Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमख XXXVI अनेक अनर्थों की मूल है।"
धनपतियों से आपने धन के अधीन न होकर उसको अपने अधीन करने का परामर्श देते हुए कहा- "यदि धन तुम पर सवार हो गया तो वह तुमको नीचे डुबो देगा।''धन का सदुपयोग करने की प्रेरणा आपके प्रवचनों में अभिव्यक्त होती रहती थी, यथा- "चतुर कृषक जल को नाली में न डालकर बाड़ी में बहाता है। इसी प्रकार 18 पापों से संचित द्रव्य को आरम्भ-परिग्रह की नाली में न बहाकर ज्ञान-दान, अभयदान, शासन-सेवा. स्वधर्मि-सहाय, उपकरण दान आदि में लगाने से उसका सदुपयोग हो सकता है।"
आपका संदेश था- "निर्व्यसनी हो, प्रामाणिक हो,धोखा न किसी जन के संग हो।" भय एवं अनिष्ट की आशंका के कारण आप जीवन में प्रामाणिकता को टालना उचित नहीं मानते थे। प्रामाणिक जीवन को आपने वास्तविक विकास का आधार मानते हुए संदेश दिया- “प्रामाणिकता के साथ व्यापार करने वाले कभी घाटा नहीं
नाते। घाटे के भय से अधर्म और अनीति करने वालों को मैं विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि धर्म किसी भी स्थिति में हानिकारक नहीं होता। अतएव भय को त्याग कर, धर्म पर श्रद्धा रखकर प्रामाणिकता को अपनाओ। ऐसा
रने से आत्मा कलषित होने से बचेगी और प्रामाणिकता का सिक्का जम जाने पर अप्रामाणिक व्यापारियों की अपेक्षा व्यापार में भी अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकेगा।"
वास्तव में धन की भूख मन में होती है, जो बिना संतोष के नहीं मिट पाती। आपने इस तथ्य को संक्षेप में इस प्रकार गुम्फित किया है- "पेट की भूख तो पाव दो पाव आटे से मिट जाती है, मगर मन की भूख तीन लोक के राज्य से भी नहीं।"
पेट की भूख शान्त करने से जुड़े आहार-विज्ञान के सम्बन्ध में भी साधकों को निर्देश देते हुए फरमाया"जो लोग आहार के संबंध में असंयमी होते हैं, उत्तेजक भोजन करते हैं। उनके चित्त में काम-भोग की अभिलाषा तीव्र रहती है। वास्तव में आहार-विहार के साथ ब्रह्मचर्य का घनिष्ठ संबंध है।"मनोबल को पुष्ट करने के लिए आचार्यप्रवर ने व्रतों का महत्त्व निरूपित करते हुए फरमाया- “मनुष्य के मन की निर्बलता जब उसे नीचे गिराने लगती है तब व्रत की शक्ति ही उसे बचाने में समर्थ होती है। व्रत अंगीकार नहीं करने वाला किसी भी समय गिर सकता है। उसका जीवन बिना पाल की तलाई जैसा है, किन्तु व्रती का जीवन उज्वल एवं संयमित होता है।"
व्यक्ति एवं समाज में सद्गुणों की प्रतिष्ठा हो, एतदर्थ आपका सकारात्मक चिन्तन सदैव श्रोताओं को प्रेरणा करता रहता था। आपका स्पष्ट मन्तव्य था- “वेश-पूजा और नाम-पूजा के बदले गुण-पूजा ही समाज को श्रेय की ओर ले जा सकती है।"गुण ग्रहण के भाव को व्यक्ति एवं समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए आपने सरल, किन्तु प्रेरक शब्दों में फरमाया- "मनुष्य को मधुमक्खी की तरह बनना चाहिए न कि मल ग्रहण करने वाली मक्खी के समान।"विरोधियों को जीतने के लिए न तो कषाय भाव बढ़ाने की आवश्यकता है और न ही भौतिक शस्त्रास्त्रों की। उनको जीतने के लिए तो शान्ति के शीतल वचन ही सक्षम होते हैं- "जो विरोधाग्नि का मुकाबला शान्ति के शीतल जल से करते हैं, वे विरोधीको भी जीत लेते हैं।"
देश के नैतिक बल की रक्षा एवं संवर्धन के लिए आप शस्त्रधारी सेना की नहीं. शास्त्रधारी सेना की आवश्यकता प्रतिपादित करते थे- "शस्त्रधारी सेना देश का घन बचा सकती है, पर शास्त्रधारी सेना जीवन बचाती है, क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, भ्रष्टाचार शस्त्रबल से नहीं, शास्त्र बल से छूटते हैं।''आपका चिन्तन था कि सत्संगति एवं शिक्षा से मनुष्य अपने जीवन का यथोचित निर्माण कर सकता है- "मनुष्य का जीवन मिट्टी के पिण्ड के समान है, उसको जैसा संग एवं शिक्षा मिले वह वैसे रूप में ढल सकता है।" बालक-बालिकाओं के संस्कार हेतु माता-पिता के दायित्व का बोध आपने कितने सुन्दर एवं सार-गर्भित शब्दों में