Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 510
________________ ४९२ : जैन पुराणकोश देवकृत चौदह अतिशय १. अर्द्धमागधी भाषा का होना । २. समस्त जीवों में पारस्परिक मित्रता का होना । २. सभी ऋतुओं के फूलों का एक साथ फला-फूला। ४. पृथिवी का दर्पण के समान निर्मल होना । ५. मन्द-सुगन्धित वायु का बना । ६. सभी जीवों का आनन्दित होना । ७. पवनकुमार देवों द्वारा एक योजन भूमि का कोट रहित एवं निष्कंटक किया जाना । ८. स्तनितकुमार देवों का सुगन्धित जनवृष्टि करना । ९. चलते समय चरणतले कमल का होना । १०. आकाश का निर्मल होना । ११. दिशाओं का निर्मल होना । १२. आकाश में जय-जय ध्वनि होना । १३. धर्मचक्र का आगे रहना । १४. पृथ्वी का धन-धान्यादि से सुशोभित होना । हरिवंशपुराणकार ने अर्हन्त को ध्वजादि अष्ट मंगल द्रव्यों से युक्त तो बताया है किन्तु देवकृत चौदह अतिथियों में इसे सम्मिलित नहीं किया है । आवकारी क्रियाएँ साम्परायिक आवकारी २५ क्रियाएँ हपु० ३.१६-३० २. मिथ्यात्व क्रिया ५. ईर्यापथ क्रिया Jain Education International १. सम्यक्त्व क्रिया ३. प्रयोग किया ४. समादान क्रिया ६. प्रादोषिकी क्रिया ७. कायिकी क्रिया ८. क्रियाधिकरणी क्रिया ९ पारितापिकी क्रिया १०. प्राणातिपातिकीक्रिया ११. दर्शन क्रिया १२. स्पर्शन क्रिया १३. प्रत्यायिकी क्रिया १४. समन्तानुपातिनी क्रिया १५. अनाभोग क्रिया १६. स्वहस्त क्रिया १७. निसर्ग क्रिया १८. विदारण क्रिया १९. आज्ञाव्यापादिकी क्रिया २०. अनाकांछा क्रिया २१. प्रारम्भ क्रिया २२. पारिग्रहिकी क्रिया २३. माया क्रिया २४. मिथ्यादर्शन क्रिया २५. अप्रत्यख्यान क्रिया हपु० १० ५८.५८-८२ पापानावकारी १०८ क्रियाए समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीनों कृत, कारित और अनुमोदना 'पूर्वक होने से प्रत्येक के ३-३ भेद होते हैं । इस प्रकार तीनों के कुल ९ भेद हो जाते हैं । ये भेद क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के योग से उत्पन्न होने के कारण प्रत्येक के चार-चार भेद हो जाते हैं । इस प्रकार समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ तीनों के पृथक्-पृथक् बारहबारह भेद करने के पश्चात् चूंकि ये क्रियाएएँ मन, वचन और काय से सम्पन्न होती हैं । अतः प्रत्येक के बारह भेदों को इन तीन से गुणित करने पर प्रत्येक के छत्तीस भेद और तीनों के कुल एक सौ आठ भेद होते हैं। जीव प्रतिदिन ऐसे एक सौ आठ प्रकार से आस्रव करता है । हपु० ५८.८५ १. किन्नर ५. अतिकाय ९. मणिभद्र १. चमर ५. वेणुदेव ९. जलप्रभ १०. जलकान्ति ११. हरिषेण १२. अग्निथिलि १४. अग्निवाह १५. अमितगति १७. घोष १८. महापोष १९. वेलांजन प्रतीन्द्र भवनवासी देवों के इन्हीं नामों के बीस प्रतीन्द्र होते हैं । वीवच० १४.५४-५८ १३. सुरूप १. सौधर्मेन्द्र ५. ब्रह्ममेन्द्र ९. आनतेन्द्र इन्द्र भवनवासी देवों के इन्द्र २. वैरोचन ३. भूतेश ६. वेणुधारी ७. पूर्ण १. सूर्य १. राजा व्यन्तर देवों के इन्द्र २. किम्पुरुष ३. सत्पुरुष ७. गीतरति ११. भीम १५. काल ६. महाकाय १०. पूर्णभद्र १४. प्रतिरूप प्रतीन्द्र व्यन्तर देवों के सोलह इन्हीं नामों के प्रतीन्द्र होते हैं । क्र० सं० नाम ऋद्धि १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. कल्पवासी देवों के इन्द्र २. ऐशानेन्द्र ३. सनत्कुमारेन्द्र ४. माहेन्द्र ७. शुक्रन्द्र ८. शतारेन्द्र ११. आरर्णेन्द्र १२. अच्युतेन्द्र ६. लान्तवेन्द्र १०. प्राणतेन्द्र प्रतीन्द्र कल्पवासी देवों के इन्हीं नामों के बारह प्रतीन्द्र भी होते हैं । वोवच० १४.२५, ४०-४८ ज्योतिष देवों के इन्द्र २. चन्द्र For Private & Personal Use Only अक्षीर्णोद्ध अक्षीण- पुष्पद्ध बक्षीण महारान अक्षीण संवास कुल इन्द्र १०० होते हैं । ऋद्धियाँ अमृतखावगी अम्बरचारण आमचं उग्र औषध - ऋद्धि ४. धरणानन्द ८. अवशिष्ट १२. हरिकान्त १६. अमितवाहन २०. प्रभंजन परिशिष्ट ४. महापुरुष ८. रतिकत्ति १२. महामीम १६. महाकाल इतर दो इन्द्र २. सिंह वीवच० १४.५९-६३ वीवच० १४.५२-५३ सन्दर्भ मपु० ११.८८ मपु० ६.१४९ म० २६.१५५ मपु० ३६.१५५ मपु० २.७२ मपु० २.७३ मपु० २.७१ मपु० ११.८२ मपु० ३६.१५३ www.jainelibrary.org

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