )
MAMAMMA
नवपद महिमा सार, सांभळजो नर नार, आछे लाल, हेज घरी आराधीएजी; तो पामो भव पार, पुत्र कल परिवार, आछे०, नव दिन मंत्र आराधीएजी. ॥ १ ॥ ए आंकणी. आसो मास सुविचार, नव आंबिल निरधार, आछे०, विधिशुं जिनवर पूजीएजी; अरिहंत सिद्ध पद सार, गणुं तेर हजार, आछे०, नव पद महिमा कीजीएजी. ॥ २ ॥ मयणा सुंदरी श्रीपाळ, आराध्यो तत्काळ, आछे० फळदायक तेहने थयोजी, कंचन वरणी
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(२९०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ काय. देहडी तेहनी थाय, आछे०, श्री सिद्धचक्र महिमा कह्यो जी. ॥३॥ सांभळी सहु नर नार, आराध्यो नवकार, आछे०, हेज धरी हैडे घणुंजी; चैत्र मास वळी एह, नवपद शुं धरो नेह, आछे०, पूज्यो दे शिवसुख घj जी.॥४॥ एणी परे गौतम स्वाम, नव निधि जेहने नाम, आछे०, नवपद् महिमा वखाणीएजी; उत्तमसागर शिष्य, प्रणमे ते निशदीश, आछे०, नवपद् महिमा जाणीए जी. ॥५॥
श्री नवपदजीनुं स्तवन.
(कीसके चेले कीसके पुत. ए देशी.) सेवोरे भवि भावे नवकार, जप श्री गौतम गणधार, भवि सांभळो, हारे संपद थाय भ०हारे संकट जाय भ०, आसो ने चैत्रे हरख अपार, गणणुं कीजे तेर हजार. भ. ॥१॥ चार वर्ष ने वळी षट् मास, ध्यानधरो भवी धरी विश्वास, भ०; ध्यायो रे मयणासुंदरी श्रीपाळ, तेहनो रोग गयो तत्काळ. भ० ॥२॥ अष्ट कमल दल पूजा रसाल, करी न्हवण छांट्युं तत्काल, भ०; सातसो महीपति तेहने रे ध्यान, देहडी पाम्या कंचनवान. भ० ॥३॥ महिमा कहेतां नावे पार, समरो तिण कारण नवकार, भ०; इह भव परभव दीए सुखवास, पामे लच्छी लीलविलास.
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॥ स्तवनो ॥
( २९१ ) भ० ॥ ४ ॥ जाणी प्राणी लाभ अनंत, सेवो सुखदायक ए मंत्र, भ०; उत्तमसागर पंडित शिष्य, सेवे कांतिसागर निशदीश. भ० ॥ ५ ॥
श्री सिद्धचक्रजी स्तवन.
( कृपानिधि वीनती अवधारी, ए चाल . ) सिद्धचक्र वंदो जयकारी । हुंतो वारी जाउं वार हझारि, सिद्ध० । अरिहंत १ सिद्ध २ गुणधारी । आचारज उपगारी । उवजाय ४ सकल अणगारी ५ । सि० ॥ १ ॥ वरदरशण ६ नाण ७ जीतारी । सुखकरण चरण-हितकारी । शमरस युत तप ९ चित्तधारी सि० ॥ २ ॥ ए नवपद दुरित विदारी । वळि सहु जगजन मनहारी । तुमे सेवो नित निरधारी सि० ॥ ३ ॥ नवपद सहु सुर नर राया | वंदे नितचित गुणलाया । एतो अशरणशरण कहाया, सि० ॥ ४ ॥ नवपद् भवजलधि जिहाझा । ए सकल भुवनमहाराजा । नितचित धरिये हितकाजा, सि० ॥५॥ अगणित जग जीउ उदारा | नवपद समरण उर धारा । भये मुगति रमाभरतारा | सि० ॥ ६ ॥ नवपद सेवी सुखकंदा | भया ते सिरिपाल नरिंदा, नित लहीया
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( २९२ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
परम आनंदा ॥७॥ सि० ॥ नवपदके महिमा उदारा। कोइ पाम न शके पारा। कितने कहुं गुण विसतारा ॥ ८ ॥ पार्श्व प्रभु अंतरजामी । तसु चरण अनुग्रह पामी ॥ शिवचंद्र नमे शिरनामी, सि० ॥ ९ ॥ श्रीसिद्धचक्रजी स्तवन
( मातारे यशोदाजी म्हने चांदलीयो आपो ) ए देशी । पूजोरे सिद्धचक्रने भावे वाञ्छित आपे, नरभव पामी लाहो लीजे भवदुःख कापे ॥ १ ॥ ए आंकणी | पहीले पदे अरिहंत जपीजे, बीजे वली श्रीसिद्ध, त्रीजे आचारज बीम समरो, आप गुणे वृद्ध ॥ १ ॥ पूजोरे ॥ १ ॥ चोथे पदे उवज्झाय जपीजे पांचमे साधु, छट्टे दर्शन सातमे नाण भक्ते आराधु ॥ २ ॥ ५० ॥ आठ पद चारित्र नमीजे, नवमे तप तीम, ए नवपद भावे आराध्या श्रीपाले जीम ॥ ३ ॥ पूजोरे ॥ मन वच तनु त्रिहुं शुद्धि कीजे पडिक्कमणां दोय, देवत्रिकाले वंदो तीम वली, पूजा त्रिण होय ॥ ४ ॥ पूजोरे ॥ गु
तेर सहस उत्कृष्ट अथवा दोय सहस, भूमि सं
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॥ स्तवनो॥
(२९३) थारो शीलने पालो, जिनशासन, रहस्य ॥५॥ पूजोरे इम ओली नवकीजे, विधिश्युं चढते उच्चाह्य, द्रव्य भाव बेहुस्युं साढा चार वरस माह्य ॥ ६ ॥ पूजोरे ॥ तप पूरे ऊजमणुं कीजे, तुरत यथाशक्ति दर्शन जैन, जिम षटमां दीपे देखालीबिगते ॥७॥पूजोरे० लघुकर्माने क्रिया फल दिये सफलो उवएस, सेर होय तिहां कूवो खणीये ते विण संक्लेश ॥ ८॥ पूजोरे ॥ सफल हवो श्रीपालने. सवि जस अव्य भाव शुध्ध, इम जो विधिस्युं आराधे, फल पामे बुद्ध ॥ ९॥ पूजोरे ॥ एहथी राजऋद्धि बह रमणी,सवि गुणनी वृद्धि, न्याय सागर कहे एहने, सेवो जो व्हाली सिद्धि ॥ १० ॥ प्रजोरे ॥ इति श्रीसिद्धचक्र स्तवन संपूर्णम
श्री सिद्धचक्र स्तवन ॥ श्री सिद्धचक्र सेवा करो, जस गाजे छे सिध्ध साधन पुष्ट उपाय, त्रिभुवन राजे छे कारण शिव साधन तणां, जस गाजे छे संख्यातीत कहेवाय
, ॥१॥
के स्तवन संपूर्णम् ॥
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(२९४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ कारण सर्व शिरोमणि जस गाजे छे जीहां लहीये तत्त्वविचार त्रिभुवन राजे छे धर्मी पांच सोहामणां , तिहां लहीये तत्त्वविचार वर्जित दोष अढारथी , अड प्रातिहार्य धार चोत्रीस अतिशय राजतो , गुण पांत्रीश वाणी उदार गुण ठाणे तेरमे तथा , चौदमे वरते जिनराज देवतत्त्व अरिहंतजी , प्रणमो भवि आतमकाज आठ कर्मक्षयथी थया , गुण अड एकत्रीश विशाल अव्याबाध सुखी घणा , जस सादि अनंतह काल जाणे लोकालोकने पण नवि हरखे नवि शोच
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॥ स्तवनो॥
(२९५)
ते पण देव अनंत छ जस गाजे छे एक ठामे नवि संकोच त्रिभुवन राजे छे ६ छत्रीस छत्रीशी गुणे , गुरु तत्त्वमा मुख्य कहाय तीर्थकर सम तेह छे , गौतम प्रमुख सूरि राय सूरि सम पाठक वळी पण वीस गुणवंत महंत सयल जीव उपगारीया प्रणमो गुरुपद विरतंत शिवमारग साधक मुनि , करे अरस विरस आहार ते पण गुरु तत्वे नमो , गुण सत्तावीश आधार समकीत सडसठ भेदथी , आराधो थर उजमाल भेद एकावन नाणना समझो गुरुनिकट रसाल
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(२९६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ सित्तर भेद चरण तणा जस गाजे छे तिम तपना भेद पचास त्रिभुवन राजे छे धर्मतत्त्व ए चारमा " वंदो आणी उल्लास इण परे वहुविध अवतरे , साधन नवपदमा सार गुण कुण कही शके एहना , जो होय मुख जीभ हजार विधिपूर्वक आराधतां , लहे जिम शिव श्रीपाळ जिन उत्तम गुण गावतां , इम पद्मने मंगल माळ __स्तवन बी. मुजरो ल्योने जालीम जाटनी ए देशी.
तत्त्व ते त्रण्य छे जेहमां, देव गुरुनेरे धर्म,श्रीसिक चक्रने जाउं भामणे, आंकणी॥धीं धर्मवली एहमां जे जिनशासनमर्म ॥१॥चोत्रीश अतिशय राजतो, वाणी गुणरे पांत्रीश। अरिहादेव पहेले पदे,विवरे छे जेह वीस॥
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( २९७ )
॥ स्तवनो । ॥ श्रीरुपातीत परमातमा, गुण वरीया एकत्रीश, वेदी ज लोकालोकना, प्रणमो तास गुणीश ॥ ३ ॥ श्री० गुणछ त्रीश सूरि नमो, छत्रीस छत्रीशी जास । पाठक गुणपचवीसी, भणीये सूत्र जई पास ||४|| श्री० गुण सत्तावीश धारजे, सुनिवर नमिये उल्हास, सम्यग्दर्शन पद छठे, भलुं सातमे. नाणविलास ॥ ५ ॥ श्री० चारित्र आठमे जाये नवमे तवगुण खाण, आराधो भवि एहने, जीम हो कोड का ||६|| श्री ० शिवलहीये एह साधता, जीम जग कुंवर श्रीपाल, उत्तमविजय कृपाथकी, पद्मने मंगल माल ॥ ७ ॥ इति स्तवनम् ॥
॥ अथ नवपद् स्तवन ॥
॥ सुरमणीसम सहु मंत्रमां, नव पद अभिरामी रे लोय ॥ अहो नव० ॥ करुणासागर गुणनिधि, जग अंतरजामी रे लोय ॥ अहो ० जग० ॥ १ ॥ त्रिभुवन जन पूजित सदा, लोकालोकप्रकाशी रे लोय ॥ अहो लोका० ॥ एहवा श्री अरिहंतजी, नमुं चित्त उल्लासी रे लोय ॥ अहो न० ॥ २ ॥ अष्ट करमदल क्षय करी,
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( २९८ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
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थया सिद्ध सरूपी रे लोय ॥ अहो न० ॥ सिद्ध नमो भवि भावथी, जे अगम अरूपी रे लोय | अहो जे० ॥ ३ ॥ गुण छत्तीसे शोभता, सुंदर सुखकारी रे लोय ॥ अहो सुं० ॥ आचारज तीजे पदे, वंदु विकारी रे लोय ॥ अहो वं० ॥ ४ ॥ श्रागमधारी उपशमी, तप डुविध आराधी रे लोय ॥ अहो त० ॥ चोथे पद पाठक नमो, संवेग समाधि रे लोय ॥ अहो सं० ॥ ५ ॥ पंचाचार पालणपरा, पंचाश्रव त्यागी रे लोय ॥ अहो पं० ॥ गुणरागी मुनि पांचमे, प्रणमुं वडभागी रे लोय ॥ अहो प्र० ॥ ६ ॥ निज पर गुणने ओलखे, श्रुत श्रद्धा आवे रे लोय ॥ अहो श्रुत० ॥ छट्ठे गुण दरसण नमो, आतम शुभ भावे रे लोय ॥ अहो आ० ॥ ७ ॥ ज्ञान नमो गुण सातमे, जे पंच प्रकारे रे लोय ॥ अहो जे० ॥ ८ ॥ आठमे चारित्रपद् नमो, परभाव निवारी रे लोय ॥ अहो प० ॥ खंत्यादिक दश धर्मनो, जेह छे अधिकारी रे लोय ॥ अहो जे० ॥ ९ ॥ नवमे वली तपपद नमो, बाह्याभ्यंतर
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॥ स्तवनो॥
(२९९) भेदे रे लोय ॥ अहो बा०॥ बांध्यां काल अनंतनां, जे कर्म उन्नेदे रे लोय ॥ अहो जे०॥१०॥ए नव पद बहु मानथी, ध्यावे शुभ भावे रे लोय ॥ अहो ध्या०॥ नृप श्रीपाल तणी परे, मनवंछित पावे रे लोय ॥ अहो म० ॥१॥ आसो चैत्रक मासमां, नव आंबिल करीएरे लोय ॥अहो न०॥ नव ओली विधि युत करी, शिवकमला वरीए रे लोय ॥ अहो शि० ॥ १२ ॥ सिद्धचक्रनी बहु परे, वर महिमा कीजे रे लोय ॥ अहो व०॥ श्री जिनलाभ कहे सदा, अनुपम जस लीजे रे लोय ॥ अहो अ०॥ १३॥ इति ॥
॥ अथ नव पद स्तवन ॥ ॥ राग मारु ॥ तीरथनायक जिनवरुजी, अतिशय जास अनुप ॥ सिद्ध अनन्त महागुणीजी, परमानंद सरूप ॥ भविक मन धारजो रे ॥१॥ धारजो नवपदध्यान ॥ भ० ॥. श्री आचारज गणधरु रे, गुण छत्तीस निवास ॥ पाठक पदधर मुनिवरुजी, श्रुतदायक सुविलास ॥ भ०॥२॥सुमति गुपतिधर शोभ
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( ३०० )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ताजी, साधु समतावंत ॥ सम्यग्दर्शन सुंदरुजी, ज्ञानप्रकाश यतन्त ॥ भ० ॥ ३ ॥ संवर साधना चरण छे रे तप उत्तम विधि होय ॥ ए नवपदना ध्या नथी रे, निरुपाधिक सुख होय ॥ भ० ||४|| अमृतसम जिनधर्मनो रे, मूल ए नवपद जाण ॥ अविचल अनुभव कारणेजी, नित प्रति नमत कल्याण || भ० ॥ ५॥ इति नवपदस्तवनम् ॥
॥ अथ सिद्धचक्र स्तवन ॥
॥ राग प्रभाती ॥ नवपद ध्यान धरो रे ॥ भविका न० ॥ मन वच काया कर एकते, विकथा दुर हरो रे ॥ ज० न० ॥ १ ॥ मंत्र जमी अरु तंत्र घणेरा, इन सबकुं विसरो रे ॥ अरिहंतादिक नवपद जपने, पुण्य भंडार भरो रे ॥ भ० न० ॥ २ ॥ अड सिद्ध नवनिध मंगलमाला, संपत्ति सहज वरो रे || लालचंद याकी बलिहारी, शिवतरु बीज खरो रे ॥ भ० न० ॥३॥ इति श्रीसिद्धचक्रस्तवनम् ॥
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॥ स्तवनो॥ (३०१) ॥ अथ पंचम स्तवनम् ॥ ॥ भवियां श्री सिद्धचक्र आराधो, तुमे मुक्तिमारगने साधो, इह नरनव दुर्लभ लाधो हो लाल ॥ नव पद जाप जपीजे ॥१॥त्रण टंक देव वांदीजे, त्रिहुं काले जिन पूजीजे, आंबिल तप नव दिन कीजे हो लाल ॥ न ॥२॥ सुदि आसो चैत्रज मासे, तप सातमथी अभ्यासे; पद सेव्यां पातक नासे हो लाल ॥ न० ॥३॥ मयणा ने नृप श्रीपाले, आराध्या मंत्र उजमाले, एह दुःख दोहगने टाले हो लाल ॥ न० ॥४॥ एहनी जे सेवा सारे, तस मयगल गाजे बारे, इति भीति अनीति निवारे हो लाल ॥ न० ॥५॥ मिथ्यात्व विकार अनिष्ट, इय जाये दोषी दुष्ट, इण सेव्या समकित पुष्ठ हो लाल ॥ न० ॥ ६॥ जशवंत जिनेंद्र सुसाखे, भाव सिद्धचक्रना गुण भाखे, ते ज्ञानविनोद रस चाखे हो लाल ॥ न०॥७॥इति ॥
॥ अथ सप्तम स्तवनम् ॥ ॥ चिंतामणि स्वामी सच्चा साहेब मेरा ए॥ देशी ॥
आराहो प्राणी साची नवपद सेवा ॥ ए आंक
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(302)
नवपद विधि विगेरे संग्रह |
णी ॥ नवनिधि आपे नव पद सेवे, इम भाखे श्री जिनदेवा ॥ ० ॥ १ ॥ श्रीसिद्धचक्र धरो नित्य दिल में, जैसे गजमन रेवा ॥ आ० ॥ २ ॥ अरिहंतादिक एक पद जपतां, हांरे लहीए सुख सदैवा ॥ आ० ॥ ३ ॥ समुदित जपतां किम करी न करे, सुरसुखद्रुमफल लेवा ॥ आ० ॥ ४ ॥ जिनेंद्र कहे इम ज्ञानविनोदे, हर्षित द्यो नित मेवा ॥ आ० ॥ ५ ॥ इति ॥
॥ अथ अष्टम रतवनम् ॥ ॥ राग सारंग ॥
॥ गौतम पूछत श्री जिन भाखत, वचन सुधारस पानकी ॥ बलिहारी नवपद ध्यानकी ॥ १ ॥ नव पद से नवमे स्वर्गे, पावत ऋद्धि विमानकी ॥ ०॥२॥ याकी महिमा वल्लभ हमकुं, जेसे जसोदा कानकी ॥ ब० ॥ ३ ॥ पावे रूप सरूप मदनसो, देही कंचन वानकी ॥ ० ॥ ४ ॥ याकी ध्यान हृदय जब आवत, उपजत लहेरी ज्ञानकी ॥ ० ॥ ५ ॥ समकित ज्योति होवे दिल भीतर, जैसे लोकनमें भानकी ॥ ब० ॥६॥
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॥ स्तवनो॥
(३०३) जितेंद्र ज्ञानविनोद प्रसंगे, भक्ति करो भगवानकी ॥ ॥ बलिहारी नवपद ध्यानकी ॥ ७॥ इति
॥अथ नवम स्तवनम् ॥ ॥ पूज्य पधारो मरु देशे ए देशी ॥
नवपद महिमा सांभलो, वीर भाखे हो सुणो पर्षदा बार के ॥ ए सरिखो जग को कहीं, आराध्यो हो शिवपद दातार के ॥ न० ॥१॥ नव ओली आंबिल तणी, भवि करीए हो मनने उल्लास के ॥ भूमिशयन ब्रह्मवत धरो, नित सुणीए हो श्रीपालनो रास के ॥न०॥२॥ नव विधिपूर्वक तप करी, उजमणुं हो कीजे विस्तार के ॥ साहामी सामिणी पोषीए, जेम लहीए हो भवनो निस्तार के ॥ न०॥३॥नरसुख सुर सुख पामीए, वली पामे हो भवभव जिनधर्म के ॥ अनुक्रमे शिवपद पण लहे, जिहां मोटा हो अदय सुख शर्म के ॥ न०॥४॥ सांभली भावियण दिल धरो, सुखदायी हो नवपद अधिकार के ॥ वचनविनोद जिनेंद्रनो, मुज होजो हो भवभव आधार के॥ नवपद महिमा सांभलो ॥ ५॥ इति ॥
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(३०४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ॥ अथ श्री सिझचक्रजी, स्तवन ॥
॥ आठ लालनी देशी ॥ समरी शारदा माय, प्रणमी निज गुरु पाय ॥ आछे लाल ॥ सिद्धचक्र गुण गायशुं जी ॥ ए सिद्धचक्र आधार, भवि उतरे भवपार ॥ आ० ॥ ते भणी नवपद ध्यायशुं जी ॥१॥सिद्धचक्र गुणगह, जसगुण अनंत अछेह ॥ आ०॥ समया संकट उपशमे जी ॥ लहीए वंछित भोग, पामी सवि संजोग ॥ आ०॥सुर नर आवी बहु नमे जी॥२॥ कष्ट निवारे एह, रोग रहित करे देह ॥ आ०॥ मयणासुंदरी श्रीपालने जी।। ए सिद्धचक्र पसाय, आपदा दूरे जाय ॥ आ० ॥आपे मंगलमालने जी ॥ ३ ॥ए सम अवर न कोय, सेवे ते सुखीओ होय ॥ आ०॥ मन वचं काया वश करी जी ॥ नव आंबिल तप सार, पडिकमणुं दोय वार ॥ आ० देववंदन त्रण टंकनां जी ॥४॥ देव पूजो त्रण वार, गणणुं ते दोय हजार ॥ आ०॥ स्नान करी निर्मल जले.जी ॥ आराधेसिद्धचक्र, सानिध्य करे तेनी
