________________
३५
मायावेहिल असेसा मोहमहातस्वरम्मि आरुढ़ा।
विसविस फुप्फफुल्लिय नुर्णति मुणि णाणसहि ।।१५६।।-भाव प्रामृत . कहीं पर चूटक पद्धति का भी अनुसरण किया है । यथा,
तिहि तिण्णि धरवि णिच् तिपहिलो तह तिएगपरिपरिको।
यो दोस विप्पमुको परमापा प्रायए जोई ।।४४॥-मोक्ष प्रभृत अर्थात नीन के द्वारा (तीन मुस्तियों के द्वारा) तीन को (मन वचन व.:य यो) धारण नर, निरंतर तीन से (शल्यत्रय रो) रहित, तीन से (ग्नत्रय मे) सहित और दो दोषों (गग द्वेष) से मुन रहने धारा योगी परमात्मा का ध्यान करना। कन्दकन्द का शिलालेखों तथा उनरवर्ती ग्रन्यों में उल्लेख :
पद स्वामी प्रत्यन्त प्रशिद्ध और सर्वमान्य ग्राचार्य थे प्रत: इनका जनन अनेक शिलालेखों में मिलता है तथा इनवेनरबी गूथकारों में बड़ी बद्धा के माथ इनका संस्मरण किया है। जैन गन्द के शाओं भाधार पर छहलखों का यहां मंकलन किया जाना है
श्रीमती वर्धमानस्य बद्धमानरय शासने । श्री कोण्डकुन्दनामाभून्मूलसङ्गाग्रणीमणी ।।-80 ये शि०५५८४१२ वन्यो विभु चि न करिह कोण्डकुन्दः कुन्दप्रमाप्रणयिकीतिविभूषिताश: 1 यश्चारुचारणकराम्बुजचन्चरीकपचक्र तस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम मवेशि० ५४/६७ तस्पान्ये भूविदिते बभूव यः पचनन्दिप्रयमाभिधानः । श्रीकोपष्ट कुन्दादिमुनीश्वराज्यस्तत्संथभादगतचारणतः॥-०३०शि० ४०/६०
धोपपनन्दीत्यनवधनामा ह्याचार्यशस्वीत्तरकोटकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमद्यरचरित्रसंजाल पुबारातः ।।
-०० मि० ८२, ४३, ४७, ५० 'इत्याद्यनेकसूरिष्वथ सुएदमुपेतेषु दीव्यस्तपस्याशास्त्राधारेषु पुण्यदनि स जगतां कोण्डकुन्दो यतीन्नः । रसोभिरस्पृष्टतमत्वमन्त योऽपि संख्यजयितु यतीशः । रजपद भूमिनन विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ॥१००शि० १०५
L