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________________ अथ चैत्यवंदनो॥ (२५७) ॥ अथ अरिहंतपद चैत्यवंदन ॥ जय जय श्री अरिहंत भानु, भावि कमलविकाशी ॥ लोकालोक अरूपी रूपी, समस्त वस्तु प्रकाशी ॥१॥ समुद्घात शुभ केवले, क्षय कृत मल राशि ॥ शुक्ल चमर शुचि पादसे, भयो वर अविनाशी ॥२॥ अंतरंग रिपुगण हणाए, हुय अप्पा अरिहंत ॥ तमु पदपंकजमें रही, हीर धरम नित'संत ॥३॥ इति अरिहंतपदचैत्यवंदनम् ॥ अथ श्री सिद्धपद चैत्यवंदन ॥ श्री शैलेशी पूर्वप्रांत, तनु हीन विभागी.॥ पुव्वपओगपसंगसे, ऊरध गत जागी ॥ १॥ समय एकमें लोकप्रांत गये निगण निरागी ॥ चेतन भूपे आत्मरूप, सुदिशा लही सागी ॥२॥ केवल दसण नाणथी ए, रूपातीत स्वभाव ॥ सिद्ध भये तसुहीर धर्म, वंदे धरी शुभ भाव ॥३॥ इति सिद्धपदचैत्यवंदनम् ॥ ॥अथ तृतीय श्रीआचार्यपद चैत्यवंदन ॥ ॥ जिनपदकुल मुखरस अनिल, मितरस गुण धारी॥ प्रबल सबल घन मोहकी, जिणते चमुहारी ॥१॥ ऋ
SR No.022958
Book TitleNavpadmay Siddhachakra Aradhan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherManeklalbhai Mansukhbhai
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size21 MB
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