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वर्णोजी: जीवन-रेखा
लाला प्रकाशचन्द्र सहारनपुर वर्णीजीके साथ छेदीलालजी की धर्मशालामें रहते थे । यौवन, धन तथा स्वच्छन्दताने इन्हें विगाड़ दिया था । अपने अवगुण छिपानेके लिए इन्होंने वर्णीजी को घूस देनी चाही, पर वर्णीजीने सौ रुपयाके नोटपर नजर भी न डाली । गो कि 'दोषवादे च मौनम्' को पालन करते हुए दूसरेसे न कह कर वर्णीजी ने उन्हीं को समझाया । संसारको जितना अधिक वर्णीजी समझते हैं उतना शायद ही कोई जानता हो तथापि इतने गम्भीर हैं कि उनकी थाह पाना असंभव है। किन्तु विशेषज्ञता तथा गाम्भीर्यने उनकी शिशु सुलभ सरलतापर रंचमात्र प्रभाव नहीं डाला है। आज भी किसी बातको सुनकर उनके मुखसे आश्चर्य सूचक प्लुत "अरे" निकल पड़ता है । यही कारण है कि स्व० बाईजी तथा शास्त्रीजी बहुधा कहा करते थे "तेरी बुद्धि क्षणिक ही नहीं कोमल भी है । तूं प्रत्येकके प्रभावमें आ जाता है।"
मनुष्यके स्वभावका अध्ययन करनेमें तो वर्णीजीको एक क्षण भी नहीं लगता । यही कारण है कि वे विविध योग्यताओंके पुरुषोंसे सहज ही विविध कार्य करा सके है । यह भी समझना भूल होगी कि यह योग्यता उन्हें अब प्राप्त हुई है । विद्यार्थी जीवनमें बाईजीके मोतियाबिन्दकी चिकित्सा कराने किसी बंगाली डाक्टरके पास झांसी गये । डाक्टरने यों ही कहा यहांके लोग बड़े चालाक होते हैं फिर क्या था माता-पुत्र उसकी लोभी प्रकृतिको भांप गये और चिकित्साका विचार ही छोड़ दिया। बादमें उस क्षेत्रके सब लोगोंने भी बताया कि वह डाक्टर बड़ा लोभी था । किन्तु धर्ममाता की व्यथाके कारण वर्णीजी दुःखी थे,उन्हें स्वस्थ देखना चाहते थे। तथापि उनकी श्राज्ञा होने पर बनारस गये और परीक्षामें बैठे गोकि मन न लगा सकनेके कारण असफल रहे । लौटनेपर बागमें एक अंग्रेज डाक्टरसे भेंट हुई। वर्णीजी को उसके विषयमें अच्छा ख्याल हुआ। उससे बाईजी की आंखका श्रापरेशन कराया और बाईजी ठीक हो गयीं। इतना ही नहीं वह इतने प्रभावमें पाया कि उसने रविवारको मांसाहारका त्याग कर दिया तथा कपड़ोंकी स्वच्छता आदिको भोजन-शुद्धिका अंग बनानेका इनसे भी आग्रह किया ।
. वर्णीजीका दूसरा विशेष गुण गुणग्राहकता है, जिसका विकास भी छात्रावस्थामें ही हुआ था । जब वे चकौतो ( दरभंगा ) में अध्ययन करते थे तब द्रौपदी नामकी भ्रष्ट बालविधवामें प्रौदावस्था आने पर जो एकाएक परिवर्तन हुश्रा उसने वर्णीजी पर भी अद्भुत प्रभाव डाला था । वे जब कभी उसकी चर्चा करते हैं तो उसके दूषित जीवनकी अोर संकेत भी नहीं करते हैं और उसके श्रद्धान की प्रशंसा करते हैं । विहारी मुसहर की निर्लोभिता तो वर्णीजीके लिए आदर्श है । अल्प वित्त, अपढ़ होकर भी उसने उनसे दश रुपये नही ही लिये क्यों कि वह अपने औषधिज्ञानको सेवार्थ मानता था। घोरसे घोर घृणोत्पादक अवसरोंने वर्णीजीमें विरक्ति और दयाका ही संचार किया है प्रतिशोध और क्रोध कभी भी उनके विवेक और सरलताको नहीं भेद सके हैं । नवद्वीपमें जब कहारिनसे मछलीका आख्यान सुना तो वहाँके नैयायिकोंसे विशेष ज्ञान प्राप्त करने के प्रलोभनको छोड़ कर सीधे कलकत्ता पहुंचे। और वहांके विद्वानोंसे
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