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________________ स्तवनो॥ (२८३) सांनिध्य करे तेहनी, उत्तम जे आराधेजी रे; पद्मविजय कहे ते भवी प्राणी, निज आतमहित साधे. भवि० ॥१३॥ श्री सिद्धनुं स्तवन. सिद्ध जगत शिर शोभता, रमता आतमरामलक्ष्मी लीलानी लहेरमां, सुखीआ छे शिव ठाम. सि० ॥१॥ महानंद अमृत पद नमो, सिद्धि केवळ नाम; अपुनर्भव ब्रह्मपद वळी, अक्षय सुख विशराम. सि० ॥२॥ संश्रय निश्रय अक्षरा, दुःख समस्तनी हाण; निवृत्ति अपवर्गता, मोक्ष मुक्ति निर्वाण. सि० ॥३॥ अचळ महोदय पद लघु, जोतां जगतना ठाठ; निज निज रूपे रे जुजुआ, वीत्या कर्म ते आठ. सि०॥ ४ ॥ अगुरुलघु अवगाहना, नामे विकसे वदन; श्री शुभ वीरने वंदता रहीए सुखमां मगन. सि० ॥५॥ __ श्री सिद्धचक्रनुं स्तवन. ___ ( राग-नींदरी वेरण हुइ रही-ए देशी ) श्री सिद्धचक्र आराधीए, जिम पामो हो भवि कोडि कल्याण के श्री श्रीपाळतणी परे, सुख पामो होलही निर्मळ नाण के. श्री सि० ॥१॥ नवपद् ध्यान धरो सदा, चोखे चित्ते हो आणी बहु भाव के; विधि आराधन साचवो, जिम जगमा हो होय जसनो जमाव के. श्री सि० ॥२॥ केशर चंदन कुसुमशु, पूजीजे हो उखेबी धूप के; कुंद
SR No.022958
Book TitleNavpadmay Siddhachakra Aradhan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherManeklalbhai Mansukhbhai
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size21 MB
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