Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 488
________________ ४७० : जेन पुराणकोश स्कन्द-स्त्रीकथा-वर्जन २५.१३४ स्कन्द-राम का एक सामन्त । इसने रावण के भिन्नांजन योद्धा के साथ वसुमान, वीर और पातालस्थिर ये इसके चार पुत्र थे । मपु० ७०. युद्ध किया था । पपु० ५८.९, ६२.३६ ९५, हपु० १८.१२-१४, ४८.४६ स्कन्ध-(१) अग्रायणीयपूर्व के चौथे प्राभूत का चौबीसवाँ योगद्वार । (२) जम्बद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में वत्सकावती देश की प्रभाकरी हपु० १०.८६ दे० अग्रायणीयपूर्व नगरी का राजा । इसकी दो रानियाँ थीं-वसुन्धरा और अनुमति । (२) परमाणुओं के संघात से उत्पन्न पुद्गल का भेद । यह स्निग्ध इनमें अपराजित बलभद्र वसुन्धरा के पुत्र थे और अनन्तवीर्य और रूक्ष परमाणुओं का समुदाय है । इसके छः भेद है-सूक्ष्म-सूक्ष्म, नारायण अनुमति रानी के पुत्र थे। इसने बलभद्र को राज्य देकर सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, स्थूल और स्थूल-स्थूल । मपु० २४.१९६, तथा नारायण को युवराज बनाकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र से संयम धारण २४९, हपु० ५८.५५, वीवच० १६.११७ दे० पुद्गल कर लिया था । धरणेन्द्र को ऋद्धि देखकर इसने वह वैभव पाने का स्तनक-दूसरे नरक के दूसरे प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इस बिल की निदान किया और मरकर धरणेन्द्र हुआ। मपु० ६२.४१२-४१४, चारों दिशाओं में एक सौ चालीस और विदिशाओं में एक सौ छत्तीस ४२३.४२५, पापु० ४.२४६-२५१ श्रेणीबद्ध बिल है । हपु० ४.७८, १०६ स्तुतीश्वर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३४ स्तनलोलुप-दूसरे नरक का ग्यारहवा इन्द्रक बिल । इसकी चारों स्तुत्य-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । हपु० दिशाओं में एक सौ चार और विदिशाओं में सौ श्रेणिबद्ध बिल हैं। हपु० ४.७९, ११५-११६ (२) स्तुति के विषय-अर्हन्त, सिद्ध आदि । मपु० २५.११ स्तनांशुक-नारियों की वेशभूषा का एक वस्त्र । यह स्तनभाग को ढकने स्तूप-समवसरण-रचना का एक अंग । ये समवसरण को वीथियों के के काम आता था । मपु० ६.७२ मध्यभाग में बनाये जाते हैं । अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठियों की प्रतिमाएँ इनके चारों ओर स्थापित की जाती है । मपु० २२.२६३स्तनित-भवनवासी देवों का एक भेद । ये तीर्थङ्कर की समवसरण भूमि २६९ के चारों और विद्युन्माला आदि से युक्त होकर गन्धोदकमय वर्षा स्तेनप्रयोग-अचौर्य-अणुव्रत के पाँच अतिचारों में प्रथम अतिचार । . करते हैं । इनका मूल आवास पाताललोक है। हपु० ३.२३, ४.६३, कृत, कारित और अनुमोदना से चोर को चोरी के लिए प्रेरित ६५, वीवच० १९.७० करना स्तेनप्रयोग है । हपु० ५८.१७१ स्तनोपान्त-हार-नारियों का आभूषण-माला । यह स्त्रियों के स्तनभाग __ स्तेनाहृतादान-अचौर्य अणुव्रत के पाँच अतिचारों में दूसरा अतिचार । तक लटकती थी। ये मालाएँ विविध वर्ण की होती थी। ऐसे हार चोरों के द्वारा चुराकर लाई हुई वस्तु को खरीदना, खरिदवाना राजाओं की रानियाँ धारण करती थीं। मपु० ६.७३ तथा खरीदनेवालों को अनुमोदना करना स्तेनाहृतादान है । हपु० स्तम्बरम–काला हाथी। यह झाड़ियों में रहता है । प्रशिक्षित होने के। ५८.१७१ पश्चात् वाहन के रूप में इनका व्यवहार होता है । यह जल या जलीय स्तेय-पाँच पापों में तीसरा पाप-चोरी । बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण वस्तुओं को अधिक पसन्द करता है। कमलनाल के साथ क्रीड़ा करने करना स्तेय (चोरी) है। यह प्रवृत्ति संक्लिष्ट परिणामों से होती में इसे यद्यपि आनन्द आता है पर गहरे जल से यह डरता है। है । पपु० ५.३४२, हपु. ५८.१३१ चक्रवर्ती भरतेश की सेना में ऐसे अनेक हाथी थे । मपु २९.१३८ स्तेयानन्द-रौद्रध्यान के चार भेदों में एक भेद । प्रमादपूर्वक दूसरे स्तम्भिनी-एक विद्या। इससे आकाश में गमन कर रहे विद्याधरों को ___ के धन को बलात् हरने का अभिप्राय रखना या उसमें हर्षित होना रोका जाता था । पपु० ५२.६९-७० स्तेयानन्द है । मपु० २१.४२-४३, ५१, हपु० ५६.१९,२४ स्तोक-काल का प्रमाण । चौदह उच्छ्वास-निश्वासों में लगनेवाला स्तरक-दूसरे नरक का प्रथम इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में समय स्तोक कहा है। हपु० ७.२०, दे० काल-१० एक सौ चवालीस और विदिशाओं में एक सौ चालीस श्रेणिबद्ध बिल स्त्यानगृद्धि-दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों में एक प्रकृति । इसके हैं । हपु० ४.७८, १०५ दे० शर्कराप्रभा उदय से जीव जागकर और असाधारण कार्य करके पुनः सो जाता स्तवक-भक्ति का एक भेद-चौबीस तीर्थङ्करों के गुणों का का कथन है । वृषभदेव ने इसका नाश किया था। मपु० २५७ दे० दर्शनाकरना । हपु० ३४.१४३ वरण स्तवनाह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ल्त्री-आलोक-वर्जन-ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं में एक भावना । १३४ इसमें स्त्रियों के मनोहर अंगोपांग देखने का त्याग होता है। मपु० स्तिमितसागर-(१) राजा अन्धकवृष्णि और रानी सुभद्रा का तीसरा २०.१६४ पुत्र । समुद्रविजय और अक्षोभ्य इसके बड़े भाई तथा हिमवान, विजय, स्त्रीकथा-वर्जन-ब्रह्मचर्यव्रत की एक भावना-स्त्रियों की रागोत्पादक अचल, धारण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव छोटे भाई थे । ऊर्मिमान, कथाओं के सुनने का त्याग । मपु० २०.१६४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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