Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 498
________________ हरिविक्रम-हरिसागर ४८० : जैन पुराणकोश (३) विजयार्थ पर्वत की अलका नगरी के निवासी महाबल विद्याधर तथा ज्योतिर्माला का पुत्र । यह शतबली का भाई था। दोनों भाइयों में विरोध हो जाने से शतबली ने इसे नगर से निकाल दिया था। इसने भगली देश में श्रीधर्म और अनन्तवीर्य चारण ऋद्धिधारी मुनियों के दर्शन करके उनसे दीक्षा ले ली थी। अन्त में यह सल्लेखनापूर्वक मरकर ऐशान स्वर्ग में देव हुआ। हपु० ६०.१७-२१ (४) महेन्द्र नगर का एक विद्याधर राजकुमार । भरतक्षेत्र के चन्दनपुर नगर के राजा महेन्द्र की पुत्री कनकमाला ने अपने स्वयंवर में आये इसी राजकुमार का वरण किया था। मपु०७१.४०५-४०६, हपु० ६०.७८-८२ (५) मथुरा नगरी का राजा। इसकी रानी माधवी और पुत्र मधु था । यह केकया के स्वयंवर में सम्मिलित हुआ था । पपु० १२.६-७, ५४, २४.८७ हरिविक्रम-भीलों का एक राजा। इसकी स्त्री का नाम सुन्दरी तथा पुत्र का नाम वनराज था। इमने कपित्थ-वन में दिशागिरि पर्वत पर वनगिरि नगर बसाया था । मपु० ७५.४७८-४८० हरिवेग-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में रत्नपुर नगर के राजा रत्नरथ विद्याधर और रानी चन्द्रानना का पुत्र । इसके मनोवेग और वायुवेग दो भाई तथा मनोरमा एक बहिन थी। मपु० ९३.१-५७ हरिशर्मा-राजा दृढ़ग्राही का मित्र । राजा ने जिनदीक्षा ली और यह तापस हो गया था । आयु के अन्त में मरकर यह ज्योतिष्क देव हुआ और दृढ़ग्राही सौधर्म स्वर्ग में देव । मपु० ६५.६१-६५ हरिश्चन्द्र-(१) आगामी नो बलभद्रों में पांचवें बलभद्र । हपु० ६०.५६८ (२) एक युनि । विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी के प्रभाकरपुर नगर के राजा सूर्यावर्त के पुत्र रश्मिवेग ने सिद्धकूट पर इन्हीं से मुनि-दीक्षा ली थी । हपु० २७.८०-८३ हरिश्मश्रु-(१) अलका नगरी के राजा विद्याधर अश्वग्रीव प्रतिनारायण का मन्त्री । यह प्रत्यक्ष को प्रमाण माननेवाला, एकान्तवादी और नास्तिक था। यह पृथिव्यादि भूतचतुष्टय के संयोग से चैतन्य की उत्पत्ति मानता था। अदृश्य होने से वह आत्मा को पाप-पुण्य का कर्ता, सुख-दुख का भोक्ता और मुक्त होनेवाला नहीं मानता था। स्वयं नास्तिक होने से इसने राजा अश्वग्रीव को भी नास्तिक बना दिया तथा मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। मपु० ६२.६०-६१, हपु० २८.३१-४४ (२) राजा विनमि विद्याधर का पुत्र । हपु० २२.१०४ हरिषेण-(१) असुरकुमार आदि भवनवासी देवों का ग्यारवां इन्द्र। बोवच० १४.५५ (२) मिथिला नगरी के राजा देवदत्त का पुत्र । नभसेन का यह पिता था । हपु० १७.३४ (३) हस्तशीर्षपुर नगर का राजा। इसने भरतक्षेत्र में उज्जयिनी नगरी के राजा विजय की पुत्री विनयश्री को विवाहा था। मपु० ७१.४४२-४४४, हपु० ६०.१०५-१०६ (४) धातकीखण्ड द्वीप के विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के नन्दपुर नगर का राजा। इसकी रानी श्रीकान्ता तथा पुत्र हरिवाहन था । मपु० ७१.२५२, २५४ (५) तीर्थकर महावीर के पूर्वभव का जीव । मपु० ७६.५४१, दे० महावीर (६) जम्बूद्वीप में कोशल देश के साकेत नगर के राजा वज्रसेन और रानी शीलवतो का पुत्र । इसने श्रुतसागर मुनि से दीक्षा ले ली थी। आयु के अन्त में मर कर यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । मपु० ७४.२३०-२३४, वीवच० ४.१२१-१४०, ५.२-२४ (७) अवसपिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं दसवां चक्रवर्ती। यह तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में हुआ था। भोमपुर नगर का राजा पद्नाभ और रानी ऐरा इसके माता-पिता थे। इसकी आय दस हजार वर्ष तथा शरीर चौबीस धनुष ऊंचा था। इसके पिता को केवलज्ञान और आयधशाला में चक्र, छत्र, खड्ग एवं दण्ड ये चार रल तथा श्रीगृह में काकिणो, चर्म और मणि ये तीन रत्न एक साथ प्रकट हुए थे। चक्ररत्न को पूजा करके यह दिग्विजय के लिए उद्यत हुआ ही था कि उसो समय नगर में पुरोहित, गृहपति, स्थपति और सेनापति ये चार रत्न प्रकट हुए तथा विद्याधर इसे विजया से हाथी, घोड़ा और कन्या-रत्न ले आये ये । इसने सिन्धुनद नगर में हाथी को वश में करके स्त्रियों को भयमुक्त किया था । इस उपलक्ष्य में राजा ने इसे अपनी सौ कन्याएँ दी थीं। सूर्योदयपुर के राजा शक्रघनु की कन्या जयचन्द्रा को इसने विवाहा था। शतमन्यु के आश्रम में पहुँचकर इसने नागपतो को पुत्रो को विवाहा था । विजय के पश्चात् अपने गृह नगर लौटकर इसने चिरकाल तक राज्य किया। पश्चात् चन्द्र द्वारा ग्रसित राहु को देखकर इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और यह पुत्र महासेन को राज्य देकर संयमी हो गया । आयु के अन्त में देह त्याग कर यह सर्वार्थसिद्धि में देव हुआ। मपु० ६७.६१-८७, पपु० ८.३४३.३४७, ३७०-३७१, ३९२-४००, हपु० ६०.५१२, वीवच० १८.१०१-१०२, ११० हरिषेणा-(१) साकेत नगर के राजा श्रीषेण और रानी थकान्ता की बड़ी पुत्री और श्रीषणा की बड़ी बहिन । ये दोनों बहिनें स्वयंवर में अपने-अपने पूर्वजन्म की प्रतिज्ञा का स्मरण करके बन्धुजनों को छोड़कर तप करने लगीं थीं । मपु० ७२.२५३-२५४, हपु० ६४. १२९-१३१ (२) तीर्थकर शान्तिनाथ के संघ को प्रमुख आर्यिका । मपु० ६३.४९३ हरिसह-(१) माल्यवान पर्वत का नौवां कूट । हपु० ५.२२० (२) विद्य त्प्रभ पर्वत के नौ कूटों में नौवां कूट । हपु० ५.२२३ हरिसागर-लंका के पास स्थित वन और उपवनों से विभूषित एक द्वीप । पपु० ४८.११५-११६ बड़ा Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576