Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 443
________________ सनतं-सप्पभंगी जैन पुराणकोश : ४२५ राग छूट गया और इसने मुनि दीक्षा लेकर तप किया । इसे अनेक रोग देने लगे थे। इन्होंने प्रजा को सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, ग्रहों का एक भी हुए, किन्तु यह रोग जनित वेदना शान्ति से सहता रहा। अन्त राशि से दूसरी राशि पर जाना, दिन और अयन आदि का संक्रमण में आत्मध्यान के प्रभाव से सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। पूर्वभवों में बतलाते हुए ज्योतिष विद्या की मूल बातें बताई थीं। ये तीसरे यह गोबर्द्धन ग्राम का निवासी हेमबाहु था। महापूजा की अनुमोदना मनु क्षेमंकर को राज्य देकर स्वर्ग गये। मपु० ३.७७-८९, पपु० से यक्ष हुआ । सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होने तथा जिन वन्दना करने से ३.७७, ह१० ७.१४८-१५०, पाप० २.१०५ तीन बार मनुष्य हुआ, देव हुआ और इसके पश्चात् महापुरी नगरी (२) तीर्थकर वर्द्धमान का अपर नाम । संजय और विजय नामक का धर्मरुचि नाम का राजा हुआ । मुनि होकर मरने से माहेन्द्र स्वर्ग चारण ऋद्धिधारियों ने अपना उत्पन्न सन्देह वर्धमान को देखते ही में देव हुआ और वहाँ से चयकर चक्रवर्ती सनत्कुमार हुआ। मपु० . दूर हो जाने से प्रसन्न होकर वर्द्धमान का यह नाम रखा था । मपृ० ६१.१०४-१०६, ११८, १२७-१२९, पपु० २०.१३७-१६३, हपु० ७४.२८२-२८३, पापु १.११६ दे० महावीर ४५.१६, ६०.२८६, ५०३-५०४, वीवच० १८.१०१, १०९ सन्मार्ग-संसार से पार करनेवाला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और (४) सनत्कुमार स्वर्ग का इन्द्र । मपु० १३.६२ सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग । मपु० ६२.३२० सनर्त-एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश ने इस पर विजय की थी। सपाणि-तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५१ पपु० १०१.८३ सप्तगोदावर-भरतक्षेत्र का एक तीर्थ । यहाँ गोदावरी नदी सात धाराओं सनातन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०५ में विभाजित है । चक्रवर्ती भरतेश का सेनापति यहाँ से मानस सरोवर सनातनधर्म-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रहता ये गया था । मपु० २९.८५ पाँच व्रत । मपु० ५.२३ सप्तच्छद-सात पत्रों के स्तवकों से युक्त-एक वृक्ष । तीर्थकर धर्मनाथ सनिकाचित-अग्रायणीयपूर्व संबंधी चौथे प्राभृत के चौबीस योगद्वारों को इसी वृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ था। अपर नाम सप्तपर्ण । मपु० में इक्कीसवाँ योगद्वार । हपु० १०.८५ दे० अग्रायणीयपूर्व ६१.४२ सन्ताप--वानरवंश का एक प्रधान राजा । इसने राक्षस वंश के राजा ___ सप्तपरमस्थान -तीनों लोकों में मान्य सात उत्कृष्ट स्थान । वे हैंमारीच के साथ युद्ध किया था, जिसमें इसे पराजित होना पड़ा था। सज्जाति, सद्गृहित्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, परमार्हन्त्य और पपु० ६०.६, ८, १० परमनिर्वाण । मपु० ३८.६७-६८ सन्तोष-भक्तपान-अचौर्यव्रत की पांच भावनाओं में पाँचवीं भावना सप्तवर्ण-(१) प्रत्येक गांठ पर सात-सात पत्तों को धारण करनेवाले प्राप्त हुई भोजन-पान सामग्री में संतोष धारण करना । मप० २०. वृक्षों का समवसरण में एक उद्यान । मपु० २२.१९९-२०४ १६३ दे० अचौर्य (२) समवसरण में सप्तपर्ण वन के मध्य रहनेवाला एक चैत्यवृक्ष । सन्देहपारग-महेन्द्र नगर के राजा महेन्द्र का मंत्री। इसने राजा की इसके मूलभाग में जिन प्रतिमाएं विराजमान होती है । तीर्थकर पुत्री अंजना के लिए विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित अजितनाथ ने इसी वृक्ष के नीचे मुनि दीक्षा ली थी। मपु० २२. आदित्यपुर नगर के राजा महेन्द्र के पुत्र पवनंजय का नाम विवाह २००-२०४, पपु० २०.३८ हेतु प्रस्तावित किया था। पपु० १५.६-७, १४-१६, ४२-५२ (३) सप्तपर्णपुर का निवासी एक देव । हपु० ५.४२७ सम्ध्याक्ष-रावण का एक सामन्त । यह सिंहवाही रथ पर बैठाकर राम (४) संख्यात द्वीपों के पश्चात् जम्बूद्वीप के समान दूसरे जम्बूद्वीप की सेना से युद्ध करने लंका से बाहर निकला था । पपु० ५७.४७ का एक वन । हपु० ५.३९७-४२२ सन्ध्याचली-रावण की रानी । पपु० ७७.१५ सप्तपर्णपुर-सप्तपर्ण वन को पूर्व-दक्षिण दिशा में स्थित एक नगर । सन्ध्याभ्रषभ्र-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० यहाँ सप्तपर्ण नामक देव रहता है । हपु० ५.४२७ २५.१९८ सप्तपारा-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। दिग्विजय के समय सन्ध्यावर्त-लंका का एक पर्वत । राजा मय की सेना ने इस पर्वत के __ भरतेश को सेना यहाँ आयी थी । मपु० २९.६५ समीप एक महल के पास आकाश से उतरकर विश्राम किया था। सप्तप्रकृति-(१) राजा को सात प्रकृतियाँ । वे हैं-स्वामी, मन्त्री, देश, पपु० ८.२४-२८ कोष, दण्ड, गढ और मित्र । मपु० ६८.७२ सन्नीरा-भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड की एक नदी । दिग्विजय के समय (२) सात प्रकृतियाँ-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ भरतेश ने ससैन्य यहाँ पड़ाव डाला था। मपु० २९.८६ तथा मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । इनके सम्मति-(१) प्रतिश्रुति कुलकर का पुत्र दूसरा कुलकर । इनकी आयु क्षय से क्षायिक और उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। अमम-काल के बराबर संख्यात वर्षों की थी। शरीर एक हजार तीन मपु० ६२.३१७ सौ धनुष ऊँचा था । इनके समय में ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की प्रभा ____सप्तभंगी-सात भंगों का समूह । वे सात भंग इस प्रकार है-स्यादस्ति, मन्द पड़ गई थी। आकाश में सूर्य चन्द्र तारे और नक्षत्र दिखाई स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यावस्तिमवक्तव्य, स्था ५४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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