Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 445
________________ समाध-समुद्रवत्त जैन पुराणकोश : ४२७ समीरणगति-वानरवंशी एक राजा । यह मन्दर का पुत्र और रविप्रभ समाध-राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी का छठा पुत्र । पापु० ८.१९३ समादानक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में चौथी क्रिया-संयमी पुरुष का असंयम की ओर सम्मुख होना । यह प्रमा- वर्धक होती है । हपु० ५८.६४ समाद-एक देश । पपु० २४.२६ समाना-समाद्र देश को लिपि । केकया को इस लिपि का ज्ञान था। पपु० २४.२६ समाधि-(१) उत्तम परिणामों में चित्त स्थिर रखना अथवा पंच परमेष्ठी का स्मरण करना । मपु० २१.२२६ (२) समाधिमरण । इसमें शरीर की ममता छोड़कर देह का विसर्जन किया जाता है। ऐसा मरण करनेवाला जीव उत्तम गति पाता है । पपु० २.१८९, १४.२०३-२०४, ८९.११२-११५, हपु० ४९.३० समाधिगुप्त-(१) आगामी अठारहवें तीर्थकर । मपु० ७६.४८०, हपु० ६०.५६१ (२) एक मुनि । लक्ष्मीमती इन्हीं मुनि की निन्दा के फलस्वरूप मरकर रासभी हुई थी। हपु० ६०.२६-३१ (३) एक मुनि । क्षेमपुरी नगरी के राजपुत्र श्रीचन्द्र ने इन्हीं से मुनिदीक्षा ली थी । पपु० १०६.७५, ८१,११० (४) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में काशी देश की वाराणसी नगरी के पद्मनाथ के पुत्र पद्म के दीक्षागुरु । खदिरसार भील ने कौए के मांस-त्याग का नियम इन्हीं से लिया था । मपु० ६६.७६-७७, ९३९५, ७४.३८९-४१८, वीवच० १९.९६-१०८ (५) विदेहक्षेत्र के एक मुनि । रश्मिवेग ने इन्हीं मुनिराज के पास दोक्षा धारण की थी । मपु० ७३.२५-२८ समाधिबहुल-राम का एक सामन्त । यह सिंहवाहीरथ पर बैठकर ससैन्य बाहर निकला था । पपु० ५८.१० । समान वत्ति-चतुर्विधदत्ति का एक भेद । क्रिया, मंत्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं तथा जो संसार से उद्धार करनेवाले हैं उन्हें पृथिवी, स्वर्ण आदि समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ दान देना समानदत्ति है। मपु० ३८.३८-३९ दे० दत्ति समारम्भ-कार्य के लिए साधन जुटाना । हपु० ५८.८५ समावृष्टि-वर्षा का एक भेद । बीच-बीच में धूप प्रकट करते हुए मेघों का साठ दिन तक बरसना । मपु० ५८.२७ समासवर्ष-तेरह वर्ष का समय । हपु० १६.६४ समाहित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८४ ।। समिति-मुनि चर्या । यह पांच प्रकार की होती है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना । हपु० २.१२२-१२६ समिधा-राजगृह नगर के श्रावक विनोद की पत्नी । इसके दुराचरणी होने से इसके साथ सद्भावपूर्ण वार्तालाप करने पर भी इसका देवर 1. रमण भ्रान्तिजन्य क्रोध से अपने भाई विनोद के द्वारा मारा गया .... था। पपु०८५.७४-७६ . ....... .. समोरप्रभ-हनुमान । रावण ने चन्द्रनखा की पुत्री अनंगपुष्पा इसे समर्पित ___ की थी । पपु० १९.१०१ समुच्चय-लंका में प्रमद पर्वत के चारों ओर स्थित एक उद्यान । यह विलासियों को क्रीडाभूमि थी । पपु० ४६.१४१, १४५,१४९ समुच्छिन्नक्रियानिति-चौथा शुक्लध्यान । इसमें आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन रूप योगों का तथा काय बल आदि प्राणों का समुच्छिन्न हो जाता है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार का आस्रव नहीं होता। यह अन्तमुहूर्त समय के लिए होता है परन्तु इतने ही समय में इससे ध्यानी को निर्वाण प्राप्त हो जाता है। मपु० २१.१९६-१९७, ५२.६७-६८, हपु० ५६.७७-७८ समुद्घात-मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना। यह सात प्रकार का होता है-१. वेदना २. कपाय ३. वैक्रियिक ४. मारणान्तिक ५. तेजस ६. आहारक ओर ७. केवलि । इन सातों में आदि के चार सभी आत्माओं के तथा अन्त के तीन योगियों के होते हैं । यह तीनों योगों का निरोध करने के लिए किया जाता है। इसमें आत्मा के प्रदेश पहले समय में चौदह राजू ऊँचे दण्डाकार होते हैं। दूसरे समय में कपाट के आकार, तीसरे समय में प्रतररूप और चौथे समय में समस्त लोकाकाश में भर जाते हैं। मपु० २१.१८९-१९०, वीवच० १६.१०९-११० समुद्र-(१) विद्याधर अमररक्ष के पुत्रों के द्वारा बसाये गये दस नगरों ' में एक नगर । पपु० ५.३७१ (२) वेलन्धर नगर का स्वामी एक विद्याधर । राजा नल ने इसे यद्ध में बांध लिया था । अन्त में राम का आज्ञाकारी होने पर इसे ससम्मान उसी नगर का राजा बनाया गया था। इसकी सत्यश्री, कमला, गुणमाला और रत्नचूला नाम की चार कन्याएँ थी, जिन्हें इसने लक्ष्मण को दी थीं। पपु०५४.६५-६९ (३) अयोध्या एक सेठ । इसकी स्त्री का नाम धारिणी था । पूर्णभद्र और कांचनभद्र इसके दो पुत्र ये । पपु० १०९.१२९-१३० दे० समुद्रदत्त समुद्रक-भरक्षेत्र का एक देश । इसका निर्माण वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा किया गया था । मपु० १६.१५२ समुद्रगुप्त-एक मनि । अयोध्या नगर के राजपुत्र आनन्द ने इन्हीं से मुनिदीक्षा ली थी । मपु० ७३.४१-४३, ६२-६३ समुद्रघोष-एक धनुष । यह लक्ष्मण के पास था । पपु० ४२.८३ समुद्रदत्त-(१) अयोध्या का एक सेठ । यह पूर्णभद्र और मणिभद्र का पिता था। हपु० ४३.१४८-१४९ दे० समुद्र-३ (२) एक मुनि । ये आराधनाओं को आराधना कर छठे वेयक के सुविशाल नामक विमान में अहमिन्द्र हुए थे। हपु० १८.१०५, १०८ (३) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरी किणी नगरी का एक सेठ। यह इस नगर के राज सेठ कुबेरमित्र की स्त्री Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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