Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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ब्रोतोऽन्तर्वाहिनी-स्वयंप्रभ
स्रोतोऽन्तर्वाहिनी-विदेहक्षेत्र की विभंगा नदी। यह निषध पर्वत से निकलकर सीतोदा महानदी में प्रवेश करती है। मपु० ६३.२०७,
हपु० ५.२४१ स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति-गर्भान्वयो श्रेपन क्रियाओं में उन्नीसवाँ क्रिया । इसमें आचार्य के द्वारा अपने किसी सुयोग्य शिष्य को अपना पद सौंपे जाने पर गुरु की अनुमति से उनके स्थान पर अधिष्ठित होकर वह उनके समस्त आचरणों का स्वयं बाहन करते हए संघ का संचालन करता है । मपु० ३८.५९, १७२-१७४ स्वतत्त्व-जीव के निज भाव-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औद
यिक और पारिणामिक भाव । मपु० २४.९९-१०० स्वतन्त्र-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२१ स्वतन्त्रलिंग-एक मुनि । ये काशी नगरी के राजा संभूत के दीक्षागुरु
धे । पपु० २०.१९१ स्वदान-पात्रों को धन देना । मपु० ५६.८९-९० स्वदारसन्तोषव्रत-ब्रह्मचर्यु का अपर नाम । हपु० ५८.१७५ दे० ब्रह्मचर्य स्वन्त:-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२९ स्वपक्षरचन-राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.१२, १७ स्वपाक-धरणेन्द्र की दिति देवी के द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों
को दिया गया एक विद्या-निकाय । हपु० २२.५९ स्वप्न-कल्याणवाद पूर्व में वर्णित निमित्तज्ञान के आठ अंगों में प्रथम
अंग । स्वप्न दो प्रकार के माने गये है स्वस्थ स्वप्न और अस्वस्थ स्वप्न । उत्पत्ति के भेद से भी स्वप्न दो प्रकार के होते है-१. दोषों के प्रकोप से उत्पन्न स्वप्न २. देव से उत्पन्न स्वप्न । सोते समय रात्रि के पिछले पहर में तीर्थकूरों के गर्भ में आने पर उनकी माताएं सोलह स्वप्न देखती है। वे स्वप्न और उनके फल निम्न प्रकार बताये गये हैंक्र० स्वप्न नाम
स्वप्न फल १. ऐरावत हाथी
उत्तम पुत्र की उत्पत्ति । २. दुन्दुभि के समान शब्द । पुत्र का लोक में ज्येष्ठ होना।
करता बैल । ३. सिंह
पुत्र का अनन्तबल से युक्त होना । ४. युगल माला
पुत्र का समीचीन धर्म का प्रवर्तक
होना। ५. गजाभिषिक्त लक्ष्मी पुत्र का सुमेरु पर्वत पर देवों द्वारा
अभिषेक किया जाना । ६. पूर्णचन्द्र
पुत्र का जन-जन को आनन्द देनेवाला
होना। ७. सूर्य
पुत्र का दैदीप्यमान प्रभा का धारक
होना। ८. युगल कलश
पुत्र को निधियों की प्राप्ति का होना। ९. युगल मीन
पुत्र का सुखी होना।
जैन पुराणकोश : ४७३ १०. सरोवर
पुत्र का शुभ लक्षों से युक्त होना । ११. समुद्र
पुत्र का केवली होना। १२. सिंहासन
जगद्गुरु होकर पुत्र का साम्राज्य प्राप्त
करना। १३. देव-विमान
पुत्र का अवतरण स्वर्ग से होना। १४. नागेन्द्र-भवन
पुत्र का अवधिज्ञानी होना। १५. रत्नराशि
पुत्र का गुणागार होना। १६. निधूम अग्नि पुत्र का कर्मनाशक होना।
चक्रवर्ती की माता छः स्वप्न देखती है। वे सण और उनके फल निम्न प्रकार है-- क्र० स्वप्न नाम
स्वप्न फक १. सुमेरु पर्वत
चक्रवर्ती पुत्र होना। २. सूर्य
पुत्र का प्रतापवान होना।
पुत्र का कान्तिमान होना । ४. सरोवर
पुत्र का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त
होना। ५. पृथिवी का असा जाना पुत्र का पृथिवी-शासक होना । ६. समुद्र
पुत्र का चरमशरीरी होना । नारायण को माता सात स्वप्न देखतो है । स्वप्नों के नाम एवं फल इस प्रकार हैक्र० स्वप्न नाम
स्वप्न फल . १. उदीयमान सूर्य निज प्रताप से शत्रु-नाशक पुत्र का
जन्म लेना। २. चन्द्र
पुत्र का सर्वप्रिय होना। ३. गजाभिषिक्तलक्ष्मी पुत्र का राज्याभिषेक से सहित होना। ४. नीचे उतरता देव-विमान पुत्र का स्वर्ग से अवतरण होना । ५. अग्नि
पुत्र का कान्तिमान होना । ६. रत्न-किरणयुक्त देव-ध्वजा पुत्र का स्थिर-स्वभावी होना। ७. मुख में प्रवेश करता सिंह पुत्र का निर्भय होना । मपु० १२.१५५-१६१, १५.१२३-१२६, २०.३३-३७, ४१.५९-७९, हपु० १०.११५-११७, ३५.१३-१५ स्वभू-मौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ स्वयंज्योति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१०६ स्वयंप्रभ-(१) रुचकगिरि को पश्चिम दिशा का एक कुट-त्रिशिरस् देवी की निवासभूमि । हपु० ५.७२० (२) आगामी चौथे तीर्थंकर । मपु० ७६.४७३ हपु० ६०.५५८
(३) पूर्वदिशा के स्वामी सोम लोकपाल का विमान । हपु. ५.३२३
(४) स्वयंभरमण द्वीप के मध्य में स्थित वलयाकार एक पर्वत और वहाँ का निवासी एक व्यन्तर देव । हपु० ५.७३०,६०.११६
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