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॥ स्तवनो॥
(३०५)
शक्र ॥ आ० जिनवर जन आगे भणे जी ॥५॥ए सेवो निशिदिश, कहीए वीशबावीश ॥ आ०॥ आल जंजाल सवि परिहरो जी ॥ ए चिंतामणि रत्ने, एहनां कांजे जत्न ॥ आ०॥ मंत्र नहीं एह ऊपरे जी ॥६॥ श्री विमलेसर जक्ष, होजो मुज परतक्ष ॥ आ०॥ हूं किंकर छं ताहरो जी ॥ पाम्यो तुंहीज देव, निरंतर करुं हवे सेव ॥ आ०॥ दिवस वल्यो हवे माहरो जी ॥७॥ विनति करुं छं एह, धरजो मुजशें नेह ॥ आ० ॥ तमने शुं कहीए वली वली जी ॥श्री लब्धिविजय गुरुराय, शिष्य केसर गुण गाय ॥आ०॥ अमर नमे तुज लली लली जी ॥ ८॥इति ॥
॥अथ सिद्धचक्र स्तवन ॥ अवसर पामीने रे, कीजे नव आंबिलनी ओली॥ ओली करतां आपद् जाये, ऋछि सिद्धि लहीए बहुली ॥ आ० ॥१॥ आसो ने चैत्रे आदरशुं, सातमथी संभाली रे ॥ आलंस महेली आंबिल करशे, तस घर नित्य दिवाली ॥ आ०॥२॥ पूनमने दिन पूरी थाते,
२०
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(३०६) नवपद विधि विगैरे संग्रह ॥ प्रेमेशुं पखाली रे ॥ सिद्धचक्रने शुद्ध आराधी, जाप जपे जपमाली ॥ आ०॥३॥ देहरे जइने देव जुहारो, आदीश्वर अरिहंत रे ॥ चोवीशे चाहीने पूजो, भावेशं भगवंत ॥ आ० ॥ ४ ॥ बे टंके पडिकमणुं बोल्युं, देववंदन त्रण काल रे ॥ श्री श्रीपाल तणी परे समजी, चित्तमां राखो चाल ॥ अ०॥ ५॥ समकित पामी अंतरजामी आराधो एकांत रे ॥ स्याहादपंथे संचरतां, आवे भवनो अंत ॥ अ० ॥ ६ ॥ सत्तर चोराएं सुदि चैत्रीए, बारशे बनावी रे ॥ सिद्धचक्र गातां सुख संपत्ति, चालीने घेर आवी ॥ आ०॥७॥ उदयरतन वाचक उपदेशे, जे नर नारी चाले रे॥ भवनी भावठ ते भांजीने, मुक्तिपुरीमा महाले ॥ अ०॥८॥ इति॥
॥ सिद्धचक्रजी- स्तवन ॥ ॥ जीहो कुंवर बेठा गोखड ॥ ए देशी ॥ ॥जीहो प्रणमुं दिन प्रत्ये जिनपति ॥ लाला॥ शिव सुखकारी अशेष ॥॥ जीहो आसोइ चैत्री तणी ॥ लाला ॥ अट्ठाइ विशेष भविकजन ॥ जिनवर
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॥ स्तवनो ॥
( ३०७ )
जग जयकार ॥ १ ॥ जीहो जिहां नवपद आधार ॥ भ० ॥ ए आंकणी ॥ जीहो तेह दिवस आराधवा || लाला ॥ नंदीश्वर सुर जाय ॥ जीहो जीवाभिगम मांहे कयुं ॥ ला० ॥ करे अड दिन महिमाय ॥ ज० || २ || जीहो नवपद केरा यंत्रनी || ला० ॥ पूजा कीजे रे जाप ॥ जीहो रोग शोक सवि आपदा ॥ला०॥ नासे पापनो व्याप ॥ भ० ॥ ३ ॥ जीहो अरिहंत सिद्ध आचारज ॥ला० ॥ उवझाय साधु ए पंच ॥ जीहो दंसण नाण चारित तवो ॥ ला० ॥ ए चउ गुणनो प्रपंच ॥ ॥ भ० ॥ ४ ॥ जीहो नवपद आराधतां ॥ ला० ॥ चंपापति विख्यात || जीहो नृप श्रीपाल सुखीओ थयो ||ला० ॥ ते सुणजो अवदात ॥ भ० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥
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|| कोइलो पर्वत धुंधलो रे लो ॥ ए देशी ॥
॥ मालव धुर उज्जेणीए रे लो. राज्य करे प्रजापाल रे ॥ सुगुणी नर ॥ सुरसुंदरी मयणासुंदरी रे लो० बे पुत्री तस बाल रे ॥ सु०॥ श्री सिद्धचक्र आराधीए रे
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(३०८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ लो॥१॥ जेम होय सुखनी माल रे ॥ सु०॥श्री०॥ ए
आंकणी॥ पहेली मिथ्याश्रुत भणी रे लो, बीजी जिनसिद्धांत रे॥ सु०॥ बुद्धिपरीक्षा अवसरे रे लो० पूछो समस्या तुरंत रे ॥ सु० ॥श्री० ॥ २॥ तूठो नृप वर आपवा रे लो, पहेली करे ते प्रमाण रे ॥ सु० ॥बीजी कर्म प्रमाणथी रे लो० कोप्यो ते तव नृपभाण रे॥सु० ॥ श्री० ॥३॥ कुष्ठी वर परणावीयो रे लो० मयणा वरे धरी नेह रे ॥ सु०॥ रामा हजीय विचारीए रे लो. सुंदरी विणसे तुज देह रे ॥सु०॥श्री०॥४॥ सिद्धचक्र प्रभावथी रे लो० निरोगी थयो जेह रे॥ सु०॥पुण्यपसाये कमला लही रे लो० वाध्यो घणो ससनेह रे ॥सु०॥ श्री० ॥५॥ माउले वात ते जब लही रे लो. वांदवा आव्यो गुरु पास रे ॥ सु० ॥ निज घर तेडी आवीयो रे लो०आपे निज आवासरे ॥सु०॥श्री०॥६॥ श्रीपाल कहे कामिनी सुणो रे लो० हुं जाउं परदेश रे सु०॥ माल मता बहुलावशुं रेलो० पूरशुं तुम तणी खांत रे ॥सु०॥ श्री० ॥७॥ अवधि करी एक वर
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॥ स्ववनो ॥ (३०९) पनी रे लो० चाल्यो नृप परदेश रे ॥सु०॥ शेठ धवल साथे चढ्यो रे लो जलपंथे सुविशेष रे ॥सु०॥श्री ॥
॥ ढाल त्रीजी ॥ ॥ इडर आंबा आंवली रे ॥ ए देशी ॥ ॥ परणी बब्बरपति सुता रे; धवल मूकाव्यो ज्यांह। जिनवर बार उघाडते रे; कनकेतु बीजी त्यांह ॥ १॥ चतुर नर; श्रीश्रीपालचरित्र ॥ ए आंकणी ॥ परणी वस्तुपालनी रे, समुषतटे आवंत ॥ मकरकेतु नृपनी सुता रे; वीणावादे रीझंत ॥ च० ॥२॥ पांचमी त्रैलोक्यसुंदरी रे; परणी कुब्जारूप॥ उट्ठीसमस्या पूरती रे, पंच सखीशुं अनुप ॥च०॥३॥ राधा वेधी सातमी रे; आठमी विष उतार ॥ परणी आव्यो निज घरे रे; साथे बहु परिवार ॥ च० ॥४॥ प्रजापाले सांभली रे; परदल केरी वात ॥ खंधे कुहाडो ले करी रे; मयणा हुइ विख्यात ॥ च०॥ चंपा राज्य लेइ करी रे, भोगवी कामित भोग॥ धर्म आराधी अवतयों रे; पहोतो नवमे सुरलोक । चतुर नर ॥६॥ श्रीश्रीपा०॥
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(३१०)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ।।
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॥ ढाल चोथी॥ ॥ कंत तमाकु परिहरो ॥ ए देशी ॥ ॥ ए महिमा सिद्धचक्रनो, सुणी आराधे सुविवेक ॥ मोरे लाल ॥ श्री सिद्धचक्र आराधीए ॥१॥ए आंकणी ॥ अडदल कमलनी थापना, मध्ये अरिहंत उदार ॥ मो० ॥ चिहुं दिशे सिद्धादिक चउ, वक्र दिशे तुं गुणधार ॥ मो० ॥ श्री० ॥२॥ बे पडिक्कमणां जंत्रनी, पूजा देववंदन त्रिकाल ॥मो० ॥ नवमे दिन सविशेषथी, पंचामृत कीजे पखाल । मो० ॥श्री०॥३॥ भूमिशयन ब्रह्मविध धारणा, रंधी राखो त्रण जोग ॥ मो०॥ गुरु वैय्यावच्च कीजीए, धरो सदहणा भोग ॥ मो० ॥श्री०॥ ४ ॥ गुरु पडिलाभी पारीए, साहाम्म वच्बल पण होय ॥ मो० ॥ उजमणा पण नव नवा, फल धान्य रयणादिक ढोय ॥ मा०॥ श्री ॥५॥ इह भव सवि सुखसंपदा, परभवे सवि सुख थाय॥ मो०॥ पंडित शान्तिविजय तणो, कहे मानविजय उवझाय ॥ मोरे लाल ॥ श्री० ॥ इति ॥
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॥ स्तवनो॥
(३११)
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॥ नवपदजीनुं स्तवन ॥ ॥ नव पद ध्यान सदा जयकारी॥ ए आंकणी॥ अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक, साधु देखो गुणरूप उदारी ॥ नव पद० ॥१॥ दरशन ज्ञान चारित्र हे उत्तम, तप दोय भेदे हृदय विचारी ॥ नव० ॥२॥ मंत्र जडी ओर तंत्र घणेरा,उन सबकुं हम दूर विसारी ॥ नव० ॥३॥ बहोत जीव भवजलसे तारे,गुण गावत हे बहु नर नारी ॥ नव०॥४॥श्री जिनभक्त मोहन मुनि वंदन, दिन दिन चडते हरख अपारी॥नव०॥५॥
॥ श्री नवपदजी, स्तवन ॥ ॥नव पद धरजो ध्यान, भवि तुमे नव पद धरजो ध्यान ॥ ए नवपदनुं ध्यान करतां, पामे जीव विसराम ॥ भवि० ॥१॥ अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक साधु सकल गुणवान ॥ भवि० ॥ २ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए उत्तम, तप तपो करी बहुमान ॥ भवि० ॥३॥ आसो चैत्रनी सुद सातमथी, पूनम लगे परमान ॥ भवि० ॥ ४॥ एम एकाशी आंबिल कीजे,
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(३१२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ वरष साडाचारनुं मान ॥ भवि० ॥५॥ पडिक्कमणां दोय टंकनां कीजे, पडिलेहण बे वार ॥ भवि०॥६॥
श्री अरिहंत पद स्तवन अरिहंत पद आराधीये, आणी उलट भाव, भविक जीव, अघहर मदमोचन धणी,ज्यों कंचन शुद्ध ताव । भविक जीव ॥ अरि० ॥१॥ त्रीजेरे भवे वर ध्यानथी, समकीत बीज अंकूररे, भविक जीव,अरिहंत पदशुद्ध अनुग्रहे, सबल करम चकचूररे॥ भविक जीव ॥अरि०॥२॥ अलख निरंजन आतमा,घटघट भाव प्रकाशरे,भविकजीव, भरमतिमिर घन संहरेज्यों रविकिरण उजासरे। भविक जीव ॥ अरि० ॥३॥ मोर पयोधर ऋतुसमे,हरखे चित्त उदाररे,भविक जीव। जिनवाणी हियडे धरी; उपजे अनुभव साररे, भविकजीव ॥ अरि०॥ ४॥ जलनिधि जल कोण भर शके, कोण तोले नगराजरे,भविक जीव । कहे जिनपद्म मुनीश्वर, त्रिभुवन जग शिरताजरे, भविक जीव ॥ अरि० ॥५॥ इति ॥
श्री सिद्धपद स्तवन भविजन वंदोजी,सिद्ध शुद्ध आतमारे आणी ममता अंग। सिद्ध समरंतारे सुगतिपणो वरेरे, लोहा पारससंग ॥ भवि०॥१॥ पंचदश भेदे सिद्धपणुं वरीरे,मेटी सकल
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॥ स्तवनो॥
(३१३) उपाधि । निजगुण ध्याने उज्वल आतमारे अध्यातम पद साध ॥ भवि० ॥२॥ सबल करमरे संगे विलुधीयोरे, चेतन चिहुंगति संग। सघन करममल मेटी ज्ञानथीरे,पामी मुक्ति उत्तंग ॥ भवि०॥३॥ इम शुद्ध भावेरे भवि तुमे वांदजोरे; सिद्ध सकल शुचिज्ञान। ए पद ध्यातां चेत जिन हुएरे, इयल ज्युं भमरी ध्यान ॥ भवि० ॥ ४॥ शुचि संवेगीरे समता आगरुरे, परमातम सुखकंद । अद्भूत ज्योतीरूप मांहे सदारे पभणे पद्म सुरीद भवि० ॥५॥ इति
__श्री आचार्य पद स्तवन सूरि सकल भवि वांदीये, पद त्रीजे हो मद मच्छर टाल के । प्रकटे आत्मप्रबोधता, तस विकसे हो जगजीवन धारके ॥ सूरि० ॥१॥ पंच आचारपणुं ग्रही, व्रतपाले हो शुचि तीक्ष्ण धाररे। कुमति कंदर्प कुकर्मने,जिम ज्वाले हो वन पवन तुषारके ॥ सूरि० ॥२॥ अप्रमत्त भावे देशना टाली विषता हो वली विषय कषायके भव्य सुणी मोही रह्या, जीम मधुकर हो नित्य कमल लोभायके ॥ सूरि ० ॥३॥ सारण वारण चोयणा, पडिचोयणा हो इम चार विचारके । युग प्रधानपणुं वरी, भयटाले हो आणी उपकारके ॥ सूरि०॥४॥ गुण छत्रीश शुं शोभता, पटधारी हो जगदीपक आपके । कहे जिनपद्म मुनीश्वर, तस स्मरणे हो मीटे तनु तापके ॥ सूरि ॥ ५॥ इति
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
श्री उपाध्याय पद स्तवन चोथे पद उवज्झाय जपीजे, नित्य समकित दृढ चित्त कीजेरे । समता रस आणी ॥ जडपणु तज चेतन शुद्धधारे, भविक आत्मकाज सुधारेरे । समता रस आणी ॥ १ ॥ अंग उपांग बहु सूत्र जाणे, निज आतम तत्त्व पिछाणे रे । समता रस आणी || शुद्ध पचीस गुणे विकसंता, शुचि निरुपम धर्म दीपंतारे ॥ समता रस आणी ॥ २ ॥ पांच समिति त्रण गुप्ति बीराजे, वाणी मेघतणी परे गाजेरे । समता रस आणी ॥ उलट आणी भविजन धारो, निजकर्म उपाधि विदारोरे, समता रस आणी ॥ ३ ॥ अनुभव धर तीक्ष्ण व्रतपाले, नित्य जिनशासन अजवाले रे । समता रस आणी || सिद्धामान महातम मोडी, वंदे पद्मसूरिकरजोडी रे, समता रस आणी ॥ ४ ॥
( ३१४ )
श्री साधुपद स्तवन.
मुनि पंचम पद वांदिये । समता रसना धोरीरे । शान्त सुधारस वयणसुं, आशापूरो मोरीरे ॥ मुनि ||१|| चारित्र रत्न चूडामणि, समिति पंच प्रकारोरे । दशविध धर्म मुनितणो, पाले शुद्ध आचारोरे ॥ मुनि०||२|| अढार सहस शीलांगना, गुणधारे निजअंगेरे । षटुकायक प्रतिपालना, विचरे वसुधा उछरंगेरे ॥ मुनि०||३|| फुलेजी तरु ऋतुराजरे । बेठे भमर अपारोरे ।
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॥ स्तवनो ॥
तसु पीडा व्यापे नहि; इणविध ल्ये मुनि आहारोरे
॥ मुनि० ॥ ४ ॥
( ३१५ )
गुणनिधि करुणा आगरु; समता रसना दरीयारे । वंदे पद्य मुनिश्वरु इणविध; भवोद्धि तरीयारे ॥ मुनि० ॥
॥ ५ ॥ इति ॥
- ॥ श्री दर्शनपद स्तवन. ॥
सम्यक्त्व नामे हो दर्शनपद नमुंरे; आणी सुमति उदार । सडसठ बोले हो जिनवर वर्णव्युं रे । सूत्रसिद्धांत मझार ॥ सम्य० ॥ १ ॥ पंच प्रकार हो उपशम आदिथोरे; ज्ञानादिक गुण जोय । उज्वल ध्याने हो दर्शन सेवियेरे, रागादिकमल खोय ॥ सम्य० ॥ २ ॥ दर्शन सम्यग हो शुध्ध प्रकटया विनारे; चारित्र ज्ञाननो भंग । जलधर धारा हो जगव्यापे नहिरे: तो विणसे लोक उमंग ॥ सम्य० ॥ ३ ॥ तत्त्व त्रिभेदे हो जिनवर निज कह्यारे । तपजप ध्यान आचार। ए सहु फले हो सम्यग्दर्शने रे । विकसे ज्युं वन जलधार ॥ सम्य० ॥ ४ ॥ सुमति संवेगी हो शुध्ध स्वरूपनारे | दर्शनज्ञान दिणंद | भविजन धारो हो दर्शन नेहस्युरे; पभणे पद्मसूरींद ॥ सभ्य० ॥ ॥ ५ ॥ इति ॥
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नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
श्री ज्ञानपद स्तवन
ज्ञानपद हितधार, भवि ए तो ज्ञानपद हितधार, भरम तिमिर विदार || भवि० ॥ सर्व रात्रिमां इन्दुभंजन दिवस रवि निरधार । जगतजन्तु मोहमधर तास भंजनकार ॥ भवि० ॥ १ ॥ विकट वनमें प्रभा सुरतरु, विनय शुचि गुणसार, वसुधा मांहे शोभत मेरु: शिवपंथ ज्ञान उदार || भवि० ||२|| परम पंच प्रकार अनुपम; मति श्रुत अवधि विचार, जननी उदरे धर्या छे जिनवर; संयमे चोथो सार ॥ भवि० ॥ ३ ॥ सचनघाती कर्मवनदल पवन तास तुषार; जगत जिनवर नामघर शुचिः उद्धर्यो आगम अपार भ० || ४ || सुमतिधर भवि ज्ञानतज मद; मेी विषय विकार | पद्मसूरि भणे निजहेते; ज्ञानथी होय निस्तार | भवि० ॥ ५ ॥ इति ॥
श्री चारित्रपद स्तवन
( ३१६ )
वदो भवि चारित्र गुणधामिः अष्टमपद अभिरामीरे । समता रस अंगे पूरण पामी विपत विदारण कामीरे ॥ - वंदो० ॥ १ ॥ अंब प्रभावे अंबुज प्रकटे परिमल पवन प्रकाशेरे, धर्मनिपुणता ज्ञान विकासे चारित्र तास उजा सेरे ॥ वं० ||२|| सामायिक छेदोपस्थापनीय वळी परि
विशुद्धीरे सूक्ष्म संपराय दशमे गुणठाणे; अंतर्मुहुत प्रसिद्धोरे ॥ ० ॥ ३ ॥ यथाख्यात चारित्र प्रधाने; केवल
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॥ स्तवनी ॥
( ३१७ ) निकट विभासेरे; वरते क्षीणमोह गुणठाणे; कर्म कठोर विनासेरे ॥ बंदो० ॥ ४ ॥ रंकपण जेह हृदय धरता; घ्यावे इन्द्र आणंदेरे । वंदे पद्म सूरि निजहेते अष्टम पदमुख कंदोरे ॥ बंदो० ॥ ५ ॥
श्री तपः पद स्तवन
नवमे पद प्रणमुं मुदारे: तप आतम शुद्धि हेतु । समल अथिर पद परिहरीरे; कर्मभंजन धूमकेतु ॥ भविक जीवधारो तप शिवहेत; ज्वाले कर्मनुं खेत्र ॥ भविकजीव० ॥ १ ॥ विकटसघन वन संहरेरे; दावानल असराल । ज्वाले कम कषायनेरे; क्षमासहित तपपाल || भवि० ॥ २ ॥ द्वादशविध तपस्या तणारे; आगळ अंग मझार । बाह्य अभ्यंतर भेद इयुरे; षट्षद् भेद विचार ॥ भवि० ॥ ३ ॥ अरिहंत जाणे ज्ञानधीरे; इणभव मोक्ष पहचंत । क्षमासहित तप आदरेरे; धारे शुचि मन खंत ॥ भवि० ॥ ४ ॥ आमोसही आदे करीरे; अष्ट महासिद्ध जाम । उपजे गणधर वृन्दनेरे; सारे संघना काम | भवि० ॥ ५ ॥ वनतरुवृन्द विकस्या सहोरे; बाजेवाय कुवाय । नविफूले नविफली शकेरे; तीम क्षमारहित तप जाय ॥ भवि० ॥ ६ ॥ तपपद शुचि आरावतारे; त्रुटे कर्मनी कोड । पद्मसूरि भणे नेहस्युं रे; मान महातम मोड | भविक० ॥ ७ ॥ इति.
