Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 497
________________ रियलहरिवाहन (२) एक नगर-पांचवें प्रतिनारायण निशुम्भ को निवास-भूमि । पपु० २० २४२-२४४ हरिबल -- (१) विजयार्घ पर्वत की अलका नगरी के राजा पुरबल और रानी ज्योतिमाला का पुत्र । इसने अनन्तवीर्य मुनिराज के पास द्रव्यसंयम धारण कर लिया था। इस संयम के प्रभाव से यह मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर रथनूपुर नगर के राजा सुकेतु को सत्यभामा पुत्री हुआ । मपु० ७१.३११-३१३ (२) विजयार्ध पर्वत की अलका नगरी का इस नाम का एक राजा । इसके क्रमशः दो छोटे भाई थे -- महासेन और भूतिलक | इसकी दो रानियाँ थीं- धारिणी और श्रीमती। इनमें धारिणी का पुत्र भीमक तथा श्रीमती रानो का पुत्र हिरण्यवर्मा था । वैराग्य उत्पन्न होने पर इसने भीमक को राज्य और हिरण्यवर्मा को विद्या देकर विपुलमति चारणऋद्धिधारी मुनि के पास दीक्षा ले ली थी तथा कर्म नाश कर मुक्त हुआ था। मपु० ७६.२६२-२७१ हरिमालिनी - किष्कुपुर के राजा नल की पुत्री। इसका विवाह हनुमान के साथ हुआ था । पपु० १९.१०४ दे० हनुमान 3 हरिवंश - ऋषभदेव द्वारा संस्थापित प्रसिद्ध चार क्षत्रियवंशों में इस नाम का एक महावंश । ऋषभदेव ने हरि नाम के राजा को बुलाकर उसे महामाण्डलिक राजा बनाया था। इसका अपर नाम हरिकान्त था। यह इन्द्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी था। चम्पापुर के राजा आर्य और रानी मनोरमा के पुत्र हरि के नाम पर इस महावंश की संस्थापना की गयी थी। इसकी वंश परम्परा में क्रमशः निम्न राजा हुए महागिरि हिमगिरि, वसुगिरि, गिरि, इसके पश्चात् अनेक राजा हुए । उनके बाद कुशाग्रपुर का राजा सुमित्र, मुनिसुव्रत, सुव्रत, दक्ष, ऐसेय, कृषिम, पुलोम, पोलोम और चरम राजा हुए पौलोम के महोदत्त और चरम के संजय तथा महीदत्त के अरिष्टनेमि और मत्स्य पुत्र हुए। इनमें मत्स्य के अयोधन आदि सौ पुत्र हुए । अयोधन के पश्चात् क्रमश: मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र वसु, बृहध्वज, सुबाहु, दीर्घबाहु, ददाहू, यथाभिमान भानू, प, सुभानू, भीम आदि अनेक राजाओं के पश्चात् नमिनाथ के तीर्थ में यदु नाम का एक राजा हुआ, जिसके - नाम पर यदुवंश की स्थापना हुई थी। राजा सुवसु का एक पुत्र बृहदरथ था । इसके बाद निम्नलिखित राजा हुए-दृढ़रथ, नरवर, दृढरथ, सुखरब, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रभु, बिन्दुसार, देवगर्भ शत इसके पश्चात् अनेक राजा हुए तत्पश्चात् निहतशत्रु, शतपति, बृहदरथ, जरासन्ध का भाई अपराजित और कालयवन आदि सौ पुत्र हुए। पद्मपुराण के अनुसार इस वंश का संस्थापक राजा सुमुख का जीव था । वह मरकर आहारान के प्रभाव से हरिक्षेत्र में उत्पन्न हुआ था। इसके पूर्वभव के बैरी वीरक का जीव एक देव इस हरिक्षेत्र - से सपत्नोक उठाकर भरतक्षेत्र में रख गया था। हरिक्षेत्र से लाये जाने के कारण इसे हरि और इसके वंश को हरिवंश कहा गया । मिथिला के राजा वासवकेतु और उनके पुत्र जनक इसी वंश के Jain Education International 0 जैन पुराणकोश : ४७९ राजा थे । मपु० १६.