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अथ चैत्यवंदनो ॥ (२५९) ॥ अथ षष्ठ श्रीदर्शनपद चैत्यवंदन ॥
॥ हुय पुग्गल परियह, अङ्क परमित संसार ॥ गंठिभेद तब करी लहे, सब गुणनो आधार ॥१॥क्षायक वेदक शशी असंख, उपशम पण वार विना जेण चारित्र नाण, नहीं हुवे शिव दातार ॥२॥ श्री सुदेव गुरु धर्मनी ए, रुचि लच्छन अभिराम ॥ दरशनकुं गणि हीर धर्म, अहनिश करत प्रणाम ॥३॥ इति दर्शनपदचैत्यवंदनम् ॥६॥
॥ अथ सप्तम श्रीज्ञानपद चैत्यवंदन ॥
॥ क्षिप्रादिक रस राम वह्नि, मित आदिम नाण ॥ भाव मिलापसे जिन जनित, सुय बीश प्रमाण ॥१॥ भवगुण पजव ओहि दोय, मण लोचन नाण ॥ लोकालोक सरूप जाण, इक केवल भाण ॥२॥ नाणावरणी नाशथी ए, चेतन नाण प्रकाश ॥ सप्तम पदमें हीर धर्म, नित चाहत अवकाश ॥ ५॥ इति ज्ञानपदचैत्यवंदनम् ॥७॥
॥अथ अष्टम श्री चारित्र पद चैत्यवंदन ॥
॥ जस्स पसाये साहु पाय, जुग जुग समितेंद ॥ नमन करे शुभ भाव लाय, फुण नरपति वृन्द ॥१॥ जपे