Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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४२ : जैन पुराणकोश
गोतम की पुत्री गौतमी बताई गयी है। इसने अर्जुन के साथ युद्ध किया था जिसमें अर्जुन ने इसे भूमि पर गिरा दिया था। युद्ध में
भीम ने मालव नरेश का इस नाम का एक हाथी मार गिराया था । अश्वत्थामा मारा गया यह सुनकर द्रोणाचार्य ने बहुत रुदन किया था और वह युद्ध से विरत हो गया था। तभी घृष्टार्जुन ने द्रोणाचार्य को मार डाला था। इसने युद्ध में माहेश्वरी विद्या को सहायतार्थ बुलाकर पाण्डवों की सेना को घेर लिया था तथा गज और रथ सेनाओं के नायकों को नष्ट कर दिया था। अन्त में यह भी अर्जुन द्वारा युद्ध में गिराया जाकर मूर्छित हुआ और मरण को प्राप्त हुआ। मपु० ७१.७६-७७, हपु० ४५.४८-४९, पापु० १०.१४८- १५१, १८.१४०-१४२, २०.१८१-१०४, २२२-२२३, १०७.३१० अश्वपुर-जम्बूद्वीप के पश्चिमी विदेह क्षेषस्य पद्मदेश की राजधानी ।
विद्याधरों के इस नगर का राजा रावण की सहायतार्थ मंत्रियों सहित युद्ध में गया था। मपु० ६२.६७, ६३.२०८-२१५, ७३.३१-२२, पपु० ५५.८७-८८, हपु० ५.२६१
अश्वध्वज - विद्याघर अश्वायु का पुत्र, पद्मनिभ का पिता । पपु० ५. ४७-५६
अश्वमेध - एक यज्ञ । इस यज्ञ में अश्व का हवन किया जाता है । हपु० २३. १४१
अश्ववन - तीर्थंकर पार्श्वनाथ का दीक्षावन । मपु० ७३.१२८-१३० अश्वसेन - ( १ ) तीर्थंकर पार्श्वनाथ का पिता । पपु० २०.५९
(२) राजा वसुदेव और उसकी रानी अश्वसेना का पुत्र । हपु०
४८.५९
अश्वसेना - सेना के सात भेदों में दूसरा भेद । मपु० १० १९९, ३०.
१०७
अश्वायु - विद्याधर अश्वधर्मा का पुत्र, अश्वध्वज का पिता, विद्याघर दृढरथ का वंशज । पपु० ५.४७-५६
अश्विनी (१) द्रोणाचार्य की पत्नी, अश्वत्थामा की जननी हपु० ४५.
४८-४९
(२) तीर्थंकर मल्लि और नमि का जन्म नक्षत्र । पपु० २०.५५
५७
अश्विनीकुमार इन्द्र का बैच प५० ७.३० अश्विमा- शिक्षिका से भिन्न प्रकार की एक पालकी। इसमें गद्दे और तकिये लगे रहते थे । मपु० ८१२१
अष्टगुण सिद्ध के आठ गुण -- अनन्त सम्यक्त्व, अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त और अद्भुत वीर्य, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व और अध्यावाघत्व । मपु० २०.२२३, ४८.५२, हपु० २.१०९ अष्टचन्द्र–चन्द्र नाम के आठ विद्याधर । ये अष्ट संख्यक होने से इस नाम से विख्यात थे। ये अर्ककीर्ति के शरीर रक्षक थे । ये युद्ध में जयकुमार के बाण से मारे गये थे । मपु० ४४.११३, पपु०९.७५, पापु० ३.११४
अष्टमंगल–अष्ट संख्यक मांगलिक द्रव्य । ये हैं
१. छत्र २. चमर ३. ध्वजा ४. भृंगार [शारी] ५. कलश
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अश्वपुर-असंयम
६. सुप्रतिष्ठक [होना] ७ वर्ष ८. [पंखा ] इन आठ मांगलिक द्रव्यों से पाण्डुकला विभूषित रहती है। समवसरण के गोपुर द्वार भी इनसे अलंकृत रहते हैं ० १२.९१, १५.२००४२, २२.१८५, २१०, पपु० २.१३७
अष्टांगनिमित्तज्ञान - १. अन्तरिक्ष २. भौम ३. अंग ४. स्वर ५. व्यंजन ६. लक्षण ७. छिन्न और ८. स्वप्न इन आठ निमित्तों द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना। इन आठ अंगों का कल्याणवाद नामक पूर्व में विस्तृत वर्णन किया गया है । मपु० ६२ १९८०-१९०, हपु० ० १०.११५-११७, पापु० ४.१०५-१०६ अष्टापद - (१) कैलास पर्वत । ऋषभदेव की निर्वाणभूमि । इस पर्वत पर सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने दण्डरत्न से आठ पादस्थान बनाकर इसकी भूमि खोदना आरम्भ किया था। इस कारण इसका यह नाम प्रसिद्ध हुआ । पपु० १५.७६, हपु० १३.२७-२९, १९.८७
(२) शरभ नाम का एक पशु । इसकी पीठ पर भी चार पैर होते हैं जिससे आकाश में उछलकर पीठ के बल गिरने पर भी पृष्ठवर्ती पैरों के कारण यह दुख का अनुभव नहीं करता । मपु० २७.७० अष्टाष्टम - सप्त सप्तम के समान एक व्रत। इसमें प्रथम दिन उपवास करके उसके बाद अनुक्रम से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए और नवें दिन से आठ ग्रास घटाते हुए अन्तिम दिन उपवास किया जाता है । इस व्रत में यह क्रिया आठ बार की जाती है। हपु० ३४.९३-९४ अष्टाहरूपूजा-अष्टालिका में नन्दीश्वर द्वीप के ५२ विनालयों में स्थित जिन बिम्बों की यथाविधि भक्तिपूर्वक पूजा करना । यह पूजा ऐहलौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों की दात्री होती है। इसे उपवासपूर्वक किया जाता है । मपु० ४३.१७६-१७७, ५४.५०, ७०.७-८, पापु० ३.२९ अष्टोत्तरसह सक्षणतीर्थंकर के शारीरिक १००८ लक्ष ह०
८. २०४
अष्टोपवास पारणापूर्वक सीन उपवास करना ह० ३४.१२४-१२५,
४१.१५ अपरनाम अष्टभक्त
असंख्य - इस नाम की चचिका के आगे की संख्या । इसके पल्य, सागर और अनन्त ये भेद हैं । मपु० ३.३, पु० ७.३०-३१ असंख्येय-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। म० २५.१६३ असंग - ( १ ) सत्य का पौत्र और वज्रधर्म का पुत्र । हपु० ४८.४२
(२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२४ असंगात्मा -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२६ असंज्ञी - प्रथम नरकभूमि धर्मा तक गमनशील असैनी पंचेन्द्रिय जीव । मपु० १०.२९
असंभूष्णु — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.११० असंयत-असंयमी संसारी जीव | आरम्भ के चार गुणस्थानों के जीव असंयत ही होते हैं । हपु० ३.७८ असंयतसम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान हपु० ३.८० असंयम - प्रमाद, कषाय और योग पूर्ण अविरत अवस्था । ऐसे पुरुष की मन, वचन और काय की क्रिया प्राणी असंयम और इन्द्रिय-असंयम
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