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(३१८)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
कलश नवपद ध्यान प्रभावथी;शिवशुचि पदपावे। भरमति मिरघन संहरे; समता रस आवे ॥ नव० ॥१॥ करम कलंक पंके करी;भ्रम चेतन पावे । चिहुं दिशि भ्रमत फीरे सदा; मृगनिंद न पावे ॥ नव०॥२॥ सद्गुरु संगपणो वरी3B जडपद मीट जावे। उपल अनल प्रभावथी कलधौत कहावे ॥ नव० ॥३॥ शुद्ध संवेगपणु वरी; ममता तजी ध्यावे । भवोदधि भ्रमणपणु मटे; चेतन जिन थावे ॥ नव० ॥४॥ शुद्ध स्वरूपपणे करी; निजकर्म खपावे । कहे जिनपद्म मुनी. श्वरु; ज्योतिरूप कहावे ॥ नव० ॥५॥
॥ इति श्री नवपद स्तवन संपूर्णम् ॥
नवपद स्तवन. - अहो भविप्राणी रे सेवो। सिद्धचक्र ध्यान समो नहीं मेवो ॥ अहो० ॥ जे कोइ सिद्धचक्रने आराधे, तेहनो जगमांहि जश वाधे ॥ अहो० ॥ १ ॥ पहेले पदे रे अरिहंत । बीजे सिद्ध बुद्ध ध्यान महंत ॥ त्रीजे पदे रे सूरीश । चोथे उवज्झाय ने पांचमे मुनीश ॥ अ० ॥२॥ छठे दरसण रे कीजे । सातमे ज्ञानथी शिवसुख लीजे । आठमे चारित्र पालो । नवमे तपथी मुक्ति भालो ॥ अ० ॥३॥ आंबिल ओलो रे कीजे । नोकारवाली वीश ग
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॥ स्तवनो ॥
(३१९) णीजे ॥त्रणे टंकना रे देवो । पडिलेहण पडिकमणु सेवो ॥ अ०॥ ४॥ गुरुमुख किरिया रे कीजे । देवगुरुभक्ति चित्तमां धरीजे ॥ एम कहे राम्ना रे शिशो ओली उजवीए जगीशो ॥ अ० ॥ ५॥ इति ॥
सिध्धचक्रजी- स्तवन. श्री सिध्धचक्र आराधो। मनवांछित कारज साधो रे ॥ भवियां ।। श्री० ॥ ए आंकणी॥ पद पहेले अरिहंत भावो । जेम अरिहंतपदवी पावो रे ॥ भवियां ॥ श्री०॥ पद दूजे सिद्ध मनावो । ज्यम सिद्ध सरुपी होइ जावो रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥ सूरि त्रीजे गुणवंता । जशना एक जग जयवंता रे ॥ भ०॥ श्री० ॥ चोथे पदे उवझाया। जेणे मारग आण बताव्या रे ॥ भ०॥ श्री० ॥ साधु सकल गुणधारी; पद पंचमे जग हितकारी रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥ दरसण पद छठे वंदो; जेम कीरति होय शोर नंदो रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥ ज्ञानपद सातमे दाखो। चारित्रपद आठमे भाख्यो रे ॥ भ०॥ श्री०॥ तप नवमे पद शा. ख्यो; जेम वीरजीने वचने राख्यो रे ॥ भ० ॥ श्री० ॥ श्रीपालने मयणा लीधो; नवमे भव कारज सिध्यो रे ॥ भ०॥ श्री० ॥ नवपद महिमा आणी. जिनचंद्रहोए मन आणी रे ॥ भ० ॥ श्री ॥ इति ॥
॥ अथ श्री विनयविजयजी कृत॥
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(३२०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।
श्री सिद्धचक्र स्तवन. ॥ ढाळ पहेली ॥ चेतन चेतोरे आतमा ॥ ए देशी ॥
सरस्वतीने चरणे नमी,प्रणमी सद्गुरु पायरे । सिद्धचक्र गुण गाइस्युं, मुझ मन हर्ष उछायरे । धन्य धन्य श्री सिद्धचक्रने ए आंकणी ॥ १ ॥ तेह दिवसे सुरपति मली, जाइ नंदीश्वर द्वीपेरे । उत्सव महोत्सव सुर करी, कर्म कटकने जीपेरे ॥ धन्य० ॥ २॥ अट्ठाइ महोत्सव करे, जीवाभिगमनी साखेरे । श्रेणिकराये पूछीयुं, इन्द्रभूति इम दाखेरे ॥ धन्य० ॥३॥ श्री श्रीपालमयणापरे, जापजपो भव्यप्राणीरे । रोगशोकने आपदा जीम शमे ते उकाय प्राणीरे ॥ धन्य ॥ ४॥ आसो शुदि सातम थकी पूनम लगे ओलीए करे। एक्यासी नव ओळीए,आंबील तप सुविवेकरे ॥ धन्य० ॥५॥ साढाचार संवत्सरे, तपनो एह परिणामरे । गणणु पद एकएकनु, सहस्रदोय सुविज्ञाने रे ॥ धन्य० ॥६॥ ॥ ढाळ बीजी ॥ आदिजिनेश्वर विनति हमारी ॥ ए देशी ॥
बारगुणे अरिहंतघ्याउ, सिडभजो गुण आठेरे छन्त्रीश गुणे आचार्य सोहे, पचवीश ओपद पाठेरे ॥१॥ गुण सतावीश साधु वंदु, दर्शन सडसठ भेदेरे । ज्ञान एकावन गुणे संपूरी, चारित्र सीत्तेर उमेदेरे ॥ गु० ॥२॥ पचास भेदे तपने जपीये, गुणणुं ए वर्तमानरे । तेर सह
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॥ स्तवनो॥
(३२१)
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सवली बीजे मेदे, विद्याप्रवाद पुराणरे । गुण ॥३॥ अरिहंत आदे पंचपद केरा, गुण छे एकसो आठ रे। दर्शन ज्ञानना दश वली जाणो, चारित्रषट् बहुपाठरे ॥ गुण ॥४॥ तपना षट्गुण सर्व मलीने, एकसोत्रीसज थाय रे । नोकारवाली एह प्रमाणे समय भवदुःख जायरे ॥ गु० ॥५॥ हवे उजमण विधिस्युं बोल, सांभळज्यो चि. तलाय रे । उजमणाथी फल बहु वाधे; जीम जलपंकज न्याय रे ॥ गु०॥६॥
॥ ढाल त्रीजी ॥ श्रेणिक मन अचरिज हूओ ॥ ए देशी॥
तपजप करीये शक्तिथी, तेहतणो छे भेद रे। शक्ति प्रमाणे उजवो,भवभवना दुःख छेद रे । वीरवचनथी जाणज्यो. ॥ ए आंकणी ॥ १॥ अजमणा विण फल कहुं, जीम अलुणो धान्य रे । शक्ति घणी छे जेहनी, पण उजवे नहिं मनमान्योरे ॥ वीर० ॥ २॥ तेहने फल केतो कह्यो, सांभळ श्रेणिकरायरे । कुकश आपे वर्तिने, पुण्य ते जे तो थायरे ॥ वीर० ॥३॥ आत्मज्ञाने धारीये, धरीये धरीये शीयल जगीशरे । गुरुपडिलाभीने पारीये, स्वामि वत्सले फल ले सोरे ॥ वीर० ॥ ४ ॥ पालणपुरमा प्रेमस्युं, श्री सिद्धचक्र गुणगायारे । चतुर चोमासु तिहां रही. ऊजमणे मन भायारे ॥ वीर० ॥५॥
ર૧
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(३२२)
नवपद विधि विगेर संग्रह ॥
(कलश) इम सयल सुहकर सयल पुरंदर संस्तव्यो रिसहेश्वरु । तपगच्छ राजेवड दीवाजे विजय जिनेन्द्रसूरीश्वर ॥ तासपसाए स्तवन पभण्यो शिष्यरूप विजयतणो । अढार एकासी आसोपूनम रंगविजय ऊलट घणो ॥ १॥ इतिश्री सिद्धचक्र नवपद वर्णन ऊजमणा फलदायक
स्तवनम् ॥
अथ स्तुतिओ (थोयो.) ॥ अथ श्रीअरिहंतपद स्तुति ॥ सकल द्रव्य पर्याय प्ररूपक, लोकालोक सरूपोजी ॥ केवलज्ञानकी ज्योति प्रकाशक, अनंत गुणे करी पूरोजी ॥ तीजे भव थानक आराधी, गोत्र तीथैकर नरोजी ॥ बार गुणाकर एहवा अरिहंत, आराधो गुण भूरोजी ॥ इति अरिहंतपदस्तुतिः ॥१॥
॥ अथ श्रीसिद्धपद स्तुति ॥ अष्ट करमकुं धमन करीने, गमन कियो शिववासीजी । अव्याबाध सादि अनादि, चिदानंद चिद्
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॥ थोयो ।
(३२३) राशिजी । परमातम पद पूरण विलासी, अघधन दाघ विनाशीजी ॥ अनंत चतुष्टय शिवपद ध्यावो, केवलज्ञानी भाषीजी ॥ इति सिद्धपदस्तुतिः ॥२॥
॥ अथ श्रीआचार्यपद स्तुति ॥ पंचाचार पाले उजवाले,दोष रहित गुणधारीजी। गुण छत्तीसे आगमधारी, द्वादश अंग विचारीजी। प्रबल सबल धनमोह हरणकुं, अनिल समो गुण वाणीजी । क्षमा सहित जे संयम पाले, आचारज गुणध्यानीजी ॥ इति आचार्यपदस्तुतिः ॥३॥
॥ अथ श्रीउपाध्यायपद स्तुति ॥ अंग इग्यारे चउदे पूरव, गुण पचवीसना धारीजी। सूत्र अरथधर पाठक कहीए, जोग समाधि विचारीजी ॥ तप गुणशूरा आगम पूरा, नय निक्षेपे तारीजी । मुनि गुणधारी बुध विस्तारी, पाठक पूजो अविकारीजी ॥ इति उपाध्यायपदस्तुतिः॥४॥
॥ अथ श्रीसाधुपद स्तुति ॥ सुमति गुपति कर संजम पाले, दोष बयाली
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nonnon
(३२४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ श टालेजी ॥ षट्काया गोकुल रखवाले, नवविध ब्रह्मवत पालेजी ॥ पंच महाव्रत सूधां पाले,धर्म शुक्ल उजवालेजी ॥ क्षपकश्रेणि करी कम खपावे, दमपद गुण उपजावेजी ॥ इति साधुपदस्तुतिः ॥५॥
॥ अथ श्रीदर्शनपद स्तुति ॥ जिनपन्नत्त तत्त सुधा सरधे, समकित गुण उजवालेजी ॥ भेद छेद करी आतम निरखी, पशु टाली सुर पावेजी ॥ प्रत्याख्याने सम तुल्य भाख्यो, गणधर आरिहंत शूराजी ॥ ए दरशनपद नित नित वंदो, भवसागरको तीराजी ॥ इति दशनपदस्तुतिः ॥६॥
॥ अथ श्रीज्ञानपद स्तुति॥ मति श्रुत इंद्रिय जनित कहीए, लहीए गुण गंभीरोजी ॥ आतमधारी गणधर विचारी, द्वादश अंग विस्तारोजी ॥ अवधि मनःपर्यव केवल वली, प्रत्यक्ष रूप अवधारोजी ॥ ए पंच ज्ञानकुं वंदो पूजो, भविजनने सुखकारोजी ॥ इति ज्ञानपदस्तुतिः ॥७॥
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# थोयो ॥
( ३२५ )
॥ अथ श्री चारित्रपद स्तुति ॥ कर्म अपच दूर खपावे, आतमध्यान लगावे - जी ॥ बारे भावना सूधी भावे, सागरपार उतारेजी ॥ षट् खंड राजकुं दूर तजीने, चक्री संजम धारेजी ॥ reat चारित्रपद नित वंदो, आतमगुण हितकारेजी इति चारित्र दस्तुतिः ||८||
॥ अथ श्रीतपपद स्तुति ॥
इच्छारोधन तप ते भाख्यो, आगम तेहनो साखीजी ॥ द्रव्य भावसे द्वादश दाखी, जोगसमाधि राखीजी | चेतन निज गुण परणति पेखी, तेहीज तप गुण दाखीजी || लब्धि सकलनो कारण देखी, ईश्वर सेमुस जाखीजी ॥ इति तपपदस्तुतिः ॥ ९ ॥ ॥ सिद्धचक्र स्तुति ॥
वीर जिनेश्वर अति अलवेसर, गौतम गुणना दरीआ जी ॥ एक दिन आणा वीरनी लेइने. राजगृही संचरीआ जी ॥ श्रेणिक राजा वंदन आव्या, उलट मनमां आणी जी ॥ पर्षदा आगल बार बिराजे, हवे
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( ३२६ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह |
'सुनो भविप्राणी जी ॥ १ ॥ मानवभव तुमे पुण्ये पाम्या, श्रीसिद्धचक्र आराधो जी ॥ अरिहंत सिद्ध सूरि उवझाया, साधु देखी गुण वाधे जी || दरशण नाण चारित्र तप कीजे, नव पद ध्यान धरीजे जी ॥ धुर आसोथी करवां आंबिल, सुख संपदा पामीजे जी ॥ २ ॥ श्रेणिक राय गौतमने पूछे, स्वामी ए तप केले कीधो जी ॥ नव आंबिल तप विधिशुं करतां, वंछित सुख केणे लीधो जी ॥ मधुरी ध्वनि बोल्या श्री गौतम, सांभलो श्रेणिकराय वयणां जी ॥ रोग गयो ने संपदा पाम्या, श्रीश्रीपाल ने मयणा जी ॥ ३॥ रुमझुम करती पाये नेउर, दीसे देवी रूपाली जी ॥ नाम चक्केसरी ने सिद्धाइ, आदि जिनवर रखवाली जी ॥ विघन कोड हरे सहु संघनां, जे सेवे एना पाय जी ॥ भाणविजय कवि सेवक नय कहे, सानिध्य करजो माय जी ॥४॥
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॥ सिद्धचक्र स्तुति ॥
॥ श्री सिद्धचक्र सेवो सुविचार, आणी हैडे हरख अपार, जिम लहो सुख श्रीकार ॥ मन शुद्धे ओली
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॥ थोयो॥
(३२७) तप कीजे, अहोनिश नव पद ध्यान धरीजे, जिनवर पूजा कीजे ॥ पडिक्कमणां दोय टंकनां कीजे, आठे थुइए देव वांदीजे, भूमि संथारो कीजे ॥ मृषा तणो कीजे परिहार, अंगे शीयल धरीजे सार, दीजे दान अपार ॥१॥ अरिहंत सिद्ध आचार्य नमीजे, वाचक सर्वे साधु वंदीजे, देसण नाण सुणीजे ॥ चारित्र तपर्नु ध्यान धरीजे, अहोनिश नन्न पद गणणुं गणीजे, नव
आंबिल पण कीजे ॥ निश्चल राखी मन हो निश्चे, जपीए पद एक एक ईश, नोकारवाली वीश ॥ छेल्ले
आंबिल मोटो तप कीजे, सत्तरभेदी जिनपूजा रचीजे, मानवभव लाहो लीजे ॥२॥ सातसें कुष्ठीयाना रोग, नाठा यंत्र नमण संजोग, दूर हुआ कर्मना भोग॥अढारे कुष्ठ दूरे जाये, दुःख दोहग दूर पलाये, मनवंछित सुख थाये ॥ निरधनीयाने दे बहु धन्न, अपुत्रीयाने ये पुत्ररतन्न, जे सेवे शुद्ध मन्न॥ नवकार समो नहीं कोई मंत्र, सिद्धचक्र समो नहीं कोइ जंत्र, सेवो भवि हरखंत ॥३॥ जिम सेव्या मयणा श्रीपाल, जंबर रोग गयो सुख रसाल पाम्या मंगलमाल ॥श्रीपाल तणी पेरेजे
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(३२८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ 'आराधे, दिन दिन दोलत तस घर वाधे,अति शिवसुख साधे॥ विमलेश्वर यक्ष सेवा सारे, आपदा कष्टने दूर निवारे, दोलत लक्ष्मी वधारे ॥ मेघविजय कवियणना शिष्य,आणी हैडे भाव जगदीश,विनय वंदे निशादेश ४
॥ अथ श्री सिद्धचक्र स्तुति ॥ ॥ जिनशासन वंछित, पूरण देव रसाल ॥ भावे भवि भणीए. सिद्धचक्र गुणमाल ॥ त्रिहं काले एहनी, पूजा करे उजमाल ॥ ते अमर अमरपद, सुख पामे सुविशाल ॥१॥ अरिहंत सिद्ध वंदो, आचारज उवझाय ॥ मुनि दरिसण नाण, चरण तप ए समु. दाय ॥ ए नव पद समुदित, सिद्धचक्र सुखदाय ॥ ए ध्याने भविनां, भव कोटि दुःख जाय ॥२॥ आसो चैतरमां, सुदि सातमथी सार॥ पूनम लगे कीजे, नव आंबिल निरधार ॥ दोय सहस गणे, पद सम साडाचार ॥ एकाशी आंबिल तप, आगमने अनुसार ॥ ३ ॥ सिद्धचक्रनो सेवक, श्री विमलेसर देव ॥ श्रीपाल तणी परे, सुख पूरे स्वयमेव ॥ दुःख दोहग
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॥ थोयो ।
(३२९) नावे, जे करे एहनी सेव ॥श्री सुमति सुगुरुनो, राम कहे नित्यमेव ॥ ४॥ इति ॥
॥ अथ सिद्धचक्रनी स्तुति ॥
अरिहंत नमो वली सिद्ध नमो, आचारज वाचक साहु नमो॥ दर्शन ज्ञान चारित्र नमो, तप ए सिद्धचक्रं सदा प्रणमो॥१॥ अरिहंत अनंत थया थाशे, वली भावनिक्षेपे गुण गाशे ॥ पमिकमणां देववंदन विधिद्यु, आंबिल तप गणणुं गणो विधिशुं ॥ २॥ छरि पाली जे तप करशे,श्रीपाल तणी परे भव तरशे। सिद्धचक्रने कुण आवे तोले, एहवा जिनआगम गुण बोले ॥ ३॥ साडाचारे वरषे तप पूरुं, ए कर्म विदारण तप शूरूं ॥ सिद्धचक्रने मनमंदिर थापो, नय विमलेश्वर वर आपो॥४॥ इति ॥
॥ सिद्धचक्र स्तुति ॥ ___ अंगदेश चंपापुरी वासी, मयणाने श्रीपाळ सु. खाशी । समकितसुं मनवासी, आदि जिनेश्वरनी उल्लासी, भावपूजा कीधी मन आशी । भाव धरी वि
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(३३०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ श्वासी। गलित कोढ गयो तेणे नाशी, सुविधिसु सिद्धचक्र उपासी, थया स्वर्गना वासी । आशो चैत्र तणी पौर्णमासी, प्रेम पूजो भक्ति विकाशी, आदि पुरुष अविनाशी ॥१॥ केशर चंदन मृगमद घोळी, हरखसुं भरी हेम कचोली, शुद्ध जळे अंघोळी। नव आंबिलनी कीजे
ओळी, आसो सुदि सातमथी खोळी, पूजो श्रीजिनटोळी । चउगतिमाहे आपदा चोळी. दुर्गतिना दुःख दूर ढोळी, कर्म निकाचित रोळी। कर्म कषाय तणा मद रोळी, जिम शिव रमणीभमर भोळी, पाम्यासुखनी ओळी, ॥२॥ आसो शुदि सातमश्यु विचारी, चैत्री पण चित्तसु निरधारी, नव आंबिलनी सारी । ओळी कीजे आलसवारी, प्रतिक्रमण बे कीजे धारी, सिद्धचक्र पूजो सुखकारी । श्रीजिनभाषित पर उपकारी, नवपद जाप जपो नरनारी, जिम लहो मोक्षनी बारी। नवपद महिमा अति मनोहारी, जिन आगम भाखे चमत्कारी, जाउं तेहनी बलिहारी ॥३॥ श्याम भमर सम वीणा काली, अति सोहे सुंदर सुकुमाळी, जाणे
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॥ थायो
(३३१)
राजमराली । जलहल चक्र धरे रूपाली, श्रीजिनशासननी रखवाळी, चक्रेश्वरी म्हें भाळी । जे ए ओळी करे उजमाळी, तेनां विघ्न हरे सह बाळी, सेवक जन संभाळी। 'उदयरतन' कहे आलस टाळी, जे जिन नाम जपे जपमाळी, ते घर नित्य दीवाळी ॥४॥
. ॥श्रीसिद्धचक्र स्तुति ॥ .
