Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण वास्तविक विचार थे वे उतने सुरक्षित नहीं रक्खे, जितने वे विचार सुरक्षित रक्खे जो वे जन साधारणमें फैलाना चाहते थे। ब्राह्मण साहित्यके सुरक्षित रखनेमें और उसे हम तक पहुँचाने में उन्होंने जो अपार श्रम किया है, जब हम उसका विचार करते हैं तो हमारा मन उनके प्रति प्रशंसासे भर जाता है जिन्होंने मानव विचारों के इतिहासके लिये इतना अमूल्य साहित्य सुरक्षित रखा... - किन्तु उन्होंने हमारे लिये जो कुछ सुरक्षित रखा वह एकदेशीय है।" निश्चय ही जब ऋग्वेद अन्तिम रूपसे संकलित हो चुका भारतके
आर्यों में अन्य बहुतसे विचार आमतौरसे प्रचलित थे, जो ऋग्वेद में नहीं पाये जाते।'
विद्वान् लेखकका उक्त कथन ऐसा नहीं है जिसे दृष्टिसे ओझल किया जा सके। जो साहित्य किसी विशेष श्रेणी या वर्ग से सम्बद्ध होता है वह उस श्रेणी या वर्गका पूर्ण प्रतिनिधि हो सकता है, किन्तु अन्य सभी विरोधी विचारधाराओंकी उसमें संकलन होना संभव प्रतीत नहीं होता। __दूसरी बात है कालके आकलन की । वैदिक साहित्यके काल को लेकर आज भी चोटीके विद्वानोंमें मतभेद है और वह मतभेद न केवल कुछ वर्षोंका या कुछ दशकोंका ही है, किन्तु हजारों वर्षोंको लिये हुए है। ___ कालक्रमका निर्णय करनेके लिये भाषा और शैलीको विशेषता दी जाती है। किन्तु डा० 'विन्टरनीट्सने लिखा है कि 'भारतमें यह प्रायः पाया गया है कि अर्वाचीन कृतिको प्राचीनताका रूप देनेके लिये उसमें प्राचीन साहित्यकी शैलीका अनुकरण किया गया है । तथा ग्रन्थोंका आदर तथा प्रचार करनेकी दृष्टिसे अथवा उसमें लिखी गई बातोंको प्राचीन सिद्ध करनेके लिये उनके रचयिताके स्थान १. हि० इं० लि. जि० १ पृ० २६ ।
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