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सप्तविंशतितमं पर्व इतीवं वनमत्यन्तरमणीयः परिच्छदः। स्वर्गाद्यानगतां प्रीति जनयेत् स्वःसदा सदा ॥५७॥ बहिस्तटवनादेतद् वृश्यते काननं महत् । नानाद्रुमलतागुल्मवीरुद्भिरतिदुर्गमम् ॥५८॥ वृष्टीनामप्यगम्प्रेऽस्मिन् वने मुगकदम्बकम् । नानाजातीयमुद्भान्तं सैन्यक्षोभात् प्रधावति ॥५६॥ इदमस्मबलक्षोभाद् उत्त्रस्तमुगसङकुलम् । वनमाकुलितप्राणमिवाभात्यन्धकारितम् ॥६०॥ गजयूथमितः कच्छाद् अन्धकारमिवाभितः। विश्लिष्टं बलसङक्षोभाद् अपसर्पत्यतिद्रुतम् ॥६१॥ शनैः प्रयाति सजिघन्- दिशः प्रोत्क्षिप्तपुष्करः । स महाहिरिवादीन्द्रो भद्रोऽयं गजयूथपः ॥६२॥ महाहिरयमायाम मिमान इव भूरुहाम् । श्वसनायच्छते" कच्छाद ऊर्वीकृतशरीरकः ॥६३॥ "शयुपोता निकुञ्जषु पुजीभूता वसन्त्यमी। वनस्येवान्त्रसन्तानाः चमूक्षोभाद्विनिःसुताः ॥६४॥ अयमेकचरः पोत्रसमुत्खातान्तिकस्थलः१२ । रुणद्धि वर्त्म सैन्यस्य वराहस्तीवरोषणः ॥६॥ सैनिकरर्यमारुद्धः१३ पाषाणलकुटादिभिः । व्याकुलीकुरुते" सैन्यं गण्डो५ गण्ड६ इव स्फुटम् ॥६६॥ प्राणा इव वनादस्माद् विनिष्कामन्ति सन्तताः। सिंहा बहुदवज्वाला धुन्वानाः केसरच्छटाः ॥६७॥
हुई हैं और जो देवोंके उपभोग करने योग्य हैं ऐसे लतागृह बने हुए हैं ॥५६।। इस प्रकार यह वन अत्यन्त रमणीय सामग्रीसे देवोंके सदा नन्दन वनकी प्रीतिको उत्पन्न करता रहता है ॥५७॥
इधर किनारेके वनके बाहर भी एक बड़ा भारी वन दिखाई दे रहा है जो कि अनेक प्रकारके वृक्षों, लताओं, छोटे छोटे पौधों और झाड़ियोंसे अत्यन्त दुर्गम है ॥५८॥ जिसमें दृष्टि भी नहीं जा सकती ऐसे इस वनमें सेनाके क्षोभसे घबड़ाया हुआ यह अनेक जातिके मृगों का समूह बड़े जोरसे दौड़ा जा रहा है ॥५९॥ जो हमारी सेनाके क्षोभसे भयभीत हुए हरिणों से व्याप्त है तथा जिसमें जीवों के प्राण आकुल हो रहे हैं ऐसा यह वन अन्धकारसे व्याप्त हुए के समान जान पड़ता है ॥६०॥ इधर सेनाके क्षोभसे अलग अलग हुआ यह हाथियोंका झण्ड गङ्गा किनारेके जलवाले प्रदेशसे अन्धकारके समान चारों ओर बड़े वेगसे भागा जा रहा है ॥६॥ हाथियोंके झुण्डकी रक्षा करनेवाला यह भद्र गजराज सूंड़को ऊंचा उठाता हुआ तथा दिशाओंको सूंचता हुआ धीरे धीरे ऐसा जा रहा है मानो शेषनाग सहित सुमेरु पर्वत ही जा रहा हो ॥६२॥ जिसने अपने शरीरके ऊर्ध्वभागको ऊंचा उठा रक्खा है ऐसा यह बड़ा भारी सर्प जलवाले प्रदेशसे सांस लेता हुआ इस प्रकार आ रहा है मानो वृक्षोंकी लम्बाईको नापता हुआ ही आ रहा हो ॥६३।। इधर इस लतागृहमें इकट्ठ हुए ये अजगरके बच्चे इस प्रकार श्वास ले रहे हैं मानो सेनाके क्षोभसे वनकी अंतड़ियोंके समह ही निकल आये हों ॥६४॥ जो अकेला ही फिरा करता है, जिसने अपनी नाकसे समीपके स्थल खोद डाले हैं, और जो अत्यन्त क्रोधी है ऐसा यह शूकर सेनाका मार्ग रोक रहा है ॥६५।। सेनाके लोगोंने जिसे पत्थर लकड़ी आदिसं रोक रक्खा है ऐसा यह गंड अर्थात छोटे पर्वतके समान दिखनेवाला गंडा हाथी स्पष्ट रूपसे सेनाको व्याकुल कर रहा है॥६६॥ जो दावानलकी ज्वालाके समान पीले और विस्तृत गर्दनपरके बालोंके समूहोंको हिला रहे हैं ऐसे ये सिंह इस वनसे इस प्रकार
१ नाकिनाम् । २ प्रतानिनीलताभिः । 'लता प्रतानिनी वीरुत् गुल्मिन्युपलमित्यपि' इत्यभिधानात् । ३ बहुजलप्रदेशात् । 'जलप्रायमनूपं स्यात् पुंसि कच्छस्तथाविधः।' इत्यभिधानात् । ४ विभक्तम् । ५ आघ्राणयन् । ६ प्रमिति कुर्वन्निव । ७ दीर्षीभवति । यमुघ्नः स्वेंगे चाजाः" इत्यात्मनेपदी।-नागच्छते ल०, इ०। ८ अजगरशिशवः । ६ निकुञ्जऽस्मिन् ल०, द०, इ०। १० पुरीतत् । ११ एकाकी। १२ मुखाग्र । 'मुखाग्रे कोडहलयोः पोत्रम्' इत्यभिधानात्। 'योत्रष्पोहलक्रोडमुखे त्रट्' इति सूत्रेण सिद्धिः । १३ वेष्टितः । १४ आकुली-ल०। १५ खड्गीमृगः । १६ गण्द्रशल इव । १७ दवज्वालसदृशाः ।
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