जं भात्तजुत्ताजिणसिद्धसूरिउवज्झायसाहूण कमे नमंति । सुदंसणन्नाण तवो चरित्तं, पुअंतु पावेह सुहं अणंतं ॥१॥नामाइभेएण जिणिंदचंदा, निचं नया जसि सुरिंदविंदा' ते सिद्धचक्करस तवे रयाणं, कुणंतु भवाण पसस्थनाणं ॥२॥ जो अस्थओ वीरजिणेण पुविं, पच्छा गणिंदेहि सुभासिओ अ। एयस्स आराहणतप्पराणं सो आगमो सिद्धिसुहं कुणेउ ॥३॥ सवत्थ सो विमलप्पहाई, देवा तहा सासणदेवयाओ। जे सिद्धचक्कमि सयावि भत्ता, परितु भवाण मणोरहंते ॥ ४ ॥
॥ सिद्धचक्र स्तुति ॥ भत्तिजुत्ताण सत्ताण मणकामणा-पूरणे कप्पत
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(३३२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ रुकामधेणूवमं। दुक्खदोहग्गदारिदनिन्नासयं,सिद्धचक्कं सया संथुणे सासयं ॥१॥ तिजगजणसंथुणिअपाय पंकेरूहा, हेमरूप्पंजणासोगनीलप्पहा । सिद्धचकं थुणंताण कयनिव्वुई, सव्वतित्थंकरा दितु नाणुन्नई ॥२॥ जत्थ जिणसिद्धसूरिवायगजइ दंसणं नाणचरणं तवं नवपइ । सिद्धचक्कस्स वणिजए तं सया, नमह सिरिवीरसिद्धतमाणदिआ॥३॥ जक्खिणीजक्खवरिदिसिवालया जयविजयजभिणीपमुहवरदेवया । दिंतु सत्ताण खुदाण निन्नासगं, सिद्धचक्कं भयंताण कल्लाणगं ॥ ४॥
॥ नवपद स्तुति ॥॥ ॥ श्री शत्रुजय तीरथ सार ॥ ए चाल । श्रीसिद्धचक्रमा छे त्रण तत्व । देवगुरु धर्म तणुं एकत्व । आराधो धरी सत्व॥बे पद देवतत्त्वमां सारां। गुरुतत्त्वे त्रण पद छे प्यारां । धर्ममां चार उदारां ॥ विद्याप्रवाद पूर्वथी सार। सिद्धचक्रनो को उद्धार । पूर्वधरे धरी प्यार॥ विमलेश्वर सुर पूरे आश। जे करे नवपद तप उल्लास । 'हंस' लहे शिववास ॥१॥
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॥ थोयो॥
(३३३) ॥ श्री सिद्धचक्र स्तुति ॥ झात्वा प्रश्नं तदर्थ गणधरमनसं प्रागवद्वीरदेवः, अर्हत्सिद्धार्यसाधुप्रभृतिनवपदान् सिद्धचक्रस्वरूपान् । ये भुव्याश्रित्य धिष्णं प्रतिदिनमधिकं संजपन्ते स्वभक्त्या, ते स्युः श्रीपालवच्च क्षितिवरपतयः सिद्धचक्रप्रसादात् ॥ १॥ दुस्तीणं निस्तरीतुं भवजलनिधिकं पाणियुग्मे गृहीत्वा, यानेकान् कोटिकुम्भान् कनकमणिमयान् षष्टिलक्षाभियुक्तान् । गंगासिन्धुहदानां जलनिधितटतस्तीर्थतोयेन भृत्वा, सत्सार्वाधीश्वराणां सुरपतिनिकरा जन्मकृत्यं प्रचक्रुः ॥२॥ कुर्युदेवास्त्रिवप्रं रजतमणिमयं स्वर्णकान्त्याऽभिरामे, स्थित्वा स्थाने सुवाक्यं जिनवरपतयः प्रावदन् यां च नित्यम् । तां वाचां कर्णकूपे सुनिपुणमतयः श्रद्धया ये पिबन्ति, ते भव्याः शैवमागागमविधिकुशला मोक्षमासादयन्ति ॥३॥ देवी चक्रेश्वरी स्रग्दधति च हृदये पत्तने देवकाख्य कामे मोदाभिकीर्णे विमलपदयुजि सिद्धचक्रस्यबीजे। श्रीमद्वार्षादियुक्तैर्विजयप्रभवरैर्यरूपैर्मुनीन्द्रः, स्तुत्या
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( ३३४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
नित्यं सुलक्ष्मीविजयपदवृतैः प्रेमपूर्णैः प्रसन्ना ॥ ४ ॥ इति श्रीसिद्धचक्रस्तुतयः । ॥ सिद्धचकनी स्तुति ॥
प्रह उठी वंदु, सिद्धचक्र सदाय, जपीये नवपदनो, जाप सदा सुखदाय, विधिपूर्वक ए तप, जे करे थइ उजमाल; ते सवि सुख पामे, जेम मयणा श्रीपाल ॥ १ ॥ मालवपति पुत्री, मयणा अति गुणवंत । तस कर्मसंयोगे, कोढी मळीयो कंत । गुरु वयणे तेणे, आराध्यं तप एह | सुख संपद वरीया, तरीया भवजल तेह ॥२॥ अविलने उपवास, छठ वली अठम । दस अघाइ पंदर, मासी छमासी विशेष ॥ इत्यादिक तप बहु, सहुमांहि शिरदार | जे भवियण करशे, ते तरशे संसार ॥ ३ ॥ तप सांनिध्य करशे, श्री विमलेश्वर यक्ष, सहु संघना संकट, चूरे थइ प्रत्यक्ष । पुंडरीक गणधर, कनक विजय बुद्ध शिष्य । बुद्ध दर्शनविजय कहे, पहोंचे स-यल जगीश ॥ ४ ॥
॥ श्रीसिद्धचक्रस्तुतिः ॥
विपुल कुशलमाला केलिगेहं विशाला, समविभव
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॥ थोयो॥
(३३५) निधानं शुद्धमंत्रप्रधानं ॥ सुरनरपतिसेव्यं दिव्यमाहात्म्यभव्यं, निहतदुरितचक्रं, संस्तुवे सिद्धचक्रम् ॥१॥ दमितकरणवाह--भावतो यः कृताहं, कृतिनिकृतिविनाशं पूरितांगिव्रजांशम् ॥ नमितजिनसमाज-सिद्धचक्रादिबीजं, भजति स गुणराजीः सोऽनिशं सौख्यराजीः ॥२॥ विविधसुकृतशाखो भंगपत्रौघशाली, नयकुसुममनोज्ञः प्रौढसंपत्फलाढयं ॥ हरतु विनुवां श्री-सिद्धचक्रं जनानां, तरुरिव भवतापा-नागमःश्रीजिनानाम् ॥३॥जिनपति पदसेवां सावधाना धुनाना, दुरितरिपुकदंब-कांत(त) कांतिं दधाना॥ ददतु तपसि पुसां सिद्धचक्रस्य नव्य-प्रमदमिह रतानां रोहिणीमुख्यदेव्यः ॥४॥
॥ श्रीसिद्धचक्र स्तुति ॥ पहीले पद जपीये अरिहंत, वीजे सिद्ध जपो जयवंत, त्रीजे आचारज संत । चोथे नमो उवज्झायहसंत, नमो लोए सव्वसाहु महंत, पांचमे पद विलसंता, ॥ दसण मुटुं नमो मतिमंत, सातमे पद नमो
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( ३३६ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह | नाण अनंत, आठमे चारित्र हुंत । नमो तवस्स नवमे सोहंत, श्रीसिद्धचक्रनुं ध्यान धरत, पातिकनो होय अंत ॥ १ ॥ केशर चंदन अगर घसीजे, मांहे कस्तुरी भलीजे घन घनसार ठवीजे, । गंगोदकस्युं न्हवण करीजे श्रीसिद्धचकनी पूजा कीजे, सुरभि कुसुम चरचीजे ॥ कंदरू अगरूनो धूप डहीजे कामधेनुघृत दीप भरजे, निर्मल भाव वहीजे । अनुपम नवपद ध्यान धरीजे, रोगादिक दुःख दूर हरजे, मुक्तिवहु परणीजे || २ || आसो ने वली चैत्र रसाल, उज्वल पक्ष ओली सुविशाल, नव आंबिल चोसाल । रोग शोषनो से तपकाल, साढा चार वरस तस चाल; वली जीवे त्यां भाल ॥ जे सेवे भावि थई जमाल, ते लहे भोग सदा असंराल, जीम मयणा श्रीपाल । छंडी अलगो आल पंपाल, नित्य आराधे त्रण काल, श्रीसिद्धचक्र गुणमाल ॥ ३ ॥ गजगामिनी चंपकदलकाय, चाले पग ने उर ठमकाय, हीयडे हार सोहाय । कुंकुम चंदन तिलक रचाय, पहिरे पीत पटोली बनाय, लीलाये लहकाय ॥ बाली भोळी चक्केसरी माय; जे नर सेवे सिद्धचक्रराय, ये तेहने सुसहाय ।
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॥ थोयो ॥
( ३३७ )
श्रीविजयप्रभसूरि तपगच्छराय; प्रेमविजय सेवी पाय; कांतिविजय गुण गाय ॥ ४ ॥
॥ श्रीसिद्धचक्रजीनी स्तुति ॥ श्रीजिनशासन भविक विमासन, कुमतिकुशासन वारेजी | जे शुभ भावे भवियण ध्यावे, नावे कष्ट किंवारेजी, राजग्रही गुरु गौतम आव्या, वीरतणे आदेशेजी, श्रेणीक आगले नवपद महीमा, श्रीमुखथी उपदेशेजी ॥१॥ श्रीअहापद मध्ये ठवीये; पूरवदिसि सिद्ध जाणोजी आचारज उवझाय मुनीसर, अनुक्रम अह वखाणोजी; ( अग्निखुणे दर्शनपद जाणो, ज्ञानचरण तप सूत्रोजी) ओ ही बीजाक्षरधुरीः गुणीओ, गुरुगमथी ए मंत्रोजी २ आसो चैत्रसुदि सातमथी; नवदिन आंबेल कीजेजी; आठ थोय कही देव वांदीने, देवत्रिकाल पूजीजेजी; एक एक पदनी नवकारवाळी, वीस गुणो शुभभावोजी; आवश्यक दोय टंक करीने, श्री सिद्धचक्र गुणगावोजी ॥ ३ ॥ नव दिन जिनवर चैत्य प्रवाडी; वांद्या जेम श्रीपाळजी
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( ३३८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ साडाचार वर्षे होळी; नव करी तप उजवालेजी. मुनि भीमराज चकेसरी देवी; विमलेसर सुखकारोजी श्रीसंघ सहु दिनदिन अति दीपे; पामीजे भवपारोजी?
॥श्री सिद्धचक्र स्तुति (थोय)॥ १. त्रिगडे बेठा त्रिभुवननायक, वीर वदे एम वाणीजी, श्री श्रीपालतणी परे सेवो, सिद्धचक्र गुण खाणीजी ॥ अरिहंत आदि सिद्ध आचारज, उवज्झाय उलट आणीजी।साहदंसण नाण चारित्र तप, इति नव पद जाणीजेजी॥१॥आसो चैत्र शुदि सातमथी, नव आयंबिल पच्चरुखीजेजी। पडिक्कमणा दीय त्रिकाल पूजा, देववन्दन त्रण कीजेजी ॥ पद एकेकुं प्रतिदिन मन शुद्धे, तेर हजार गुणीजेजी, चोवीश जिननी सेका करीने, नरभव लाहो लीजेजी ॥ २॥ नव दिननी नव ओली करतां, आयंबिल एक्याशी थायजी, साढाच्यार वरसे उजमणुं करीने, तेहने सवी सुख दाइजी ॥ सिरि सिद्धचक्रना न्हवणजलथी, कुष्ठ अढार पलायजी, सकल
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॥ थोयो॥
शास्त्र शिर मुकुट नगीनो, अंगे सुणो चित्त लाइजी॥ ॥३॥ मातंग यश प्रभु. पद सेवे, उलट आणी अंगेजी, सिरि सिद्धचक्रनी ओली करता, विघ्न हरे मन रंगेजी। हंसविजय गुरु पंडित पुंगव, चरण सरोरुह भुंगजी, धीरविजय बुध मंगलमाला सुख संपत्ति लहे चंगजी ॥४॥ इति ॥
श्री स्तुति.
आदीश्वरने पूजो आणी मन उल्लास; सिद्धचक्र आराधो जिम प्होंचे मन आश ॥ आसो चैत्र सातमथी ओलीकीजे सार आंबीलस्युं करता लहीये जय जयकार ॥ १॥ अरिहंत सिद्धादिक आचार्य वलीजेह, उवज्झाय सर्व साधु दर्शन ज्ञानश्युं नेह ॥ चारित्रतप धारो नवपद गुणभंडार; पंचवर्णा जिनवर सेवंता सुखकार ॥२॥ श्रीपालनरेशर मयणा सुंदरी तपसार, उपदेशे श्रीवीरजी परखद बारमझार ॥ श्रेणीकनृप आदे सांभले हरख अपार। आराधो भवि ऋद्धिवृद्धि उदार
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( ३४० ) नवपद विधि विगेर संग्रह ||
॥३॥ रमझमके नेउरी चीर चुनडी नथी सामु गोमुखः चक्केसरी श्री ऋषभशासन हितकार ॥ वंछित फल दे ज्यो सुख संपत्तिदातार; गुरु कुंवरविजयनो रवि लहे
जयकार ॥ ४ ॥
नवपदनी सज्झाय, ( नणदलनी ए देशी. ) वारी जाउं श्री अरिहंतनी, जेहना गुण छे बार ॥ मोहन० ॥ प्रातिहारज आठ छे, मूल अतिशय चार मोहन० ॥ १ ॥ वारि० ॥ वृक्ष अशोक कुसुमनी वृष्टि, दीव्य ध्वनि वाण | मोहन० ॥ चामर, सिंहासन, दुदुभि, भामंडल छत्र वखाण || मो० ॥ वारि० ॥ २ ॥ पूजा अतिशय छे भलो, त्रिभुवन जनने मान ॥ मो० वचनातिशय योजनगामी, समजे भविअसमान ॥ ॥ मो० ॥ वा० ॥ ३ ॥ ज्ञानातिशय अनुत्तरतणा, संशय छेदणहार ॥ मो० ॥ लोकालोक प्रकाशता, केवल ज्ञानभंडार || मो० ॥ वारि० ॥ ४ ॥ रागादिक अन्तररिपु, तेहनो काधो अन्त ॥ मो० ॥ जिहां विचरे जग
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॥ सज्झायो॥ (३४१) दीश्वर तिहां साते ईति संमत ॥ मो० ॥ वा० ५॥ एहवा अपायापगमनो, अतिशय अति अद्भूत ॥ ॥ मो० ॥अहर्निश सेवा सारता, कोडिगमे सुर हुँत ॥ मो० ॥ वा० ॥ ६॥ मार्ग श्री अरिहन्तनो, आदरीये गुणगेह ॥ मो० चारनिक्षेपे वांदीये, ज्ञानविमल गुण गेह ॥ मो० ॥ वा ॥ ७॥ ॥इति अरिहंत प्रथम पद सज्झाय संपूर्ण ॥
॥सिद्धपदनी सज्झाय ॥ अलबे जो होली हलखेडेरे॥ ए देशी ॥ नमो सिद्धाणं बीजे पदेरे लाल, जेहना गुण छे आठ रे, हुं वारी लाल, शुक्लध्यान अनले करीरे लाल, बाळ्या कर्म कुठाररे ॥ १॥ हुं वारी लाल ॥ ज्ञानावरणीक्षये लह्यारे लाल; केवलज्ञान अनंतरे ॥ हुं० ॥ दर्शनावरणी क्षयथी थयारे लाल, केवलदर्शन करंतरे ॥ ९० न० ॥ २ ॥ अक्षय अनन्त सुख सहजथीरे लाल, वेदनी कर्मनो नाशरे ॥ हुं ॥ मोहनीय क्षये निर्मलुरे लाल, हायक समकित वासरे, हुं० ।
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(३४२) नवपद विघि विगेरे संग्रह ॥ न० ॥ ३ ॥ अक्षय स्थिति गुण उपन्योरे लाल, आयु कर्म अभावरे ॥ १० ॥ नाम कर्म क्षये नीपन्योरे लाल, रूपादिक गतिभावरे । ९० न० ॥४॥ अगुरुलघु गुण उपन्योरे लाल, नरहया कोइ विभावरे॥ ९० गोत्र कर्मना नाशथीरे लाल, निज प्रकट्या जस भावरे ॥ हुं० न०॥५॥ अनन्त वीर्य आतमतणुं रे लाल, प्रगट्यो अंतराय नाशरे ॥ हुँ० आठे कर्म नाशीगयारे लाल, अनन्त अक्षयगुण वासरे ॥ ९० न० ॥६॥ भेद पन्नर उपचारथी लाल, अनन्त परम्पर भेदरे ॥ हुं. निश्चयथी वीतरागनारे लाल, किरण कर्म उच्छेदरे ॥ हुं० न० ॥ ७ ॥ ज्ञानविमलनी ज्योतिमारे लाल, भासित लोकालोकरे ॥९॥ तेहना ध्यानथकी थशेरे लाल, सुखीया सघला लोकरे ॥ ९० न० ॥९॥
॥ इति सिद्धपद सज्झाय ॥ ॥त्रीजा आचार्य पदनी सज्झाय ॥ आचारी आचार्यनो जी, बीजे पद धरो ध्यान; शुभ उपदेश प्ररूपताजी, कह्या अरिहंत समान ॥सूरीश्वर।
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॥ सज्झायो॥
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(३४३)
नमतां शिव सुख थाय, भव भवना पातिक जाय ॥ सू० ॥१॥ पंचाचार पलावताजी आपण पेपालंत ॥ छत्रीशी छत्रीश गुणेजी, अलंकृत तनु विलसन्त ॥ सूरीश्वर ॥ नम० ॥२॥ दर्शन ज्ञान चारित्रनाजी, एकेक आठ आचार ॥ बारहतप आचारनाजी इम छत्रीश उदार ॥ सूरी० ॥ नम० ॥३॥ पडिरूपादिक चउदे अछेजी, वली दशविध यतिधर्म ॥ बारह भा. वना भावतांजी, ए छत्रीशी मर्म ॥ सूरी० ॥ नम० ॥४॥ पंचेन्द्रिय दमे विषयथीजी, धारे नवविध ब्रह्म ॥ पंच महाव्रत पोषताजी, पंचाचारसमर्थ ॥ सूरी० ॥ नम० ॥ ५॥ सुमति गुप्ति शुद्धि धरेजी, टाले चार कषाय ॥ ए छत्रीशी आदरेजी, धन्य धन्य तेहनी माय ॥ सूरी० ॥ नम० ॥ ६ ॥ अप्रमत्ते अर्थ भांखताजी, गणि संपद जे आठ ॥ छत्रीश चउ विनयादिकेजी, इम छत्रीशी पाठ ॥ सूरी० ॥ नमः॥ ॥७॥ गणधर उपमा दीजीएजी, युगप्रधान कहाय ॥ भावचारित्री तेहवाजी, तिहां जिनमार्ग ठराय ॥
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(३४४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ सूरी० ॥ नम०॥ ८॥ ज्ञानविमल गुण राजताजी। गाजे शासन मांहे, ते वांदि निर्मल करोजी ॥ बोधि बीज उच्छाह ॥ ९॥ न०॥ इति नवपद अधिकार तृतीय पद सझाय ॥
॥ चतुर्थ पद सज्झाय ॥
॥ पांडव पांचेवा ॥ चोथे पद उवझायर्नु, गुणवंतनुं धरो ध्यानरे, युवराजा समते कह्या, पद सूरिने समानरे ॥१ चो० ॥ जे सूरि समान व्याख्यान करे, पण न धरे अभिमान रे, वळी सूत्र अर्थनो पाठ दीये, भविजीवने सावधान रे॥ चो० ॥२॥ अंग इग्यार चउद पूर्व जे वळी भणे भणावे जेहरे ॥ गुण पचवीश अलंकर्या, दृष्टिवादे अर्थना गेह रे ॥ चो० ॥३॥ बहु नेहे अर्थ अन्यासे सदा, मन धरता धर्मध्यान रे ॥ करे गच्छ निश्चिंत प्रवर्तक, दिये स्थविरने बहु मान रे ॥ चो० ॥४॥ अथवा अंग इग्यार जे वळी, तेहना बार उपांग रे ॥ चरण करणनी सित्तरी, जे धारे आपणे
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॥ सज्झायो ॥ (३४५) अंग रे ॥ चो० ॥५॥ वळी धारे आपणे अंग, पंचागीसम-ते शुद्धवाणी रे ॥ नयगमभंग प्रमाण विचारने, दाखता जिन आणरे ॥ चो० ॥ ६॥ संघ सकल हित कारीया, रत्नाधिक मुनिहितकार रे॥ पण व्यवहार प्ररूपता, कहे दस समाचारी आचार रे ॥ ॥७॥ इन्दिय पंचथी विषय विकारनें, वारता गुणगेहरे ॥ श्रीजिनशासन धर्मधुरा, निरवाहता शुचिदेहरे ॥ ८॥ पचविशि पचविस गुणतणी, जे भाखी प्रवचन माहे रे ॥ मुक्ताफल सुक्तापरे, दीपे जस अंग उछाहरे ॥ ९॥ जस दीपे अति उच्छाहे, अधिक गुणे जीवथी एकतानरे ॥ एहवा वाचकनुं उपमान कहुं किम; तेहथी शुभ ध्यान रे ॥१०॥ इति चतुर्थ पद सझाय संपूर्ण ॥
॥ पञ्चमपद सज्झाय ॥
॥राग धनाश्री ॥ ॥ मगधदेश राज गृही नगरी ॥ ए देशी
ते मुनिने करुं वन्दन भावे, जे षट्काय व्रत राखेरे ॥ इन्द्रिय पण दमे विषय घणाथी, वलि शा
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(३४६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ न्ति सुधारस चाखेरे ॥१॥ ते मुनिने करुं वन्दनभावे ॥ ए टेक ॥ लोभ तणा निग्रहने करता; वली पडिलेहणादिक किरियारे ॥ निराशंसयतनाए बहु पदी; वळी करणशुद्धि गुणदरियारे ॥ ते मुनि० ॥ ॥२॥ अहनिश संजम योगशुं युक्ता; दुर्धर परिसह सहतारे ॥ मन वच काय कुशळता जोगे, वरतावे गुण अनुसरतारे ॥ ते मुनि० ॥ ३ ॥ छंडे निज तनु धरमने कामे, उपसर्गादिक आवे रे ॥ सत्तावीश गुणे करी सोहे. सूत्राचारने भावेरे ॥ ते मुनि० ॥ ४ ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र तणा जे, त्रिकरण जोग आचार रे ॥ अंगे धरे निःस्पृहता शुधि, ए सत्तावीश गुण साररे ॥ ते मुनि० ॥ ५॥ अरिहंतभक्ति सदा उपदिशे; वायगसूरीना सहाइरे ॥ मुनि वीण सर्वे क्रिया नवी सूजे; तीर्थ सकल सुखदाइरे ॥ ते मुनि० ॥६॥ पद पांचमे इणि परे ध्यावो, पंचमी गति ने साधोरे॥ सुखी करजो शासननायक, ज्ञानविमल गुण वाधोरे ॥ ते मुनि० ॥ ७ ॥ इति नवपद विष पंचम मुनिपदनी सज्झाय संपूर्ण.
