Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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३२२ : चैनपुराणकोश
था। इसका अपर नाम शत्रुन्जय था । मपु० ७१.१७९-१८१, ७२. २६७, २७४, हपु० ४२.९६, ५५.२९, पापु० १६.२२
रोग - एक परीषह । इसमें यह "शरीर रोगों का घर है" - ऐसा चिन्तन करते हुए रोग जनित असह्य वेदना होने पर मुनि उसके प्रतिकार की कामना नहीं करते । मपु० ३६. १२४
रोचन — भद्रसाल वन एक कूट। यह सीता नदी के पूर्वी तट पर मेरु पर्वत से उत्तर की ओर स्थित है। यहाँ दिग्गजेन्द्र देव निवास करता है । हपु० ५.२०८-२०९ रोधन-शंका का एक देश यह अत्यधिक सुरक्षित था। देव भी यहाँ उपद्रव नहीं कर सकते थे । पु० ६.६७-६८ रोमशस्य -बलदेव का एक पुत्र । हपु० ४८.६८ रोरुका - कच्छ देश की के राजा चेटक की ७५.११-१२
एक नगरी । यहाँ के राजा उदयन को वैशाली चौथी पुत्री प्रभावती विवाही गयी थी । मपु०
रोहिणी - ( १ ) एक विद्या । अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज ने अनेक विद्याओं के साथ यह विद्या भी सिद्ध की थी । मपु० ६२.३९७, हपु० २७.१३१
(२) अरिष्टपुर नगर के राजा रुधिर और रानी मित्रा की पुत्री यह राजकुमार हिरण्य की बहिन थी। इसकी जननी का दूसरा नाम पद्मावती तथा पिता का दूसरा नाम हिरण्यवर्मा था । मपु० ७०. ३०७, हपु० ३१.८-११, पापु० ११.३१ दे० रुधिर
(३) चन्द्रमा की देवी । मपु० ७१.४४५, पपु० ३.९१
(४) एक नक्षत्र । तीर्थंकर अजित और अर का जन्म इसी नक्षत्र में हुआ था । पपु० २०.३८, ५४
(५) अन्तिम बलभद्र बलराम की जननी । पपु० २०.२३८-२३९
(६) विजयावती नगरी के गृहस्थ सुनन्द की पत्नी । रावण और लक्ष्मण के पूर्वभव के जीव क्रमश: अर्हद्दास और ऋषिदास की यह जननी थी । पपु० १२३. ११४-११५
रोहित - (१) उदक पर्वत का अधिष्ठाता एक देव । हपु० ५.४६३
(२) चौदह महानदियों में तीसरी नदी यह महापद्मसरोवर से निकली है । इसका अपर नाम रोह्या है । मपु० ६३.१९५, पु० ५.१२३, १३३
(३) सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का दसवाँ पटल । हपु० ६.४५ रोहितकूट भरतक्षेत्र के हिमवत् कुलाचल का सातवाँ कूट इसकी ऊंचाई पच्चीस योजन है। विस्तार मूल में पच्चीस योजन, मध्य में पौने उन्नीस योजन और ऊपर साढ़े बारह योजन है । पु० ५. ५४-५६ रोहिताकूट — महाहिमवान् कुछ का चौवा कूट। इसकी ऊंचाई पचास योजन, मध्य में साढ़े सैंतीस योजन और ऊपर पच्चीस योजन है । हपु० ५.७१-७३ रोहितास्या-चौदह महानदियों में चौथी नदी । यह पद्मसरोवर के उत्तरी तोरणद्वार से निकलकर तथा उत्तर की ओर मुड़कर पश्चिम
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रोग- लंका
समुद्र में मिली है । मपु० ६३.१९५, ३२.१२३, हपु० ५.१२३, १३२
रोह्या-चौदह महानदियों में तीसरी नदी इसका अपर नाम रोहित है । हपु० ५.१२३, दे० रोहित - २
रौद्र -- (१) काव्य के नौ रसों में एक रस । मपु० ७४.२१० (२) रात्रि का पहला प्रहर । मपु० ७४. २५५
रौद्रकर्मा - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का बयासीवाँ पुत्र । पापु० ८.२०३
रौद्रध्यान — क्रूर और निर्दयी लोगों का आततायी ध्यान। इसके चार भेद हैं - हिसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द | यह पाँचवें गुणस्थान तक होता है। कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं से उत्पन्न होकर यह अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है । पहले आर्तव्यान के समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है। नरकगति के दुःख प्राप्त होना इसका फल है । भोहें टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का लाल हो जाना इसके बाह्य चिह्न हैं । मपु० २१.४१-४४, ५२-५३, पपु० १४.३१, वीवच० ६.४९-५०
रौद्रनाव - हस्तिनापुर का राजा । यह तीसरे नारायण स्वयंभू का पिता था। इसकी रानी का नाम पृथिवी था। पपु० २०. २२१-२२६ रौद्रभूति कौशाम्बी नगरी के राजा विश्वाल और रानी प्रतिसंध्या का पुत्र । यह काकोनद म्लेच्छों का स्वामी था । यह लक्ष्मण के आगे नतमस्तक हो गया था। राम ने इससे बालखिल्य को बन्धनमुक्त कराया था । इसके पश्चात् यह बालखिल्य का मित्र बन गया था। अपना समस्त धन बालखिल्य को देकर यह उसका आज्ञाकारी हो गया था । पपु० ३४.७६-७८, ८४, ९१, ९८, १०४-१०५ रौद्रास्त्र - हज़ारों अस्त्रों से युक्त एक दिव्य अस्त्र । समुद्रविजय ने भाई वसुदेव के लिए इसका व्यवहार किया था । वसुदेव ने समुद्रविजय के इस अस्त्र को ब्रह्मशिर अस्त्र के द्वारा काट डाला था । हपु० ३१. १२२-१२३
रौरुक - धर्मा प्रथम नरकभूमि के तीसरे प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में एक सौ अट्ठासी और चारों विदिशाओं में एक सौ चौरासी कुल तीन सौ बहत्तर श्रेणीबद्ध बिल हैं । हपु० ४.७६, ९१ रौरव - सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान इन्द्रक की दक्षिण दिशा का
महानरक । हपु० ४.१५८
रौप्याद्रि - चाँदी जैसे वर्णवाला विजयार्द्ध पर्वत । इसका अपर नाम रौप्य शैल है। भरतेश को स्त्री, हाथी और अश्व रत्न इसी पर्वत पर प्राप्त हुए थे । मपु० ४.८१, ३६.१७३, ३७.८६, हपु० ४६.१३
ल
लंका - जम्बूद्वीप में दक्षिण दिशा का एक द्वीप एवं नगरी । नगरी लवणसमुद्र में विद्यमान द्वीपों के मध्य स्थित राक्षस द्वीप और उसके भी मध्य में स्थित त्रिकूटाचल पर्वत के नीचे स्थित थी । राक्षसवंशी
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