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अथ चैत्यवंदनो॥ (२६१)
॥ श्री सिद्धपदकाव्यम् ॥ दुटकम्मावरणप्पमुक्के. अनंतनाणाइसिरीचउक्के ॥ समग्गलोगग्गपयप्प(स्थ )सिद्धे, झाएह निच्चंपि
मणमि सिद्धे ॥२॥
. ॥ श्रीउपाध्यायपदकाव्यम् ॥ न तं सुहं देइ पिया न माया, जं दंति जीवाणिह सूरिपाया ॥ तम्हा हु ते चेव सया महेह, जं मुक्खसुक्खाई लहुं लहेह ॥ ३॥
॥ श्रीआचार्यपदकाव्यम् ॥
सुत्तत्थसंवेगमयस्सुएणं, संनीरखीरामयविस्सुएणं ॥ पीणंति जे ते उवज्झायराए, झाएह निच्चंपि
कयप्पसाए ॥४॥ ॥ श्रीसाधुपदकाव्यम् ॥ खते अ दंते असुगुत्तियुत्ते, मुत्ते पसंते गुणजोगजुते । गयप्पमाए हयमोहमाए,झाएहनिच्चं मुणिरायपाए।।५॥