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नवपद विधि विगेरे संग्रह ||
श्री ज्ञानपद स्तवन
ज्ञानपद हितधार, भवि ए तो ज्ञानपद हितधार, भरम तिमिर विदार || भवि० ॥ सर्व रात्रिमां इन्दुभंजन दिवस रवि निरधार । जगतजन्तु मोहमधर तास भंजनकार ॥ भवि० ॥ १ ॥ विकट वनमें प्रभा सुरतरु, विनय शुचि गुणसार, वसुधा मांहे शोभत मेरु: शिवपंथ ज्ञान उदार || भवि० ||२|| परम पंच प्रकार अनुपम; मति श्रुत अवधि विचार, जननी उदरे धर्या छे जिनवर; संयमे चोथो सार ॥ भवि० ॥ ३ ॥ सचनघाती कर्मवनदल पवन तास तुषार; जगत जिनवर नामघर शुचिः उद्धर्यो आगम अपार भ० || ४ || सुमतिधर भवि ज्ञानतज मद; मेी विषय विकार | पद्मसूरि भणे निजहेते; ज्ञानथी होय निस्तार | भवि० ॥ ५ ॥ इति ॥
श्री चारित्रपद स्तवन
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वदो भवि चारित्र गुणधामिः अष्टमपद अभिरामीरे । समता रस अंगे पूरण पामी विपत विदारण कामीरे ॥ - वंदो० ॥ १ ॥ अंब प्रभावे अंबुज प्रकटे परिमल पवन प्रकाशेरे, धर्मनिपुणता ज्ञान विकासे चारित्र तास उजा सेरे ॥ वं० ||२|| सामायिक छेदोपस्थापनीय वळी परि
विशुद्धीरे सूक्ष्म संपराय दशमे गुणठाणे; अंतर्मुहुत प्रसिद्धोरे ॥ ० ॥ ३ ॥ यथाख्यात चारित्र प्रधाने; केवल