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अथ चैत्यवंदनो॥
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॥ अथ अरिहंतपद चैत्यवंदन ॥
जय जय श्री अरिहंत भानु, भावि कमलविकाशी ॥ लोकालोक अरूपी रूपी, समस्त वस्तु प्रकाशी ॥१॥ समुद्घात शुभ केवले, क्षय कृत मल राशि ॥ शुक्ल चमर शुचि पादसे, भयो वर अविनाशी ॥२॥ अंतरंग रिपुगण हणाए, हुय अप्पा अरिहंत ॥ तमु पदपंकजमें रही, हीर धरम नित'संत ॥३॥ इति अरिहंतपदचैत्यवंदनम्
॥ अथ श्री सिद्धपद चैत्यवंदन ॥
श्री शैलेशी पूर्वप्रांत, तनु हीन विभागी.॥ पुव्वपओगपसंगसे, ऊरध गत जागी ॥ १॥ समय एकमें लोकप्रांत गये निगण निरागी ॥ चेतन भूपे आत्मरूप, सुदिशा लही सागी ॥२॥ केवल दसण नाणथी ए, रूपातीत स्वभाव ॥ सिद्ध भये तसुहीर धर्म, वंदे धरी शुभ भाव ॥३॥ इति सिद्धपदचैत्यवंदनम् ॥
॥अथ तृतीय श्रीआचार्यपद चैत्यवंदन ॥
॥ जिनपदकुल मुखरस अनिल, मितरस गुण धारी॥ प्रबल सबल घन मोहकी, जिणते चमुहारी ॥१॥ ऋ