Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 494
________________ ४७६ : जैन पुराणकोश स्वर्णनाभ-स्वामिहित स्वर्णनाभ-(१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजया पर्वत की दक्षिण- श्रेणी का सत्रहवां नगर । हपु० २२.९५ (२) अरिष्टपुर नगर के राजा रुधिर का पुत्र और रोहिणो का भाई । वसुदेव इसका बहनोई था। इसने पौण्ड्र देश के राजा से युद्ध किया था । हप० ३१.८-११, ४४, ६२, ८३-८९ (३) अरिष्टपुर नगर का राजा। कृष्ण को रानी पद्मावती का यह पिता था । हपु० ६०.१२१ स्वर्णबाहू-जरासन्ध के अनेक पुत्रों में इस नाम का एक पुत्र । हपु० स्वस्तिमती-शक्तिमती नगरी के निवासी क्षीरकदम्ब ब्राह्मण की स्त्री। इसके पुत्र का नाम पर्वत था। यह नारद और राजा बसु की गुरुमाता थी। "अजैर्यष्टव्यम" के अर्थ को लेकर नारद और पर्वत के बीच हुए विवाद में इसने पर्वत की विजय कराने के लिए राजा वसु से पर्वत का समर्थन कराया था। पपु० ११.१३-१४, १९, ४६-६३, हपु० १७.३८-३९, ६४-६५, ६९, १५० दे० पर्वत स्वस्थ-(१) राजा शान्तन का पुत्र । महासेन और शिवि इसके बड़े भाई तथा विषद और अनन्तमित्र छोटे भाई थे । यह उग्रसेन का चाचा था । हपु० ४८.४०-४१ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८५ स्वर्णमध्य-सुमेरु पर्वत का अपर नाम । दे० सुमेरु स्वर्णवर्मा-पुष्कलावती देश की शीरवती नगरी के राजा आदित्यगति विद्याधर का पौत्र और हिरण्यवर्मा का पुत्र । इसके माता-पिता दोनों दीक्षित हो गये थे । पापु० ३.२१०-२११, २२५-२२७ स्वर्णाभि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम | मपु० २५. १९९ स्वर्णाभपुर-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । विद्याधर मनोवेग यहाँ का राजा था। इसका अपर नाम स्वर्णनाभपुर था। हपु० २४.६९, दे० स्वर्णनाभ स्वर्भानु-राजा कंस का साला । यह राजगृह नगर में रहता था। भानु इसका पुत्र था । नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शंख बजाने तथा दूसरे हाथ से धनुष चढ़ाने वाले को कंस अपनी पुत्री देगा-ऐसी कंस के द्वारा कराई गयी घोषणा सुनकर यह अपने पुत्र के साथ मथुरा आ रहा था। रास्ते में कृष्ण से भेंट होने पर यह कृष्ण को भी अपने साथ ले आया था। कृष्ण ने इसके पुत्र भानु को समीप में खड़ा करके उक्त तीनों कार्य कर दिखाये थे तथा वे इसका संकेत पाकर ब्रज चले गये थे । कृष्ण ने ये कार्य इसके द्वारा किये जाने की घोषणा की थी। मपु० ७०.४४७-४५६ स्वसंवेद्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १४६ स्वस्तिक-(१) तेरहवें स्वर्ग का विमान । मपु० ६२.४११ (२) लवणसमुद्र का स्वामी एक देव । कृष्ण ने तीन उपवास कर उसे अनुकूल किया था । पापु० २१.१२०-१२१ (३) रुचकगिरि की दक्षिणदिशा का एक कूट-स्वहस्ती देव की आवासभूमि । हपु० ५.७०२ (४) मेरु से दक्षिण की ओर सोतोदा नदी के पूर्व तट पर स्थित एक कूट । हपु० ५.२०६ (५) विद्युत्प्रभ गजदन्त पर्वत का छठा कूट । हपु० ५.२२२ (६) कुण्डलगिरि के मणिप्रभकूट का निवासी देव । हपु० ५. स्वस्थिता-रुचकवर पर्वत के दक्षिण दिशावर्ती अमोघ कट की एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०८ स्वहस्तक्रिया-आस्रवकारिणी पच्चीस क्रियाओं में एक क्रिण-दूसरे के द्वारा करने योग्य कार्य को स्वयं सम्पादित करना । हपु० ५८.७४ स्वहस्ती-रुचक पर्वत के स्वस्तिक कुट का रक्षक देव । हपु० ५७०२ स्वा-उत्कृष्टता सूचक दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों में चौथी जाति। यह मुक्त जीवों के होती है । मपु० ३९. १६८ स्वाति-(१) मानुषोत्तर पर्वत की आग्नेय दिशा के तपनीयककूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६०६ (२) हैमवत् क्षेत्र के श्रद्धावान् पर्वत (नाभिगिरि) का निवासी एक व्यन्तर देव । हपु० ५.१६१, १६३-१६४ स्वाध्याय-भरतेश द्वारा निर्दिष्ट व्रतियों के षट्कर्मों में एक कर्म और छठा आभ्यन्तर तप । ज्ञान की भावना और बुद्धि की निर्मलता के लिए आलस्य का त्याग करके शास्त्राभ्यास करना स्वाध्याय है । इससे मन के संकल्प-विकल्प दूर होकर मन का निरोध हो जाता है और मन के निरोध से इन्द्रियों का निग्रह हो जाता है तथा चित्त-वृत्ति स्थिर होती है । इसके पाँच भेद हैं-१. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. आम्नाय और ५. उपदेश । इनमें ग्रंथ का अर्थ समझना, समझाना वाचना और अनिश्चित तत्त्व का निश्चय करने के लिए दूसरे से पूछना पृच्छना है । ज्ञान का मन से अभ्यास-चिन्तन अनुप्रेक्षा, पाठ को बार-बार पढ़ना (अवधारण करना) आम्नाय और दूसरों को धर्म का उपदेश देना उपदेश नाम का स्वाध्याय है । यह पाँचों प्रकार का स्वाध्याय-प्रशस्त अध्यवसाय, भेद विज्ञान, संवेग और तप की वृद्धि के लिए किया जाता है । मपु० २०.१८९, १९७-१९९, २१.९६, ३४.१३४, ३८.२४-३४, पपु० १४.११६-११७, हपु० ६४. ३०, वीवच० ६.४१-४५ स्वामिहित-जम्बूद्वीप के कौशल देश की अयोध्या नगरी के राजा आनन्द का महामन्त्री । राजा ने इसके कहने से वसन्त ऋतु की अष्टाह्निका में पूजा करायी थी तथा इसी समय विपुलमति मुनि से पूजा से पुण्य-फल कैसे प्राप्त होता है ? इस प्रश्न का समाधान प्राप्त किया था । मपु० ७३.४१-५३ स्वस्तिकनन्दन-रुचकगिरि की पूर्वदिशा का कूट-नन्दोत्तरा दिक्कुमारी देवी की आवासभूमि । हपु० ५.७०६ स्वस्तिकावती-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धवल देश की एक नगरी । यहाँ का राजा वसु था। मपु० ६७.२५६-२५७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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