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नवपद विधि विगेरे संग्रह ॥
कुसुमेहिं अलंकियओ,सो सिद्धचक्क गुरुकप्पतरु अम्ह मनवंछिय फल दिओ॥१॥
॥ पुनः नव पद चैत्यवंदन॥
श्रीअरिहंत उदार कांति, अतिसुन्दर रूप ॥ सेवो सिद्ध अनन्त शांत, आतमगुण भूप ॥१॥ आचारज उवझाय साधु, समतारस धाम ॥ जिनभाषितसिद्धांतशुद्ध, अनुभव अभिराम ॥ २ ॥ बोधिवाजगुणसंपदाए, नाणचरणतव शुद्ध ॥ ध्यावो परमानन्दपद्, ए नव पद अविरुद्ध ॥३॥ इह परभव आनन्दकंद, जग मांहि प्रसिद्धा ॥चिंतामाण सम जास जाग, बहुपुण्ये लद्धा ॥४॥ तिहुअणसार अपार एह, महिमा मन धारो ॥ परिहर परजंजालजाल, नित एह संभारो ॥५॥ सिद्धचक्रपद सेवतां, सहजानन्द स्वरूप ॥ अमृतमय कल्याणनिधि, प्रगटे चेतन भूप ॥६॥ इति श्रीसिद्धचक्रचैत्यवंदन संपूर्णम् ॥
॥ चैत्यवंदनम् ॥ ॥ श्री सिरि सिद्धचक्क नवपय महल्ल पढमिल्ल पय मय जिणंद असुरिंदै चिय पयपंकय नाह तुझ नमो ॥१॥ सिरि रिसहेसर सासिय फल दाण कप्पतरु कप्प कंदप्पगं