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॥ सज्झायो ॥
सज्झाय.
देशी भ्रमरगीतानी.
गुरु नमतां गुण उपजे, बोले आगम वाण श्री श्रीपालने मयणासुंदरी, सद्दहे गुणखाण
( ३४७ )
श्री मुनीचंद मुनीसर बोले अवसर जाण ॥१॥ आंबिलनो तप वरणण्यो, नवपद नवेरे निधान कष्ट टळे आशा फळे, वाधे वसुधा वान ॥ श्री० ॥२॥ रोग जाए रोगी तणा, जाए सोग संताप बाहलावृंद भेळा मले, पुन्य वधे घटे पाप ॥श्री० ॥३॥ उज्वल आसो सातम, तप मांडे तनुहेत पुरण विध पुनिमलगे कामिनी कंत समेत ॥श्री०॥४॥ चैत्र सुद माहे तीम, नव आंबील नीरमाय इम एकाशी आबिले, ए तप पुरो थाय ॥ श्री० ॥५॥ राज नीकंटक पाळतां नवशत वरस वलीन देशविरतिपणुं आदरी, दीपाव्यो जगजैन ॥ श्री० ॥६॥ गजरथ सहस ते न बहुच्या नवलख तेजी तोखार नवकोडी हयदल भलुं नवनदन वननाड्य ॥ श्री ७॥
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( ३४८ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह |
तपप उद्यापन थकी, लाधो नवमो सग्ग सुरनरना सुख भोगवी, नवमे भव अपवग्ग ॥ श्र० ८ ॥ हंसविजय कविरायना जी मजलउपर नाव आप तरे पर तारवे मोहन सुहस्वभाव ॥ श्री० ९॥
अथ नोकाखालीनी सज्झाय.
॥ बार जपुं अरिहंतना, भगवंतना रे गुण हुं निशदीस || सिद्ध आठ गुण जाणिये वखाणीये गुण सरि छत्रीश ॥ नोकारवाली वंदीये ॥ १ ॥ चिर नंदिये रे उठी गणीये सवेर || सूत्रतणा गुण गुंथिया, मणिआ मोहन रे मह मोटो मेर ॥ नोका० ॥ २ ॥ पंचवीश उवझायना, सत्तावीश रे गुण श्री अणगार ॥ एकशो आठ गुणे करी, इम जपीयें रे भवियण नवकार ॥ नोका० ॥ ३ ॥ मोक्ष जाप अंगुठडे, वैरी जूठडें रे तर्जनी अंगुली जोय ॥ बहु सुखदायक मध्यमा, अनामिका रे वश्यारथ होय ॥ नोका० ॥४॥ आकर्षण टची अंगुली, वली सुणजो रे ए गणवानी रीति ॥ मेरु उल्लंघन मम करो, मम करजो रे नख
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॥ सज्ज्ञायो॥ अग्रे प्रीति ॥ नोका० ॥५॥ निश्चल चित्ते जे गणे, जे गणे संख्यादिकथी एकांत ॥ तेहने फल होए अतिघj, इम बोले रे जिनवर सिद्धांत ॥ नोक० ॥६॥ शंख प्रवाल स्फटिक मणि, पन्ना जीव रतांजली मोती सार ॥ रूप सोवन रयण तणी, चंदन अवर अगरने घनसार ॥ नोका०॥ ७॥ सुंदर फल रुद्राक्षनी जपमालिका रे रेशमनी अपार ॥ पंचवरण सम सत्रनी, वली वस्तुविशेष तणी उदार ॥ नोका०॥ ८॥ गौतम पुंछंते कह्यो, महावीरे रे ए संयल विचार ॥ लब्धि कहे भवियण सुणो, गणजो भणजो रे नित्य सझायो नवकार ॥ नोका० ९॥ इति ॥
॥श्री सिद्धनी सज्झाय ॥ .. आठ कर्म चूरण करीरे लाल, आठ गुण परसिद्ध । मेरे प्यारे ॥ क्षायिक समकितना धणीरे लाल ॥ वंदु वंदु एहवा सिद्ध ॥ मेरे प्यारे ॥आ०॥१॥ अनंत नाण दरसण धरारे लाल, चोथु वीर्य अनंत ॥ मे०॥ अगुरुलघु सूक्ष्म कह्यारे लाल, अव्याबाध महंत ॥ मे० ॥
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( ३५०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ आ० ॥२॥ जेहनी काया जेहवीरे लाल, उणी त्रीजे भागे ॥ मे०॥ सिद्धशिलाथी जोयणेरे लाल, अवगाहना वीतरागे ॥ मे० आ० ॥३॥ सादिअनंता तिहां घणारे लाल, समय समय तेह जाय ॥ मे० ॥ मंदिर माहे दिपालीकारे लाल, सघलो तेज समाय ॥ मेरे० ॥ ४॥ मानवभवथी पामीयेरे लाल, सिद्ध तणा सुख संग ।। मेरे० ॥ एहनुं ध्यान सदा धरीरे लाल, एम बोले भगवर अंग ॥ मेरे० अ० ॥५॥ श्री विजयदेव पटोधरुरे लाल. श्री विजयसेनसूरीश मे० ॥ सिद्धतणा गुण ए कह्यारे लाल, देव दीए आशीष ॥ मे० ॥ आ० ॥ ६॥ इति श्री सज्झाय संपूर्ण
॥ नवपद महिमानी सज्झाय ॥ ॥ सरसती माता मया करो, आपो वचन विलासोरे । मयणासुंदरी सती गायशुं, आणी हीयडे भावोरे ॥१॥ नवपद महिमा सांभळो, मनमां धरी उल्लासोरे ॥ मयणासुंदरी श्रीपालने, फलीयो धर्म उदारोरे ॥ न० ॥२॥ मालव देशमाही वली, उज्जेणी
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॥ सज्झायो॥ (३५१) नयरी जामोरे ॥ राज्य करे तीहां राजीओ, पुहवीपाल नरिंदोरे ॥ न० ॥३॥ रायतणीं मनमोहनी, धरणी अनोपम दोयरे ॥ तासु कुंखे सुता अवतरी, सुरसुंदरी मयणा जोडरे ॥ न० ॥ ४ ॥ सुरसुंदरी पंडित कने, शास्त्र भणी मिथ्यातोरे ॥ मयणासुंदरी सिद्धांतनो, अर्थ लीयो सुविचारोरे ॥ न० ॥ ५॥ राय कहे पुत्री प्रत्ये, हुं तुठो तुम जेहोरे ॥ वंछीत वर मागो तदा, आपुं अनोपम जेहोरे ॥ न०॥ ६ ॥ सुरसुंदरीए वर मागीओ, परणावी शुभ ठामोरे ॥ मयणासुंदरी वयणां कहे, कर्म करे ते होयरे ॥ न० ॥७॥ करमे तुमारे आवीयो, वर वरो बेटी जेहोरे ॥ तात आदेशे कर ग्रह्यो, वरीयो कुष्टी तेहोरे ॥ न० ॥ ८ ॥ आंबिलनो तप आदरी, कोढ अढारनो कालोरे ॥ सद्गुरु आज्ञा शिरधरी, हुओ राय श्रीपालोरे ॥न०॥ ॥९॥ तप प्रसादे सुख संपदा, प्रत्यक्ष खगें पहुंतोरे ॥ उपसर्ग सवी दूरे टळ्या, पाम्यो सुख अनंतोरे ॥ ॥ न० ॥ १० ॥ देश देशांतर भमी करी, आव्यो ते वरसंतोरे ॥ नव राणी पाम्या भली, राज्य पाम्यो म
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(३५२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ नरंगोरे ॥न० ॥ ११ ॥ तपगच्छ दिनकर उगीयो,श्री विजयसेन सूरिंदोरे, तास शिष्य विमल एम विनवे, सतीय नामे आणंदोरे॥ १२ ॥
॥ साधुजीनी सज्झाय ॥ ॥ पंचमहाव्रत दशविध यतिधर्म, सत्तर, संजम भेद पालेजी ॥ वैयांवच्च दस नवविधब्रह्मचर्य, वाड भली अजुआलोजी ॥१॥ ज्ञानादित्रय बारे भेदे, तप करे जे अनिदानजी॥क्रोधादिक चारेनो निग्रह, ए चरणसीत्तेरी मानजी ॥ २॥ चउविध पिंड वसती वस्त्र पात्र. निर्दूषण ए लेवेजी, सुमति पांच वली पडिमा बारह, भावना बारह सेवेजी ॥ ३॥ पचविश पडीलेहण पंचइंद्रिया ॥ विषयविकारथीवारेजी, त्रिण गुप्तिने च्यार अभिग्रह, द्रव्यादिक संभारेजी ॥४॥ करणसीत्तेरि एहवी सेवे, गुण अनेक वली वाधेजी ॥ संजमी साधु तेहने कहीये, बीजा सवी नाम धरावेजी ॥५॥ ए गुण विण प्रवज्या बोली, आजीविकाने तोलेजी; ते खटकाय असंजमी जाणो, धर्मदास गणी
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। सज्झायो ॥ (३५३) बोलेजी ॥ ज्ञानविमल गुरु आणा धरीने, संजम शुद्ध आराधोजी ॥ जिम अनुपम शिवसुख साधो, जगमां कीर्ति वाधेजी ॥७॥
श्री सिद्धपदनी सझाय
___ श्री मुनिचंद्र मुनीश्वर बंदीए, गुणवंता गणधार, सुज्ञानी; देशना सरस सुधारस वरसता, जिम पुष्करजळधार, सु० श्री ॥१॥ अतिशय ज्ञानी. परउपकारीआ, संयम शुद्ध आचार, सु०॥ श्रीश्रीपाळ भणी जाप आपीओ, करी सिद्धचक्र उद्धार, सु० श्री० ॥२॥ आंबिलतप विधि शीखी आराधीयो, पडिकमणां दोय वार, सु० अरिहंतादिक पद एक एकनो, गणणुं दोयं हजार, सु० श्री० ॥३॥ पडिलहण दोय टंकनी आदरे, जिनपूजा त्रण काळ, सु०, ब्रह्मचारी वळी भोंय संथार, वचन न आळ पंपाळ, सु०, श्री० ॥ ४॥ मन एकाग्र करी आंबिल करे, आसो चैतर मास, सु० शुदि सातमथी नव दिन कीजीए, पूनमे ओ. च्छव खास, सु०, श्री ॥५॥ एम नव ओळी एकाशी आंबिले, पूरी पूरण हर्ष, सु० उजमणुं पण उद्यमथी करे, साडा चारे रे वर्ष, सु० श्री० ॥ ६॥ ए आराधनथी सुखसंपदा. जगमां कीर्ति रे थाय, सु० रोग उपद्रव नासे एहथी, आपदा दूरे पलाय, सु० श्रो॥ ७ ॥संपदा वाघे अति
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१३५४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ सोहामणी, आणा होय अखंड, सु०, मंत्र जंत्र तंत्र साहतो, महिमा जास प्रचंड, सु० श्री०॥ ८॥चक्रेश्वरीजेहनी सेवा करे, विमलेश्वर वळी देव, सु० मन अभिलाष पूरे सवि तेहना, जे करे नवपद सेव, सु० श्री० ॥९॥ श्रीपाळे तेणी परे आराधीओ,दूर गयो तास रोग, सु०; राजऋद्धि दिन दिन प्रत्ये वाधतो, मनवंछित लह्यो भोग; सु० श्री० ॥१०॥ अनुक्रमे नवमे भव सिद्धि वर्याः सिद्धचक्र सुपसाय; सु० एणी परे जे नित्य नित्य आराधशे; तस जस वाद गवाय; सु० श्री० ॥ ११॥ सांसारिक सुख विळसी अनुक्रमे; करीए कर्मनों अंत,सु०, घाती अघाती क्षय करी भोगवो, शाश्वत सुख अनंत, सु० श्री ॥ १२॥ एम उत्तम गुरु वयण सुणी करी, पावन हुवा बहु जीव, सु० पद्मविजय कहे ए सुरतरु समो, आपे सुख सदैव, सु. श्री० ॥१३॥
चरणसित्तरी करणसित्तरीनी सझाय, पंच महाव्रत दशविध यति धर्म, सत्तर संजम भेद पाळे जी; वैयावृत्त्य दश नवविध ब्रह्मचर्य, वाड भली अजवाळे जी.॥१॥ ज्ञानादिक त्रण बारे भेदे, तप करी जेह निदान जी; क्रोधादिक चारनो निग्रहं, ए चरण सितरी मानजी. ॥२॥ चउविध पिंड वसति वस्त्र पात्र, निर्दषण ए लेवे जी;समिति पांच वळी पडिमा बारे, भा
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॥ सज्झायो॥
(३५५) वना बारे सेवेजी.॥३॥पच्चीश पडिलेहणा पण इंद्रिय,विषयविकारने वारो जी; त्रण गुप्ति वळी चार अभिग्रह, द्रव्यादिकथी संभाळो जी.॥४॥ करणसित्तरी इणविध सेवे, गुण अनेक वळी धारेजी, संजमी साधु तेहने कहीए, बीजासवि नाम धारी जी.॥२॥ ए गुण विण प्रव्रज्या बोली,आजीविकाने तोले जीते षट काय असंजमी जाणो, धर्मदास गणी बोले जी ॥६॥ज्ञानविमळ गुरु आणा धरीने, संजम शुद्ध आराधेजी; जिम अनुपम शिव सुख साधे, जगमां सुजस ते वाधे जी.॥७॥ ॥ श्री अजितसेन मुनिए श्रीश्रीपाळ महाराजाने
आपेल उपदेश ॥
हस्तिनागपुर वर भलो-ए देशी. प्राणी वाणी जिनतणी, तुम्हें धारो चित्त मझाररे; मोहे मुंज्या मत फिरो, मोह मूके सुख निरधाररे; मोह मुके सुख निरधार, संवेग गुण पालीये पुण्यवंतरे; पुण्यवंत अनंत विज्ञान, वदे इम केवली भगवंतरे. १ दश दृष्टांतें दोहिलो, मानवभव ते पण लद्धरे; आर्यक्षेत्रे जन्म जे, ते दुर्लभ सुकृत संबंधेरे ।
ते दुर्लभ सुकृत संबंधरे ॥ संवे० ॥२॥
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(३५६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ आर्यक्षेत्रे जनम हुओ, पण उत्तमकुल ते दुर्लभरे । व्याधादिककुले उपनो,शुंआर्यक्षेत्र अचंभरे,शं.संवे०३॥ कुल पामे पण दुल्लहो, रूप आरोग आउ समाजरे । रोगी रूपरहित घणा, हीण आउ दीसे छे आजरे ॥
हणि आउ दीसे छे आजरे. संवे० ॥४॥ ते सवि पामे पण सही, दुलहो छ सुगुरु संयोगरे। सघळे खेत्रे नहिं सदा, मुनि पामीजें शुभ योगरे ॥
मुनि पामीजे शुभ योगरे, संवे० ॥ ५॥ महोटे पुण्ये पामीयें, जो सद्गुरु संग सुरंगरे। तेर काठीया तो करे, गुरु दर्शन उत्सव भंगरे. गु. संवे॥६॥ दर्शन पामे गुरुतj, धूतें व्युदग्राहित चित्तरे । सेवा करी जन नवि शके, होय खोटोभाव अमित्तरे॥
___ होय खोटो भाव अमित्तरे. संवे०॥७॥ गुरुसेवा पुण्ये लही, पासे पणु बेठा नित्तरे । धर्मश्रवण तोहे दोहिलं, निद्रादिक दिये जो भित्तरे ॥ निद्रादिक दियेजो भित्तरे संवे०॥८॥ पामी श्रुत पण दुल्लही, तत्त्वबुद्धि ते नरने न होयरे ।
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श्रीपाळ महाराजाने आपेल उपदेश ॥ (३५७) शृंगारादिक कथारसें, श्रोता पण निज गुण खोयरे.
