Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १.]
कदिअणियोगद्दारे मंगलायरणं मंगलं काऊण पारद्धकज्जाणं कहिं पि विग्घुवलंभादो तमकाऊण पारद्धकज्जाणं पि कत्थ वि विग्घाभावदंसणादो जिणिंदणमोक्कारो ण विग्धविणासओ त्ति ? ण एस दोसो, कयाकयभेसयाणं वाहीणमविणास-विणासदसणेणावगयवियहिचारस्स वि मारिचादिगणस्स भेसयत्तुवलंभादो । ओसहाणमोसहत्तं ण विणस्सदि', असज्झवाहिवदिरित्तसज्झवाहिविसए चेव तेसिं वावारब्भुवगमादो त्ति चे जदि एवं तो जिणिंदणमोक्कारो वि विग्धविणासओ, असज्झविग्धफलकम्ममुज्झिदूण सज्झविग्धफलकम्मविणासे वावारदसणादो। ण च ओसहेण समाणो जिणिदणमोक्कारो, णाण-झाणसहायस्स संतस्स णिविग्यग्गिस्स अदझिंधणाण व असज्झविग्धफलकम्माणमभावादो । णाणज्झाणप्पओ णमोक्कारो संपुगणो, जहण्णो मंदसद्दहणाणुविद्धो बोद्धव्यो; सेसअसंखेज्जलोगभेयभिण्णा मज्झिमा । ण च ते सव्वे समाणफला, अइप्पसंगादो ।
शंका-मंगल करके प्रारम्भ किये गये कार्योंके कहींपर विप्न पाये जानेसे, और उसे न करके भी प्रारम्भ किये गये कार्योंके कहींपर विनोंका अभाव देखे जानेसे जिनेन्द्रनमस्कार विनविनाशक नहीं है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जिन व्याधियोंकी औषध की गई है उनका अविनाश, और जिनकी औषध नहीं की गई है उनका विनाश देखे जानेसे व्यभिचार ज्ञात होनेपर भी मारिच [काली मिरच] आदि औषधि द्रव्यों में औषधित्व गुण पाया जाता है।
यदि कहा जाय कि औषधियोंका औषधित्व [उनके सर्वत्र अचूक न होनेपर भी] इस कारण नष्ट नहीं होता क्योंकि असाध्य व्याधियोंको छोड़ करके केवल साध्य व्याधियों के विषयमें ही उनका व्यापार माना गया है, तो जिनेन्द्र-नमस्कार भी [ उसी प्रकार] विघ्न विनाशक माना जा सकता है, क्योंकि, उसका भी व्यापार असाध्य विघ्नोंसे उत्पन्न कर्मोको छोड़कर साध्य विनोंसे उत्पन्न कर्मों के विनाशमें देखा जाता है ।
दूसरी बात यह कि सर्वथा 1 औषधके समान जिनेन्द्र-नमस्कार नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार निर्विघ्न अग्निके होते हुए न जल सकने योग्य इन्धनोंका अभाव रहता है, उसी प्रकार उक्त नमस्कारके ज्ञान व ध्यानकी सहायता युक्त होनेपर असाध्य विघ्नोत्पादक कौका भी अभाव होता है। ज्ञान-ध्यानात्मक नमस्कारको सम्पूर्ण अर्थात् उत्कृष्ट, एवं मन्द श्रद्धान युक्त नमस्कारको जघन्य जानना चाहिये । शेष असंख्यात लोक प्रमाण भेदोंसे भिन्न नमस्कार मध्यम हैं । और वे सब समान फलवाले नहीं होते, क्योंकि,
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१ अ-आप्रयोः · सारिचादि ', काप्रती · सारिवादि ' इति पाठः । २ प्रतिषु · विस्सदि ' इति पाठः। ३ प्रतिषु · अदझिदणाणि व ' इति पाठः।
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