२५६-२५९, पपु० ५.१ ३ २१.२-५५, पु० १५.५६-६२, १६.१७, ५५, १७.१ ३ २२-३७, १८.१-६, १७-२५, पापु० २.१६३-१६४ हरिवंशपुराण- गुन्नाटसंघ के आचार्य जिनसेनसूरि द्वारा ईसवी ७८३ में संस्कृत भाषा में रचा गया पुराण । इसकी रचना के समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में कृष्ण राजा के पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व में अवन्तिराज और पश्चिम में वीर जयवराह का शासन था । ग्रन्थ का शुभारम्भ वर्धमानपुर के नन्न राजा द्वारा निर्मापित श्रीपार्श्वनाथमन्दिर में तथा समाप्ति "दोस्तटिका" नगरी के शान्तिनाथ मन्दिर में हुई थी। इस पुराण में आठ अधिकार हैं । इनमें क्रमशः लोक के आकार का, राजवंशों की उत्पत्ति का हरिवंश का देवकी चेष्टाओं का, कृष्ण और नेमिनाथ का तथा तत्कालीन अन्य राज्यवंशों का कथन किया गया है। आठ अधिकारों में कुल छियासठ सर्ग हैं। तथा सगों में आठ हजार नौ सौ चालीस श्लोक हैं । हपु० १.७१७३, ६६.३७, ५२-५४ हरिवर- एक विद्याधर यह राजा अकम्पन की पुत्री पिप्पला की सखो मदनवती का प्रेमी था। इसने वैरवश श्रीपाल को महाकाल नामक गुफा में गिराया था । मपु० ४७.७५ ७८, १०३ हरिवर्मा - तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के तोसरे पूर्वभव का जीव भरतक्षेत्र के अंग देशस्थ चम्पापुर नगर का राजा। यह अनन्तवीर्य नामक मुनि से धर्म का स्वरूप समझकर संसार से विरक्त हो गया था। इसने अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर संयम ले लिया तथा सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया। बहुत समय तक तप करने के पश्चात् यह आयु के अन्त में समाधिमरणपूर्वक देह त्याग करके प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ । मपु० ६७.१-१५ हरिवर्ष - (१) महाहिमवान् कुलाचल का सातवां कूट । हपु० ५.७२ (२) मध्यम भोगभूमि । मपु० ७१.३९२-३९३ (३) भरतक्षेत्र का एक देश । सुमुख का जीव इसी देश के भोगपुर नगर में राजपुत्र सिंहकेतु हुआ था । मपु० ७०.७४-७५ (४) निषध पर्वत के नौ कूटों में तीसरा कूट । हपु० ५.८८ हरिवाहन - ( १ ) विजयनगर के राजा महानन्द और रानी वसन्तसेना का पुत्र । यह अप्रत्याख्यानावरणमान कषाय के उदय से माता-पिता का भी आदर नहीं करता था। यह आयु के अन्त में पत्थर के खम्भे से टकरा कर आर्तध्यान से मरा और सूकर हुआ । मपु० ८.२२७ २२९ (२) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में नन्दपुर नगर के राजा हरिषेण और रानी श्रीकान्ता का पुत्र । धातकीखण्ड द्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघपुर नगर के राजा धनंजय की पुत्री धनश्री ने भरतक्षेत्र के अयोध्यानगर में आयोजित अपने स्वयंवर में आये इसी राजकुमार के गले में वरमाला डाली थो । अयोध्या के राजकुमार सुदत्त ने इसे मार डाला था और इसकी पत्नी धनश्री को अपनी पत्नी बना ली थी । मपु० ७१.२५२-२५७, हपु० ३३.१३५-१३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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