Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख
XXXIX समुन्नति का सेतु है।
नवीन धर्म-क्रियाओं में समय-समय पर हुए समावेश के संबंध में आपका स्पष्ट मन्तव्य था- "शास्त्र में उल्लेख नहीं होने पर भी जिस क्रिया में आत्मा के लिए कोई दोष का कारण न हो एवं कर्म-निर्जरा का लाभ होता हो, उसे सदा ही उपादेय मानना चाहिए।"
स्थानकवासी परम्परा में सम्प्रदाय विशेष के आचार्य होते हए भी आपका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था। आप सम्प्रदाय को एक व्यवस्था मानते थे, जो अपने नेश्रायवर्ती संत-सती सम
अपन नायवता सत-सती समुदाय के ज्ञान-दर्शन-चारित्र के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु प्रचलित है। इस संबंध में आप सेना की बटालियनों का उदाहरण फरमाते थे कि जिस प्रकार सेना की अलग-अलग बटालियनों की अलग-अलग व्यवस्था होती है, परन्तु सबका कार्य देश की रक्षा का होता है, इसी प्रकार अलग-अलग सम्प्रदायें व्यवस्था मात्र हैं, सबका कार्य जिनशासन की रक्षा एवं गौरव की अभिवृद्धि करना है। स्वाध्यायियों को भी आप यही फरमाते कि आप सभी साधर्मियों को अपना भाई समझें। अन्य सम्प्रदायों के साथ पर का व्यवहार करना या उनके साथ कषाय भाव रखना, आपने कभी उचित नहीं समझा। आप तो ऐसे भक्तों को गुरु आम्नाय करने से स्पष्ट इन्कार कर देते थे, जिन्होंने पहले से किसी अन्य गुरु की आम्नाय स्वीकार कर रखी हो। आपका ध्येय तो व्यक्ति को आत्म-कल्याण एवं सर्व कल्याण से जोड़ना था। भक्तों या साधर्मियों के बीच भेद की दीवार खड़ी करना आपने कथमपि उचित नहीं समझा। इसलिए चरितनायक पूज्य गुरुदेव के पास सभी जैन एवं जैनेतर श्रद्धालु जन भी उपस्थित होकर अपने जीवन को ऊँचा उठाने के लिए कृत-संकल्प होते थे। स्थानकवासी संत ही नहीं मन्दिरमार्गी, वैष्णव, रामस्नेही आदि परम्पराओं के सन्तों ने भी आपके दर्शन एवं सान्निध्य का लाभ लेकर स्वयं को कृतकृत्य समझा।
अपनी उच्च कोटि की निर्मल संयम-साधना, विद्वत्ता, सूझबूझ, समन्वयशीलता, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव आदि अनेक गणों के कारण आप महान् संतों एवं आचार्यों की भी श्रद्धा और सम्मान के आस्पद रहे। श्रमण संघ के आचार्य आगम महोदधि पूज्य श्री आत्माराम जी म.सा. ने अपने पत्रों में आपको 'पुरिसवरगन्यहत्यीणं' जैसे शब्दों से सम्मानित किया। आगम टीकाकार पूज्य श्री घासीलाल जी म.सा. ने आपको नवकोटि मारवाड़ का सरताज कहते हुए अष्टक की रचना कर गुणानुवाद किया। पूज्य आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. ने आपसे वय में अतीव ज्येष्ठ होने पर भी पूरा बहुमान प्रदान करते हुए जेठाना ग्राम से विहार के समय चरितनायक से मांगलिक श्रवण किया। श्रमण सम्मेलनों में भी आपने चरितनायक की सूझबूझ एवं विद्वत्ता की सराहना की। मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म.सा. पूज्य चरितनायक को भूघर वंश का रत्न मानते थे। आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म.सा. का आप पर अपने आप से भी अधिक विश्वास था। पूज्य प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म.सा. नवीन उपक्रम करने के पहले आपका मन्तव्य अवश्य लेते, इसमें आत्मीयभाव के साथ आपकी दूरदर्शिता और सूझबूझ पर भी उन्हें अटल विश्वास था। बहुश्रुत पं. रत्न श्री समर्थमल जी म.सा. भी आपके निर्मल जीवन और संयम में तत्परता के प्रति आदर भाव रखते थे।
सभी आचार्यों एवं सन्त वरेण्यों के साथ मधुर संबंध एवं उपयोगी विचार-विमर्श आपंकी समन्वयशीलता, सरलता एवं सन्त-दृष्टि के परिचायक थे। सन् 1933 में अजमेर बृहद् साधु सम्मेलन, सन् 1952 में सादड़ी सम्मेलन, सन् 1953 में मंत्री-मुनिवरों के सम्मेलन एवं सन् 1956 में भीनासर सम्मेलन में आपकी प्रभावकारी रचनात्मक भूमिका ने अनेक सन्तप्रमुखों को प्रभावित किया। आप जब श्रमणसंघ में रहे, तब भी आपने पूर्ण निष्ठा, समर्पण, ईमानदारी एवं सूझबूझ के साथ शासनसेवा के हित में कार्य किया। आप श्रमणसंघ को साध्वाचार के निर्मल पालन की ऊँचाई पर देखना चाहते थे। आप इतने सजग थे कि अजमेर