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॥ स्तवनो॥
(३१३) उपाधि । निजगुण ध्याने उज्वल आतमारे अध्यातम पद साध ॥ भवि० ॥२॥ सबल करमरे संगे विलुधीयोरे, चेतन चिहुंगति संग। सघन करममल मेटी ज्ञानथीरे,पामी मुक्ति उत्तंग ॥ भवि०॥३॥ इम शुद्ध भावेरे भवि तुमे वांदजोरे; सिद्ध सकल शुचिज्ञान। ए पद ध्यातां चेत जिन हुएरे, इयल ज्युं भमरी ध्यान ॥ भवि० ॥ ४॥ शुचि संवेगीरे समता आगरुरे, परमातम सुखकंद । अद्भूत ज्योतीरूप मांहे सदारे पभणे पद्म सुरीद भवि० ॥५॥ इति
__श्री आचार्य पद स्तवन सूरि सकल भवि वांदीये, पद त्रीजे हो मद मच्छर टाल के । प्रकटे आत्मप्रबोधता, तस विकसे हो जगजीवन धारके ॥ सूरि० ॥१॥ पंच आचारपणुं ग्रही, व्रतपाले हो शुचि तीक्ष्ण धाररे। कुमति कंदर्प कुकर्मने,जिम ज्वाले हो वन पवन तुषारके ॥ सूरि० ॥२॥ अप्रमत्त भावे देशना टाली विषता हो वली विषय कषायके भव्य सुणी मोही रह्या, जीम मधुकर हो नित्य कमल लोभायके ॥ सूरि ० ॥३॥ सारण वारण चोयणा, पडिचोयणा हो इम चार विचारके । युग प्रधानपणुं वरी, भयटाले हो आणी उपकारके ॥ सूरि०॥४॥ गुण छत्रीश शुं शोभता, पटधारी हो जगदीपक आपके । कहे जिनपद्म मुनीश्वर, तस स्मरणे हो मीटे तनु तापके ॥ सूरि ॥ ५॥ इति