Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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३९४ जैन पुराणको
शकट -- ( १ ) भरतक्षेत्र का एक देश । सिंहपुर इस देश का एक नगर था । हपु० २७.२०
(२) एक ग्राम यह संजयंत मुनि की पूर्वभव को जन्मभूमि था। पपु० ५.३५-३६
(३) रिमाल नगर का निकटवर्ती एक उद्यान वृषभदेव यहाँ वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर पर्यकासन से ध्यानस्थ हुए थे । केवलज्ञान उन्हें यहीं हुआ था । यहाँ चक्रवर्ती भरतेश के छोटे भाई वृषभसेन रहते थे । मपु० २०.२१८-२२०, हपु० ९.२०५-२१०
मुखी — विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी की सतरहवी नगरी । हरिवंशपुराण के अनुसार यह सातवीं नगरी तथा इसका शकटामुख नाम है । मपु० १९.४४, ५३, हपु० २२.९३
शकटामुख – (१) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का सातवाँ नगर । पु० २२.९३ ० मुली
(२) ह्रीमंत पवीत पर स्थित एक नगर । यहाँ का राजा विद्याघरों का स्वामी नीलवान् था । हपु० २२.१४३, २३, ३ शकराज — एक राजा । यह भगवान् महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् छः सौ पाँच वर्ष पाँच मास काल बीत जाने पर राजा बना था । हपु० ६०.५५१
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शकुन - शुभ अथवा अशुभ सूचक लक्षण । अग्निज्वाला का दक्षिणावर्त से प्रचलित होना, मयूर का बोलना, अलंकृता नारी के दर्शन, सुगंधित वायु प्रवाह मुनि दर्शन घोड़ों का हिनहिनाना, घण्टनाद दधिपूरिता वायों ओर गये गोवर को बिखेरते तथा पंख फैलाए कौए का दिखाई देना और मेरी-शंख-निनाद आदि शुभ सूचक शकुन है । पु० ५४.४९-५३
शत्रुमा पोदनपुर नगर के निवासी ब्राह्मण अग्निमुख की स्त्री यह मुनि मृदुमति की जननी थी । पपु० ८५.११८-११९
शकृमि (१) दुर्योधन का मामा इसने राज्य के विभाजन, लाक्षागृह निर्माण और द्यतक्रीड़ा आदि पाण्डव-विरोधी कार्यों में दुर्योधन को मंत्रणा दी थी और अनेक प्रकार से सहायता की थी। इसका चारुदत्त भाई था । वह कृष्ण का परम हितैषी था। हपु० ४५.४०-४१, ४६.३-५, ५०.७२
(२) मेरुकदत्त सेठ के चार मंत्रियों में दूसरा मंत्री । किसी अंगहोम पुरुष को देखकर सेठ ने इससे उसकी अंगहीनता का कारण पूछा था और इसने भी जन्म के समय बुरे शकुन होना उसकी अंग-हीनता का कारण बताया था। मपु० ४६.११२-११५ शक्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११३ शक्ति - (१) दान-दातार के सात गुणों में दूसरा गुण । दान देने में प्रमाद नहीं करना दाता का शक्ति गुण कहलाता है। म २०.८२-८३
(२) एक शस्त्र । लक्ष्मण इसी से आहत हुए थे । मपु० ४४. २२७, पु० ६२.७५-८२
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शकट- शतप्रोव
(३) बल । यह तीन प्रकार का होता है— मंत्रशक्ति, उत्साहशक्ति और प्रभुशक्ति मपु० ६८.६०
(४) हस्तिनापुर नगर का एक कौरववंशी राजा । शतकी इसकी रानी और पराशर इसका पुत्र था । मपु० ७०.१०१-१०२ शक्तिस्तप-तीर्थंकर प्रकृतिबंध की सोलहकारण भावनाओं में एक भावना । यथाशक्ति मोक्षमार्ग के अनुरूप तप करना शक्तितस्तप कहलाता है । हृ० ३४.१३८
शक्तितरत्याग तीर्थंकर प्रकृतिबंध की सोलहकारण भावनाओं में एक भावना | शक्ति के अनुसार पात्रों को आहारदान, औषधिदान, अभयदान और ज्ञानदान देना शक्तितस्त्याग-भावना है । हपु० ३४.१३७
शक्तिवरसेन - अयोध्या नगरी का एक राजकुमार । शब्दवरसेन इसका भाई था । मपु० ६३.१६२
शक्तिषेण - (१) पुष्कलावती देश में शोभानगर के राजा प्रजापाल का सामन्त । अटवीश्री इसकी स्त्री तथा सत्यदेव इसका पुत्र था । इसने मद्य-मांस का त्याग कर पर्व के दिनों में उपवास करने का नियम लिया था । अणुव्रत धारण किये थे और मुनि की आहार-वेला के पश्चात् भोजन करने का नियम लिया था। इसने दो चारण मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य भी प्राप्त किये थे । इसका पुत्र हीनांग था। अपनी मौसी के कुपित होने पर वह घर से भाग गया था। पुत्र के मिलने पर इसने उसे अपने साथ लाना चाहा किन्तु पुत्र के न आने पर इसने दुःखी होकर अगले भव में अपने पुत्र का स्नेहभावन होने का निदान किया और द्रव्य-संयमी हो गया। अन्त में यह पुत्रप्रेम से मोहित होकर मरा और लोकवाल हुआ। ०४६.९४-९८, १११, ११७-१२२, पापु० ३.१९६-२००
शक्रधनु - सूर्योदय नगर का राजा। इसकी रानी का नाम धी था । ये दोनों जयचन्द्रा के माता-पिता थे। चक्रवर्ती हरिषेण इसका जामाता था । पपु० ८.३६२-३६३, ३७० ३७१ शक्रन्दमन- बलदेव का एक पुत्र । हपु० ४८.६६-६८ शक्रमह— इन्द्रध्वज विधान। इसका अपर नाम इन्द्रमह है । हपु० १६. १२, २४.३७, ४१
शक्राभ - रावण का एक सामन्त । पपु० ५७.४९
शक्राशनि - रावण का एक योद्धा । इसने राम के दुष्ट नामक याद्धा के साथ युद्ध किया था । पपु० ६२.३६
शची- इन्द्र को पटरानी । यह तीर्थंकर के जन्मोत्सव के समय गर्भगृह में जाकर और तीर्थंकर को गर्भगृह से बाहर लाकर जन्माभिषेक हेतु इन्द्र को देती है । मपु० १३.३९, ४६.२५७, पपु० ७.२८ शतकी - हस्तिनापुर के कौरववंशी राजा शक्ति की रानी । यह पराशर की जननो थी । मपु० ७०.१०१-१०२
शतप्रीव - विद्याधर सहस्रग्रीव का पुत्र । इसने पिता से लंका का राज्य प्राप्त करके वहाँ पच्चीस हजार वर्षं राज्य किया था। मपु० ६८. ८-१०
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