श्रो० संवे० ॥९॥ तत्व लहे पण दुल्लही, सदहणा जाणो संतरे। कोई निज मति आगल करे. कोड डामाडोल फिरंतरे॥ कोइ डामाडोल फिरंतरे
संवे०॥१०॥ आप विचारे पामिये, कहो तत्त्वतणो किम अंतरे । आलसुआ गुरु शिष्यनो, हां नावियो मन वृत्तांतरे ॥ इहां भावियो मन वृत्तांतरे. संवे० ॥ ११ ॥ बठरछात्र गज आवता, जिम प्राप्त अप्राप्त विचाररे । करेन तेंहथी ऊगरे,तेम आपमतिनिरधाररे;ते० संवे॥१२॥
आगम ने अनुमानथी, वली ध्यानरसें गुणगेहरे। करे जे तत्त्वगवेषणा,ते पामे नहि संदेहरे ते०संवे॥१३॥ तत्त्वबोध ते स्पर्श छे, संवेदन अन्यस्वरूपरे। संवेदन वंध्येहुइ, जेस्पर्श ते प्राप्तिरूपरे जे संवे० ॥१४॥ तत्त्व ते दशविध धर्म छे, खंत्यादिक श्रमणनो शुद्धरे। धर्मनुं मूल दया कही, ते खंतिगुणें अविरुद्धरेते संवे०१५ विनयने वश छे गुण सवे, ते तो मार्दवने आयत्तरे।
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( ३५८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ जेहने मार्दव मन वस्यु, तेणें सवि गुणगण संपत्तरे ॥ तेणे सवि गुणगण संपत्तरे. संवे० ॥ १६ ॥ आर्जव विण नवि शुद्ध छे, नवि धर्म आराधे अशुकरे। धर्म विना नवि मोक्ष छे, तेणें ऋजुभावी होय बुझरे॥ तेणें ऋजुभावी होय बुध्धरे. संवे० ॥१७॥ द्रव्योपकरण देहनां. वलि भक्त पान शुचिभावरे। भावशौच जिम नवि चले, तिम कीजें तास बनावरे॥ तिम कीर्जे तास बनावरे. संवे० ॥१८॥ पंचाश्रवथी विरमायें, इंद्रिय निग्रहीजें पंचरे। चार कषाय त्रण दंड जे, तजीये ते संजम संचरे ॥ तंजीये ते संजम संचरे, सं० ॥१९॥ बांधव धन इंद्रियसुख तणो,वलि भय विग्रहनो त्यागरे।। अहंकार ममकारनो, जे करशे ते महाभागरे जे०संवे०२० अविसंवाद नजोग जे, वळि तन मन वचन अमायरे। सत्य चतुर्विध जिन कह्यो, बीजे दर्शन न कहायरे ॥ बीजे दर्शन न कहायरे. संवे ॥ २१ ॥ षविध बाहिर तप कयुं अभ्यंतर षविध होयरे ॥
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श्रीपाळ महाराजाने आपेल उपदेश || कर्म तपावे ते सही, पडिसोअ वृति पण जोयरे, पडिसोअ वृत्ति पण जोयरे
दिव्य औदारिक काम जे, कृत कारित अनुमति भेदरे । योग त्रिर्के तस वर्जवुं, ते ब्रह्म हरे सवि खेदरे । तें ब्रह्म हरे सवि खेद रे. संवे० ॥ २३ ॥ अध्यात्मवेदी कहे मूर्च्छा ते परिग्रह भावरे ॥ धर्म अकिंचनने भयो, ते कारण भवजल नावरे ॥ ते कारण भवजल नावरे ॥ संवे० ॥ २४ ॥ पांच भेद छे खंतिना, उवयारवयार विवागरे ॥ वचन धर्म तिहां तीन छे, लौकिक दोइ अधिक सोभागरे ॥ लौकिक दोइ अधिक सोभागरे, संवे० ॥ २५ ॥ अनुष्ठान ते चार छे, प्रीति भक्ति ने वचन अंसगरे । त्रण क्षमा छे दोयमां, अग्रिम दोयमां दोय चंगरे । अग्रिम दोयमां दोय चंगरे. संवे० ॥ २६ ॥ वल्लभ स्त्री जननी तथा, तेहना कृत्यमां जुओ जुओ राग रे । पक्किमणादिक कृत्यमां, एम प्रीति भक्तिनो लागरे ।
( ३५९ )
संवे० ॥ २२ ॥
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( ३६० )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
संवे० ॥ २७ ॥
एम प्रीति भक्तिनो लागरे. वचन ते आगम आसरी. सहेजें थायें असंगरे । चक्रभ्रमण जिम दंडथी, उत्तर तदभावे चंगरे । उत्तर तदभावे चंगरे. संवे० ॥ २८ ॥
विष गरल अनुष्ठान छे, तद्धेतु अमृत वलि होयरे । त्रिक तजवा दोय सेववा, ए पांच भेद पण जोयरे । ए पांच भेद पण जोयरे. संवे० ॥ २९ ॥ विषकिरिया ते जाणीयें, जे अशनादिक उद्देशरे । विष ततखिण मारे यथा, तेम एहज भव फल लेशरे । तेम एहज भव फल लेशरे. संवे० ॥ ३० ॥ परभवें इन्द्रादिक ऋद्धिनी इच्छा करतां गरल थायरे । ते कालांतर फळ दीए, मारे जीम हडकियो वायरे । मारे जीम हडकियो वायरे. संवे० ॥ ३१ ॥ लोक करे तिम जे करे, उठे बेसे समूर्च्छिम प्रायरे । विधि विवेक जाणे नहीं, ते अन्यानुष्ठान कहायरे ।
ते
संवे० ॥ ३२ ॥
अन्यानुष्ठान कहायरे ॥ हेतु ते शुद्धरागथी, विधिशुद्ध अमृत ते होयरे ।
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श्रीपाळ महाराजाने आपेल उपदेश ॥ (३६१ ) सकल विधान जे याचरे, ते दीसे विरला कोयरे । ते दीसे विरला कोयरे ॥ संवे० ॥ ३३ ॥ करण प्रीति आदर घणो, जिज्ञासा जाणनो संगरे । शुभ आगम निर्विघ्नता, ए शुद्ध क्रियानां लिंगरे॥ ए शुद्ध क्रियानां लिंगरे ॥ संवे० ॥ ३४ ॥ द्रव्यलिंग अनंतां धर्या, करी किरिया फळ नवि लद्धरे शुद्धक्रिया तो संपजे, पुद्गल आवर्तने अद्धरे ॥ पुद्गल आवर्त्तने अद्धरे॥ संवे०॥ ३५॥ मारग अनुगति भाव जे, अपुनर्बधता लद्धरे ॥ किरिया नवि उपसंपजे, पुद्गळ आवर्त ने अद्धरे ॥ पुद्गल आवर्तने अद्धरे ॥ संवे०॥३६ ॥ अरिहंत सिद्ध तथा भला, आचारिज ने उवज्झायरे साधु नाण देसण चरित्त, तव नवपद मुगति उपायरे। तव नवपद मुगति उपायरे ॥ संवे० ॥३७॥ ए नवपद ध्यातां थकां, प्रगटे निज आतमरूपरे । आतम दरिसण जेणे कयु, तेणे मूंद्यो भवभयकूपरे ॥ तेणे द्यो भवभयकूपरे ॥ संवे०॥३८॥
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( ३६२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ क्षण अर्द्ध जे अघ टले; ते न टले भवनी कोडीरे । तपस्या करतां अति घणी, नहि ज्ञानतणी छे जोडीरे नहि ज्ञानतणी छे जोडीरे ॥ संवे० ॥ ३९ ॥ आतमज्ञाने मगन जे, ते सवि पुद्गलनो खेलरे. इन्द्रजाल करी लेखवे, न मिले तिहां देइ मनमेलरे॥ न मिले तिहां देई मनमेलरे ॥ संवे०॥ ४० ॥ जाण्यो ध्यायो आतमा, आवरणरहित होय सिद्धरे । आतमझान ते दुःख हरे, एहिज शिवहेतु प्रसिझरे ॥ एहिज शिवहेतु प्रसिझरे संवे० ॥ ४१ ॥ चोथे खंडे सातमी, ढाल पूरण थई ते खासरे; नवपद महिमा जे सुणे, ते पामे सुजस विलासरे ॥ ते पामे सुजस विलासरे ॥ संवे ॥ ४२ ॥ ॥ श्री श्रीपालमहाराजे करेली श्री सिद्धचक्र
__भगवंतनी आराधना ॥ हवे नरपति श्रीपाल ते,निज परिवार संयुत्त मेरे लाल; आराधे सिद्धचक्रने, विधिसहित ग्रही सुमुहुत्त मेरे
. लाल. मननो महोटो मोजमां ॥१॥
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सिद्धचक्र भगवंतनी आराधना (३६३) मयणसुंदरी त्यारे भणे, पूर्वे पूज्यं सिद्धचक्र । मेरे ला० धन त्यारें थोडं हतुं, हमणां तुं ऋद्धे शक, मे० म०॥२॥ धन मोटे छोटुं करे, धर्म उजमणुं तेह; मेरे लाल।
__ (पाठांतर) जे करणी धर्मनुं तेह; मे। फळ पूर्फ पामे नहीं, मम करजो तिहां संदेह-मे० म.३ विस्तारे नवपदतणी, तिण पूजा करो सुविवेक; मे० धननो लाहो लीजीयें, राखी महोटी टेक. मं०म०॥४॥ मयणा वयणां मन धरी, गुरुभक्ति शक्ति अनुसार मे. अरिहंतादिक नवपद भलां, आराधे ते सार. मे०म०॥५॥ नव जिनघर नव पडिमा भली,नव जीर्णोद्धार कराव.मे. नानाविध पूजा करी,जिन आराधन शुभभाव;मे. म.६ एम सिद्धतणी प्रतिमातणुं, पूजन त्रिंहुं काल
प्रणाम, मेरेलाल. तन्मय ध्याने सिद्धनु,करे आराधन अभिराम। मे.म.७ आदर भगति ने वंदना, वेयावच्चादिक लग्ग० मे० सुश्रूषा विधि साचवी,आराधे सूरि समग्ग. मे. म.॥८॥ अध्यापक भणतां प्रति, वसनाशन ठाण बनाय. मे०
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(३६४) नवपद विधि विगेर संग्रह ॥ द्विविध भक्ति करतो थको, आराधे नृप उवज्झाय.
मे० म०॥९॥ नमन वंदन अभिगमनथी,वसही अशनादिकदान,मे. करतो वेयावच्च घj, आराधे मुनिपद ठाण मे०
म० ॥१०॥ तीर्थयात्रा करी अति घणी, संघपूजा ने रहजत्त. मे० आराधे दर्शनपद भy, शासन उन्नति दृढचित्त.
॥ मे० म० ॥११॥ सिद्धांत लिखावी तेहने, पालन अर्चादिक हेत, मे० नाण पदाराधन करे, सज्झाय उचित मन देत.॥म०
म० ॥ १२ ॥ बत नियमादिक पालतो, विरतिनी भक्ति करत, मे. आराधे चारित्र धर्मने, रागी यतिधर्म एकंत । मे. १३ तजी इच्छा इह परलोकनी, हुइ सघळे अप्रतिबद्ध; मे० षट बाह्य अन्यन्तर षट् करी, आराधे तवपद शुध्ध
मे. म. ॥ १४ ॥ उत्तम नवपद द्रव्यभावथी,शुभ भक्ति करीश्रीपाला मे० आराधे सिद्धचक्रने, नित पामे मंगळ माळ मे०म०१५
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श्री सिद्धचक्राराधननो विवि ॥ (३६५) इम सिद्धचक्रनी सेवना, करे साडाचार ते वर्ष मे० हवे उजमणा विधितणो, पूरे तप उपनो हर्ष। मे,म१६ चोथे खंडे पूरी थइ, ढाल नवमी चढते रंग ॥ मे. ॥ विनय सुजस सुख ते लहे, सिद्धचक्र थुणे जे चंग.
॥ १७॥
श्री मुनिचन्द्रसूरीश्वरजीए श्रीपाल महाराजा तथा मयणासुन्दरोने बतावेल श्री सिद्धचक्राराधननो विधि ॥
श्री मुनिचंद गुरे तिहां, आगमग्रंथ विलोइरे ॥ माखणनी पेरे उद्धरयो, सिद्धचक्रयंत्र जोइ रे ॥ चेतन चेतोरे चेतना, आणी चित्त मोझार रे ॥ १३॥ अरिहंतादिक नव पदे, ओ ही पद संयुक्त रे ॥ अवर मंत्राक्षर अभिनवा, लहीए गुरुगम तत्त रे॥ चेतन० ॥ १४ ॥ सिद्धादिक पद चिहुं दिशे, मध्ये अरिहंत देव रे॥ दरिसण नाण चरित्त ते, तप चिहुं विदिशे सेव रे ॥ चेतन० ॥१५॥ अष्ट कमलदल इणी परे, यंत्र स
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(३६६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ कल शिरताज रे ॥ निर्मल तन मन सेवतां, सारे वांछित काज रे ॥ चेतन० ॥ १६ ॥ आशो सुदि मांहे मांडीए, सातमी तप एह रे ॥ नव आंबिल करी निर्मला, आराधो गुणगेह रे॥ चेतन० ॥१७॥ विधिपूर्वक करी धोतीयां, जिन पूजो त्रण काल रे ॥पूजा आठ प्रकारनी, कीजे थइ उजमाल रे॥चेतन०॥१८॥ निर्मल भूमि संथारीए, धरीए शील जगीश रे ॥ जपीए पद एकेकनी, नोकारवाली वीश रे ॥ चेतन० ॥ १९ ॥ आठे थोइए वांदीए, देव सदा त्रण वार रे॥ पडिक्कमणां दोय कीजीए, गुरु वेयावच्च सार रे ॥ चेतन० ॥ २०॥ काया वश करी राखीए, वचन वि. चारी बोल रे ॥ ध्यान धर्मनुं धारीए, मनसा कीजे अडोल रे ।। चेतन० ॥ २१ ॥ पंचामृत करी एकठां, परिगल कीजे पखाल रे ॥ नवमे दिन सिद्धचक्रनी, कीजे भक्ति विशाल रे ॥ चेतन० ॥ २२ ॥ सुदि सातमथी इणी परे, चैत्री पूनम सीमरे ॥ ओली एह आराधीए, नव आंबिलनी नीम रे ॥ चेतन० ॥२३॥ एम एकाशी आंबिले, ओली नव निरमाय रे ॥ साढे
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श्री सिद्धचक्राराधननो विधि ॥ (३६७) चार संवत्सरे, ए तप पूरण थाय रे ॥ चेतन० ॥२४॥ उजमणुं पण कीजीए, शक्ति तणे अनुसार रे ॥ इह भव परभव सुख घणां, पामीजे भवपार रे ॥ चेतन० ॥२५॥ आराधन फल एहनां, इह भवे आण अखंड रे ॥ रोग दोहग दुःख उपशमे, जिम घन पवन प्रचंड रे॥ चेतन० ॥ २६ ॥ नमणजले सिद्धचक्रने, कुष्ठ अढारे जाय रे ॥ वाय चोराशी उपशमे, रुझे गुंबड घाय रे ॥ चेतन० ॥ २७ ॥ भीम भगंदर भय टले, जाय जलोदर दूर रे ॥ व्याधि विविध विषवेदना, ज्वर थाये चकचूर रे ॥ चेतन० ॥ २८ ॥ खास खयन खस चकुना, रोग मिटे सन्निपात रे ॥ चोर चरड डर डाकिणी, कोइ न करे उपघात रे ॥ चेतन० ॥ २९ ॥ हीक हरस ने हेमकी, नारां ने नासूर रे ॥ पाठां पीडा पेटनी, टले दुःख दंतना सूररे । चेतन० ॥३०॥ निर्धनिया धन संपजे, अपुत्र पुत्रीया होय रे ॥ विण केवली सिद्धयंत्रना, गुण न शके कही कोयरे। चेतन०३१
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(३६८) नवषद विधि विगेरे संग्रह ॥ श्रीमती मयणासुंदरीए अनुभवथी बतावेलं श्री नव
पदजी आराधन, फल.
नव पद ध्यानेरे पाप पलाय, दुरित न चारो डे ग्रह वक्रनो जी॥४॥ अरि करि सागर हरि ने व्याल ज्वलन जलोदर बंधन भय सवे जी ॥ जाय रे जपतां नव पद जाप, लहे रे संपत्ति इह भवे परभवे जी ॥५॥ बीजा रे खोजे कोण प्रमाण, अनभव जाग्यो मुज ए वातनो जी॥ हुओ रे पूजानो अनुपम भाव, आज रे संध्याए जगतातनो जी॥६॥ तदगतचित्त समयवि. धान, भावनी वृद्धि भवभय अति घणो जी ॥ विस्मय पुलक प्रमोद प्रधान, लक्षण ए छे अमृतकिया तणो जी ॥ ७ ॥ अमृतनो लेश लह्यो इक वार, बीजें रे औषध करवू नवि पडे जी ॥ अमृतकिया तिम लही एक वार, बीजां रे साधन विण शिव नवि अडे जी ॥ ॥८॥ एहवो रे पूजामा मुजभाव, आव्यो रे भाव्यो ध्यान सोहामणो जी ॥ हजीअ न माये मन आणंद,
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श्रीपाळ महाराजे करेली स्तवना ॥
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खिण खण होये पुलक निकारणो जी ॥ ९ ॥ फुरके: रे वाम नयन उरोज, आज मिले छे वालिम माहरो जी ॥ बीजुं रे अमृतकिया सिद्धिरूप, तुरत फले छे तिहां नहीं आंतरोजी ॥ १० ॥
श्री अजितसेन मुनिनी श्री श्रीपाळ महाराजे करेली स्तवना.
हुआ चारितजुत्ता समितिने गुत्तो, विश्वनो तारुजी. श्रीपाल ते देखी सुगुण गवेषी मोहियो । वारूजी. प्रणमे परिवारे भक्ति उदारे, विश्वनो तारूजी. कहे तुझ गुण थुमियें पातक हणीयें आपणां ॥ वा० ॥ १. उपशम असिधारें क्रोधने मारे ॥ विश्वनो तारूजी. तुं मद्दववज्जे मदगिरि भजे मोटका, वारूजी. मायाविषवेली मूल उखेडी || विश्वनो तारूजी. तें अज्जव कीलें सहज सलीलें सामटी ॥ वारूजी. २.. मूर्च्छाजल भरियो गहन गुहरियो ॥ विश्वनो तारुजी. तें तरियों दरियो मुक्ति तरीशुं लोभनो ॥ वारूजी.
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( ३७० )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
ए चार कषाया भवतरु पाया ॥ विश्वनो तारूजी. बहु भेदे खेदे सहित निकंदी तुं जयो ॥ वारुजी. ३. कंद दर्पं सवि सुर जीत्या, विश्वनो तारुजी.
