Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उससे पूर्वकी धार्मिक स्थिति आदिका परिचय प्राप्त करनेका प्रयत्न किया जाता है। ___ वैदिक साहित्यके आधारसे डा० विन्टरनीट्सने लिखा है कि 'अपनी प्राचीनताके कारण वेद भारतीय साहित्यमें सर्वोपरि स्थित है। जो वैदिक साहित्यसे परिचित नहीं है वह भारतीयोंके
आध्यात्मिक जीवन और संस्कृतिको नहीं समझ सकता।' इस युगके प्रायः सभी देशी और विदेशी विद्वानोंका लगभग यही मत है। और एक दृष्टिसे यह ठीक भी है क्योंकि भारतके जिस वर्गसे वैदिक साहित्य सम्बद्ध रहा है, उस ब्राह्मण वर्गका भारतके सांस्कृतिक और धार्मिक निर्माणमें प्रधान हाथ रहा है, यद्यपि यह वर्ग मूलतः वेदानुयायी था किन्तु उसकी ज्ञान पिपासा और सत्यकी जिज्ञासाका अन्त नहीं था। अतः ब्राह्मण होते हुए भी उसकी अतृप्त ज्ञान पिपासा और बलवती जिज्ञासाने,उसे ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठताका अभिमान भुलाकर आत्मतत्त्वके वेत्ता क्षत्रियोंका शिष्यत्व स्वीकार करनेके लिये विवश कर दिया। इतना ही नहीं, किन्तु उस वर्गके कतिपय व्यक्तियोंने ही महावीर और बुद्ध जैसे वेदविरोधी धर्म प्रवर्तकोंका शिष्यत्व स्वीकार करके जैनधर्म
और बौद्ध धर्मोको भी उसी निष्ठापूर्ण भक्तिसे अपनाया, जिस श्रद्धा भक्तिके साथ वे वैदिक धर्मको अपनाये हुए थे।
किन्तु वैदिक साहित्यके सम्बन्धमें भी दो बातें प्रथम ही कह देना उचित होगा। प्रो० रे डेविड्सने लिखा है-यह विश्वास किया जाता है कि ब्राह्मण साहित्यसे हमें ईस्वी पूर्व छठी सातवीं शतीकी भारतीय जनताके धार्मिक विश्वासोंके सम्बन्धकी प्रामाणिक जानकारी मिलती है। यह विश्वास मुझे सन्दिग्धसे भी कुछ अधिक प्रतीत होता है। ब्राह्मणोंने हमारे लिये उस समयके मनुष्योंके जो १. हि० इं० लि, जि० १, पृ० ५२ । २. बु० इ०, पृ० २१०-२१३ ।
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