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________________ ( ३३४ ) नवपद विधि विगेरे संग्रह || नित्यं सुलक्ष्मीविजयपदवृतैः प्रेमपूर्णैः प्रसन्ना ॥ ४ ॥ इति श्रीसिद्धचक्रस्तुतयः । ॥ सिद्धचकनी स्तुति ॥ प्रह उठी वंदु, सिद्धचक्र सदाय, जपीये नवपदनो, जाप सदा सुखदाय, विधिपूर्वक ए तप, जे करे थइ उजमाल; ते सवि सुख पामे, जेम मयणा श्रीपाल ॥ १ ॥ मालवपति पुत्री, मयणा अति गुणवंत । तस कर्मसंयोगे, कोढी मळीयो कंत । गुरु वयणे तेणे, आराध्यं तप एह | सुख संपद वरीया, तरीया भवजल तेह ॥२॥ अविलने उपवास, छठ वली अठम । दस अघाइ पंदर, मासी छमासी विशेष ॥ इत्यादिक तप बहु, सहुमांहि शिरदार | जे भवियण करशे, ते तरशे संसार ॥ ३ ॥ तप सांनिध्य करशे, श्री विमलेश्वर यक्ष, सहु संघना संकट, चूरे थइ प्रत्यक्ष । पुंडरीक गणधर, कनक विजय बुद्ध शिष्य । बुद्ध दर्शनविजय कहे, पहोंचे स-यल जगीश ॥ ४ ॥ ॥ श्रीसिद्धचक्रस्तुतिः ॥ विपुल कुशलमाला केलिगेहं विशाला, समविभव
SR No.022958
Book TitleNavpadmay Siddhachakra Aradhan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherManeklalbhai Mansukhbhai
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size21 MB
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