तें इक धक्के विक्रम पक्के मोडीयो, वारूजी. हरिनादें भाजे गज नवि गाजे, विश्वनो तारुजी. अष्टापद आगल ते पण छागल सारिखो, वारूजी. ४ रति अरति निवारी भय पण भारी, विश्वनो तारुजी. तें मन नवि धरिया तेहज डरिया तुजथी, वारुजी. तें तजीय दुगंछा शी तुज वंछा, विश्वनो तारुजी. तें पुग्गल अप्पा बिहुं परखें थप्पा लक्षणें, वारूजी. ५. परिसहनी फोजें तुं निज मोजे, विश्वनो तारुजी. नवि भागो लागो रण जिम नागो एकलो; वारुजी ॥ उपसर्गने वर्गे तुं अपवर्गे; विश्वनो तारुजी । चालतां नडियो तुं नवि पडियो पाशमां वा०॥ ६ ॥ दोय चोर उठता विषम व्रजंता; विश्वनो तारुजी | धीरज पविदंडे तेज प्रचंडे ताडियो; वारुजी | नइधारण तरतां पार उतरतां; विश्वनो तारुजी । afa मारग लेखा विगत विशेषा देखियें. वा०॥७॥
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श्रीपाल महाराजे करेली स्तवना॥ (३७१) तिहां जोगनालिका समता नामे, विश्वनो तारुजी। तें जोवा मांडि उतपथ छांडि उद्यमें; वारूजी ॥ तिहां दीठी दूरे आनंदपूरे, विश्वनो तारूजी। उदासीनता शेरी नहि भव फेरी वक छे. वा० ॥८॥ ते तुं नवि मूके जोग न चूके, विश्वनो तारूजी। बाहिर न अंतर तुंज निरंतर सत्य ; वारूजी ॥ नय छे बहुरंगा तिहां न एकंगा, विश्वनो तारूजी। तुमें नय पक्षकारी छो अधिकारी मुक्तिना वा० ॥९॥ तुमें अनुभव जोगी निजगुण भोगी, विश्वनो तारूजी। तुमें धर्मसंन्यासी शुद्ध प्रकाशी तत्त्वना; वारूजी ॥ तुमें आतमदरसी उपशम वरसी, विश्वनो तारूजी। सींचो गुण वाडी थाये जाडी पुण्यशं. वारूजी ॥१०॥ अप्रमत्त प्रमत न द्विविध कहीजें, विश्वनो तारूजी। जाणंग गुणठाणंग एकज भाव ते ते ग्रह्यो; वारूजी॥ तुमें अगम अगोचर निश्चय संवर, विश्वनो तारूजी। फरस्युं नवि तरस्युं चित्त तुम केरुं स्वप्नमां. वा० ॥११॥ तुज मुद्रा सुंदर सुगुण पुरंदर विश्वनो तारूजी।
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(३७२) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ सूचे अति अनुपम उपशम लीला चित्तनी; वारूजी॥ जो दहन गहन होय अंतरचारी, विश्वनो तारूजी। तो किम नवपल्लव तरुअर दीसे सोहतो. वा० ॥१२॥ वैरागी त्यागी तुं सोभागी, विश्वनो तारूजी। तुज शुभमति जागी भावठ भागी मूलथी; वारूजी॥ जग पूज्य तुं मारो पूज्य डे प्यारो, विश्वनो तारूजी। पहेला पण नमियो हवे उपशमियो आदयों. वा०||१३॥ एम चोथे खंडे रागअखंडे संथुण्यो, विश्वनो तारूजी। जे मुनि श्रीपाले पंचमी ढाले ते कह्यो वारूजी ॥ जे नवपदमहिमा महिमायें मुनि गावशे, विश्वनो ता.॥ ते विनय सुजस गुण कमला विमला पावशे. वा०॥१४॥ श्रीपाल महाराजाने श्री सिद्धचक्र भगवान्ना आरा
धनथी मळेल साक्षात् फल. सिद्धचक्र मुज एह, मनोरथ पूरशे हो लाल, मनोरथ एहिज मुऊ आधार, विघन सवि चूरशे हो लाल, वि० थिर करी मन वच काय,रह्यो इक ध्यानशुं होलाल रह्यो तन्मय तत्पर चित्त थयुं तस ज्ञानशुं होलाल, थयुं०८
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श्री सिद्धचक्र तप उद्यापननी ढाल ॥ (३७३) ततखिण सोहमवासि, देव ते आवियो हो लाल, देव० विमळेसर मणिहार मनोहर लावियो हो लाल, मनो० थइ घणो सुप्रसन्न कुंअर कंठे ठवे, होलाल, कुंअर० तेह तणो करजोडी, महीमा वरणवे हो लाल, महीमा०९ जेह वंछे रूप ते थायें ततखिणें हो लाल, ते थाये. ततखिण वांछित ठाम जाये गयणांगणे होलाल जाये आवे विण अन्यास,कळा जे मन धरे होलाल, कळा० विषना विषम विकार ते सघळा संहरे हो लाल, ते०१० सिद्धचक्रनो सेवक, हुं छं देवता होलाल, के हुंछ. केइ उद्धरिया धीर,में एहने सेवता होलाल, मे०एहने. सिद्धचक्रनी भक्ति घणी मन धारजो होलाल, घणी० मुजने कोइक काम पडे संभारजो हो लाल, पडये.११
श्री सिद्धचक तप उद्यापननी ढाल हवे राजा निज राजनी, लच्छितणे अनुसार, उजमणुं तेह तपतj, मांडे अतिहि उदार. १ विस्तीरण जिनभुवन विरचीयें, पुण्य त्रिवेदिक पीठ, चंद्र चंद्रिकारे धवल भुवनतळे, नवरंग चित्र विसीट्ठ.१
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( ३७४ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
तप उजम रे इणिपरें कीजीये, जिम विरचैरे श्रीपाल . तप फळ वाधेरे ऊजमणे करी, जेम जळ पंकजनाल. तप उजमरे इणिपरे कीजीये.
पंच वरणनारे शालि प्रमुख भला, मंत्र पवित्र करी धान्य, सिद्धचकनीरे रचना तिहां करे, संपूरण शुभध्यान. तप उजमरे इणिपरें कीजीये. अरिहंतादिक नवपदने विषे, श्रीफळगोळ ववंत, सामान्यें घृत खंड सहित सवे, नृप मन अधिकीरे खंत. तप उजमणं रे इणिपरे कीजीयें.
३
जिनपद धवलुंरे गोलक हवे, शुचि कर्केतन अठ्ठ; चोत्रीश हीरेरे सहित विराजतुं, गिरुओ सुगुण गरिहतप उजमणुं रे इणिपरे कीजीये.
५
सिद्धपदे अड माणिक रातडां, वळि इगतीस प्रवाळ; घुसण विलपितगोलक तस ठवे, मूरति रागविशाळ त. ६ पण मणि पति छत्रीश गोमेदकें, सूरिपदें ठवे गोळ नीलरयण पचवीस पाठकपर्दे, ठवे विपुल रंगरोलत.त. रिष्टरतन सगवीस ते मुनिपदें पंच रायपट अंक;
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श्री सिद्धचक्र तप उद्यापननी ढाल || (३७५)
सगसहि इगवन्न सित्तरी पंचास ते, मुगता शेष निःशंक. तप उजमणं रे इणिपरें कीजीयें.
ते ते वरणेरे चीरादिक ठवे, नव पदतणेरे उद्देश बीजी पण सामग्री मोटकी, मांडे तेह नरेश, त० ९ बीजोरां खारेक दाडिम भलां, कोहोलां सरस नारंग, पूगीफळ वळी कलश कंचतनणा, रतनपुंज अति चंग. तप उजमरे इणिपरे कीजीये.
१०
जे जे ठामेरे जे ठवकुं घटे, ते ते हवेरे नरिंद, ग्रह दिकपालपदें फल फूलडां, धरे सवरण आनंद. त० ११ गुरुविस्तारेरे उजमणं करी, न्हवण उत्सव करे राय, आठ प्रकारीरे जिन पूजा करे, मंगल अवसर थाय, त०१२ संघ तिवारेरे तिलक मालातणुं, मंगल नृपने करेइ. श्रीजिन मानेरे संघे जे कर्यु, मंगल ते शिव देइ. त०१३ तप उजमणेरे वीर्य उल्हास जे, तेहज मुक्तिनिदान, सर्व अभव्येरे तप पूरां कर्यां, पण नाव्युं प्रणिधान, तप उजमणुंरे इणिपरे कीजीयें, लघुकर्मानेरे किरिया फल दीये, सकल सुगुरु उवएस;
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(३७६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ।। सर होये तिहां कूपखनन घटे, नहिं तो होइ किलेश; तप उजमणुरे इणिपरे कीजीये. १५ सफल हुवो सवि नृप श्रीपालने, द्रव्य भाव जस शुद्ध, मत कोइ राचोरे काचो मत लेइ, साचो बिहुँनयबुद्ध. तप उजमणुंरे इणिपरे कीजीये. १६ चोथे खंडेरे दशमी ढाळ ए, पूरण हुश् सुप्रमाण, श्रीजिन विनय सुजस भगति करी, पग पग होय ।
कल्याण, तप. १७
॥ कळश ॥ तपगच्छनंदन सुरतरु प्रगट्या, हीरविजय गुरुरायाजी। अकबरशाहे जस उपदेशे,पडह अमारि वजाया जी ॥ १ हेम सूरि जिनशासनमुद्राए, हेम समान कहाया जी ॥ जाचो हीरो जे प्रभु होता, शासन सोह चढाया जी ॥ २ ॥ तास पटे पूर्वाचल उदयो, दिनकर तुल्य प्रतापी जी ॥ गंगाजल निर्मल जस कीरति, सघले जगमांहि व्यापी जी ॥३॥ शाह सभा माहे वाद करीने, जिनमत थिरता थापी जी ॥ बहु आदर
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कळश ॥
(३७७) जस शाहे दीधो, बिरुद सवाइ आपी जी ॥ ४ ॥ श्री विजयदेव सूरि तस पटधर, उदया बहु गुणवंता जी॥ जास नाम दश दिशि छे चावू, जे महिमाए महंता जी ॥५॥श्रीविजयप्रभ तस पटधारी, सूरि प्रतापे छाजे जी ॥ एह रासनी रचना कीधी, सुंदर तेहने राजे जी ॥ ६ ॥.सूरि हीरगुरुनी बहु कीरति, कीर्तिविजय उवझाया जी ॥ सीस तास श्रीविनयविजय वर, वाचक सुगुण सोहाया जी॥णा विद्या विनय विवेक विचक्षण, लक्षण लदित देहा जी ॥ सोभागी गीतारथ सारथ संगत सखर सनेहा जी ॥ ८॥ संवत् सत्तर अडत्रीसा वरसे, रही रानेर चोमासे जी ॥ संघ तणा आग्रहथी मांड्यो, रास अधिक उलासे जी ॥९॥ सार्द्ध सप्त शत गाथा विरची, पहोता ते सुरलोके जी ॥ तेहना गुण गावे छे गोरी, मिली मिली थोके थोके जी ॥१०॥ तास विश्वासभाजन तस पूरण, प्रेम पवित्र कहाया जी ॥ श्रीनयविजयविबुधपयसेवक, सुजशविजय उवझाया जी ॥ ११ ॥ भाग थाकतो पूरण कीधो, तास वचन संकेते जी ॥ तिणे वळी समकितदृष्टि जे नर,
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( ३७८ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह || तेह तणे हित हेते जी ॥ १२ ॥ जे भावे ए भणशे गुणशे, तस घर मंगलमाला जी ॥ बंधुर सिंधुर सुंदर मंदिर, मणिमय झाकझमाला जी ॥ १३ ॥ देह सवल ससनेह परिच्छद, रंग अभंग रसाला जी || अनुक्रमे तेह महोदय पदवी, लहेशे ज्ञान विशाला जी ॥ १४ ॥
"संबोधप्रकरण" मां बतावेली श्री आचार्य गुणनी ४७ छत्रीशीओ.
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१ ली छत्रीशी १४ प्रतिरूपादि, १० यतिधर्म, १२ भावना २ जी ५ इन्द्रियसंवर, ९ ब्रह्मगुप्ति; ४ कषायत्याग; ५ महाव्रत, ५ आचार, ५ समिति, ३ गुप्ति. १ विधिप्रतिपन्नचारित्र; गीतार्थवत्सल, सुशील; सेवितगुरुकुल अनुयत्तिपरदेश, कुल - जाति--रूपवान्, संघयणी -धृति--अनाशंसी - अविकत्थ, अमायी, स्थिर, परिपाटीगृहीतवान् जीतपरिषद्, जीतनिद्र, मध्यस्थ, देशज्ञ कालज्ञ भावज्ञ; आसन्नलब्धप्रतिभ बहुदेशभाषज्ञ, पंचाचारयुक्त, सूत्रविधिज्ञ
३ जी
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श्री आचार्य गुणनी ४७ छत्रीशीओ ॥ (३७९) अर्थविधिज्ञ, सूत्रार्थविधिज्ञ, उदाहरणज्ञ; हेतुज्ञ; उपनयज्ञ, नयज्ञ, ग्राहणाकुशल, स्वपर समयज्ञ गंभीरदीप्तिमान् शिव-सौम्य-गुणशतकलित प्रवचनोपदर्शक, ८ गणिसंपदा,
४ आचारादिएकेक, ४ विनयप्रवृत्ति. ४ थी , ८ ज्ञान; ८ सम्य०, ८ चारित्र; १२ तप ५मी ,, ८ आचारादि; १० स्थितिकल्प, १२ तप; ६
आवश्यक ६ट्ठी ,, १८ पापस्थानत्याग; १२ प्रतिमाधर; ६ व्रत
रक्षण ७मी ,, २२ परिषह; १४ जीवभेद रक्षा; ८ मी ., ४ सारणादिशिक्षा; ४ दानादि; १६ ध्यान,
१२ भावना ९मी ,, ५ चारित्र; ५ व्रत; ५ समिति, ५ आचार;
५ सम्य० ५ सझाय; ५ व्यवहार; १ संवेग १०मी ,, ५ इन्द्रिय,५ विषय. ५प्रमाद, ५आश्रव, ५
निद्रा, ५ भावना, ६ काययतना.
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( ३८०)
नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
११ मी ,, ६ लेश्या, ६ आवश्यक, ६ द्रव्य; ६ वचन;
६ दोष, ६ भाषा. १२ मी ,, ७ पिडषणा, ७ पानेषणा, ७ भय, ७ सुख
सत्त्व, ८ मद. १३ मी ,, ८ दर्शनाचार, ८ ज्ञानाचार, ८ चारित्राचार,
८ गुरुगुण, ४ शुद्धि. १४ मी ,, ८ योगांग, ८ सिद्धि, ८ दृष्टि, ८ कर्मविज्ञान,
४ द्रव्यादि अनुयोग. १५मी ,, ९ निदान, ९ ब्रह्मचर्य,९कल्पविहार,९ तत्व, १६ मी ,, १० उववाय, १० असंवर, १० संक्लेश, ६
हास्यादि. १७ मी ,, १० सामाचारी १० समाधिस्थान १६ क
पायत्याग. १८ मी ,, १६ समाधिभेद १० अशनशुद्धि १० प्रति
सेवात्याग. १९ मी छत्रीशी १० मुनिधर्म,१० विनय, १० वैयावच्च,
६ अकल्प त्याग.
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श्री आचार्य गुणनी ४७ छत्रीशीओ ॥
( ३८१ )
२० मी
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१० रुचि, २ शिक्षा, १२ अंग, १२ उपांग. २१ मी, ११ गृहिप्रतिमा, १२ व्रत, १३ क्रियास्थान. २२ मी, १० प्रायश्चित, १२ उपयोग, १४ उपकरण. २३ मी, १२ भावना, १२ तप, १२ मुनिप्रतिमा. २४ मी ८ अंडजादिजीव, १४ गुणस्थान, १४ प्रतिरूप.. २५मी,, ३ ग़ारव, ३ शल्य, १५ संज्ञा, १५ योग. २६ मी, १६ उऊमदोष, १६ उत्पादनदोष, ४ द्रव्यभिग्रह. २७ मी, १६ वचन, १७ संयम, ३ विराधना.
""
२८ मी, १८ दीक्षा अयोग्यने दीक्षा न आपे, १८ पापवर्जन.
२९ मी, १८ ब्रह्मचर्य शीलांग १८ वसग्ग ३० मी, १९ काउस्सगदोष, १७ मरण.
३१ मी, १ मिथ्या, २० असमाधि, ५ मंडलिदोष, १०एषणादोष.
३२ मी, २१ शबल, १५ शिक्षास्थान.
३३ मी, १ मिथ्या ०.३ वेद, ६ हास्यादि, ४ कषाय, १४: अभ्यंतर ग्रंथि, २२ परिषह.
३४ मी, २७ मुनिगुण ९ कोटिविशुध्धि
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( ३८२ )
नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
३५मी, २५ पडिलेहण ६ कायविराधनात्याग ५ वेदिकाशुध्धि.
३६ मी, ३२ योगसंग्रह ४ भावे ( आचरणा - भाषणा वासना - परावर्त्तना )
३७मी, २८ लब्धि, ८ प्रभावक ३८ मी, २७ पापश्रुतवर्जन, ७ विशोधिगुण. ३९ मी, ६ अभ्यन्तरारि; ३० मोहस्थान ४० मी ३१ सिद्धगुण; ५ ज्ञान.
""
४१ मी, दिव्यादि ४ उपसर्ग, ३२ जीवभेद. ४२मी, ४ विकथा ३२ वंदनदोष.
४३ मी,, ३३ आशातना; ३ वीर्याचार. ४४ मी २५ व्रतभावना ११ अंगधारी
"
४५ मी, १२ अंग १० पयन्ना, ६ छेद ४ मूळ; १ नंदी; १ अनुयोग. २ अरागद्वेष
४६ मी, १५ त्रिकरणपूर्वक पंचाचार, १० सामाचारी, ५ समिति, ५ स्वाध्याय, १ अप्रमत्त.
४७मी, ८ प्रव० माता; ८ सुखदुःखशय्या; ३ सत्य; ६ भाषा; २ ध्यान; ७ विभंग; २ धर्म;
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श्री आचार्य गुणनी ३६ छत्रीशीओ ॥
१ ॥ श्री आचार्यगुणनी ३६ छत्रीशीओ ॥
१ प्रथम छत्रीशी ४ देशना ४ कथा; ४ धर्म; ४ भावना; ४ सारणा; १६ चार ध्यानना प्रत्येकना चार चार भेद.
२ बीजी छत्रीशी ५ सम्यक्त्व ५ चारित्र; ५ व्रत; ५ व्यवहार; ५ आचार;
५ समिति;
५ स्वाध्याय १ संवेग.
""
५ इन्द्रिय ५ विषय, ५ प्रमाद; ५ निद्रा; ५ आश्रव; ५ कुभावनात्याग; ६ कायजयणा.
,
६ वचनदोष; ६ लेश्या; ६ आवश्यक ६ द्रव्य; ६ तर्क; ६ भाषा.
५ मी छत्रीशी ७ भय; ७ पिंडेपणा, ७ पानैषणा, ७
३ त्रीजी
४ थी
६ ठी
( ३८३ )
"
सुख, ८ मद.
८ ज्ञानाचार, ८ दर्शनाचार, ८ चारित्राचार, ८ वादिगुण, ४ बुद्धि
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(३८४) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ७ मी , ८ कर्म ८ योग, ८ सिद्धि; ८ योगदृष्टि,
४ अनुयोग. ८ मी ,, ९ तत्त्व, ९ ब्रह्मगुप्ति. ९ निदान, ९
नवकल्पविहार ९ मी ,, १०असंवर,१०संक्लेश,१०उपघात,६हास्यादि. १० मी ,, १० सामाचारी,१० चित्तसमाधिस्थान, १६
कषायत्याग ११ मी ,, १० प्रतिसेवा, १० शोधिदोष, ४ विन
यसमाधि, ४ श्रुतसमाधि, ४ तपसमाधि,
४ आचारसमाधि १२ मी ,, १०वैयावच्च,१० विनय, १०धर्म ६अकल्प, १३ मी ,, १० रुचि, १२ अंग; १२ उपांग; २ शिक्षा १४ मी ,, ११ श्रावकप्रतिमा;१२ व्रत; १३ क्रियास्थान १५ मी ,, १२उपयोग;१०प्रायश्चित्तदान, १४उपकरण १६ मी ,, १२ तपभेद; १२ भिक्षुप्रतिमा, १२भावना. १७ मी ,, १४ गुणस्थान; १४ प्रतिरूपादिगुण, ८
सूक्ष्मजीवरक्षा
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१८ मी
१९ मी
२० मी
""
""
""
२१ मी
""
२२ मी,
२३ मी
२४ मी,
""
२५ मी, २६ मी
19
श्री आचार्य गुणनी ३६ छत्रीशीओ ॥
( ३८५ )
१५ योग; १५ संज्ञा; ३ गारव; ३ शल्य १६ उद्गमदोष, १६ उत्पाददोष; ४ अभिग्रह १६ वचनविधि; १७ संयम, ३ ज्ञानादि विराधना
२७ मी
""
२८ मी,
२९ मी,,
३० भी, ३१ मी, ३२ मी
""
૨૫
१८दीक्षा अयोग्य पुरुष भेद, १८पापस्थान.
