Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण इस तरह देश और विदेशके माने हुए विद्वानोंने संभावना तथा विश्वासके रूपमें इस सत्यको प्रकट किया है कि भगवान् पार्श्वनाथसे पहले भी जैनधर्म प्रचलित था और उसके संस्थापक ऋषभदेव थे। - जहाँ तक जैन मान्यताका प्रश्न है वह इस विषयमें एकमत है कि जैनधर्मके प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव थे। उसकी इस मान्यताका समर्थन हिन्दू पुराण भी करते हैं तथा उड़ीसाकी हाथी गुफासे प्राप्त खारवेलका शिलालेख' भी उसका समर्थक है।
२ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण किन्तु ऋषभदेवका समय इतना प्राचीन है कि यहाँ तक पहुँच सकना अशक्य ही है; क्योंकि हमारे पास साधन सामग्री का अभाव है। फिर भी जो संभावना व्यक्तकी गई है और उसमें निहित जिस सत्यकी ओर संकेत किया गया है उसको दृष्टिमें रखकर उपलब्ध साधनोंके द्वारा भगवान पाश्वनाथके समयकी तथा
१-इस शिलालेखका परिचय श्रीयुत जायसवालने नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ८, अंक ३, पृ० ३०१ में प्रकाशित कराया था। उन्होंने लिखा था कि 'अब तकके शिलालेखोंमें यह जैनधर्मका सबसे प्राचीन शिलालेख है। इससे ज्ञात होता है कि पटनाके नन्दके समयमें उड़ीसा या कलिंग देशमें जैनधर्मका प्रचार था। और जिनकी मूर्ति पूजी जाती थी। नन्द ऋषभदेवकी जैन मूर्तिको जो कलिंगजिन कहलाती थी, उड़ीसासे पटना ले श्राया था। जब खार. वेलने मगधपर चढ़ाई की तो वह उस मूर्तिको वहाँ से ले आया। ईस्वी सन्से ४५८ वर्ष पहले और विक्रम सम्बत् से ४०० वर्ष पहले उड़ीसा में जैनधर्मका इतना प्रचार था कि भगवान् महावीरके निर्वाण के कोई ७५ वर्ष बाद ही मूर्तियाँ प्रचलि त हो गई।' श्रादि ।
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