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श्री सिद्धचक्र तप उद्यापननी ढाल ॥ (३७३) ततखिण सोहमवासि, देव ते आवियो हो लाल, देव० विमळेसर मणिहार मनोहर लावियो हो लाल, मनो० थइ घणो सुप्रसन्न कुंअर कंठे ठवे, होलाल, कुंअर० तेह तणो करजोडी, महीमा वरणवे हो लाल, महीमा०९ जेह वंछे रूप ते थायें ततखिणें हो लाल, ते थाये. ततखिण वांछित ठाम जाये गयणांगणे होलाल जाये आवे विण अन्यास,कळा जे मन धरे होलाल, कळा० विषना विषम विकार ते सघळा संहरे हो लाल, ते०१० सिद्धचक्रनो सेवक, हुं छं देवता होलाल, के हुंछ. केइ उद्धरिया धीर,में एहने सेवता होलाल, मे०एहने. सिद्धचक्रनी भक्ति घणी मन धारजो होलाल, घणी० मुजने कोइक काम पडे संभारजो हो लाल, पडये.११
श्री सिद्धचक तप उद्यापननी ढाल हवे राजा निज राजनी, लच्छितणे अनुसार, उजमणुं तेह तपतj, मांडे अतिहि उदार. १ विस्तीरण जिनभुवन विरचीयें, पुण्य त्रिवेदिक पीठ, चंद्र चंद्रिकारे धवल भुवनतळे, नवरंग चित्र विसीट्ठ.१