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प्रमेयकमलमार्त्तण्ड
'देवराज्ये' प्रशस्तिवाक्य नहीं है । श्रीमान् मुख्तारसा • प्रायः इसीसे उक्त प्रशस्तिवाक्यों को प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते ।
इसके विषयमें मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थ में लगानेका प्रयत्न कम करते हैं । लेखक आखिर नकल करनेवाले लेखक ही तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमान की भी कम संभावना है कि वे 'श्री भोजदेवराज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्तिको कपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें। जिन प्रतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है. तो समझना चाहिए कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें वह प्रशस्ति लिखी ही नहीं गई । जब अन्य अनेक प्रमाणोंसे प्रभाचन्द्रका समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्यकाल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंको टिप्पणकारकृत या किसी पीछे होनेवाले व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता । मेरा यह विश्वास है कि 'श्रीभोजदेवराज्ये' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तियाँ सर्वप्रथम प्रमेय कमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता प्रभाचन्द्रने ही बनाई हैं । और जिन जिन ग्रन्थोंमें ये प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थ होने चाहिए ।
२- यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यने शाकटायन व्याकरण और अमोघ - वृत्तिके सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने अमोघ - वृत्ति, महाराज अमोघवर्ष के राज्यकाल ( ई० ८१४ से ८७७ ) में रची थी । आ० प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें शाकटायन के इन दोनों प्रकरणों का खंडन आनुपूर्वीसे किया है । न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्तिप्रकरणसे एक कारिका भी उद्धृत की है । अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९०० से पहिले नहीं माना जा सकता ।
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३- सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षिगणिकी एक वृत्ति उपलब्ध है हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र' की तुलना में बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रने न्यायावतार के साथ ही साथ इस वृत्तिको भी देखा है । सिद्धर्षिने ई०९०६ में अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा बनाई थी । अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभाचन्द्रका समय सन् ९१० के पहिले नहीं माना जा सकता ।
४ -भासर्वज्ञका न्यायसार ग्रन्थ उपलब्ध है । कहा जाता है कि इसपर भासर्वकी स्वोपज्ञ न्यायभूषणा नामकी वृत्ति थी । इस वृत्तिके नामसे उत्तरकाल में इनकी भी 'भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी । न्यायलीलावतीकारके कथनसे' ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोग रूप मानते थे । प्रभाचन्द्रने न्यायकुसुदचन्द्र ( पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञ के इस मतका खंडन किया है । प्रमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्याय में जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं । स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण इनका समय
१ देखो न्याय कुमुदचन्द्र पृ० २८२ टि० ५ । २ न्यायसार प्रस्तावना पृ० ५ ।
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