Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जैनधर्मके इतिहासकी खोज और उसका परिणाम ५ मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी संभावना है।' (इं० ए०, जि. ६. पृ० १६३ )। उक्त संभावनाकी पुष्टि डा. राधाकृष्णनने भी अपने भारतीय दर्शनके इतिहास ( जि २. पृ० ०८७ ) में की है। उन्होंने लिखा है-'जैन पर परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्तिका कथन करती है, जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थङ्करोंके नाम आते हैं। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' __ प्रसिद्ध भारतीय इतिहासज्ञ श्री जयचन्द विद्यालंकारने लिखा है_ 'जैनोंका मत है कि जैनधर्म बहुत प्राचीन है और महावीर से पहले २३ तीर्थङ्कर हो चुके हैं जो उस धर्मके प्रवर्तक और प्रचारक थे। सबसे पहला तीर्थङ्कर राजा ऋषभदेव था, जिसके एक पुत्र भरतके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष हुआ। इसी प्रकार बौद्ध लोग बुद्धसे पहले अनेक बोधिसत्त्वोंको हुआ बतलाते हैं। इस विश्वासको एकदम मिथ्या और निमूल तथा सब पुराने तीर्थङ्करों और बोधिसत्त्वोंको कल्पित अनैतिहासिक व्यक्ति मानना ठीक नहीं है। इस विश्वासमें कुछ भी असंगत नहीं है। जब धर्म शब्दको संकीर्ण पन्थ या सम्प्रदायके अर्थमें ले लिया जाता है और यह बाजारु विचार मनमें रखा जाता है कि पहले हिन्दूधर्म, ब्राह्मणधर्म या सनातनधर्म था फिर बौद्ध और जैनधर्म पैदा हुए, तभी यह विश्वास असंगत दीखता है। यदि आधुनिक हिन्दुओंके आचार व्यवहार और विश्वासको हिन्दू
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