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प्रस्तावना
इसे पीछेके किसी व्यक्तिकी करतूत बताते हैं । पर प्रशस्तिवाक्य को प्रभाचन्द्रकृत नहीं माननेमें दोनोंके आधार जुदे जुदे हैं । मुख्तारसा. प्रभाचन्द्रको जिनसेन के पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेवराज्ये आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते । पं० कैलाशचन्द्रजी प्रभाचन्द्रको ईसाकी १० वीं और ११ वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराणके टिप्पणकार श्रीचन्द्र के टिप्पणके अन्तिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्प
णका अन्तिमवाक्य समझ लेनेके कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत 'नहीं मानना चाहते । मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया है' कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियों में यह अन्तिमवाक्य नहीं पाया जाता । और इसके लिए भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला दिया है । मैंने भी इस ग्रन्थका पुनः सम्पादन करते समय जैनसिद्धान्तभवन आराकी प्रतिके पाठान्तर लिए हैं। इसमें भी उक्त 'भोजदेवराज्ये वाला वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्रके सम्पादनमें जिन आ०, ब०, श्र०, और भां० प्रतियोंका उपयोग किया है, उनमें आ० और ब० प्रतिमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये वाला प्रशस्ति लेख नहीं है। हाँ, भां० और श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्र पर लिखी हैं, उनमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है। इनमें भां० प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिखी हुई है। इस तरह प्रैमेयकमलमार्तण्डकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हींमें 'श्रीपद्मनन्दि' श्लोक नहीं है तथा कुछ प्रतियोंमें • सभी श्लोक और प्रशस्ति वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंह
१ रत्नकरण्ड० प्रस्तावना पृ० ६० । २ देखो इनका परिचय न्यायकु० प्र० भाग के सम्पादकीयमें।
३ पं. नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके आधारसे सूचित करते हैं कि-"भाण्डा. रकर इन्स्टीट्यूटकी नं० ८३६ ( सन् १८७५-७६ ) की प्रतिमें प्रशस्तिका 'श्रीपननन्दि' वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं। वहीं की नं० ६३८ (सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है । पहिली प्रति संवत् १४८९ तथा दूसरी संवत् १७९५ की लिखी हुई है ।" वीरवाणीविलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्थनाथशास्त्री अपने यहाँ की ताडपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रितपुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्यं हैं। प्रमेयकमलमार्तण्डकी प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष पहिले लिखित होगी । उन दोनों प्रतियोंमें शकसंवत् नहीं हैं।" सोलापुरकी प्रतिमें "श्रीभोजदेवराज्ये” प्रशस्ति नहीं है । दिल्लीकी आधुनिक प्रतिमें भी उक्तवाक्य नहीं । है। अनेक प्रतियोंमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जानेवाले "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इन्दौरकी तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त शोककी व्याख्या भी है। खुरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्ये' प्रशस्ति नहीं है, पर चारों प्रशस्तिश्लोक हैं।
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