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महापुराराष्ट्र
गुग्गुलूनां वनादेष महिषो धनकर्बुरः । निर्याति मृत्युदंष्ट्राभविषाणाग्रानि भीषणः ॥ ६८ ॥
लद्वालधयो लोलजिह्वा व्यालोहितेक्षणाः । व्याला' बलस्य सङ्क्षोभम् श्रमी तन्वन्त्यनाकुलाः ॥६६॥ शरभः" खं समुत्वत्य पतनुत्तापितोऽपि सन् । नैष दुःखासिकां वेद चरणैः पृष्ठवर्तिभिः ॥ ७० चमरोऽयं ' 'चमूरोधाद् विद्रुतो द्रुतमुत्पतन् । क्षोभं तनोति सैन्यस्य वर्षो रूपीच" दुर्धरः ॥७१॥ शशः शशस्त्रयं १२ देव सैनिकैरनन द्रुतः । शरणायेव भीतात्मा म"ध्येसैन्यं निलीयते ॥७२॥ सारङगोऽयं तनुच्छायाकल्माषितवनः शनैः । प्रयाति शृङ्गभारेण शाखिनेव प्रशुष्यता ॥७३॥ दक्षिणेर्मतया" विष्वगभिधावन्त्यपीक्षिता" । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मुगप्रजा" ॥ ७४ ॥ कलापी बर्हभारेण मन्दं मन्वं व्रजत्यसौ । केशपाशश्रियं तन्वन् वनलक्ष्म्यास्तनूदहः ॥७ नेत्रावलीमिवातन्वन् वनभूम्याः सचन्द्रकैः । कलापिनामयं सङघो विभात्यस्मिन् वनस्थले ॥७६॥ "सीतां रथाङगानां स्वनमाकर्णयन् मुहुः । हरिणानामिवं यूथं नापसर्पति वर्त्मनः " ॥७७॥
निकल रहे हैं मानो उसके प्राण ही निकल रहे हों ॥ ६७ ॥ जो मेघके समान कर्बुर वर्ण है, जिसके सींगका अग्रभाग यमराजकी दाढ़ के समान है तथा जो अत्यन्त भयंकर है ऐसा यह भैंसा इस गुगुलके वनसे बाहर निकल रहा है ||६८|| जिनकी पूंछ हिल रही है, जिह्वा चंचल हो रही है और नेत्र अत्यन्त लाल हो रहे हैं ऐसे ये सिंह आदि क्रूर जीव स्वयं व्याकुल न होकर ही सेना my क्षोभ बढ़ा रहे हैं ।। ६९ ।। यह अष्टापद आकाश में उछलकर यद्यपि पीठके बल गिरता है तथापि पीठपर रहनेवाले पैरोंसे यह दुःखका अनुभव नहीं करता । भावार्थ अष्टापद नामका एक जंगली जानवर होता है उसके पीठपर भी चार पांव होते हैं । जब कभी वह आकाश में छलांग मारनेके बाद चित्त अर्थात् पीठके बल गिरता है तो उसे कुछ भी कष्ट नहीं होता क्योंकि वह अपने पीठपरके पैरोंसे संभलकर खड़ा हो जाता है ||७०|| जो मूर्तिमान् अहंकारके समान है, दुर्जेय है और सेनासे घिर जानेके कारण जल्दी जल्दी छलांग मारता हुआ इधर-उधर दौड़ रहा है ऐसा यह मृग सेनाका क्षोभ बढ़ा रहा है ॥७१॥ हे देव, यह खरगोश दौड़ रहा है, यद्यपि सैनिकोंने इसका पीछा नहीं किया है तथापि यह डरपोंक होनेसे इधर-उधर दौड़कर शरण ढूंढने के लिये आपकी सेनाके बीच में ही कहीं छिप जाता है || ७२ || जिसने अपने शरीरकी कान्तिसेवनको भी काला कर दिया है ऐसा यह कृष्णसार जातिका मृग सूखे हुए वृक्षके समान अनेक शाखाओंवाले सींगों के भारसे धीरे धीरे जा रहा है ॥७३|| देखिये, दाहिनी ओर घाव लगने से जो चारों ओर चक्कर लगा रहा है ऐसा यह हरिणोंका समूह मानो आपसे यही कह रहा है कि आपको सब जीवों का पालन करना योग्य है || ७४ ॥ जो अपनी पूंछके द्वारा वनलक्ष्मी के केशपाशकी शोभा को बढ़ा रहा है ऐसा यह मयूर पूंछके भारसे धीरे धीरे जा रहा है ॥ ७५ ॥ इधर इस वनस्थलमें यह मयूरोंका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपनी पूंछ परके चन्द्रकोंसे वनकी पृथिवी रूपी स्त्रीके नेत्रोंके समूह की शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥ ७६ ॥ इधर देखिये, चलते हुए रथके पहिये के शब्दको बार बार सुनता हुआ यह हरिणोंका समूह मार्ग
१ कौशिकानाम् । 'कुम्भोरुखलकं क्लीबे कौशिको गुग्गुलुः पुरः' इत्यभिधानात् । २ चलत् । ३ दुष्टमृगाः । ४ निर्भीताः । ५ अष्टापदः । ६ ऊर्ध्वमुखचरणो भूत्वा । ७ जानाति । 5 व्याघूः । C सेनानिरोधात् । १० धावमानः । ११ रूपी च ल० । १२ 'शश प्लुतगती' उत्प्लुत्य गच्छन् । १३ अनुगतः । १४ सैन्यमध्ये | १५ अन्तर्हितो भवति । विलीयते अ०, इ० । १६ शबलितः । १७ दक्षिणभागे कृतव्रणतया । 'दक्षिणे गतया विष्वगभिधावन् प्रवीक्षताम् । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मृगव्रजः ।।' ल० । १८ सैनिकैरवलोकिताः । १९ मृगसमूहः । २० चीत्कारं कुर्वताम् । क्रीडोs कूजे' इति अकूजार्थ तङविधानात् कूजार्थे परस्मैपदी । २१ वर्त्मनः ल० ।
दूरतः अ० ।
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