Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 489
________________ स्त्रीपरीष-जप-स्थूणमध - स्त्री - परीषह - जय - बाईस परीषहों में एक परीषह स्त्रियों द्वारा की जानेवाली बाधाओं एवं उनकी कामजन्य चेष्टाओं को विफल करना | मपु० ३६.११८ स्त्रीप्राक्स्मृतिवर्जन — ब्रह्मचर्यव्रत की चौथी भावना - पूर्व में भोगे गये स्त्री सम्बन्धी भोगों के स्मरण का त्याग । मपु० २०.१५९, १६४ स्त्रीरत्न - सर्वांग सुन्दर श्रेष्ठ स्त्री । मपु० ७.२५८ दे० रत्न - १ स्त्रीसंसर्गवर्जन — ब्रह्मचर्यव्रत की तीसरी भावना स्त्रियों के संसर्ग का त्याग । मपु० २०.१५९, १६४ स्थापित - चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक रत्न । यह वास्तुविद्या का पारगामी था । इसने दिव्य शक्ति से नदियों में उस पार जाने के लिए सेतु का निर्माण किया था। यह आकाशगामी रथ बनाने में भी दक्ष था । मपु० ३२.२४-३०, ६५, ३७.१७७ स्थलगता - दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत चूलिका के पाँच भेदों में एक भेद । इसमें दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पाँच पद हैं । हपु० १०.१२३-१२४ स्थलज - जीवों का एक भेद-स्थल पर चलनेवाले थलचर जीव । पपु० १४.२६ ९८.८१ स्थविर - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ स्थविरकल्प - मुनियों का एक भेद- निःशल्य होकर मूल भावनाओं और उत्तर भावनाओं सहित पाँचों महावतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को धारण करनेवाला मुनि । मपु० २०.१६१-१७० स्थविष्ठ – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषवदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ स्ववीयस् - भतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३ स्ववीयान्सीधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १७६ स्थाणु - (१ ) उज्जयिनी के अतिमुक्तक श्मसान का निवासी एक रुद्र । इसने प्रतिमायोग में स्थित महावीर पर अनेक उपसर्ग कर उनके धैर्य को परीक्षा ली थी। परीक्षा में सफल होने पर इसने उन्हें "महतिमहावीर" नाम दिया था। मपु० ७४.३२१-२२७, वोवच० १३.५९-८२ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११४ -स्थान- संगीत के शारीर स्वर का एक भेद । हपु० १९.१४८ -स्थानलाभक्रिया - दीक्षान्वय क्रियाओं में एक क्रिया । इसमें किसी पवित्र स्थान में अष्टदल कमल अथवा समवसरण की रचना करके उपवासी को प्रतिमा के सम्मुख बैठाकर आचार्य उसके मस्तक का स्पर्श करता है और "पंच नमस्कार मन्त्र के उच्चारण के साथ उसे श्रावक की दीक्षा देता है । मपु० ३९.३७-४४ • स्थानाध्ययनांग- द्वादशांग श्रुतस्कन्ध का हजार पदों में जीव के दस स्थानों का १३७, हपु० १०.२९ • स्थापना - निक्षेप - दूसरा निक्षेप किसी अन्य वस्तु से बनायी गयी आकृति या मूर्ति में किसी वस्तु का उपचार या ज्ञान करना । जैसे Jain Education International तीसरा अंग । इसमें बयालीस वर्णन है । मपु० ३४.१३३, मैनपुरागको ४७१ घोड़े जैसी आटे की आकृति को घोड़ा समझना । हपु० १७.१३५ स्थापनासत्य- -सत्य के दस भेदों में एक भेद । वास्तविकता न होने पर भी आकार की समानता अथवा व्यवहार के लिए की गयी स्थापना से वस्तु को उस रूप मानना / कहना स्थापना सत्य है । जैसे सतरंज की गोटों में आकार न होने पर भी उन्हें वादशाह वजीर आदि मानना, तथा खिलौनों में आकार की समानता देखकर उन्हें हाथी आदि कहना स्थापना सत्य है । हपु० १०.१०० स्थालक - विजयार्ध पर्वत का एक नगर । इस नगर के राजा अमितवेग की पुत्री मणिमती को विद्या की सिद्धि में मग्न देखकर रावण उस पर मोहित हो गया था। उसने मणिमती की विद्या हर ली थी । उसकी विद्या- सिद्धि में विघ्न डाला था अतः मणिमती ने आगामी भव में रावण की पुत्री होकर उसके वध का निदान किया था । मपु० ६८. १२-१९ स्थावर - ( १ ) भगवान महावीर के अठारहवें पूर्वभव का जीव । यह मगध देश के राजगृह नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी स्त्री पारशरी का पुत्र था । इसने परिव्राजक होकर तप किया था। अन्त में मरकर यह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ । मपु० ७४.८४-८७, ७६. ५३८, वीवच० ३.१-५ (२) एक योनि तथा उसमें उत्पन्न जीव । ये पाँच प्रकार के होते है पृथिवीकायिक, जल्कायिक, अग्निकायिक, वाकायिक और वनस्पतिकायिक । मपु० ७४.८१, पपु० १०५.१४१, १४९ ( ३ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. . २०३ स्थास्तु — भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४, २५.२०३ स्थितिकरण - सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में छठा अंग-सम्यग्दर्शन, तप, चारित्र आदि को अंगीकार करके उनसे विचलित ( अस्थिर ) हुए जीवों को उपदेश आदि के द्वारा उन्हीं गुणों में पुनः स्थापित कर देना, कषायों के होने पर उनसे अपना या दूसरे का बचाव करना, दोनों को धर्म से च्युत नहीं होने देना मपू० ६३.३१९, वोवच० ६.६८ स्थितिबन्ध - कर्मबन्ध का एक भेद । ऐसा बन्ध होने पर कर्म अपने काल की मर्यादा तक रहते हैं। यह बन्ध कषाय के निमित्त से होता है । मपु० २०.२५४ हपु० ३९.२, ५८.२०३, २१०, २१४ स्थित्वाशन मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों में एक गुण-खड़े होकर आहार ग्रहणकरना । इसका अपर नाम स्थितिभुक्ति है । मपु० २०.९०, हपु० २.१२८ स्थिरहृदय –— कुण्डलगिरि के पश्चिम दिशा में स्थित अंककूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६९३ - स्मितयश - सूर्यवंशी राजा अकीर्ति का पुत्र । यह राजा बल का पिता था । इसका अपर नाम सितयश था । पपु० ५.४, हपु० १३.७ स्थूणगन्ध - पोदनपुर के राजा चन्द्रदत्त के पुत्र इन्द्रवर्मा का विरोधी - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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