Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख होती हैं। आचार्यप्रवर का कथन स्पष्ट रूप से संकेत करता है-“यद्यपि शरीर चलाने के लिए साधक को कछ भौतिक सामग्रियों की आवश्यकता होती है, किन्तु जहाँ साधारण मनुष्य का जीवन उनके हाथ बिका होता है, वहीं साधक की वेदास होती हैं।"
समता के साधक, सामायिक के प्रेरक आचार्यप्रवर ने समता को जहाँ मोक्ष का साधन स्वीकार किया, वहाँ उसके विपरीत 'तामस' को नरक का द्वार बतलाते हए फरमाया- "समता मोक्ष का साधन है तो उसका उलटा तामस नरक का द्वार है।"
मनुष्य प्रायः अपने अधिकारों और दूसरों के कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहता है, किन्तु इससे समाज का उतना भला नहीं होता जितना अपने कर्तव्य पालन के प्रति सजगता एवं दूसरों के प्रति सेवाभाव से समाज का भला होता है। इस संबंध में आपका कथन साधनाशील व्यक्ति के लिए कितना मार्गदर्शक है- "मनुष्य को परदुःख दर्शन के समय नवनीत सा कोमल और कर्तव्य पालन में वजवत् कठोर रहना चाहिए।"
गुरु का शिष्य के जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि गुरु ही शिष्य के विकारों का चिकित्सक होता है। आचार्यप्रवर के शब्दों में- "शिष्य के जीवन में गुरु ही सबसे बड़ा चिकित्सक है। जीवन की कोई भी आन्तरिक समस्या आती है तो उस समस्या को हल करने और मन के रोग का निवारण करने का काम गुरु करता है।"
विद्वानों का धर्म एवं समाज को लाभ मिले, ऐसी आपकी भावना रही, इसी उद्देश्य से इन्दौर में श्री अखिल भारतीय जैन विद्वद् परिषद्' का गठन हुआ। आपने विद्वानों को भी धर्म-क्रिया से जुड़ने की प्रेरणा की। आपका मन्तव्य था- “यदि एक विद्वान् सही अर्थ में धर्माराधन से जुड़ जाता है तो वह अनेक भाई-बहनों के लिए प्रेरणा का स्तम्भ बन जाता है।" विद्वानों से आप कहते थे कि- “विद्वान् तभी विद्वान् कहलाता है, जब वह क्रियावान भी हो- यस्तु क्रियावान्, पुरुषः स विद्वान्।"आचार्यप्रवर का इस बात पर बल था कि विद्वान् केवल शास्त्र-पठन तक ही सीमित न रहें, वरन् ज्ञान का जो सार है- अहिंसा, प्रेम और सेवा-उसे भी अपने जीवन में उतारें तथा सिद्धान्तों पर दृढ़ रहें। छोटी-छोटी बातों पर उत्तेजित न हों, अपने ज्ञान का अहं न लायें, कठिन से कठिन विपरीत परिस्थितियों में भी वे ज्ञान की सरसता को न छोडें। विद्वानों के लिए आचार्यप्रवर का संदेश था कि वे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन तत्त्वज्ञान का मानव-कल्याण और विश्वशान्ति में उपयोग करें।
जैन समाज में सुयोग्य विद्वान् तैयार हों तथा पुरातन साहित्य का संरक्षण एवं अध्ययन हो, ऐसा दूरगामी चिन्तन भी आपने समाज को दिया। श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, जयपुर एवं श्री जैन महावीर स्वाध्याय विद्यापीठ जलगांव इसी चिन्तन के सुपरिणाम हैं। आपका चिन्तन था कि पुरातन शास्त्र एवं साहित्य श्रावकों की असावधानी से नष्ट एवं काल कवलित न हो, अपितु संस्कृति एवं ज्ञान की रक्षा के लिए उनका ज्ञान भण्डार के माध्यम से सरंक्षण एवं संवर्धन हो। जयपुर स्थित 'आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार' आपके इस श्रुतरक्षाविषयक चिन्तन की सुपरिणति है। अध्येता, शोधकर्ता एवं सन्त-सती इससे सहज लाभान्वित हो सकते हैं। आपके शासनकाल में ज्ञानाराधना एवं साधना की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, स्वाध्याय संघ, धार्मिक पाठशालाओं जैसी अनेक संस्थाएँ प्रारम्भ हुई, किन्तु किसी भी संस्था के संचालन आदि में निस्पृह तथा साध्वाचार के निर्मल साधक ने न उनसे स्वयं को जोड़ा और न ही कहीं अपना नाम जुड़ने दिया।
शरीर के सुसंचालन हेतु प्रत्येक अंग का महत्त्व है। उसका कोई भी अंग छोटा-बड़ा नहीं होता। मस्तिष्क, पेट, पैर आदि सभी पूरक बनकर कार्य करते हैं तो शरीर स्वस्थ एवं सक्रिय रहता है। इसी प्रकार विद्वान्, धनिक एवं कार्यकर्ताओं में परस्पर समन्वय हो तो संघ एवं समाज का संचालन स्वस्थ रीति से संभव है। समन्वय ही