शीलांगसहस्र, १८ ब्रह्मचर्यभेद.
१९ कायोत्सर्गदोष १७ मरणभेद
२० असमाधिस्थान, १० एषणादोष ५ ग्रासैषणादोष, १ मिथ्यात्व
२१ शबलदोष, १५ शिक्षास्थान २२ परिषह, १४ अभ्यन्तरग्रन्थि
५ वेदिकाशुद्धि, ६ दोष, २५ प्रतिलेखना
२७ साधुगुण, ९ कोटिविशुद्ध ग्राहक
२८ लब्धि ८ प्रभावकगुण
२९ पापश्रुतत्याग, ७ शोधिगुण
३० महामोहस्थान ६ अंतरंग शत्रु
३१ सिद्धगुण ५ ज्ञान
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(३८६) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ३३ मी ,, ३२ जीवरक्षा, ४ उपसर्ग ३४ मी ,, ३२ दोषरहितवंदना, ४ विकथारहित ३५ मी., ३३ आशातना ३ वीर्याचार ३६ मी ,, ४ आचारसंपद् ४ श्रुतसं०४ शरीर सं०४
वचनसं०४ वाचनासं०४ मतिसं०४प्रयोगमतिसं० ४ संग्रह परिज्ञासंपद् ४ विनय
आचार; श्रुत विक्षेप, तदोषप्रतिघात आ छत्रीशीओमा अप्रशस्त भावथी निवृत्ति अने प्रशस्त भावमा प्रवृतिरूप गुणो समजवा.
॥ श्री उपाध्याय गुणनी २५ पच्चीशीओ ॥
१ पचीशी ११ अंग, १४ पूर्व, २ ,, ११ अंग, १२ उपांग १ चरणसि०, १ करणसि० ३, १४ ज्ञानाशातना वर्जन, ११ सुवर्णगुणाख्यान, ४ ,, १३ क्रियास्थानवर्जन, ६ द्रव्य, ६ काय. ५, १४ गुणस्थान, ११ श्रावकप्रतिमा.
تنم
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श्री उपाध्याय गुणनी २५ पच्चीशीओः॥ (३८७) ६ , २५ भावना [ ५ महाव्रतनी] भावे ७ ,, २५ अशुभ भावनावर्जन. ७, ८ प्रकारी पूजा; १७ प्रकारीपूजानीप्ररूपणा; १० ,, २३ इन्द्रियविषयवर्जन १ शुभ; १ अशुभ
अग्रहण, ११ , २१ मिथ्या भेदप्ररूपण ४ प्रकारनासंघमां करे. १२ ,, १४ जीवभेद, ८ भांगा; [ज्ञान-ग्रहण-पालन
ना] ३ अंगादिपूजा प्ररूपण १३ ,, ८ अनंत; ८ पु० पुरावत; ९ निदान १४ ,, ९ तत्व; ९ क्षेत्र; ७ नय १५ ,, ४ निक्षेप,४ अनुयोग;४ धर्मकथा; ४ विकथा;
४ दानादि; ५ कारण; १६ ,, ५ ज्ञान;५ व्यवहार; ५ सम्य०,५ प्रवचनांग,
५ प्रमाद, १७ , १२ व्रत, १० रुचि, ३ विधिवाद, १८ ,, ३ हिंसा, ३ अहिंसा, १९ काउसग्गदोष, १९ ,, ८ आत्मा, ८ प्रव० माता, ८ मद, १ श्रद्धा
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(३८८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ २० ,, २१ श्रावकगुण, ४ वृत्तिप्रवत्तना २१ ,, ३ अतत्त्व, ३ तत्व,३ गारव,३ शल्य,६ लेश्या,
३ दंड, ४ कारण, २२ ,, २० स्थानक ( जीनपदार्जव) ५ आचार, २३ ,, १२ अरि० गुण ८ सिध्धगुण ५भक्तिनी एकता, २४ ,, १५ सिध्यभेद १० त्रिक २५ ,, १६ आगार ९ संसारी जीव ___ आ गुणोनी पच्चीशीओमा अप्रशस्त भावी निवृत्ति अने प्रशस्त भावमा प्रवृत्ति समजवी.
॥ श्री साधु गुणनी २७ सत्तावीशीओ ॥
सत्तावीशी१ ली, ६ व्रत, ६ कायरक्षा,५ इन्द्रिय, १ लोभनिग्रह,१
क्षमा, १ भावशुद्धि, १ पडिलेहणशुद्धि, संयम, ३ अकुशलयोगरोध, १ शीतादिसहन, १ मरणांत उपसर्गसहन.
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श्री साधु गुणनी २७ सत्तावीशीओ॥ (३८९) २ जी उरग-गिरि-अग्नि-सागर-गगन-तरु-भ्रमर-मृग
धरणि-कमळ-सूर्य-पवन-विष-तिनिश-वायु---
जुल-कर्णिकार-उत्पल भ्रमर-उंदर-नट विगेरे. ३ जी २५ महावतभावना, २ द्रव्य भाव भेदथी ४ थी २५ अशुभ भावना, २ राग द्वेष वडे ५ मी १० श्रमणधर्म, ९ ब्रह्मगुप्ति, ८ प्रव० माता - ६ ठी ८ बे शुभध्यानना भेद, ३ ज्ञानादि, १६ मै
त्र्यादि भाव० ( दरेकना ४-४) भेद ७मी ८ बे अशुभ ध्यान भेद, १६ कषाय, ३ ज्ञा
नादिविराधनत्याग ८ मी ७ पिंडेषणा, ७ पानैषणा, ७ सप्तसप्तिका,
६ अशुभभाषा ९ मी १० सत्यवचन, १७ संयम, १० मी १२ तप, १४ काम, १ असंयमनिग्रह ११ मी १० एषणादोष, १६ उत्पादनदोष,अद्धिभाव २२ मी १६ उद्गमादिदोष, ५ आश्रव, ५ मंडलिदोष,
१ मनसहित
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(३९०) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ १३ मी १५ शिक्षास्थान, १२ भिकुप्रतिमा . १४ मी ८ वसतिदोष, ८ प्रमाद, ८ मद, ३ गारव १५ मी १० विनय. ५ वरण, असत्यमृषा १२ १६ मी ११ अंग, १२ उपांग, ४ अभिग्रह १७ मी १० सामाचारी, आवश्यकादि १०, २ शिदा,
.:५ स्वाध्याय, १८ मी १८ हजारशीलांग, ९ निदान १९ मी ३ अशुभ लेश्या, १८ ब्रह्मचर्यभेद, ३ शल्य, .....३ दंड, २० मी ८ पडिलेहणा, ८ गोचरी, ८दृष्टि, ३शुभलेश्या २१. मी १२ भावना, ४ शय्या (शुभ), ७ भयत्याग,
४ दुखशय्यात्याग २२ मी १० प्रत्याख्यान, ११ विगय, ६ आवश्यक २३ मी ४ दिव्यादि ( उपसर्ग ), २२ परिषह, ए २ . मां धीरता . ... २४ मी १ जिनकल्प, १ स्थ०कल्प, १० अचेलादि
कल्प, ५ चारित्र, १० प्रायश्चित्त ..
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manand
AAAAvi
naanwar
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मन्हजिणाणं सज्झाय ॥ (३९१ ) २५ मी २० असमाधि, ७ विभंगस्थान २६ मी २१ शबळ, ते करण-मतिथी २ ४ असंवर २७ मी ५ स्थावर,१श्वान,रासभ,१कुर्कट-१कर-१दीपक
१सुवर्ण-१मुक्ता १हंस,अंबुज,१पोत,श्रीफळ,१वंस, १शंख,तुंबक, १चंदन,१अगुरु,१मेघ, १चंद्र, वृषभ, गजेन्द्र, १मृर्गन्द्र. १सूर्य सरखा.
आ गुणोमां अप्रशस्तभावथी निवृत्ति अने प्रशस्तभावमा प्रवृत्ति स्वरूप गुणो समजवा.
मन्हजिणाणं सज्झाय. मन्हजिणाणं आणं, मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं ॥ छविह-आवस्सयंमि, उज्जुत्तो होश पइदिवसं ॥१॥
भावार्थ-हे भव्य श्रावक ? श्रीजिनेश्वर भगवाननी आज्ञा मान्य, मिथ्याखनो त्याग करय, सम्यक्त्व धारण करय, छ प्रकारना आवश्यकमां प्रति दिवस उद्यमवंत था. १ पव्वेसु पोसहवयं, दाणं सीलं तवो अ भावो अ॥ सज्झायनमुक्कारो, परोवयारो अ.जयणा अ॥२॥
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(३९२) नवपद विधि विगेर संग्रह ॥
भावार्थ-पर्व दिवसने विषे पोसह व्रत करय, दान, शील, तप अने भावना, स्वाध्याय, नमस्कार अने परोपकार करय, तथा जयणा राख्य. २. जिणपूआ जिणथुणणं, गुरुथुअ साहम्मिआण वच्छवं ॥ ववहारस्स य सुद्धा, रहजत्ता तित्थजत्ताय ॥३॥
भावार्थ-जिनेश्वर भगवान्नी पूजा, जिनेश्वर भगवाननी स्तुति, गुरुनी स्तुति, अने साधर्मीने विषे वात्सल्य, व्यवहारनी शुद्धि, रथयात्रा अने तीर्थयात्रा. ३. उवसम विवेगसंवर, भासासमिइ छजीवकरुणा य॥ धम्मिअजणसंसग्गो, करणदमो चरणपरिणामो ॥४॥
भावार्थ-उपशम, विवेक संवर, भाषासमिति अने छकाय जीवनी दया, धार्मिक माणसनो सत्संग, इंद्रियोनुं दमन अने चारिबना परिणाम राखवा (आ सर्व क्रियाओ करवी.) ४. संघोवरि बहुमाणो, पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे ॥ सवाण किच्चमेअं, निच्चं सुगुरुवएसेणं ॥५॥
भावार्थ-श्री संघ उपर बहुमान राखवू, पुस्तक लखाववां अने तीर्थनी प्रभावना करवी. श्रावकनां आ कृत्यो छे, ते निरंतर सद्गुरुना उपदेशथी जाणवां. ५ इति.
इति श्रावक दिनकृत्य सज्झाय.
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संथारा पोरिसी विधि सूत्र
॥ अथ संथारा ( पोरिसी) विधिसूत्र |
( ३९३ )
निसीहि निसीहि निसीहि, नमो खमासमणाणं गोयमाणं महामुनीणं ॥
अर्थ - पापं व्यापारनो त्याग करीने [वार त्रण] म्होटा मुनिओ एव गौतमस्वामी विगेरे क्षमाश्रमणोने नमस्कार थाओ.
अणुजाणह जिट्ठि () ज्जा ! अणुजाणह पर - मगुरु ! गुरुगुणरयणेहिं मंडियसरीरा ! बहुपडिपुन्ना पोरिसि, राइयसंथारए ठामि ॥ १ ॥
अर्थ – हे वृद्ध [ वडिल] साधुओ ! आज्ञा आपो, म्होटा गुणरूप रत्नोवडे सुशोभित छे शरीर जेनां एवा हे श्रेष्ट गुरुओ ! आज्ञा आपो ! पोरिसि लगभग संपूर्ण थइ छे. हुं रात्रि संबंधी संथारो करूं छं. १.
अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेणं वामपासेणं ॥ कुक्कुडिपायपसारण, अतरंत पमज्जए भूमिं ॥ २ ॥
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( ३९४ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
संकोइए संडासा, उव्वते अ कायपडिलेहा ॥ द व्वाइउवओगं, ऊसास निरंभणालोए ॥ ३ ॥
अर्थ — संथारानी आज्ञा आपो ! [गुरु महाराज आज्ञा आपे एटले] हाथने ओशकुं करीने डावा पडखे, कुकडीनी पेठे आकाशमां पग प्रसारवाने असमर्थ छतो जमीनने पुंजे [ पुंजीने त्यां पग राखे छे ] अने ढींचणी संकोचीने सूवे अने पासुं फेरवतां शररिनुं पडिलेहण करे. वळी [ जागवुं होय त्यारे ] द्रव्यादिनो उपयोग करे [ ते छतां निद्रा उडे नहि तो ] श्वासोश्वास संधीने [ निद्रा दूर करवाने जता आवता लोकोने ] जुए छे. २-३
जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइरयणीए | आहारमुवहिदेहं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥ ४ ॥
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अर्थ - जो आरात्रिने विषे मारा आ शरीरनुं मरण थाय तो आहार, उपकरण अने शरीर वगेरे सर्व त्रिविधे करीने सघळु [मन, वचन अने कायावडे ] वोसराव्युं छे. ४
चत्तारि मंगलं- अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिप्रन्नत्तो धम्मो मंगलं ॥ ५ ॥
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: पोरिसी विधि सूत्र ॥ (३९५) अर्थ-चार मने मंगळरूप छे-अरिहंतो मांगलिक छे, सिद्धो मांगलिक छे, साधुओ मांगलिक छे अने केवळीए प्ररूपेल धर्म [श्रुत अने चारित्ररूप] मांगलिक छे. ५.
चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा,साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो॥
अर्थ-चार लोकने विषे उत्तम छे-अरिहंतो लोकमां उत्तम छे, सिद्धो लोकोमा उत्तम छे. साधुओ लोकमां उत्तम छे अने केवलिए प्ररुपेल धर्म लोकमां उत्तम छे. ६
चत्तारि सरणं पवज्जामि-अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिके सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ॥७॥
अर्थ-हुंचारने शरण तरीके अंगीकार करुं छं-अरिहंतोने शरण अंगीकार करूं छु, सिद्धोने शरण अंगीकार करुं छु. साधु. ओने शरण अंगीकार करुं हुं अने केवलिए प्ररूपेल धर्मने शरण अंगीकार करुं छं. ७... , पाणाइवायमलिअं, चोरिक्कं मेहूणं दविणमुझं । कोहं माणं मायं, लोभं पिज्जं तहा दोसं ॥८॥
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( ३९६ ) नवपद विधि विगेर संग्रह ॥
कलहं अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइअरइसमाउत्तं । परपरिवायं माया - मोसं मिच्छत्तसलं च ॥ ९ ॥
अर्थ –माणातिपात [ हिंसा ], मृषावाद, चोरी, मैथुन [ स्त्री सेवन ], द्रव्य [ धन-धान्यादि पौद्गलिक वस्तु] नी मूर्च्छा, क्रोध, -मान, माया, लोभ, राग तेमज द्वेष, क्लेश, अभ्याख्यान [परने आळ देवुं], चाडी अने रति अरतिवडे युक्त, परपरिवाद, मायामृपावाद ने मिथ्यात्वशल्य. ८-९
वोसिरिसु इमाईं मुक्खमग्गसंसग्गविग्घभूआई | दुग्गइनिबंधणाई अट्ठारस पावठाणाई ॥ १० ॥
अर्थ - मोक्षमार्गना गमनने विषे अंतराय करनारा अने माठी गतिना कारणभूत एवा ए पूर्वोक्त अढार पापस्थानोने [हे आत्मा ! ] वासराव [ त्याग कर ]. १०
एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स कस्सर । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमसासइ ||११||
अर्थ – हुं एकलो छु, म्हारुं कोई नथी, हुं अन्य कोइनो नथी; ए प्रकारे अग्लान चित्तवाळो [ सावधान चित्तवाळा ] आत्माने शिखामण आहे. ११
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पोरिसी विघि सूत्र ॥
(३९७)
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एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलख्खणा ॥१२॥ ___ अर्थ-शाश्वतो [सदा काळ-नित्य रहेनारो] अने ज्ञान दर्शन युक्त, एक मारो आत्मा छे, बाकीना संयोग लक्षणवाळा सर्व भावो माराथी बाह्य अर्थात् माराथी जूदा छे. १२ संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा ।
तम्हा संजोगसंबंध, सवं तिविहेण वोसिरिअं॥१३॥ ___ अर्थ-संयोग (धन कुटुंबादिक ) छे मूळ कारण जेनुं एवी दुःखनी श्रेणी जीवे प्राप्त करी छे ते माटे संयोग संबंध में त्रिविधे ( मन, वचन, कायाए ) वोसिराव्यो छे. १३
अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं॥१४॥
अर्थ-यावज्जीव सुधी अरिहंत म्हारा देव छे, साधुओ म्हारा गुरु छे, वीतराग देव प्ररुपेल तत्त्व (धर्म) मने मान्य छे, ए प्रकारे सम्यक्त्वने में ग्रहण कर्यु छे. १४
खमिअ खमाविअ,मइ खमिअ, सव्वहर्जावनिकाय । सिद्धहसाख आलोयणह, मुज्झह वइरनभाव॥१५॥
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(३९८) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ __ अर्थ-सर्व जीव निकायोने खमावीने अने खमीने हुँ ( कहुं छं के) मारा सर्व अपराधो खमो. सिद्धनी साक्षीपूर्वक हुँ आलोचना करुं छु, मारे कोइनी साथे वैरभाव नथी. १५ सव्वे जीवा कम्मवस, चउदहराज भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मुज्झवि तेह खमंत ॥१६॥
अर्य–सर्व जीवो कर्मवशथी चौद. राजलोकने विषे भमे छे ते सर्वने में खमाव्या छे. मने पण तेओ खमे. १६
जं जं मणेण बद्धं, जं जं वाएण भासिय पावं। जं जं काएण कयं, मिलामि दुक्कडं तस्स ॥ १७ ॥
अर्थ--जे जे पाप मनवडे बंधायु, जे जे पाप वचन वडे बोलायु अने जे जे पाप कायावडे करायुं छे ते मारूं ( सर्व ) पाप फोगट थाओ अर्थात् ते पापनो मिच्छामि दुक्कडं दउं छं. १७
॥ देव वांदवानी विधि.॥
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प्रथम खमासमण दइ, इरियावही पडिक्कमी लोगस्स कही, उत्तरासण नांखीने खमा० इच्छा० चै
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देव वांदवानी विधि ॥ (३९९) त्यवंदन करूं ? इलं कही चैत्यवंदन करी नमुत्थुणं अने जयवीयराय [आभवमखंडा सुधी] कही, खमा० दइ चैत्यवंदन करी, नमुत्थुणं कही ऊभा थइ अरिहंत चे० अन्नत्थ० १ नवकार काउ० पारी नमोऽर्ह० पहेली थोय कहेवी. लोगस्त सव्वलोये० १ नवकारकाउ० बीजी थोय. पुख्खरवरदी० सुअस्स० १ नवकारकाउ० त्रीजी थोय. सिद्धाणं बुद्धाणं० वेयावच्च० १ नवकारकाउ० पारी नमोऽर्हत् चोथी थोय कही बेसीने नमुत्थुणं कहीने बीजी वार पूर्वनी माफक चार थोइओ कहेवी; पछी नमुत्थुणं जावंतिचे खमा० जावंतकेवि० नमोऽर्हत् कही स्तवन (उवसग्गहरं अथवा बीजु) कहे अने जयवीयराय अरधा (आ भवमखंडा सुधी) कहेवा. पछी खमा० दइ चैत्यवंदन करी, नमुत्थुणं कहीने जयवीयराय संपूर्ण कहेवा. त्यारपछी विधि करतां अविधि थइ होय तेनो मिच्छामि दुक्कडं दइने, प्रभातना देववंदनमा छेवटे सज्झाय कहेवी [ बपोरे तथा सांजे न कहेवी ] ते स
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(४००) नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥ ज्झायने माटे एक खमा० दइ इच्छा० सज्झाय करूं इवं कही नवकार गणी उभडक पगे बेसी एक जण मन्हजिणाणंनी सज्झाय कहे. (त्यारपछी नवकार न गणवो)
॥ इति नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
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________________ नवपद्जी महाराजनी आयंबिलनी ओळी करवानी अभिलाषावाळा भाई-व्हेनोने भेट. ISBNMURTIMINISTRATION