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महापुराणम्
निचुलः सहकारेण विकसन्नत्र माधवीम् । तनोति लक्ष्मीमभूणाम् अहो प्रावृश्रिया समम् ॥४६॥ माधवीस्तबकेष्वत्र माधवोऽद्य विजम्भते । वनलक्ष्मीप्रहासस्य लीलां तन्वत्सु विश्वतः ॥४७॥ वासन्त्यो विकसन्त्येता वसन्तर्तुस्मितश्रियम् । तन्वानाः कुसुमामोदः प्राकुलीकृतषट्पदाः ॥४८॥ मल्लिकाविततामोदैविलोलीकृतषट्पदः । पादपेषु पदं धत्ते शुचिः पुष्पशुचिस्मितः॥४६॥ कदम्बामोदसुरभिः केतकीधूलिधूसरः । तापात्ययानिलो देव नित्यमत्र विज़म्भते ॥५०॥ माद्यन्ति कोकिलाः शश्वत् सममत्र शिखण्डिभिः । कलहंसोकलस्वानः सम्मूछित विकूजिताः ॥५१॥ कूजन्ति कोकिला मत्ताः केकायन्ते कलापिनः । उभयस्यास्य वर्गस्य हंसा: प्रत्यालपन्त्यमी ॥५२॥ इतोऽमी किन्नरीगीतम अनुकूजन्ति षट्पदाः । सिद्धोपवीणितान्यष निहनुतेऽन्यभतस्वनः ॥५३॥ जितनूपुरझडकारम् इतो हंसविकूजितम् । इतश्च खेचरीनृत्यम् अनुनृत्यच्छिखाबलम् ॥५४॥ इतश्च संकतोत्सङगे सुप्तान् हंसान् सशावकान् । प्रातः प्रबोधयत्युद्यन्१३ खेचरीनपुरारवः ॥५५॥
इतश्च रचितानल्पपुष्पतल्पमनोहराः। चन्द्रकान्तशिलागर्भा सुरैर्भोग्या लतालयाः ॥५६॥ के मधुर शब्दरूपी नगाड़ों और भूमरोंकी गुंजार रूप प्रत्यंचाकी टंकार ध्वनिसे यहां ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव तीनों लोकोंको जीतनेके लिये सेना सहित चढ़ाई ही कर रहा हो ॥४५॥ अहा, कैसा आश्चर्य है कि आमवृक्षके साथ साथ फूलता हुआ यह निचुल जातिका वृक्ष इस वनमें वर्षाऋतुकी शोभाके साथ साथ वसन्त ऋतुकी भारी शोभा बढ़ा रहा है ॥४६॥ इधर इस वनमें चारों ओरसे वन-लक्ष्मीके उत्कृष्ट हास्यकी शोभा बढ़ानेवाले माधवीलता के गुच्छोंपर आज वसन्त बड़ी वृद्धिको प्राप्त हो रहा है ।।४७।। जो अपने विकाससे वसन्त ऋतुक हास्यकी शोभा बढ़ा रही हैं और जो फलोंकी संगन्धिसे भमरोंको व्याकूल कर रही हैं ऐसी ये वसन्तमें विकसित होनेवाली माधवीलताएं विकसित हो रही हैं फल रही हैं ॥४८॥ जिसने मालतीकी फैली हुई सुगन्धिसे भूमरोंको चंचल कर दिया है और फूल ही जिसका पवित्र हास्य है ऐसा यह ग्रीष्मऋतु वृक्षोंपर पैर रख रहा है अपना स्थान जमा रहा है ॥४९।। हे देव, कदम्ब पुष्पोंकी सुगन्धिसे सुगन्धित तथा केतकीकी धूलिसे धूसर हुआ यह वर्षाऋतु का वायु इस वनमें सदा बहता रहता है ॥५०॥ इस वनमें मयूरोंके साथ साथ कोयल सदा उन्मत्त रहते हैं और कल-हंसियों (वदकों) के मनोहर शब्दोंके साथ अपना शब्द मिलाकर बोलते हैं ॥५१॥ इधर उन्मत्त कोकिलाएं कुह कुह कर रही हैं, मयूर केका वाणी कर रहे हैं और ये हंस इन दोनोंके शब्दोंकी प्रतिध्वनि कर रहे हैं ।।५२।। इधर ये भूमर किन्नरियोंके द्वारा गाये हुए गीतोंका अनुकरण कर रहे हैं और इधर यह कोयल सिद्धोंके द्वारा बजाई हुई वीणाके शब्दोंको छिपा रहा है ॥५३॥ इधर नूपूरोंकी झंकारको जीतता हुआ हंसोंका शब्द हो रहा है, और इधर जिसका अनुकरण कर मयूर नाच रहे हैं ऐसा विद्याधरियोंका नृत्य हो रहा है ॥५४॥ इधर बालूके टीलोंकी गोदमें अपने बच्चों सहित सोये हुए हंसोंको प्रातःकालके समय यह विद्याधरियोंके नूपुरोंका ऊंचा शब्द जगा रहा है ॥५५॥ इधर जो बहुतसे फूलोंसे बनाई हुई शय्याओंसे मनोहर जान पड़ते हैं, जिनके मध्यमें चन्द्रकान्त मणिको शिलाएं पड़ी
१ हिज्जुलः । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । २ वसन्ते भवाम् । 'अलिमुक्तः पुण्ड्रकः स्याद् वासन्ती माधवी लता' इत्यभिधानात् । एतानि पुण्ड्रदेशे वसन्तकाले बाहुलेन जायमानस्य नामानि । ३ वासन्तीगुच्छकेषु। 'स्याद् गुच्छकस्तु स्तबकः' इत्यभिधानात् । ४ ग्रीष्मः । ५ पुष्पाण्येव शुचिस्मित यस्य सः। ६ ईषत्पाण्डुः । 'ईषत्पाण्डुस्तु धूसरः' इत्यभिधानात । ७ वर्षाकालवायुः । ८ मिश्रित । ६ केकां कुर्वन्ति । १० प्रत्युत्तरं कुर्वन्ति। ११ अपलापं कुरुते। १२ अनुगतं नृत्यन शिखाबलो यस्य । १३-त्युच्चैः प० ।
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